जीवन ऊट पटाँगा - 12 - नौसीखियों की डेटिंग्स Neelam Kulshreshtha द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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जीवन ऊट पटाँगा - 12 - नौसीखियों की डेटिंग्स

नौसीखियों की डेटिंग्स

नीलम कुलश्रेष्ठ

“मम्मी ! पापा से कहिये हमें बाइक दिलवा दें ।”

“क्यों ऐसी क्या जल्दी हो रही है ? स्कूटर तो ठीक चल रहा है ?”

बड़ा हाथ आगे करके बाइक पर बैठे होने का अभिनय करता है, “मम्मी ! आजकल लड़कियाँ बाइक पर घूमना पसंद करती हैं ।”

“क्या कह रहा है?” न चाहते हुए भी मेरे चेहरे की भौहें आश्चर्य से फैल जाती हैं ।

“आप छोटे से पूछ लीजिये ।”

“अभी बताती हूँ शैतान, ज़रा सी उम्र में लड़कियों को लेकर बाइक पर घुमायेगा ?” मैं उसकी पीठ पर लाड़ भरा घूंसा मारने की कोशिश करती हूँ वह छिटक कर दूर खड़ा होकर हंसने लगता है ।

वह जानबूझ कर भावुक सी आवाज बनाकर कहता है, “आप क्या हमें अभी भी बच्चा समझती हैं ? आप को पता नहीं हम उम्र के उस दौर से गुजर रहे हैं, जब माँ के प्यार के साथ हमें किसी और की ‘फ़्रेंडशिप’ भी चाहिये ।”

(शायद अपने ज़माने में जो सूनापन मन को घेरे रहता था वह इसी कारण होगा)

“किसकी ? तेरे ब्वॉयफ़्रेंड हैं तो सही ।”

“उन लोगों से क्या हुआ ? मैं तो ‘गर्लफ़्रेंडस’ की बात कर रहा था।”

“तुझे अपनी माँ से ऐसी बातें करते शर्म नहीं आ रही है ?”

“शर्म की क्या बात है ? दिस इज़ ए नेचुरल मोड ऑफ़ लाइफ़ ।”

छोटा हल्का गुर्राते हुए कहता है जैसा कि तुला राशि के लोग अक्सर बात करते हुए बीच बीच में ‘टोन्ट’ मारते हुए हल्का सा गुर्राते हैं, “ वैसे तो आप पहले कहती थीं हम लोगों के साथ ‘फ़्रेंडस ’ की तरह रहो। लड़कियों से दोस्ती हो तो बता दिया करना । भैया जब बता रहा है तो ‘ट्रेडीशनल’ बन रही हैं ।”

“हे भगवान् ! मैं कौन से खाते में हूँ आधुनिक या परंपरागत ?”

मेरे सिर पर पहली गाज जब गिरी थी जब बड़े अपने भाई होने का फर्ज़ निबाहने छोटे की दसवीं कक्षा की कोचिंग क्लास में उनकी प्रगति की पूछताछ करने गये थे । दोनों साथ लौटे तो बड़े क्रोधित थे, “मम्मी ! मैंने अपनी आँखों से देखा है इसने अपनी सीट पर बैठे बैठे अपनी पीछे बैठी लड़की की चोटी खींच दी ।”

छोटा आँखें निकाल कर चिढ़कर कहता है, “खींचूंगा नहीं? सर क्लास में पढ़ा रहे होते हैं रोज वो पीछे से मेरी शर्ट खींचती है, कभी मेरे बाल । आज मैंने हिसाब बराबर कर दिया ।”

“मम्मी ! मैंने पता लगाया है ये छः सात लड़कियों का ग्रुप क्लास के बाद आधा-पौन घंटा गप्पे मारता रहता है ।”

छोटे का चेहरा हल्का लाल पड़ जाता है, “वो मम्मी ! लड़कियाँ पीछा ही नहीं छोड़ती, 'चकर, चकर' बातें ही करती रहती हैं । भैया भी एक दिन अकेले में मुझसे कह रहा था कि यार ! तू लकी है जो तुझे टेन्थ कोचिंग में ही इतनी फ़्रेंक लड़कियाँ मिल गईं ।”

अब बड़े झेंपते हैं, “मैं कब कह रहा था ?”

“देख, झूठ मत बोल ।”

छोटे को समझा बुझाकर ऐसे पढ़ाई के चरम समय में वक्त बर्बाद करने से रोक लिया जाता है । अब तो उनकी बारहवीं कक्षा की फ़ेयरवेल पार्टी है । वह कुछ सकुचाया सा लौटता है , “मम्मी ! ये ‘गिफ़्ट’ मिली है ।”

“गिफ़्ट ?” उसके हाथ में मध्यम आकार का पैकेट देखकर मैं हैरान हूँ ।

“ ‘इलेवन्थ’ वालों ने दी है ? बड़ा खर्च किया है ।”

“ नहीं, एक ‘इलेवन्थ’ की लड़की ने हम तीनों दोस्तों को दी है ।”

“तूने कभी नहीं बताया कि इस क्लास में भी तेरी दोस्त है ।”

“ मम्मी ! वह दोस्त नहीं है बस आते जाते ‘हाय’ हो जाती थी ।”

मैं जल्दी-जल्दी पैकेट खोलती हूँ एक शो पीस है, एक पेन, एक ग्रीटिंग कार्ड है जिस पर लिखा है, ‘टू डीयरेस्ट एस. ।’

मैं हड़बड़ा कर पूछती हूँ, “‘डीयरेस्ट’ क्यों लिखा है ? तेरी क्या ‘क्लोज़ फ्रेंड’ है ।”

वह स्वयं हैरान है, “नहीं मम्मी ! मैं सच कह रहा हूँ मेरी वह इतनी ‘क्लोज़’ नहीं है ।”

मैं मन ही मन हिसाब लगाती हूँ एक लड़के को सौ पचास रुपये का उपहार तो तीन को तीन सौ रुपये का । उस ज़रा सी लड़की ने ऐसे ही तो रुपये नहीं फूंक डाले होंगे ।

मैं दूसरे दिन बेटे की अनुपस्थिति में हर्ष की मम्मी को फोन मिलाती हूँ, “ कोई प्रेमा लड़की ने इन तीनों दोस्तों को ‘गिफ़्ट’ दी हैं हर्ष के ग्रीटिंग पर क्या लिखा है ?”

