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जीवन ऊट पटाँगा - 2 - ऐसे भी

एपीसोड -२

ऐसे भी

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

“उठ कम्मो उठ ।”

कम्मो ने अपना हाथ छुड़ाते हुए दूसरी तरफ़ करवट ले ली, बिछौने से कच्ची ज़मीन पर उतर आई थी ।

“उठती है साली की नहीं ।” अब की बार रग्घू को गुस्सा आ गया । उसने उसकी दोनों बांहे पकड़कर उसे उठा दिया ।

“उठ तो रही हूँ, काहे को गला फाड़ रिया है ?” उसने अपने को छुड़ाकर एक भरपूर अंगड़ाई ली, “क्या टैम हो रहा है?”

“आठ बज रहे होंगे और मेम साब अभी खर्राटे ही ले रही हैं । ले चाय पी ले ।” उसने एल्युमिनियम का गिलास उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा ।

“यह किरपा कैसे ? क्या आज मेरी ‘डूटी’ लगा रिया है ?” उसने मुस्कराते हुए गिलास पकड़ लिया ।

“अरे ! जा, जा, तू तो मेरे प्यार को कभी समझे ही नहीं । वैसे तू आज बड़ी खूबसूरत लग रई है ।” उसने बाई आँख दबाते हुए कहा ।

“बस, बातें न बना आज क्या रिक्षा चलाने नहीं जायेगा ?”

“जाऊँगा, पहले दो घड़ी तुझसे बातें तो कर लूं ।” कहकर उसने `सुड़प` करके चाय निगली । थोड़ी देर बाद दोनों चुपचाप चाय पीते रहे । जैसे ही कम्मो ने चाय का गिलास ज़मीन पर रक्खा वैसे ही उसने लपक कर उठा लिया और दोनों गिलास राख से मांजकर व धोकर कोने में रख दिये ।

“तूने कुछ सुना ?” फिर वह सोचते हुए बोला, “ओह ! तू कैसे सुनती तू तो जब से फसर फसर सो रही है। ”

“क्यों ? क्या हुआ ?” वह अब मतलब की बात पर आ रहा है, यह सोचकर मुस्करा दी ।

“आगरा के पास गाँवों में बड़े जोरों की बाढ़ आई है, हज्जारों लोग बाढ़ में बह गये, हज्जारों घर बरबाद हो गये, हज्जारों......”

“तभी तो मैं कहूँ यह सुबह सुबह चाय क्यों पिलाई जा रही है?”

“देख तू उस बात को इससे काहे जोड़ रही है ? मैं तो तूझे वैसे ही बता रिया था ।” उसने बुरा मानने का अभिनय किया ।

“जा, जा अब बातें न बना । सीधे सीधे बता दे कौन कौन से गाँवों में बाढ़ आई है और मुझे कौन से गाँव की रहने वाली बनना है ?”

तब उन दिनो अख़बारों में बिहार के सूखे की स्थिति पर कालम के कालम रंगे जा रहे थे । रग्घू ने कोने के पानवाले के रेडियो पर ख़बरें सुन कर बहुत कुछ समझ लिया था । अपने रिक्शे में कम्मो को शांतिनगर की तरफ़ ले जा रहा था । धूप भी अच्छी खासी निकल आई थी । तभी कम्मो ने कहाथा, “रग्घू, यहाँ रिक्षा रोक दे, मैं यहीं उतरे जा रही हूँ ।”

“कमबख्त ! शांतिनगर तो यहाँ से एक मील दूर है ।”

“देख गाली देगा तो लौट जाऊँगी ।”

“अरे ! क्या कहती है ? मैं तो सोच रिया था तू लौट के आयेगी तो सनीमा दिखाने ले चलूँगा ।”

“सच्ची कह रिया है?` डाकू मंगलसिंह` ले चलेगा ?”

