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जीवन ऊट पटाँगा - 11 - मातमपुर्सी

मातमपुर्सी

“आप किन से बात करना चाहते हैं ?” फ़ोन उठाते ही विनोद बोला ।

“यार! मैं नवीन बोल रहा हूँ । तू ने कुछ सुना ? सुरेन्द्र वापस आ गया है ।”

“कब वापस आया ?”

“कल ही आया है । हमारे ऑफ़िस में उस का जो पड़ौसी काम करता है न, वह बता रहा था ।”

“हम लोगों को मातमपुर्सी के लिये जाना चाहिये,” विनोद एकदम व्यग्रता से बोला ।

“हूं, जाना तो चाहिये । लेकिन दस बारह किलोमीटर दूर जाना इन ऑफ़िस के दिनों में तो हो नहीं सकता। ”

“एक दिन तकलीफ उठा लेंगे तो क्या हुआ ?”

“तू तो ऑफ़िस से सीधे घर आ जाता है । मुझे तो अपने कुछ ग्राहकों से मिलना होता है, इसलिये मुश्किल होगा । ऐसा करते हैं कि इतवार को सब साथ साथ चलेंगे । जरा नारायण को भी फ़ोन कर देना।”

फिर विनोद ने स्वयं ही जल्दी जल्दी नारायण को फ़ोन किया, “नारायण! सुरेंद्र वापस आ गया है ।”

“ओहो, तो इस में इतना परेशान होने की क्या बात है?”

“मेरा मतलब था कि नवीन का फ़ोन आया है कि हम सब लोग इतवार को उस के घर चले चलेंगे ।”

“एक मिनट रुक, मैं अपनी डायरी देख लूं, कहीं किसी से मिलना तो नहीं है ।”

थोडी देर बाद नारायण की फिर से आवाज आई, “हां यार!मुझे कोई काम नहीं है । तीनों इकट्ठे ही उस के यहाँ चले चलेंगे ।”

“किस समय चलना है ?”

“एक दो दिन में तय कर लेंगे, लेकिन तू परेशान क्यों हो रहा है ? जब सुरेन्द्र वापस आ ही गया है तो अब भाग कर कहां जायेगा ? मिल लेंगे ।” नारायण शब्दों को चबा चबा कर बोल रहा था ।

कमरे में आ कर नीता ने विनोद के हाथ में चाय का प्याला देते हुए पूछा, “किस का फ़ोन था?”

“नवीन का फ़ोन आया था । वह कह रहा था कि सुरेंद्र लौट आया है,” विनोद ने सोफ़े पर आराम से बैठते हुए कहा ।

“हमें उस से मिलने जाना चाहिये ।” नीता चाय का घूंट लेते हुए बोली ।

“नारायण, नवीन और हम लोग इतवार को साथ चलेंगे ।”

“ हैं ? इतवार को ? इस तरह तो टी.वी. की फ़िल्म मारी जायेगी ।”

“क्या बात करती हो, सुरेंद्र के दुःख का तुम्हें पता है । तुम उस के लिये एक फ़िल्म नहीं छोड़ सकती ?”

“मेरा मतलब है कि हम किसी और दिन भी तो जा सकते हैं ।”

“नारायण और नवीन को बाकी दिन फ़ुर्सत नहीं है ।”

“मैं अभी शम्मी से बात करती हूँ ।”

नीता खाली प्याला मेज़ पर रख कर फ़ोन के पास चली गई और नारायण की पत्नी शम्मी का नंबर मिलाने लगी ।

“शम्मी! क्या हम लोग इतवार के अलावा किसी और दिन सुरेंद्र के यहाँ नहीं चल सकते?”

“यार ! तू तो जानती है कि मैं दस किलोमीटर मोपेड पर फ़ासला तय कर के स्कूल से लौटती हूं । फिर मुझ में हिम्मत नहीं रहती कि कहीं जाऊँ ।”

“सुना है इस इतवार को अक्षय कुमार की कोई फ़िल्म है । फिर कैसे जाना होगा ?”