“ ‘डीयरेस्ट एच’ । पहले मैं भी आपकी तरह घबरा गई थी । संदीप को भी उसने ‘डीयरेस्ट’ लिखा है ।”

अब जाकर मेरी जान में जान आती है । बारहवीं कक्षा में ही अगर बेटे किसी के ‘डीयरेस्ट’ हो गये तो उनके कैरियर का क्या होगा ? इनके पापा जो बड़ौदा में शादी से पहले ही रह रहे हैं एकांत मिलते ही हंसकर कहते हैं, “मैंने तो तुम्हें शादी के बाद ही बता दिया था कि बड़ौदा इज़ ए बैचलर्स पैराडाइज़ हा...हा...हा...।”

मैं ही तो तब कुढ़ कुढ़ कर कोयला होती रही थी उन्होंने कितने ही बरस इसी पैराडाइज़ में गुज़ारे हैं वो भी कुंआरे ।

स्थानीय विश्वविद्यालय के परीक्षा परिणाम अखबारों की मुख्य लाइनें बने अभी से दिल बहलाते रहते हैं, बी.एस.सी. का परिणाम बाईस प्रतिशत । जब 'वेलन्टाइन डे ' या 'रोज़ डे ' पर ‘मेनीक्योर’ किये हाथ लाल, पीले, सफेद गुलाब बढ़ा रहे हो, ‘ फ़्रेंडशिप डे’ पर ‘पेडीक्योर’ किये पैर स्वयं चलकर ‘फ़्रेंडशिप कार्ड’ दे रहे हो, ‘वैजिटेबिल डे’ पर संकाय सचिव बाकायदा ब्लैक बोर्ड पर ‘टिप्स’ लिख देते हैं कि कौन सी सब्ज़ी देने पर क्या भावना रहती है मसलन किसी को लाल मिर्च दो तो वह प्रेम का प्रतीक है, जैसे कि ‘वेलेन्टाइन डे’ पर दी जाने वाली अलग नाम वाली चॉकलेट्स के अलग अलग कोड होते हैं । ‘प्रपोज़ल डे, जीन्स डे, म्यूज़ीकल नाइट्स, केम्प फ़ायर’ में तेज संगीत पर भौहों को प्लक किये ‘ फ़ेशियल’ कराये सुंदर चेहरे हो तो कौन कमबख़्त प्रयोगशाला में सड़े अंडे जैसी बदबू वाली एच.टू.एस. गैस सूंघेगा ? कौन भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में ‘स्पेक्ट्रम’ प्रकाश किरण को सात रंगो में विभाजित होते देखना चाहेगा जब विश्वविद्यालय परिसर में सरसराते, लहराते रंग बिखरे हों ऐसे माहौल में जो उच्च अंको से पास होते हैं वो वास्तव में पूर्व जन्म में ऋषि मुनि रहे होंगे (विश्वामित्र टाइप नहीं)। दस रुपये से सौ रुपये तक सिर्फ ग्रीटिंग्स पर बिगाड़ती इस पीढ़ी पर कैसे और कौन सी लगाम कसी जाये समझ पाना भी मुमकिन नहीं है ।

बड़े के जीवन में भी बहार आ जाती है, वह पंद्रह दिन का ‘पर्सनेलिटी डेवलपमेंट कोर्स’ में दाखिला ले लेते हैं । सुबह से शाम तक कसकर मेहनत व ढेर सी गप्प़बाज़ी । अब उनके भी चकराने की बारी है, “मम्मी ! आजकल की लड़कियां कितनी बेशर्म हैं ।”

“क्यों क्या हुआ ?”

“हमारे इंस्टीट्यूट का ‘पैरेन्ट्स डे’ होने वाला है । आपको भी बुलायेंगे जिससे आपको पता लगे उन्होंने क्या सिखाया है ।”

“वो आठ दिन में ही तू बदल गया है लेकिन लड़कियों वाली क्या बात थी?”

“वो हमसे कह रही थी कि वो दो लड़कियां मेरे व अजीत के साथ स्किट करेंगी ।”

“अजित कौन?”

“वो पंजाबी लड़का जो शनिवार को घर आया था ।”

“ओ, हाँ ।”

“उस स्किट में हम दोनों को उन लड़कियों के पीछे ताली बजाते, फिल्मी गाना गाते हुए जाना था “लाइन मार ले, लाइन मार ले ।” स्टेज पर दो तीन चक्कर लगाने के बाद वो तंग होकर चॉक हमारे हाथ में रख देंगी और कहेंगी, “ले लाइन(रेखा) मार ले ।”

मुझे सच ही हंसी आ गई ।

“मम्मी! हमने तो उन्हें मना कर दिया कि ये ‘चीप स्किट’ हम नहीं करेंगे । हमारे ‘पेरेंट्स’ भी तो आयेंगे लेकिन वो लड़कियां खुद तैयार हो गई हैं । अपने पेरेंट्स के सामने हमारे पीछे ताली बजाती गाती गाती आएंगी, ‘लाइन मार ले, लाइन मार ले’।”

“सच !”

