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मुँह को बंद रखना, मौन अब जरुरी है

शीर्षक: मुँह को बंद रखना, मौन अब जरुरी है

जीवन के क्षेत्र में मौन” और “खामोशी” दो शब्द ऐसे है, जिनका मतलब प्रायः एक जैसा होते हुए भी हटकर लगते है। खामोशी जहां वीराना और तन्हाई का रहस्यमय वातावरण महसूस कराता वहीं मौन में शांति का अतिरिक्त आभास होता है। मौन को योगिक तत्व भी माना गया है। आत्मिक उत्थान में मौन का सहयोग धर्म शास्त्रों ने भी स्वीकार किया है। आज हम मौन और खामोशी की अनुसन्धानत्मक चर्चा जीवन की समस्याओं के तहत करेंगे जिससे हम अपने व्यक्तित्व को विपरीत अवस्था में भी प्रखर रखने की कला से अनभिज्ञ न रहें।

संसार और मानव एक दूसरे के पूरक होते हुए भी सब जगह एक दूसरे का साथ नहीं निभा सकते क्योंकि अनगनित विचारों में समान समावेश कभी नहीं हो सकता। संसार रिश्तों और सम्बन्ध से जुड़ा है, उसका अपना नियम शास्त्र है, जो नैतिकता के सूत्रो से धनाढ्य भी है, पर नकारत्मकता की धूरी पर ज्यादातर घूमने से रिश्तों में तनाव की स्थिति अनुसार अशांति का वातावरण तैयार करता रहता है। ऐसे समय मौन और खामोशी ही बिगड़ती स्थिति को संभाल सकते है। यह कहना गलत न होगा कि उनकी भूमिका में सकारत्मक ऊर्जा रहती है और नकारत्मक्ता के वातावरण से कुछ समय के लिए हमें उस से दूर रहनें को राजी कर लेती है।

“खामोशी” एक शांत, ठंडा और रहस्यमय शब्द ही नहीं एक ऐसा अहसास है, जिसमे हजारों तरह की शंकाए समाहित रहती है। कहते है एक खामोशी अनगनित सवालो का जबाब होती है। खामोशी का सबसे खूबसूरत पहलू इसका मौन स्वभाव है, जिससे मानव आत्मा शायद इसे सबसे ज्यादा पसन्द करती है, क्यों कि ये उसे अनचाहे झूठ का प्रयोग करने से बचाती है। हमारा मकसद खामोशी से परिचय करने का इसलिए जरुरी हो जाता है कि आज का जीवन पल पल में समस्याओं से आक्रांत हो अपने व्यक्तित्व को कमजोर कर, हमें शारीरिक और मानसिक रुग्णता का अहसास कम उम्र से ही कराना शुरु कर देता है।

जीवन की विडम्बना है, इसकी अति भोगवादी प्रवृति और सुख साधनों की तलाश करती रहती है, परन्तु इसका अर्थ ये नहीं जीवन अपनी इस कमजोरी के प्रति जागरुकता नहीं रखता। उसकी गतिशीलता से ही हमें ये समझ में आ जाना चाहिए कि जीवन हमें बार बार संयम का अवरोधक प्रयोग करने का संकेत देता रहता है। प्राणी मात्र में सब तरह की शक्तियों का सन्तुलित अंश होता है, जिससे जीवन सम्बंधित हर कार्य- कलाप को पूर्णता प्राप्त हो और उस की गतिशीलता में कोई रुकावट न हो। वैसे शरीर का प्रत्येक अंग का अपना महत्व है, परन्तु हमारी जीभ या जिसे हम जिह्हा भी कहते है, के बिना शरीर की हर चंचलता को कायम नहीं रखा जा सकता। उदर पूर्ति का मुख्य साधन यही है, परन्तु हमारे हर अहसास को कर्म के दर्शन और परिचय की जिम्मेदारी भी इसकी है।

खामोशी कहीं लहजे में सक्षमता की आंतरिकता की साक्ष्य हो सकती है, पर,पूर्ण समाधान का साधन नहीं माना जा सकता, इसलिए स्थान और स्थिति के अनुसार खामोश रहना सही है। हर जगह खामोश रहना भी गलत साबित होता और अनचाहे परिणाम भी इससे जीवन में आ सकते है।

सवाल किया जा सकता है कि क्या खामोश रहना स्वभाव को जन्म से प्राप्त तत्व है ? या वातावरण से उपजी कोई स्वभाविक शारीरिक क्रिया है। अगर मनोविज्ञान या शरीर विज्ञान की बात करे तो यह तय है कि जन्म से इसका कोई ताल्लुकात नहीं है, यह स्वभाव की सभाविक क्रिया ही मानी जानी चाहिए जिसके अंतर्गत परिस्थितियों अनुरूप खामोशी का उपयोग इंसान द्वारा किसी प्रश्न के अंतर्गत उसके उत्तर से बचना होता है, यानी यह एक रक्षात्मक अस्त्र के रुप में इसका प्रयोग किया जा सकता है। ओशो ने जीवन दर्शन पर बहुत कुछ कहा उनके अनुसार “अगर हम सब शब्दों में जिएं तो सब अलग – अलग है। और अगर हम मौन में जिएं तो हम सब एक है। भाषा तोड़ती है, मौन जोड़ता है”।