“अक्षय कुमार की चमची, चलना तो इतवार को ही पड़ेगा । पर यार, एक इतवार ही तो मनोरंजन करने को मिलता है वह भी रोने के लिये जाओ ।”

“मैं भी यही...” विनोद को अपनी तरफ घूरते हुए पा कर नीता ने अपनी बात अधूरी ही छोड़ दी ।

“हम ऐसा क्यों न करें...सुरेंद्र के घर के पास जो बाग है, क्या नाम है उस का?”

“पालिका उद्यान ।”

“ हाँ ,हाँ तो क्यों न दिन में वहां पिकनिक मना ली जाये । शाम को उन के यहां हो आयेंगे ।”

“क्या ज़ोरदार सुझाव दिया है । मैं अनु से बात कर के तुम्हें फ़ोन करूंगी ।”

“नीता ने फ़ोन रख कर विनोद की तरफ देखा । विनोद ने अख़बार खोलते हुए पूछा, “कौन से ज़ोरदार सुझाव की बात हो रही थी?”

“शम्मी कह रही है कि हम लोग इतवार को जब सुरेंद्र जी के यहां चलें तो गार्डन में पिकनिक मनाते हुए चलें ।”

“तुम औरतें भी...I” विनोद का चेहरा गुस्से से लाल पड़ गया, “उन के यहां दुःख प्रकट करने जाना है या मौजमस्ती करने?”

“इस में बुरा क्या है? तुम लोग हम औरतों की परेशानी क्यों नहीं समझते ? घर को भी संभालो, बाहर का भी देखो । शनिवार, इतवार थोड़ी उम्मीद रहती है कि थोड़ा घूम फिर कर दिल बहलायेंगे...”

“सोचो, अगर हमारे साथ ऐसा हुआ होता तो?”

“कैसी बुरी बातें कर रहे हो ? ”

“क्यों, हम कोई दुनियाँ से निराले लोग हैं, जो हमारे साथ ऐसा नहीं हो सकता?”

“अगर हमारे साथ ऐसा हुआ होता तो बाकी भी इसी तरह की बातें कर रहे होते, जैसी हम कर रहे हैं । मुझे तो एल.आई.जी. कॉलोनी में जा कर वही पुराने दिन याद आने लगते हैं ।”

छोटे छोटे दो कमरों के ऊपर नीचे के फ़्लैट्स में सब कैसे करीब आ गये थे । किसी घर में कोई अच्छी चीज बनती तो बाकी के छः भी उसी घर में आ जुड़ते । किसी के यहां कोई बीमार होता तो सब के मुंह लटक जाते । सब मिल जुल कर उस की देख भाल करते । कहीं भी घूमने जाना होता तो सब साथ निकलते । उन सभी घरों में कोई फर्क नहीं रहा था । सब से पहले सुरेंद्र का बेटा हुआ था । लगा था उस के होने की खुशी में वे सब सारी कॉलोनी को हिला कर रख देंगे ।

विनोद ने वह कॉलोनी सब से पहले छोड़ी थी, क्यों कि नीता को जीवन बीमा निगम में नौकरी मिल गई थी । वे होने वाले बच्चों को कुछ बेहतर माहौल देना चाहते थे ।

नवीन के चाचा की बहुत बड़ी टी.वी. फैक्टरी थी । उस ने टी.वी. के कल पुर्ज़ों का कारोबार शुरू किया। कारोबर चल निकला तो उस ने भी अपना बोरिया बिस्तर समेट कर चार कमरों का एक फ्लैट लिया और उस में चला गया ।

नारायण की पत्नी को अध्यापिका की नौकरी मिल गई और उसे एम.बी.ए. करने के कारण अपनी ही कंपनी में उच्च पद मिल गया था । एल.आई.जी. कॉलोनी में सिर्फ़ बचा रह गया था सुरेंद्र । बेटा पैदा होने के बाद उस की पत्नी कुछ करने का सोच ही रही थी कि तभी उन के यहां ऋचा का आगमन हुआ । तब भी तीनों दोस्त बधाई देने पहुंचे थे ।