पेरेंट्स डे के दिन उस छोटे से हॉल में घोषणा होती है, “इन अ शॉर्ट व्हाइल ए हैंडसम पर्सनेलिटी विल बी कमिंग टू टेक रिसपॉन्सिबिलिटी ऑफ एनाउन्समेंट I” आँखों को विश्वास नहीं होता अपने ही लाड़ले सफेद बिन्दी वाली नीली टाई, पिस्ते रंग की कमीज व काली पेंट में 'हैंडसम 'टाइटिल से फूले चले आ रहे हैं !

फिर घोषणा होती है, “ए चार्मिंग एण्ड ब्यूटीफूल पर्सनेलिटी विल बी रिप्रिजेंट ऑवर इंस्टिट्यूट इन फ़ीमेल ।”

एक सुंदर लड़की दूसरा माइक संभाल लेती है । पास बैठा छोटा फुसफुसाता है, “ये मम्मी ! वो ही नकचढ़ी गुज़राती लड़की है जो इस कॉर्स के बाद कीनिया चली जायेगी । भैया बता रहा था कि ये किसी से ‘मिक्स’ नहीं होती ।”

(तो ओहो ! छोटे भी बड़ी की साथ वालियों का ब्यौरा अपने पास रखते हैं ।)

कार्यक्रम के खत्म होते ही बड़े पास आते हैं, “पापा-मम्मी ! आप लोग घर चलिये । हम लोगों का आख़िरी दिन है । हम लोग यहीं पार्टी 'सेलिब्रेट ' करेंगे ।”

मैं अपनी घड़ी पर नजर डालती हूँ साढ़े आठ बज चुके हैं । इस प्रदेश में यह पूछना तो बेकार है कि डेढ़ दो घंटे बाद जब ये लड़कियां घर जायेंगी तो क्या इनके मां बाप इन्हें डाटेंगे नहीं ?

बड़े को लड़कियां घेर लेती हैं, “वॉऊ ।”

“आज तो तू बहुत अच्छा बोला ।”

“वैलडन ।”

पाँच छः लड़कियों के बीच कृष्ण कन्हैया बने अपने बेटे को देखकर वह पहला अहसास होता है जो हर माँ को पहली बार होता होगा गया बेटा हाथ से । वो भी मंद मंद मुस्कुराते हमें देखते हुए बात किये जा रहे हैं । हम लोग विदा के लिये हाथ उठा देते हैं ।

स्कूटर इस रोशनियों से झकमकाते हुए इलाके से गुज़रता जा रहा है । बड़े ज़रूर इन रेस्तरांओं के मायाजाल से बच नहीं पाये होंगे । उसने कौन से रेस्तरां में कितना समय इनमें से कौन सी लड़की के साथ गुज़ारा होगा या नहीं-नहीं...नहीं...क्या पता ?

उस पर उसके समय का दूरदर्शन पूरी तरह हावी है । नहाकर निकलते हैं तो अलग स्प्रे की खुशबू, बाहर जा रहे हैं तो अलग तरह की खुशबू होती है, मुँह साबुन से नहीं ‘फ़ेस वॉश’ से धुल रहा है । मैं खीजती हूँ “तू इन चीजों पर इतना पैसा क्यों खर्च करता है ?”

“मम्मी ! अपने पॉकिट मनी में से लाते हैं, बाहर मैं कुछ खाता पीता नहीं हूँ । आजकल सबको ही ‘लेटेस्ट’ चीजें चाहिये । आपकी बाई भी तो कहती है बेन ! टिपका वाला घरी जोईए (बूंद वाला नील चाहिए)I” वह बाई की नकल उड़ाकर कहता है ।

अब इस तर्क को क्या जवाब दूं ? बदले में मैं ही मुंह पर फ़ेस वॉश मलने लगती हूँ । आइने में चेहरा देखती हूँ सच ही, चेहरे पर से एक काली पर्त उतर गई है ।

बड़ा और चढ़ाने की कोशिश करता है, “मैं कब से कह रहा हूँ आप “एज डिफ़ाइंग क्रीम” मुंह पर लगाना शुरू कर दीजिये । एकदम “यंग” दिखेंगी।”

“चुप कर ।”

वो चुप क्या होते हैं मेरी माँ के घर नाना नानी का चेहरा भी फ़ेस वॉश से धुलवाने लगते हैं । मामा मामी उनकी दी “आरेंज पील” लगाये बैठे हैं ।

वो महंगे सेंट, महंगे टेल्कम पाउडर से उन खुशबूओं से पति रात में सूनी  सड़क पर साथ में टहलते हुए हर चौथे दिन घबराते हैं व डाँटते हैं, “तुम्ही उसे पैसा बर्बाद करने के लिये देती हो ।”

“मेरे पास इतना पैसा कहाँ से आया ? अपनी पॉकिट मनी का पैसा इसी में खर्च करता है ।”

“पता नहीं क्या होगा इस लड़के का इतना शाही खर्च करता है अगर कोई मामूली नौकरी मिली तो कैसे गुज़र करेगा ?”

