शीर्षक : चित और तन= चिंतन
शरीर और आत्मा जीवन के प्रारम्भिक से अंतिम अवस्था के मुख्य तत्व है, दोनों के बिना जीवन का अस्तित्व दुर्लभ होता है। स्वभाविक अवस्था से जीने वाले जीवन को आज दुनिया की गति के अनुसार जीना पड़ता है। पता नही यह उसकी खुशकिस्मती है या बदनसीबी, पर अंत में इस हकीकत को स्वीकार करके ही जीने का अंतिम मार्ग तय करना पड़ता है, कि वर्तमान को स्वीकार कर आगे बढ़े।
इस सच्चाई को स्वीकार करने के अलावा मानव के पास आज दूसरा विकल्प भी नहीं है। परन्तु आत्मा ही जीवन का सच है, यही एक सत्य जो हर कोई जानता है, पर समझने से कतराता है, यह बात और है, आज का मानव यथार्थवादी से ज्यादा काल्पनिक हो रहा है। आत्मा से ज्यादा वो मन की उड़ान को महत्व दे रहा है। मन की मां शरीर है और पिता मस्तिष्क है। कहते है ' इन्सान परिस्थितियों का दास है' परन्तु समय की गति के साथ मानव मस्तिष्क का तालमेल भी दाद के काबिल है, और उसने इसके दूसरे पहलू को समझा की 'इंसान में क्षमता है वो नई परिस्थितियों का स्वयं भी निर्माण कर सकता है'। यह और बात है उसकी ध्वंस निर्माण करने वाली प्रवृतिया उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को कमजोर कर मन को सही पथ से भटका रही है।
मानव के विलक्षण दिमाग में समय की कमी और सुख के अधिक साधनों के उपयोग करने के चिंतन ने अपना पूर्ण अधिपत्य स्थापित प्रायः प्रायः कर लिया। इसका नतीजा यह है कि शरीर भौतिकता का गुलाम बन रहा है और हम उन प्रार्थित तत्वों से दूर हो रहे है, जिनसे सुख से ज्यादा चित्त या आत्मा को आनन्द की अनुभूति हो, यह जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना है। बात जब चित्त की आ गई तो हमारा फर्ज बनता है हम जीवन में चित्त की भूमिका पर एक सरसरी नजर डाल ही लेते है। सबसे पहले यह जान लेना जरुरी है आखिर "चित्त" क्या है ?
"चित्त" एक संस्कृत शब्द है जो हमारे मस्तिष्क के चिंतन से जुड़ा है ।अतः चित्त को ज्यादातर आत्मा की स्थिति के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। चूंकि इसका भौतिक क्रियाओं से मन के साथ आंतरिक सम्पर्क घटता बढ़ता रहता है अतः इसे चंचल, चितचोर जैसे अलंकारों से भी सजाया जाता है। हर धार्मिक गतिविधियां और मीमांसा की निशानदेही पर यह रहता है। चूँकि हम यहां चित्त को हमारी जीवन शैली के अंतर्गत ही समझने की कोशिश करेंगे तो इस चिंतन को थोडा विस्तृत कर लेते है। चित्त यानी आत्मा, शरीर, मन और "मस्तिष्क की संयुक्त शक्ति'। इसमे संज्ञान, धारणा, अनुभव, मूर्त एवं अमूर्त विचार, भावनाएं, सुख-दुःख की अनुभूति, ध्यान, एकाग्रता और बुद्धि इत्यादि अर्थ समाविष्ट है। यानी इस शब्द में हमारी सब मानसिक गतिविधिया निर्दिष्ट है।
जीवन का सार समझकर न समझना हमारी सबसे बड़ी कमजोरी होती है और इससे हमारे मन की मानसिकता जो हमारे जीवन में झलकती है वो हमें साधारण इंसान की श्रेणी में स्थापित कर देती है। मन की भी भूमि होती है जिसे हम चित्त भूमि कहते है। चित्त भूमि का अर्थ यानी योग के समय चित्त की भिन्न भिन्न वृतियां और चित्त की सहज स्वाभाविक अवस्था। योग शास्त्र की बात माने तो पांच चित्त भूमियाँ मानी गई है- क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध। हम माने या न माने अंत यात्रा में जीव विज्ञान के प्रयोग, चित्त को स्वस्थ और स्वच्छ रखता है। चित्त की परिष्कृति, जीवन की सक्षमता और समर्थता की वृद्धि करते है। संक्षिप्त में हमें यह समझना जरूरी है कि आधुनिक विज्ञान हमें साधन तो बहुत दे सकता है पर जीवन को इतना आरामदायक व सुविधाओं का आदी भी कर देता है कि जिससे हमें सिर्फ शरीर व मन की आवश्यकताओं की ही आवाज सुनायी दे। वो चित्त को कमजोर कर उसे इतना असहाय कर देता कि जीवन अपना मूल्यांकन करना भी छोड़ देता है।
समझे या न समझे, जाने या न जाने पर सत्य की महिमा से परिचित मानव जानता है कि चित्त के सामर्थ्य व क्षमताओं से ही हमारा जीवन क्षमतावान और समर्थ जीवन बन सकता है। इस वर्तमान जीवन को अगर इंसान आत्मनिरीक्षण से दूर रखता तब जीवन उन्हें अपनी कोई कीमत नहीं आंकने देता, यह जीवन की विडंबना ही लगती है। आत्मनिरीक्षण की साधना करने से आत्मदृष्टि की संपन्नता बढ़ जाती है और जीवन अपनी कई आश्चर्यचकित करने वाली क्षमताओं का संज्ञान कर लेता है और एक अद्भुत जीवन का हकदार बन जाता है।
हम और इस संदर्भ में आगे बढ़े उससे पहले हम इतना ही समझ जाये सादगीपूर्ण और संयमित जीवन चित्त को समझने की प्रथम क्रिया है। यह भी मान सकते है कि "स्वयं को अंदर से समझना ही चित्त- यात्रा का पहला पावदान है"। गुरु, धर्म शास्त्र और ज्ञानी माता पिता से बने संस्कार शरीर और मन दोनों का संयमन कर जीवन को प्रसन्न व स्वस्थ रख सकते है, क्योंकि इससे चित्त की अंतर्मुखी दृष्टि तेज और चमत्कारी होती है। अज्ञान, अंहकार, ईष्या, हिंसा, असत्य का सहारा, लालसा, अति मौह, वासना आदि स्वयं निर्मित इंसानी अवगुणों की रोक थाम या सीमितता एक सक्षम चित्त ही कर सकता है ।
जीवन जीना और प्रसन्न चित्त हो जीने में फर्क होता है, यही समझदारी पूर्ण चिंतन चित्त की पहली जरुरत है, इस पर गौर करना हमें सीखना चाहिए क्योंकि प्रसन्नता ही हर आत्मा की आवाज ही नहीं अंतिम चाहत होती है। पश्चिमी मनोविज्ञान की धारणा है व्यकित व व्यकितत्व का आंकलन उसके व्यवहार से होता है और उसके आगे उसकी आदतों से, पर भारतीय दर्शन का मानना है इसे संस्कार के रुप से परिभाषित किया जाना सही है, क्योंकि इसमें चित्त समाहित रहता है, जिसमें स्वयं सुधार की गुंजाइस रहती है।
लेखक** कमल भंसाली