“सच्ची बिलकुल सच्ची । अब तो रिक्शे में बैठ जा ।”

“तू निरा बुद्धू का बुद्धू है । यहाँ से मैं धूप में पैदल चलकर जाऊँगी तो आप ही से मेरा मुँह सूख जायेगा तभी तो एटिंग [एक्टिंग’] बढ़िया होगी ।”

“अकिल सीखनी है तो कोई तुझसे सीखे ।” गाल पर प्यार से एक चपत लगाते हुए उसने रिक्शा मोड़ लिया ।

शांतिनगर आ गया था । धूप में चलने से वैसे ही गला चटक रहा था । सात नंबर की कोठी के सामने कोई महिला सब्जी की ठेल के पास खड़ी सब्जी ले रही थी । कम्मो लड़खड़ाती हुई सी उसके सामने से निकलने लगी और कुछ दूर जाकर सड़क पर गिर गई । सब्जीवाले के मुँह से निकला, “अरे ! इसे क्या हो गया?”

“बेहोश हो गई है ।” उस महिला ने चिन्ता में कहा, “रामलाल को अंदर से बुलाकर इसे हमारे बरामदे में लिटा दो ।”

वह दाँत पर दाँत जमाये सुन्न पड़ी थी। मुँह पर कुछ पानी के छींटे पड़ने पर उसने पहले धीरे धीरे पलकें फड़फड़ाकर आँखें खोलीं और हकबकाती सी सबके चेहरे देखने लगी । घर से और लोग भी निकलकर बरामदे में इकट्ठे हो गये थे ।

“म-म-मैं कहाँ हूँ ?” उसने अर्द्धबेहोशी का बहुत अच्छी तरह अभिनय किया ।

“मैं...हम....हूं.....हूं.....।” इस के साथ ही उसने बुक्का फाड़कर रोना शुरू कर दिया ।

घर की वृद्धा की आँखें भी गीली हो गई, “ रो नहीं बेटी ! पहले पानी पी ले,”

बहुत ना करने के बाद उसने पानी पी लिया । उन्होंने पूछा, “रोटी खाओगी? मुँह तो बिलकुल कुम्हालाया हुआ है।”

थोड़ी सी रोटी खाने के बाद वह फिर रो पड़ी, “मेरा आदमी......”

“क्या हुआ तेरे आदमी को?” सब उसकी तरफ़ बहुत उत्सुकता से देख रहे थे ।

आँसुओं के बीच जो उसने कहानी सुनाई वह इस प्रकार थी, “हम बिहार के बांका जिले के रहने वाले हैं। सूखे ने हमारी जान खा ली । पोखर तालाब सूख गये, ज़मीन तड़क गई । एक छोटा बच्चा था बिलकुल तुम्हारे इस बच्चे जैसा उसने प्यास से तड़प तड़प कर जान दे दी । हमारा आदमी और ससुर भी जाता रहा । सास और मैं अपने गाँव वालों के साथ इस शहर में कुछ काम ढूँढ़ने निकले हैं । सास अँधी है, दो दिनों से कुछ खाना नहीं है ।”

“लेकिन तुम तो बिहार की रहने वाली लग नहीं रही हो ।” उनमें से एक तरुण ने कहा ।

“तू चुप रह राकेश हर जगह अपना कानून छाँटता रहता है ।” वृद्धा ने उसे डाँट दिया । उन्हीं की कृपा से सारी कालोनी से उसे कपड़े, दाल, चावल, आटा और रुपये मिल गये थे । जब वह चलने लगी थी तो उन्होंने ही कहा था, “कल तुम आना तुम्हारे काम की व्यवस्था कर दूँगी ।”

“कल जरूर आ जाऊँगी वैसे ही आपकी क्या किरपा कम है ।” कहते हुए उसने उनके सामने ज़मीन पर अपना माथा टेक दिया था ।

उस बार शान्ति ने ही उसे सुझाया था । शान्ति बंगाल से किसी गाँव में कभी रह आई थी, थोड़ा बहुत बंगला जानती थी और दो चार अंग्रेज़ी शब्द बोल लेती थी । उसने ही कहा था, “सब लोग ‘बंगला देश’, ‘बंगला देश’ चिल्ला रहे हैं तो क्यों न कुछ देर के लिये हम दोनों ही बंगालिनें बन जाएं ।”

“सच, कै रई है तू?”