कुछ समय बाद एक प्रोफ़ेशनल कोर्स में अखिल भारतीय प्रतियोगिता में सफ़ल होकर अहमदाबाद दाखिला ले लेते हैं, तब हमारी साँस में साँस आती है । एक वर्ष बाद वड़ोदरा पांच सितारा होटल में छः महीने का प्रशिक्षण लेने आ जाते हैं । भारतीय महिला प्रगति भी इतना आगे पहुँच चुकी है इसलिये आसाम, बंगलौर और न जाने कहाँ-कहाँ की लड़कियाँ प्राइवेट कमरा किराये पर लेकर रहने लगती हैं । इतवार को किसी लड़की का फ़ोन आता है, “बोर हो रहे हैं तू आजा, दिल नहीं लग रहा ।”

(तो गोया लड़के भी अब दिल लगाने की चीज़ हो गये हैं ।)

बड़ा आलस मारता रहता है इतनी दूर कौन जायेगा ? एक दिन तो आराम करने को मिलता है ।

छोटे के लिये फ़ोन कॉल्स विश्वविद्यालय व कम्प्यूटर क्लासवालियों के आते रहते हैं । बड़ा पूरा ब्यौरा इकट्ठा करके सुनाता है, “मम्मी ! इसके ग्रुप की लड़कियाँ बहुत ‘क्यूट’ हैं । पढ़ने में भी तेज है । ‘नॉनवेज जोक्स’ भी खूब सुनाती रहती है ।” एक लड़की अधिक चिपक रही है । छोटा कन्नी काटता है तो कभी कभी विश्वविद्यालय घूमने आने वाले आते बड़े को वह भाई बना लेती है, घर पर फ़ोन पर बात भाई से शुरू होती है, उसकी वर्षगांठ पर उपहार भी दिये जाते हैं । भैया चिढ़ाते हैं, “जब मैं तेरा भाई हुआ तो छोटू भी तो तेरा भाई लगा ।”

वह ढिठाई से कहती है, “धत् ! हर लड़का कैसे भाई बन सकता है ।”

हम लोग उसके दिन के तीन चार फ़ोन से तंग हैं । एक इतवार को सुबह में उनके पापा फ़ोन उठा लेते हैं, इनकी' हलो' वह पहचान नहीं पाती । चहकती है, “हाय !”

ये मुलायम स्वर में मुँह पर ऊँगली रखकर मुझे इशारा करते हैं और कहते हैं, “हाय!”

उधर चटर चटर जारी है ये 'हाँ,' 'हूँ 'कर रहे हैं । ज़रूर मन ही मन ' बैचलर्स पेराडाइज 'के ज़माने को” याद कर रहे होंगे । फ़ोन रखने के बाद भी वह जान नहीं पाती कि वह छोटे से नहीं उनके पापा से बात कर रही थी ।

बड़े पाँच सितारा वातावरण में खूब मेहनत कर रहे हैं ,डूब भी रहे हैं एक दिन वह झिझकते से कहतें हैं , “मम्मी ! रिवाइवल होटल में डाँस पार्टी है मैं सुजया (असमिया) को वहाँ ले जाना चाहता हूँ ।”

मैं काठ हूँ क्या कहूँ ? न भी कर दूँ तो चुपचाप नाइट ड्यूटी का बहाना बनाकर जा सकते हैं । वैसे अच्छा है कि किसी के साथ नृत्य कर लें नहीं तो फ़िल्म में ऐसे दृश्य देखकर हम लोगों की तरह सोचा तो नहीं करेंगे कि ये कौन सी दुनियाँ के लोग हैं ? वैसे भी ज़माना छूटे हुए तीर सा आगे भागा जा रहा है, सामने खड़े होने का मतलब है घायल होना ।

ये हमेशा की तरह ‘नो मैन्स लैंड’ में है बेटों के सामने उनकी ‘फ़्रेंडली  मिस्टर क्लीन’ जैसी छवि न बिगड़ जाये । बड़े के जाते ही मुझ पर गुस्सा निकलता है, “तुमने इन्हें रुपये दिये होंगे?”

“आप कैसा मज़ाक करते हैं भारत जैसे विकासशील देश का लेखक और वह भी हिंदी का बच्चों को उड़ाने के लिये फ़ालतू रुपया दे सकता है ? आप हमेशा मुझ पर क्यों गुस्सा उतारा करते हैं ? बच्चों से कुछ क्यों नहीं कहते ?”

“फिर वह इतने रुपये कहाँ से लाया ?”

“पॉकिट मनी व रिश्तेदारों से मिले रुपयों की बचत इन लड़कियों पर उड़ाई जा रही है ।”

“तुम ही इन्हें बिगाड़ रही हो ।”

“मैं ठहरी यू.पी. के भैयन(भैया का स्त्रीलिंग) ये तुम्हारे ही ‘बैचलर्स पैराडाइज़’ में रहने के लिये ‘जीन्स’ इनमें कुलबुला रहे हैं ।”

इस छोटे से झगड़े के बावजूद हम दोनों हंस पड़ते हैं, '‘लैट देम इंज्वाय ।’'

फिर इन्हें व अपने को तसल्ली देने के लिये मैं दोनों की खूबियां गिनाने लगती हूँ । “वैसे दोनों बहुत अच्छे हैं, कहने की देर है बाज़ार का सामान ला देते हैं, घर में कोई मेहमान आ रहा हो या त्यौहार हो अपने दोस्तों के बुलाने पर भी नहीं जाते । तुमने तो कभी आटा नहीं पिसाया ? बाई के न होने पर आटा भी पिसा देते है । पड़ौसी कभी मदद माँगने के लिये आते हैं मैं तो सोचती रह जाती हूँ मैं तुरंत चल देते हैं ।”

दूसरे दिन बड़े सुबह देर अलसाने से उठते हैं । नाश्ते के बाद मैं उन्हें घेर लेती हूँ । उन माँ-बाप की तरह जो क्षण वो नहीं जी पाये बच्चों के साथ ही जीकर देख लें । मैं रिवाइवल होटल में डाँस पार्टी के एक एक क्षण का ब्यौरा सुनना चाहती हूँ ।

“मम्मी ! वह बड़ी अच्छी ड्रेस पहने हुई थी । बीच-बीच में ऊपर से नीचे तरह कटी हुई थी रिबन की तरह उड़ रही थी ।”

मेरी साँस रुक जाती है, “पूरी कटी?”

