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जीवन सँध्या

मानव दुनिया में शक्तिशाली और अति बुद्धिमान प्राणी माना जाता है, परन्तु जब बात उम्र की आती, तो यह भी स्वीकार किया गया कि हर दिन क्षीण होती शक्ति, उसे कमजोरी का भी अहसास कराती है। ऊपरी सतह पर ये बात बिल्कुल सही लगती पर विवेचना करने से, यह भी आभाष किया जा सकता है कि बढ़ती उम्र सिर्फ शारीरिक और मानसिक कमजोरी का एकमात्र कारण हो सकती पर उतनी नुकासानदायक नहीं जितना हमारा स्वयं का चिंतन उसे प्रभावित करता है। उम्र कोई अफसोस नहीं, जिसपर रोया जाय, जहां मृत्यु एक भविष्य की सच्चाई है, वहां जीने का अहसास उससे बड़ी वर्तमान की सच्चाई है और वर्तमान की सच्चाई ही जीवन है।

आइये, जान लेते है, जवानी जिसे हम अंग्रेजी में Youth कहते है, आखिर क्या है ? जिस के आने पर जीवन इतराता है।अगर हम शरीर विज्ञान के अंतर्गत परिभाषित करे तो यह 18 साल से 25 साल का वो समय है, जब हमारे शरीर में कई तरह के ऐसे परिवर्तन आते जिससे हमारा जोश भी होश खो देता। कई तरह की क्षमताओं के विकास के साथ हमारे शरीर को कांतिमय करने वाले तत्व सक्रिय हो जाते। विशुद्ध अर्थ में, युवावस्था शब्द लैटिन शब्द प्यूबरेटम (puberatum) परिपक्वता, मर्दानगी की उम्र से तालुकात रखता। हकीकत में यह किशोर के सामाजिक और मानसिक विकास से ज्यादा यौन परिपक्वता के शारीरिक परिवर्तनों से संबधित है।

चूंकि हम इस लेख में हमारी ढलती उम्र यानी जीवन संध्या के बारे में चिंतन कर रहे है, तो यह समझना सही होगा की इसकी विपरीत अवस्था ही जीवन संध्या की शुरुवात है। कह सकते है, समुंदर के ज्वार भाटे की तरह जीवन की प्रक्रिया होती है, उत्थान के बाद पतन। यानी यौवन उम्र की उत्थान प्रक्रिया है तो जीवन संध्या यानी बुढ़ापा, यौवन की क्रमवार पत्न क्रिया और उसके बाद शान्ति या शरीर का शांत हो जाना, स्पष्ट शब्दों में हम उसे "मौत" या फिर मृत्यु कहते है ।

इंसान में इच्छाओं की शुरुआत समझ पकड़ते ही शुरु हो जाती और अंत तक उसके साथ रहती और मानव मन और शरीर उसका सदा साथ देता पर जब जीवन संध्या के अहसास उसमें आने लगते तो उसे अपने शरीर की कई नकारात्मक परिवर्तन उसे अपने कम होते उत्साह का संकेत देने लगते। इन संकेतो का जब पूर्वाभास होना शुरू हो तभी से हम अगर जीवन को सन्तुलित हर क्षेत्र में करने लगे तो शायद हम जिंदगी का अंतिम प्रहर यानी जीवन संध्या का सही आनन्द ले सकते है।

अब जरा हम यह भी जान ले हमारा यहां जीवन संध्या से क्या तात्प्रर्य है, जी हां, आपने सही समझा हम उम्र के अंतिम पड़ाव बुढ़ापे की ही बात कर रहे। बुढ़ापा का हर इंसान के जीवन में आना, जन्म के साथ ही तय हो जाता अगर वो भरपूर उम्र की तरफ अग्रसर होता है। चूँकि यह जीवन की सहज क्रिया है, अतः इसे सहजता से लेने पर, ये बीते जीवन का सुंदर सम्पादन का कार्य करता, क्योंकि विचारों में अनुभवों से परिपक्वता आ जाती। किसी भी हालात में नकारत्मक्ता से बच कर सुंदर जीवन का इस उम्र में सही महत्व समझा जा सकता है। प्रकृति नियम यही हमें बताता जिसका उदय हुआ उसका अस्त होना भी जरूरी है। सूर्योदय से सूर्य अस्त तक के कार्यक्रमों पर हम नजर डाले तो पाएँगे, शाम का समय हमें काफी राहत देता है, चिंतन होता, चलो अब कुछ आराम करने के लिए समय मिलेगा। शरीर की चेतनाओं को भी राहत की जरुरत होती, इस तथ्य से भला कैसे इंकार कर सकते है। हमे अपनी जीवन सन्ध्या को भी अगर आकर्षक रखना है, तो इस तथ्य को समझ लेना चाहिए कि ये किसी अंत की घोषणा नहीं, अपितु यात्रा के अंतिम पड़ाव में इधर उधर बिखरे समान को व्यस्तित करने का समय है। यात्रा का उद्धेश्य आनन्दमय हो, मंजिल पर पंहुचना ही होता, अगर हम जीवन को यात्रा समझते है, तो।

आखिर इस काल में क्या कुछ ऐसा करे कि जीवन मुखरित हो उठे और हम किसी भी तरह के नकारात्मक चिंतन को समय ही नहीं दे पाये। तब हमें इस काल की प्रमुख कमी " स्वस्थ स्वास्थ्य" पर गौर करना होगा, जो हर किसी के जीवन की हर अवस्था के लिए सबसे ज्यादा जरूरी होता है। स्वस्थ रहना, बचपन से लेकर अंतिम समय तक की जरुरत होती, खासकर सन्ध्या काल में क्योंकि वो विशिष्ठ काल होता। हमें हर्बर्ट स्पेंसर के इस कथन पर विश्वास करना चाहिए जब उन्होंने कहा " The preservation of health is a duty. Few seem conscious that there is such a thing as physical morality."

शरीर विज्ञान हमें बताता है, कि हमारी देह भौतिक है, जो पांच तत्वों की प्रमुख परतों से पूर्ण हुई है। वो है, प्राणिक तत्व, श्वसन तत्व, मानसिक तत्व, बौद्धिक तत्व और परमानन्द तत्व। इनमें सभी में ऊर्जा की निरन्तरता रहती है। इनके भीतर की ऊर्जाओं की निरन्तरता सन्तुलित भोजन, योग व आनन्ददायक कर्म से ज्यादा सही रहती। उम्र का पड़ाव कोई भी हो हमें शरीर को जागृत और चैतन्य रखना पड़ेगा। शरीर के प्रति स्वयं की जिम्मेदारियों का पालन करने से हम यह कभी अनुभव नहीं करेंगे कि हम जीवन के किसी संध्या काल से गुजर रहे। : लेखक: कमल भंसाली

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