और दोनों ही कोर्ट के निकट रेलवे लाइन के पास पुराने कपड़े बेचने वालों के पास जाकर चौड़े बोर्डर वाली जर्जर साड़ियाँ छांटती रही थीं ।

शान्ति ने अनूपनगर में ‘सिक्सटीन-बी’ नम्बर की कोठी की कॉलबेल बजाई । एक नौकर ने दरवाजा खोला ।

शान्ति ने जल्दी से कहा, “अपनी मेम शाब को बोल, दो ‘रिफ्यूजी’ इधर आया है ।”

“मेमसाब घर परनहीं है, आगे का रास्ता नापो ।” नौकर ने झिड़कते हुए कहा ।

तभी उसके पीछे से तेरह चौदह साल की लड़की निकल कर आई, “शम्भू ! कौन है ?”

शम्भू कुछ कहता इससे पहले ही शान्ति बोल उठी, “शिस्टर ! हैल्प करो । हम ‘रिफ्यूजी’ हैं बंगला देश से आया है ।”

“ओ ! बंगला देश से इतनी दूर, बट व्हाइ?” उस लड़की ने गोल आँखें घुमाते हुए कहा ।

“हमारा एक रिश्तेदार इधर था, उसके पास इधर आया लेकिन उसके पते पर कोई नहीं मिला तभी से दोनों भटक रहा है ।”

“मैंने तो सुना है वहाँ पर तुम लोगों पर बहुत जुल्म हुए हैं ।”

“जुलम की क्या बात करता शिस्टर ! फौजियों ने कोई कमी नहीं छोडा । ये हमारी शिस्टर है ।” उसने इतना कहते ही कम्मो ने सिसकना शुरू कर दिया । “उन बदमाशों ने हमारी शिस्टर का ‘इंसेल्ट’ किया।”

“इंसल्ट! यू मीन.......हो हो हो ।” उस तेरह चौदह-वर्षीय लड़की को अब बातचीत कुछ दिलचस्प लगी। चाह रही थी पूछे किस तरह ‘इंसल्ट’ की लेकिन पास ही शम्भू खड़ा था ।

“शिस्टर! तुम हंसता है । तुम इस कोठी में बैठे क्या जान सकता है ? हमारे भाई को हमारे अब्बा को कत्ल कर दिया और......” बात पूरी होने से पहले ही वह भी सुबकने लगी ।

उसके कुछ गुदगुदी हुई, “फिर क्या हुआ ?”

शान्ति ने उसकी बात पर कुछ ध्यान नहीं दिया और कम्मो को चुप कराने लगी, “मत रो, मत रो शिस्टर । हमारा कलेजा दुखता है ।” कहते हुए वह भी टप-टप आंसू गिराती जा रही थी ।

“अब क्या करोगे तुम लोग?” उन लोगों को लगातार रोते देखकर वह पसीज उठी थी ।

“आमार सोनार बांगला तो पीछे छूट गया । अब हम शहर से ‘रिफ्यूजी केम्प’ वापिस लौटेगा । उसके लिये किराया इकट्ठा करेगा । कुछ ‘हैल्प’ करो।”

“अभी आई ।” कहते हुए अन्दर भाग गई जब आई तो उसके हाथ में अपनी गुल्लक थी । सारी की सारी उसकी झोली में पलट दी । पैसे झनननन् गिरने लगे ।

शम्भू बोला, “बेबी......।”

“तुम चुप रहो ।”

“शिस्टर ! तुम खूब पढ़ो लिखो फश्ट आओ । हम केम्प पहुँचकर वहाँ से किसी से एक ‘लेटर’ तुमको लिखवायेगा । जवाब जरूर जरूर देना । हम तुम्हारे बारे में वहाँ सबको बतायेगा । तुम्हारा नाम क्या है बेबी ?”