“ओफ़ ! मेरा मतलब कुर्ते के ऊपर इस तरह की जैकेट पहने हुई थी, पहले डाँस राउंड में बेस्ट ड्रेस का उसे और बेस्ट डाँस का प्राइज मुझे मिला । उसे डाँस नहीं आता था इसलिये 'कपल एवॉर्ड ' नहीं मिल पाया ।”

“तुमने डिनर नहीं लिया ?”

“उसने कहा था डिनर उसकी तरफ़ से होगा । वह महंगा होटल था इसलिये मैंने मना कर दिया । लारी पर पाव भाजी खा ली ।”

“चल ठीक किया ।” (मुझे एक शीर्षक सूझता है ‘होटल से लारी तक’)

गणपति के हंगामे चल रहे है । जगह जगह गणपति की मूर्तियां तेज संगीत पर थिरकती लगती है, रंग बिरंगे बल्ब भागते जा रहे है । इस के बाद अब नवरात्रि आ जाती है । बड़े की दोस्त कोकिला पटेल ने संदेश भेजा है उसने तीन सौ रुपये वाले नवरात्रि पास का इंतजाम कर रहा है बड़ा उनकी कॉलोनी  में गरबा करने आये ।

“ये कोकिला पटेल कौन है ?”

'‘पर्सनेलिटी डेवलपमेंट’ में हमारे साथ थीं । हमेशा ‘इडियम्स’ (मुहावरों) की पैरोडी सुनाती थी । कहती थी ‘वन एपल ए डे कीप्स द डॉक्टर अवे, इफ़ डॉक्टर इज़ स्मार्ट कीप्स द एपल अवे ।’ ग़नीमत है कि ये आमंत्रण छोटे के लिये भी है, मैं चैन की साँस लेती हूँ । ज़रा चौकसी रहेगी वर्ना ये बात यहाँ सबको पता है । गये रात तक चलने वाले नवरात्रि के गरबा के दिनों में यहाँ रात में सब होटल बुक हो जाते हैं । कुछ मुट्ठी भर लोग गरबे के घेरे से भागकर किस होटल में समां जाते हैं, पता नहीं चलता । पिछले वर्ष नारी संस्थाएं इस आरक्षण के विरुद्ध नारेबाज़ी करती रह गई लेकिन प्रशासन ने सपाट उत्तर दे दिया वे क्यों होटल के कमरों के आरक्षण रद्द करायें ? ये तो लोगों का निजी मामला है ।

इन्हीं दिनों इधर उधर बिछड़ी मेरी उम्र की मित्र मंडली अचानक जुट गई है, एक गरबा स्थल पर । मेरे कंधे पर मेरी मित्र हाथ मारकर कहती है, “तू बहुत लकी है, तेरे बेटे हैं ।”

“ गुजरात में क्या बेटों को सम्भालना आसान है ?”

“अरे ! बेटी होती तो पता लगता । हम लोगों की नींद ही पूरी नहीं हो पाती । बेटी रात भर सजकर लड़के के साथ गरबा करेगी तो अपनी तरफ़ की कौन माँ चैन की नींद सो सकती है ? नौ दिन कुर्सी पर बैठी झोंके खाती रहती है । मेरी तो ‘स्पॉन्डिलाइसिस’ की शुरूआत भी नवरात्रि से हुई है । तेरे बेटे तो रात भर घूमते रहे तो चिन्ता तो नहीं रहती थी ।”

“शुरू में तो रहती थी अब आदत पड़ गई है । यहाँ तो सब की आदत है । यहाँ की माँये तो आरंभ में तीन ताली वाला गरबा करके जब मन हुआ घर जाकर, गहरी नींद सो जाती है ।”

दूसरी कहती है, “यहाँ एक अच्छी बात है । लड़की अकेली भी जा रही हो तो उसे छेड़ते नहीं है ।”

“जब लड़कियां स्वयं ही साथ में घूमने को तैयार हो तो उन्हें छेड़ने की क्या ज़रूरत है ? अपनी तरफ़ के लोग लड़कियों को इतना सजधज कर नृत्य करते देख लें तो ट्रकों में भरकर ले जाएँ ।”

हम सबकी मुंहबोली भाभी कहती है, “मेरा बेटा अभी नौकरी पर लगा है । उसके ऑफ़िस की लड़कियाँ कहती रहती हैं कभी घूमने तो चला कर, शादी करने को कौन कह रहा है । एक लड़की ने तो उसके बर्थडे पर चार सौ रुपये की शर्ट उपहार में दी है । मैंने तो बेटे से कह दिया कि तू उसके बर्थ डे पर उसका पूरा हिसाब चुकता कर देना ।”

दूसरी कहती है, “अहमदाबाद में मेरा कज़िन एक कमरा तक किराये पर लेकर रहने लगा को पड़ौस की लड़कियाँ रोज उसके कमरे की देहरी फूलों से सजाकर मित्रता का आमंत्रण देती रहती हैं । अपनी तरफ़ के लड़के जो बंधनों में जीकर आते इन लड़कियों की भावनाओं का खूब फ़ायदा उठाते हैं ।”