आइये हम खामोशी का आगे और मनोवैज्ञानिक अध्ययन करे, उससे पहले उसके शुरुवाती शाब्दिक परिचय से अवगत होनें की कोशिश करते है। खामोशी चूँकि हिंदी शब्द है, अतः उसके पर्याय की जानकारी यहां उचित होगी। खामोशी यानी चुपी, शांति, मौंन, निशब्द आदी पर गौर करने की बात है कि खामोशी का पर्याय शांति माना गया है, अतः अगर हमें जीवन को शांतमय वातावरण में जीना है, तो बहुत सी समस्याओं का उपचार खामोशी के द्वारा उचित होगा। इंग्लिश भाषा में इसके लिए सही प्रयुक्त शब्द “SILENCE” है, उसका उचित उपयोग हमें बहुत सी महत्वपूर्ण जगहों पर दृष्टिगत होता भी है, जैसे अस्पताल की दीवारों पर जहां इंसान अपने दर्द को खामोशी से सहन करता है। क्योंकि कहा भी गया है ” A Meaningful silence is always better than a Meaningless words. खामोशी को इंग्लिश में “HUSH, SPEEECHLESLY, MUTELY, SILENTLY, TACITURNLY, WORDLESSLY भी कहा जाता है।

भारतीय दर्शन शास्त्रों ने मौंन को आत्म-नीति निर्धारक तत्व माना है, क्योंकि इसमें चिंतन की क्रिया प्रभावकारी ढंग से अपना वर्चस्व प्रदान करती है। “मौंन सर्वथे साधकम् ” यानी वाचालता विनाशक है। मौन में बड़े गुण है, पंचतन्त्र में भी कहा गया ‘मौंन सर्वार्थसाधनम’ यानी मौन सारे काम बना देता है।

शरीर की विभिन्न क्रियाओं पर मौन का प्रभाव व्यापक होता है, क्योंकि शब्दों के गलत इस्तेमाल से आदमी हैरान और परेशान रहता है। सच का सामना न करनेवालों के लिए मौन सुरक्षात्मक उपाय है। उम्र के अंतिम पड़ाव में भारी होती साँसों को राहत दे, अपने कर्मों का मूल्यांकन कर, अल्प प्राप्त समय का सदुपयोग सहयोगी भी है। राजनीति शास्त्र में मौन को कुटिलता भरा प्रभावकारी अस्त्र माना जाता है । भारत के नोवें प्रधानमंत्री स्व. श्री पामुलपति वेंकट नरसिंह राव मौनी बाबा के नाम से मशहूर थे, उनकी इस क्षमता से उनके सहयोगी और विरोधी दोनों ही घबराते थे। ये उनके व्यक्तित्व का सबसे सक्षम गुण था, जिसका उपयोग उन्होंने बड़ी बेखूबी से किया। चाणक्य की चुप्पी में कुटिलता का आज भी उदाहरण दिया जाता है।

इन्सान की फितरत होती है वो सही समय, खामोश या मौन कम ही रहता है, और गलत समय, गलत शब्दों का प्रयोग भी करता है। इस तरह की स्थिति से वो सामाजिक प्राणी के रुप में मानव विरोधी कार्य को अंजाम भी देता है, जो आत्मिक और धार्मिक दृष्टिकोण से कहीं भी उचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि समाज और देश में इससे तनाव का वातावरण तैयार होता है, जो किसी का भला नहीं करता है, न स्वयं का भी। अतः इस स्थिति से बचने के लिए हमें खामोशी को अपने जीवन में उचित जगह प्रदान करनी चाहिए। विनोबा भावे ने मौन और खामोशी को आत्मा का संरक्षक माना है, क्योंकि मौन एक योगिक क्रिया भी है।

हमारा मन चंचल हो जब उपद्रव करता है तो मौन द्वारा ही उसका सही उपचार किया जा सकता है, क्योंकि मौन से मन की चंचलता की मौत हो जाती है और आत्मा की शक्ति बढ़ जाती है। हम अपने ही जीवन काल बीते समय पर गौर करे तो स्पष्ट हो जाएगा कि हमने काफी समय व्यर्थ की बहसों में गुजारा है और उससे हमें हासिल सिर्फ तनाव जिससे हम मानसिक ताप, चिंता और ब्लड प्रेशर, ह्र्दय रोग, या डायबिटीज जैसे खतरनाक रोगों का सानिध्य प्राप्त हुआ। मौन को विभिन्न धर्म शास्त्रों और उनके पंथो ने पूर्ण सहमति प्रदान की है । इसे आत्मिक उन्नति का साधन भी माना है, जैन धर्म की पूरी धुरी इसी तत्व पर घूमती है क्योंकि मौन से वातावरण अहिंसक हो जाता है । उनके ग्रन्थों के अनुसार इसके प्रयोग से मन अपनी चंचलता तो खोता है पर आत्मिक ध्यान द्वारा मानव मोक्ष प्राप्ति की और अग्रसर हो सकता है । न बोलने से अनुचित शब्दों के प्रयोग के अलावा वातावरण में उड़ने वाले सूक्ष्म जीवों की हत्या से बचा जा सकता है। अहिंसा में विश्वास करने वाला जैन धर्म मौन को अंतरात्मा की शक्ति को मजबूत करने का साधन बताता है, जो सही भी लगता है।