“ओ श्योर । मेरा नाम सोनू है यानि सोनी मेहता ।” जैसे वह सुन ही नहीं रही थी, सोच रही थी रेनू क्लास में सबसे अधिक ‘डोनेशन’ देकर बहुत बनती है । अब जब कल यह बात सबको बता दूँगी तब सब चौंक जाएंगी ।

*****

रग्घू चूल्हे पर रोटी बनाने में लगा हुआ है । चाय पीकर वह अलसायी सी बैठी रहती है फिर उठकर बक्स में से एक फटी हुई धोती निकाली है जिसे वह स्पेशल ‘विज़िट’ के समय ही पहनती है । दो तीन बच्चों के कपड़े पड़े हुए थे उन्हें उसने कंधे के लटका लिया व एक पोटली में थोड़ा सा आटा बाँधकर उसे कंधे से लटका लिया यानि अब वह पूरी तरह तैयार थी । प्यार में इतराकर बोली, “चल रघुआ ! मैं तो तैयार हूँ ।” वह सटपट सरसों के तेल को बालों में चिपड़कर कंघी करता हुआ बोला, “बस मैं भी तैयार हूँ ।”

तभी कम्मो ने अपना सामान नीचे उतार दिया, “एक मिलट रूक, अब्बी आई ।” कहते हुए शान्ति की चाल में पहुँच गई । “ओरी ! अपने चोखे को दीजो ।” उसके एक वर्षीय लड़के की तरफ़ इशारा करके बोली ।

“आज चोखे की कैसे याद आ गई ?”

“इसे भी आज ‘डूटी’ पर ले जा रही हूँ । ” उसने रहस्यमय मुस्कान के साथ कहा ।

“अरे ! सच में ! पूरा किराया धरवा लूँगी ।” शान्ति ने मुस्करा कर आँखें तरार कर कहा ।

रग्घू उसकी गोद में चोखे को देखकर खीज गया, “अब तुझे भी इसको खिलाने का यही टैम मिला है ।”

“तू तो वैसे ही नाराज हो रिया है।” फिर उसके आगे की बात सुनकर वह मुस्करा दिया ।

*****

कम्मो शाहगंज के एक घर में बैठी कह रही हैं, “बहनजी ! इस दुखिया की बात सुनो जिसका कोई ठिकाना नहीं है ।” बीच में आधे घूंघट में सुबकियाँ , “बाढ़ में हमारा घर-द्वार, जानवर सब बह गये, कुछ नहीं बचा । मैं चांडाल, ही बच गई ।” कहने के साथ ही रोना तेज हो गया । “मैं मर भी जाती अगर ये मेरा दुश्मन नहीं होता इसके लिये ही दर-दर ठोकर खानी पड़ रही है ।” उसने बहुत चाहा उस की बात पर चोखे रो दे किन्तु वह चुप टुकर टुकर देख रहा था । उसने एक हाथ से सुबकियाँ लेते हुए दूसरे हाथ से अन्दर ही अन्दर उसकी पीठ में जोर से नोच लिया । अब वह भी मुँह फाड़कर रो उठा । वह बोली, “नहीं रो, नहीं रो । भगवान है जब तक कहीं न कहीं से रोटी मिलेगी ही ।”

“ओटी.....ओटी.....! अम्मा पास ।” अब चोखे को भी याद आया उसने सुबह से रोटी नहीं खायी है और माँ भी पास नहीं है । उसके रोने की स्पीड और भी तेज हो गई ।

“अपनी दादी से बहुत हिला है उसे ‘अम्मा’ कहता है । उसकी याद में ही रोने लगता है ।”

बहिन भरे हुए मन से उसकी गाथा सुन रही थी लेकिन अपनी जगह से हिल नहीं रही थी । तब उसने फिर गिड़गिड़ाते हुए कहा, “साथ वाली बहिन ने यह आटा और कपड़े दिये हैं । बहिन ! तुम भी दो । गरीब की भूखी आत्मा तुम्हें दुआ देगी ।”

ये बात शायद सीधे उनके दिल में जा लगी, वह कुछ लेने के लिये अंदर चली गई ।

*****

रावली से मैं अपने मित्र के यहाँ से निकला । एक रिक्शे वाले को बुलाया और पूछा ,``जनता कॉलोनी चलोगे ?``