“तू ने तो परिवार नियोजन पर पूरी तरह अमल किया है ।”

“लगता है हम लोगों से कुछ चूक हो गई । इसलिये मेरे दोनों बेटियाँ है । विनोद दो बेटे पैदा कर के बैठा है । नवीन की गाड़ी एक बेटे से आगे खिसक नहीं रही । शाबाश बेटा ।” नारायण ने आदत के अनुसार सुरेंद्र की पीठ पर धौल जमाया था । वही पुराना बेफ़िक्र ठहाका गूंज गया था ।

धीरे धीरे सुरेंद्र ठहाकों से गूंजती, सेंट से महकती महफ़िलों से कटने लगा था । हमेशा तनी रहने वाली आंखों से परेशानियों छलकने लगी थीं । कंधो का कसाव कुछ ढीला पड़ आया था । शायद वह महसूस करने लगा था तीनों दोस्तों के पेट सीमा से निकल कर अपनी ख़ुशहाली बताते रहते हैं । उनकी पत्नियों की भड़कीली साड़ियों के सामने उसकी पत्नी की साड़ी बेरौनक हो उठती है । हर पिकनिक पर तीनों दोस्त ठाठ से स्कूटर से पहुँच जाते हैं । वह अपने दोनों बच्चों को गोदी में संभाले दो-तीन बसें बदलता हुआ पहुँच पाता है । थोड़ी देर में उसे वापिस घर लौटने के लिये बस की चिंता सताने लगती है । बाद में उसने आना ही बंद कर दिया । बहाना किया था ऋचा की बीमारी का । तब वे उसे सिर्फ़ बहाना ही समझते थे ।

***

“सुनो अनु ! मैं नीता बोल रही हूँ ।” नीता ने नवीन की पत्नी अनु को फ़ोन किया ।

“हाय ! बड़े दिनों में ख़बर ली ?” अनु तीनों में उम्र में छोटी है इसलिये हर नये लटके झटके अपना लेती है ।

“सुरेंद्र जी लौट आये हैं ।”

“कब...कब लौटे?”

“अभी कुछ दिन हुए हैं ।”

“फिर तो उनके यहाँ मिलने जाना पड़ेगा ।” अनु बेबसी से बोली ।

“सब प्रोग्राम बना रहे हैं इस इतवार को चलेंगे ।”

“मैंने तो उस दिन ‘ब्यूटीशियन’ से समय तय कर रखा है, फिर हमारे यहाँ मेहमान भी आ रहे हैं ।”

“यार,!क्या बात करती है ? नवीन जी ने ही तो आज अपने दफ़्तर से इन्हें फ़ोन किया था कि इतवार को चलेंगे ।”

“अच्छा ? मुझसे पूछा भी नहीं ।”

“सुनो, मैं और शम्मी सोच रहे हैं कि गार्डन में पिकनिक मनाते हुए चला जाये क्योंकि इतनी दूर जाकर बिना एक प्याली चाय के लौटना भी एक मुसीबत है ।”

“हाँ, अच्छा सुझाव है । मैं ‘ब्यूटीशियन’ को मना कर दूँगी । मेहमानों को फ़ोन करके बहाना बना दूँगी । कितना अच्छा मौका मिला है । बहुत दिनों से हम तीनों मिले भी तो नहीं है ।”

नीता को बुरा लगा । शायद अनु बिना सोचे समझे कह गई थी कि कितना -`अच्छा मौका मिला है ।`

इतवार को तीनों स्कूटरों का काफ़िला निकल पड़ा । तीनों स्कूटर खाने पीने की चीजों से लदे हुए थे । बच्चों ने गैसे के गुब्बारे खरीद लिये थे । उनकी जेबों में ‘एक्लेयर्स’ व जैम भरे हुए थे । जो कार गुब्बारे उड़ाती आगे निकल जाती उसके बच्चे पिता को जोश दिला रहे थे कि उन की कार ही सबसे आगे निकले ।