तीसरी कहती है मेरी भी मुसीबत हो रही है । घूमने की बात से याद आया । मेरा बेटा अतुल एम.बी.बीएस. कर रहा है । उसकी क्लासफ़ेलो हमारी कॉलोनी  में रहती है । एक दिन सुबह पाँच बजे कॉल बैल बजी, देखा एक लड़की कार से उतर कॉल बैल बजा रही थी । वह पूछने लगी अतुल अभी जगा या नहीं ? मैंने पूछा क्या काम है ? तब वह बताने लगी कि मैंने व अतुल ने दो दिन से पाँच बजे से मॉर्निंग वॉक पर जाना शुरू किया है । वह इतनी तहजीब से बोल रही थी कि मैं उसे कैसे डाँटती ? हमारे बेटे दो दिन से किसी लड़की के साथ सुबह पाँच बजे मार्निंग वॉक पर जा रहे हैं । हमें पता ही नहीं है ।''

सब के मुंह से एक साथ निकलता है, “हे भगवान! अगला जन्म तू हमें गुजरात में ही देना ।”

नवरात्रि के बाद दीपावली के अवसर पर इन लोगों को आमने सामने शुभकामनाएं देकर चैन नहीं पड़ता । ग्रीटिंग कार्ड भी डाले जा रहे हैं । घर आये कार्डस में एक दो ही लड़के हैं । हर कार्ड पर लड़की के नाम के साथ लिखा है 'विद लव '। ये तो पता है देवदास वाले प्रेम का ज़माना तो गया लेकिन मैं उन कार्डस को उलट पुलट कर सूँघने की कोशिश कर रही हूँ। ये कौन सा वाला 'लव' है ?

बेटे के साथ वालों की ट्रेनिंग धीरे-धीरे पूरी हो रही है । वह कहता है, “मम्मी ! सुजया जाने से पहले एक ‘मूवी’ दिखाना चाह रही है । कह रही थी तूने डाँस पार्टी में बहुत ख़र्च कर दिया ।”

(तो लड़कियाँ डेटिंग भी कंधे से कंधा मिलाकर करना चाहती हैं ।)

“पापा से पूछ लो ।”

“मम्मी ! ‘ममी’ बहुत अच्छी फ़िल्म है । वैसे भी आपको ‘हॉरर’ मूवी अच्छी लगती है । छोटे की बर्थ डे भी हमें ‘सेलिब्रेट’ करनी हैं । तो हम पाँचों साथ-साथ देख लेते हैं ।”

(मुझे माडर्न मम्मी का रोल याद आ जाता है )

“पापा टूर पर जाने वाले हैं । बर्थ डे सेलिब्रेट करने के लिये बस यही ‘संडे’ बचा है ।”

किसी की भी असली वर्षगांठ पर तो सारा परिवार इधर-उधर भागता रहता है वर्षगांठ के बाद के इतवार को ही उसे परिवार का एक साथ मनाता है । बेटे से न गर्लफ़्रेंड  छोड़ी जा रही है, न परिवार ।

दोनो भाई एडवांस बुकिंग करवा कर लौटते हैं । छोटे का हंसते हंसते बुरा हाल है ।

“मम्मी ! पता है इसने टिकट्स कैसे बुक कराई है ।?”

“कैसे ?”

“मैं दूर खड़ा देख रहा था । पहले इसने लाइन में खड़े होकर एक लाइन की पांच टिकट ले ली, फिर इसे याद आया होगा, ‘गर्लफ़्रेंड ’ साथ है तो उसे लेकर अलग बैठना चाहिये । वापिस आधा घंटा लाइन में लगा । दो टिकट वापिस करके दूसरी टिकट ली । मैंने चेक किया तो पता लगा वह टिकट ठीक सामने वाली लाइन की है हा...हा...हा...। अपन पीछे से इस पर वॉच रख सकते हैं ...हा...हा...हा...।”

बड़ा गुलाबी चेहरे से आँखें झुकाकर शर्मा कर कहता है, “मैं क्या रोज़ लड़कियों को मूवी दिखाता हूँ । तू भी पहली बार जायेगा तो ऐसा ही करेगा ।”

वो ज़ोर-ज़ोर से हंसता है, “मैं तेरे जैसा बेवकूफ नहीं हूँ ।”

मैं सोचती हूँ इस चालाक छुटके पर तो कड़ी निगाह रखनी पड़ेगी । वैसे तो पता है इस दुपहिये पर तेज भागती पीढ़ी के पीछे माँ बाप कहाँ तक दौड़ सकते है ? उनकी चिंताएं ही सरपट इनके पीछे दौड़ती रहती है ।

फिर से तय किया जाता है कि सुजया को बताया नहीं जायेगा माँ बाप साथ हैं । छोटे तो उससे मिल ही चुके हैं । वो तो पहचान लिये जायेंगे ।

थियेटर में जब हल्का अंधेरा हो जाता है तो हम दोनों पहुँचते हैं । हम छोटे के पास अजनबी से बैठ जाते हैं । बड़ा बेटा लड़की की नज़र बचाकर पीछे हाथ करके हमें ‘विश’ कर देता है ।

बड़े का चेहरा देखकर मैं एक खिलंदड़े लड़के को एक संयत नवजात पुरुष में बदलते देख रही हूँ । वह लड़की बार-बार उसके कंधे पर हाथ मारकर बात कर रही है । जब छोटे की तरफ मुड़कर बात कर रहा होता है तो नोंचकर डांटती है, “तू सुनता है या नहीं ।”