थोड़ी सी झिक-झिक के बाद पैसे तय हो गये । मैं जैसे ही रिक्शे में बैठा कि वह “बाबू साहब ! एक मिलट ।” कहता हुआ रावली मनकामेश्वर वाली गली में चला गया । मैं अचकचाया-सा देख रहा था कि वह जल्दी जल्दी आता दिखाई दिया । मुँह कुछ गम्भीर था और माथे पर मन्दिर का टीका लगा हुआ था । हाथ के प्रसाद में से थोड़ा मेरे हाथ में रखता हुआ बोला, “मना नहीं करना बाबू नहीं तो अशगुन हो जायेगा ।” मैंने चुपचाप प्रसाद हाथ में ले लिया लेकिन खाया नहीं, “क्यों क्या बात है ?”

“बाबू साब ! क्या बताऊँ बड़ी आफ़त में फंस गया हूँ, मर जाता तो अच्छा था ।”उसने रिक्शा मोड़ते हुए कहा ।

“अरे भाई ! ऐसी क्या बात है ?” ऊषा भी कहती है मैं बहुत कमजोर दिल का हूँ।

“मेरी लड़की अस्पताल में पड़ी हुई है । सड़क पर मोटर से टकरा गई थी । डॉक्टर ने कहा है पांच हज़ार रूपये का खून उसे आज शाम तक मिल जाना चाहिये । अभी तक चार हज़ार रुपये ही इकट्ठे हो पाये हैं । जब तक रुपये लेकर पहुँचूंगा तब तक.......।” आगे की बात सिसकियों में दब गई, अंगोछे से उसने आंखों को साफ़  किया । पुरुषों का रोना बहुत ही अजीब-सा लगता है, समझ में नहीं आ रहा था उसे कैसे सांत्वना दूँ। घर पर उतर कर उसे पाँच सौ  के दो नोट थमाये, “कौन से अस्पताल में है ?”

“इमरजेंसी में है लेकिन बाबूजी यह रहने दीजिये, गरीब आदमी हूँ मजूरी करके बहुत दिनों में लौटा पाऊँगा ।”

“नहीं, नहीं यह रख लो, वापिस नहीं माँग रहा हूँ । कहो तो मैं भी वहाँ चलूं, एक दो नर्स से मेरी जान पहचान भी है ।” मुझे उसकी बढ़ी हुई दाढ़ी, दयनीय चेहरा देखकर बहुत तरस आ रहा था ।

“बाबूजी ! काहे को कष्ट कर रहे हैं । मैं ही भुगत लूँगा ।”

“जब ठीक हो जाये उसे मुझे दिखा जाना । ``मैं अपनी आदत जानता था । बात हफ़्तों तक दिमाग में चिपकी रहती है ।

जब वह नुक्कड़ से ओझल हो गया मुझे बहुत घबराहट होने लगी । ,एक बच्ची की जान का सवाल था। मैंने सड़क पर जाते हुए रिक्शे को रोका ,उसमें बोला ,``इमरजेंसी अस्पताल जाना है ज़रा जल्दी चलो। ``

वह काफ़ी दूर पर वह तेज़ी से अपने रिक्शे के पैडल मारता जा रहा था बिचारा ! घबराहट में ! आगरा कालेज के पास की सड़क पर इमरजेंसी के लिये उसे मुड़ते हुए न देखकर मेरा माथा ठनका । मैं उसे आवाज़ ही देने वाला था लेकिन चुप रहा देखें तो कौन सा रास्ता ‘इमरजेंसी’ को जाता है ।

अब तक वह एक गंदी बस्ती में पहुँचकर एक चाल के सामने रिक्शा रोक कर उसके अंदर घुस गया था । मैं अभी बाहर ही खड़ा था कि अंदर से आवाज आई, “ले कम्मो ! आज तू ने ही नहीं हमने भी ‘डूटी’ की है । एक मोटा शिकार फंस गया था ।”

मैं गुस्से में तेज़ी से अंदर घुसा लेकिन भौंचक रह गया सामने वही औरत बैठी थी जो बाढ़ पीड़ित के रूप में हमारे घर आई थी !

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- श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ

kneeli@rediffmail.com

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