बाग में दो दरियाँ बिछा कर टिफ़िन थर्मस और बर्तन बीच में रख दिये गये । सारे बच्चे दौड़ कर झूला झूलने चले गये ।

अनु दरी पर बैठते ही बोली, “यार! अगर ऐसा मौका नहीं होता तो मैं भैया का यू एस से भेजा गाऊन पहन कर आती ।”

नीता और शम्मी उसकी बात से जल भुन गई । वे अनु की आदत से अच्छी तरह परिचित थीं । वह यह जताये बिना नहीं रहती थी कि उसने कोई नई ड्रेस खरीदी है या रईस माँ के परिवार ने गिफ़्ट की है । विनोद ने अनु को गुस्से से घूर कर देखा । उन छः व्यक्तियों में एक वही गुमसुम सा था ।

यह बात सबसे पहले विनोद को ही पता लगी थी कि ऋचा के दिल का एक वाल्व ख़राब है, इसलिये साधारण बच्चे की तरह उसका शरीर नहीं बढ़ रहा है । उसके हाथ व पैरों के नाखून नीले रहते हैं । उसके रंग में सांवला पन भी इसी कारण है । उसे कुछ रुपयों की ज़रूरत थी । विनोद ने चुपचाप उसे रुपये दे दिये थे । घर में नीता को नहीं बताया था। ऋचा के महंगे इलाज के कारण सुरेंद्र एक महीने रुपये लौटाने आया तो चौथे महीने और उधार माँगने चला आता था।

सुरेंद्र उन तीनों की तरह दौड़ती जिंदगी से कदम से कदम मिला कर साथ नहीं दौड़ पाया, इसलिये पिछड़ गया था । उसे काफी प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था । विनोद को छोड़ सभी उसे पीछे छूट गई ज़िन्दगी का कोई ग़ैरज़रूरी हिस्सा मानने लगे थे । विनोद ने तीनों को ख़बर की थी कि वह ऋचा का ऑपरेशन करवा के ले आया है । लेकिन सभी कोई न कोई बहाना बना कर उसे देखने जाने की बात टाल गये थे। वह ही नीता को ज़बरदस्ती अपने साथ ले गया था ।

सुरेंद्र और उस की पत्नी दोनों का चेहरा देख कर नीता का दिल भी पसीज गया था । वैल्लूर जैसी अनजान जगह में ऋचा के ऑपरेशन के लिये की गई भागदौड़ से वे क्लांत थे । अत्यधिक तनाव में रहने के कारण उन का शरीर शिथिल हो रहा था ।

तब उस की पत्नी वैल्लूर की बात बताते हुए रो पड़ी थी, “ऑपरेशन के बाद यह 24 घंटे बेहोश रही थी। आई सी यू की कांच की दीवार से ही हम लोग उसे देख सकते थे । उसी रात दो बच्चे ऑपरेशन की मेज़ पर ही ख़त्म हो गये थे । होश में आने पर भी ऋचा न तो रोई, न मेरे पास आने की जिद की। चुपचाप बिस्तर पर मुस्कराती पड़ी रहती थी । डाक्टर और नर्स भी इस की बहादुरी के कारण इसे बहुत प्यार करने लगे थे ।”

ऋचा के शरीर पर ऑपरेशन के बड़े निशान को देख कर उन दोनों का दिल दहल उठा था क्या यह नन्ही सी जान झेल सकेगी दो और ऑपरेशन ?