आज के आर्थिक युग में जब जीवन विपरीत परिस्थितयों से जूझ रहा होता तब पीड़ित मनुष्य सबसे पहले अपने रिश्तेदारों और सम्बंधियों से उपेक्षित होकर निराशा के अंधेरों में भटक जाता है। उसकी सही बात को भी वो लोग झूठ मानने लगते है और अविश्वास करने लगते है। ऐसे समय में ऐसे इंसान को यही सही सलाह होगी वो खामोशी का सहारा लेकर अपनी इस स्थिति से सक्षमता पूर्ण संघर्ष करे। Mandy Hale की सलाह है, कहते है समय बदलते देरी नहीं करता और सारे सम्बनधों को अपनी उसके प्रति चिंतनधारा को बदलना स्वत् जरुरी हो जाएगा। हकीकत यह कहती है कठिन समय में ही अपनों की पहचान होती है, नहीं तो वो सजावटी समान की तरह होते है क्योंकि सामाजिक प्राणी मनुष्य की यह सामजिक लाचारी होती है। अतः इस सजावट को बनाये रखने के लिए कठिन परिस्थितयों में खामोशी का जरूरत अनुसार उपयोग करना चाहिए।

अगर नीति शास्त्र के अनुसार इस सन्दर्भ में बात करे तो हर वस्तु और गुण का दूसरा पहलू भी होता है जो उसका नकारत्मक प्रभाव होता है। अतः मौन और खामोशी का उपयोग सही समयानुसार परिस्थितियों के अनुरूप किया जाता है, तो निसन्देह यह शक्ति प्रदाता है अन्यथा यह आंतरिक कमजोरी भी साबित कर सकता है। हम यह सदा ध्यान रखें कि अन्याय करना जितना बुरा है उससे ज्यादा उसको सहन करना भी। ऐसी अवस्था खामोश या मौन रहकर अपने कमजोर व्यक्तित्व का परिचय न देना ही श्रेयस्कर होगा, समय की इस उचित मांगः पर हमें जरूर गौर करना चाहिए।

"In the End, we will remember not the words of our enemies, but the silene of our friends. The ultimate tragedy is not the oppression and cruelty by the bad people but the silence over that by the good people. Martin Luther King Jr."

सबसे ज्यादा फायदा, खामोश वातावरण का, धरा पर रहनेवाले हर प्राणी को होता है। शोर पर्यावरण का पहला नकारत्मक पहलू है, आज सारा विश्व इंसानी ऑर तकनीकी यंत्रो के शोर से भयभीत है। शरीर, मन और आत्मा पर बदलते परिवेश की बदमिजाजी का कहर बढ़ रहा है। अति स्वार्थमय प्राणी वातावरण को अपनी नाजायज हरकतों से भले ही दूषित करे पर जीवन तो उसका स्वयं का ही खतरे का आभास बीमारियों द्वारा तो जरूर करता रहेगा। दोस्तों संभलना जरूरी है, वातावरण को खामोशी दीजिये और अपने आप को ज्यादा संयमित बना मौन का सकारत्मक प्रयोग रोज कीजिये। शायद इससे हमारी भविष्यत जिंदगी कुछ सुंदर और शुकून भरी हो जाये। याद कीजिये वातावरण के दुष्परिणाम पर बनी मनोज कुमार की फ़िल्म ” शोर” और उसके इस गाने की ये पंक्तिया:
कुछ पाकर खोना है कुछ खोकर पाना है
जीवन का मतलब तो आना और जाना है
दो पल के जीवन से एक उम्र चुरानी है
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खामोशी और मौन से ही अब जिंदगी सजानी है।

इस कोरोना काल में हमारे मुंह पर लगी पट्टी जिसे हम इंग्लिश में मास्क कहते है, समझा रही लगती, मुँह को बिना जरुरत के ज्यादा खोलना, गलत विषाणुओं को शरीर, मन और आत्मा में प्रवेश हो सकता है, जिससे हमारा अस्तित्व तक खतरे में पड़ सकता है, यानी सुरक्षा हटी, दुर्घटना हुई।
…………..लेखक कमल भंसाली…………

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