इंटरवल में लड़की की नज़र मेरे सलवार सूट पर जाती है । (तय है चेहरे पर नहीं गई होगी) तो बड़े के कान में फुसफुसाती है, “देख । तेरा छोटा भाई अपनी गर्लफ़्रेंड  के साथ बैठा है ।”

बड़ा ठहाका मारकर हंस पड़ता है, “चुप कर, ये तो मेरी मम्मी हैं । साथ बैठे हैं वो मेरे पापा हैं ।”

लड़की थोड़ा झेंपकर मुस्कुराती है (मेरे हिसाब से तो उसे पानी पानी हो जाना चाहिये था ) नमस्ते करती है । बड़े से कहती है, “यू चीट ! तूने पहले क्यों नहीं बताया ?”

फ़िल्म खत्म होने के बाद हम लोग बाहर आ जाते हैं । बाहर बातें करते हुए मैं उसका जायज़ा ले रही हूँ। काली जीन्स पर फूलों वाली शर्ट । बालों में जगह-जगह पिन्स लगाकर पोनी बनाई हुई है । उभरे हुए गालों पर दो चार मुंहासे है । इन लोगों को ‘लास्ट डिनर’ पर जाना है । लड़की छोटे से एक दो बार वैसे ही पूछती है, “प्लीज ! कम विद अस ।”

छोटे उल्लू से उनके साथ हो लेते हैं । बड़ा रात में घर लौटकर दांत पीसकर बड़बड़ाता रहता है, “मैं भी देखूंगा जब तू अपनी गर्लफ़्रेंड  के साथ जायेगा ।”

छोटा भोला सा मुँह बनाकर कहता है, “कैसे मना करता वो इतने प्यार से साथ आने के लिये कह रही थी ।”

उस दिन की यादगार तस्वीरों में बड़े कम छोटे उस लड़की के साथ अधिक नज़र आ रहे हैं ।

सुजया के जाने बाद एक दो दिन तक मैं बेटे की टोह लेती रहती हूँ उसकी आँखों में कहीं कोई विरह वेदना तो नहीं है ? वह आराम से पैर फैलाये गहरी नींद में सोता है । जब हाथ कुछ नहीं लगता तो बेसब्र होकर पूछ ही लेती हूँ, “वो गई है तुझे कहीं बहुत बुरा तो नहीं लग रहा है ?”

“थोड़ा बुरा लग रहा है कैसे किसी दोस्त से बिछड़ने पर लगता है ।”

“उस का हेयर स्टाइल कितना बुरा था । ढ़ेर सी पिन्स बालों में ठूंस रखी थी ।”

“उसे बाल बढ़ाकर दूसरी कटिंग करवानी है ।”

(ओहो ! ये ऐसी भी ख़बर रखते हैं )

चौथे दिन रात को आठ बजे एक हल्की मोटी लड़की को स्कूटर पर बिठाये बड़े घर आ जाते हैं, “शी इज शम्पा दास ।”

“अच्छा वही जो सबको जोक सुना सुनाकर हंसाती है ।”

“यो I”

(हमारे जमाने के “यस” को पहले “या” कर दिया । अब उसे ये अमेरिकन “यो” करे दे रहे हैं ।)

“यू नो मी आंटी ? थैंक्यू ।” वह बेहद खुश हो जाती है । “आंटी ! हम लोग सब इस शहर से वापिस जाने वाले हैं । हम लोगों ने अपने कमरे पर अभी पार्टी रखी है ।”

“हां, मम्मी ! मैं ‘चेंज’ करने आया हूँ ।”

बेटे यही पैदा हुए हैं उनके दिमाग में भी नहीं है लड़कियों के कमरे में पार्टी है । जाने की बात पहले माँ बाप से पूछनी चाहिए । फटाफट अंदर के कमरे से काली जीन्स व ‘टाइटेनिक शर्ट’ पहने वह बाल काढ़ता बाहर आ जाता है ।

वह उठकर उसकी पीठ पर धौंस जमाती है, “मोटू ! जल्दी तैयार हो जा ।”

(खुद क्या कम मोटी है ।)

“हो तो रहा हूँ यार !” फिर वह मेरी तरफ़ मुड़कर कहता है, “मम्मी ! पार्टी के बाद मैं नाइट ड्यूटी पर चला जाऊंगा ।”

मैं लड़की के चेहरे पर सूंघकर विश्वास कर लेती हूँ कि ये रात में रोकने वालियों में से नहीं है । मैं उससे इकरार करती हूँ, “खाना बिलकुल तैयार है, थोड़ा खाकर जाना ।”

“आंटी ! हम लोग पहले ही आधा घंटा लेट हो गये है । सब ने मुझे इसे होटल से लाने भेजा । यू नो । ही इज़ वेरी फ़सी एबाउट हिज़ ड्रेस । इसने कहा मैं ‘चेंज’ किये बिना नहीं आऊंगा ।”

(चलो एक बात पर तो अपनी माँ पर गया है ।)

वह जूते पहनते मेरे बेटे की पीठ पर फिर धौंस जमाती है, “इस मोटू से कहिये अब चले भी, नहीं तो वहाँ मेरी पिटाई होगी ।”