“आप सब लोग उठिये, चलिये हम लोग कोई खेल खेलें I” नारायण की बेटी सुलभा एक एक कर के सब को उठाने लगी ।

“भई, पहले खाना तो खा लो । बड़े जोरों से भूख लगी है,” अनु अपने टिफ़िन की तरफ बढ़ते हुए बोली ।

“आप बड़े लोग बहुत बेईमान होते हैं । खाना खा कर कहेंगे कि पेट बहुत भर गया है । अब दौड़ा नहीं जाता ।” विनोद के बेटे ने यह कहते हुए उस का हाथ खींच कर उठा लिया और सब से पहले उसे ही दौड़ने को कहा ।

इतनी तेज़ी से होते हुए खेल में भी शम्मी जैसे कहीं खो सी गई थी, “याद है जब चार पांच साल पहले सुरेंद्र इसी बाग में हमारे हाथ आये थे, तब ऋचा शायद दो तीन साल की थी । यह भूख के कारण चुपचाप किसी का डब्बा खोल कर मिर्च वाली सब्जी खाने लगी थी ।”

“हां, हां, खाने के बाद वह बहुत तेज़ चीख कर रोई थी तब मैं ने जल्दी से उसे गोद में उठा कर पानी पिलाया था ।” नवीन जैसे याद में खो गया था ।

“मैं ने उस के मुंह में गाजर का हलवा डाल कर चुप कराया था ।” नीता भी भावुक हो उठी थी ।

विनोद सोचने लगा था -कितने विचित्र हैं ये लोग, जिंदगी की तेज रफ्तार मनोरंजन में सुकून पाने की असफ़ल कोशिश करते रहते हैं । कुछ देर उस जीवन से छुटकारा मिलने पर बाग की हरियाली में इन की कोमल भावनाएं जाग उठती हैं शायद ।

सुलभा पैर पटक कर चीखी, “आप लोग तो गप्पें मारने लगे, सब गड़बड़ हो रहा है ।”

“ऐसे बोर लोगों के साथ हम नहीं खेलते ।” डिंपी घेरे से बाहर आ गया ।

बच्चे रूठ कर एक तरफ़ खड़े हो गये और छिपा छिपी खेलने लगे ।

“विनोद ! ऋचा को वेल्लूर को भेंट चढ़ा आया हूं ।” विनोद को लग रहा था जैसे अभी भी सुरेंद्र फ़ोन पर रो रहा हो ।

“क्या ? ऐसा कब हुआ?”

“परसों । बड़े ऑपरेशन से पहले उस का एक छोटा ऑपरेशन किया था । उसी में वह...” सिसकियों के बीच सुरेन्द्र को अपनी बात भी पूरी करनी मुशकिल हो रही थी ।

“जाने से पहले तुम ने बताया था कि तुम ने उस के बड़े ऑपरेशन के लिये रुपये कर्ज ले कर इकट्ठे कर लिये हैं । तुम किसी भी कीमत पर उसे बचा लोगे ।”

“सोचा तो पता नहीं क्या क्या था । शायद वह समझ गई थी कि उस के पिता ने अपनी हैसियत से अधिक रुपया इकट्ठा किया है इसलिये उसे ख़र्च करवाने से पहले ही चली गई ।”

“हम लोग अभी पहुंच रहे हैं ।”

“मैं तुम्हें स्टेशन से फ़ोन कर रहा हूँ । अपने घर में एक मिनट भी रुकने का दिल नहीं कर रहा था । हम लोग अपने मां बाप के घर जा रहे हैं ।”

“मैं अभी स्टेशन पहुंचता हूँ ।”

“गाड़ी चलने में 15-20 मिनट बाकी है । जब तक तुम पहुँचोगे गाड़ी चल देगी ।”

“कितनी प्यारी बच्ची थी ।” विनोद फुसफुसा उठा था ।

“विनोद, क्या बड़बड़ा रहे हो ? इतना दुखी होने से कुछ होने वाला नहीं है,” नारायण उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला ।

“हम तो यही सोच कर सब्र कर लेते हैं । अगर बड़े ऑपरेशन के बाद मर जाती तो सुरेंद्र का उधार लिया रुपया और डूब जाता ।” नवीन ने अपनी राय दी ।