वे दोनों स्कूटर पर बैठते ही ओझल हो जाते हैं ।

उनके जाते ही मैं चिंता में घुलने लगती हूँ । आसाम वाली हो या मोटी बंगालिन या कोई गुज़रातिन । उन्हें मैं अपनी बहू बनाने के लिये मानसिक रूप से तैयार नहीं हूँ । चाहे व जीन्स व सलवार शूट छोड़कर परम्परागत ज़री कढ़ी साड़ी में या लहंगे में सजी मेरे दरवाजे आकर खड़ी हो मेरा मन सास के रूप में उनकी आरती उतारने के लिये कतई तैयार नहीं है ।

दूसरे दिन अपने तो चतुर समझने वाली माँ की तरह बेटे को समझाती हूँ, “देख ये असमियां सिर्फ डाँस पार्टी तक ठीक थीं क्योंकि ड्रेसअप अच्छी तरह होती हैं, बंगालिन ग्रुप पार्टी के लिये क्योंकि खूब हंसती, हंसाती हैं, गुज़रातिनें ठीक ठाक हैं लेकिन मैं इनमें से किसी को बहू नहीं बनाऊंगी ।”

(वैसे पता है बेटा ज़िद करेगा तो हथियार डालने ही होंगे)

बेटा चिढ़ता है, “मम्मी ! ये तो मेरे ‘केरियर मेकिंग ईयर’ है । मैं शादी की अभी सोच भी नहीं सकता । वी आर जस्ट फ़्रेंडस । आप मेरी गर्ल फ़्रेंडस को लेकर इतनी परेशान क्यों हैं ? आप ही तो बतातीं रहती हैं कि छोटा उदयपुर की आदिवासी लड़कियां दस बारह वर्ष की उम्र से गोठिया (ब्वॉय फ़्रेंडस ) बनाने लगती हैं ।”

“देख ! फ़्रेंडशिप तक तो बात ठीक है इनके (निगोड़ियों कहना सभ्यता से बाहर लगता है) साथ ‘इमोशनल’ होने की ज़रूरत नहीं है । अपने यहाँ ‘हाइली एजूकेटेड फेमिली’ की अच्छी लड़कियाँ मिल जायेंगी।”

वह खिल्ली उड़ाता है, “ वैसे तो आप बहुत एडवांस बनती हैं कि आपकी मम्मी के परिवार में पिछली पीढ़ी में ही ‘लव मैरिज’ हो चुकी है ।”

“ ‘लव मैरिज’ बुरी बात नहीं है लेकिन इनमें से कोई मुझे नहीं चाहिये ।”

(पता है ‘लव’ मेरी बात थोड़े ही मानेगा ।)

“प्लीज मम्मी ! लीव मी अलोन ।” वह खीझता हुआ अपने ‘प्रोजेक्ट वर्क’ में डूब जाता है । उसे पूरा करके होटल दौड़ लेता है ।

काम से फ़ुर्सत पाकर रील की तरह अपनी कहीं बातें मेरे दिमाग में घूम जाती है । मैं हतप्रभ  सोफ़े पर निढाल सी बैठ जाती हूँ । मैं ये क्या बड़-बड़ कर गई ? अपने नारीवादी लेखों में पुरुष पाखंडी मानसिकता की कितनी भर्तस्ना की है । उसे बाहर घूमाने के लिये और चाहिये, ऑफ़िस में फ़्लर्ट करने के लिये और लेकिन शादी एक घरेलू लड़की से ही करना चाहते हैं । मैं औरत होते हुए भी उन्हीं की तरह नसीहत दे रही हूँ । सच ही औरत ही औरत की दुश्मन होती है । पहले महानगरों की महिलायें शिकायत करती रहती थीं शादी के मामले में भारतीय नर का मिजाज़ ठीक से नहीं बदल रहा । आज महानगरों की कुछ लड़कियाँ इन्टरनेट पर अनजान लड़कों से दोस्ती करती हैं । किसी बढ़िया होटल में उन्हें कभी अपने ड्रेस की पहचान बताकर या फूल की पहचान बताकर आमंत्रित करती हैं । उनके साथ बढ़िया खाना खा पीकर मज़ा लेती हैं । लड़के पिघलकर जब दोस्ती बढ़ाना चाहते हैं तो ग़लत फ़ोन देकर उड़न छू हो जाती हैं । आज के इन नन्हें नरों का मिजाज़ आगे कैसा रहेगा? क्या वे अपनी पत्नी के ब्वॉयफ़्रेंड भी इसी उदारता से पचा पायेंगे ? हर बड़े नगर की युवा पीढ़ी समय व पैसा उड़ाने में व्यस्त है ।

ये मुझे क्या होता जा रहा है ? मैं इन बच्चों के चक्कर में इधर से उधर हिंडोले खाती झूल रही हूँ । औरों की तरह इन वर्षों में अपने बच्चों के जेट की स्पीड से बदले हुए मूल्यों को देखकर मैं हैरान हूँ---- इनके बदले हुए तेवर देखकर हैरान हूँ --सोचने के तरीके पर हैरान हूँ ।

जब सब कुछ बदल रहा है समाज बदल रहा है, उसके मूल्य बदल रहे हैं तो सासों (चाहे भावी ही सही) के मूल्य क्यों नहीं बदलेंगे जी ? बस मैं ये सोचकर सीधी सतर होकर अपनी आत्मग्लानि झटक कर अकड़कर चलने लगती हूँ ।

नोट-और प्रदेशों के बेटे कृपया अपने माँ-बाप पर दबाव डालकर उन्हें मुसीबत में न डालें, न ज़िद करें कि हमें भी गुजरात में बसना है, वो भी सिर्फ बड़ौदा में ही जिसे ‘बैचलर्स पैराडाइज़’ कहा जाता है ।

 

नीलम कुलश्रेष्ठ

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