“चूप बे बनिए । तेरी तो हर बात पैसे से शुरू और पैसे पर ही ख़त्म होती है,” विनोद नवीन से बोला ।

नीता ने नवीन का पक्ष लिया, “इस में बनियेपन की बात नहीं है । बड़े ऑपरेशन के बाद यदि ऋचा मर जाती तो पैसा तो डूबता ही ।”

“एक तरह से अच्छा ही हुआ । जैसा डॉक्टर बता रहा था कि ऑपरेशन के बाद भी कुछ वर्ष जी पायेगी या ऑपरेशन के बाद उसमें कुछ डिफ़ेक्ट भी आ सकता है I” गंभीर होने की कोशिश में अनु का चेहरा और भी हास्यास्पद लगने लगा था ।

“ मम्मी...” डिंपी प्रीति के धक्के से एक तरफ गिर गया था । पैर मुड़ने से वह बहुत तेज चीख के साथ रोने लगा था । उस की चीख नीता के कलेजे में घूंसे की तरह लगी थी । वह दौड़ कर उस का पैर सहलाने लगी थी । वह डबडबाई आंखों से देखता हुआ रो रहा था, “ मम्मी ! बहुत दुखता है ।”

नीता ने उस के सिर को अपने सीने में भींच कर सांत्वना दी, “बेटे! चुप हो जा, चुप हो जा ।” उस की आंखों में कहीं कलपता हुआ कलेजा लिये सुरेंद्र की पत्नी का चेहरा घूम रहा था ।

खाने पीने के बाद सभी दरियों पर अधलेटे से गपशप करने में लग गये । शायद विनोद को ही चैन नहीं था । वह घड़ी देख कर बोला, “साढ़े पांच बज गये हैं । सब लोग पांच मिनट में तैयार हो जाओ ।”

“अच्छा, नेताजी! और कुछ आज्ञा?” नारायण ने कुछ इस नाटकीय ढंग से कहा कि उन की अधसोएपन की सुस्ती एक ठहाके से तिरोहित हो गई ।

नीता ने अपने छोटे बेटे के मुंह पर बह आये चाकलेट के दाग को गीले नेपकिन से पोंछ दिया । अनु ने अपने बालों को काढ़ने के बाद पर्स से छोटा शीशा निकाल कर साथ में लिपस्टिक निकाली । लेकिन कुछ सोच कर उसे वापस पर्स में रख दिया ।

“सब लोग अपने टिफ़िन और थर्मस डिकी में डाल देना, क्योंकि सुरेंद्र देखेगा तो अच्छा नहीं लगेगा,” नवीन बोला ।

शम्मी ने अपनी आंखें थोड़ी निकालते हुए सब बच्चों को समझाया, “कोई भी वहां पिकनिक की बात करेगा, समझे?”

पिकनिक की मस्ती को झटक कर चेहरे पर एक गमगीन परत बिछा कर सब सुरेंद्र के घर पहुंचे और दरवाज़े पर लगी घंटी बजाई । विनोद सचमुच उदास था ।

दरवाज़ा सुरेंद्र की दुबलाई हुए पत्नी ने खोला । टी.वी. पर फ़िल्म शुरू हो चुकी थी । अक्षय कुमार बंदूक लिये छिपा खड़ा था । कुर्सी पर बैठे सुरेंद्र की नजर इन सब पर पड़ी । उस ने धीमे से उठ कर टी.वी. बंद कर दिया । वह ग़लतफ़हमी में था कि यह फ़िल्म उसे अपनी जकड़ में कस कर उस बात से दूर ले गई है जिसे वह भुलाना चाह रहा है । उन तीनों को देख कर उस का दिल घुमड़ने लगा । उस का मन हो रहा था कि वह बारी बारी से तीनों के कंधे पर सिर रख कर हिचकियां भर भर कर जी भर कर रो ले ।

 

नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail ---Kneeli@rediffmail .com

 

 

 

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