जीवन ऊट पटाँगा - 8 - सोने का हार Neelam Kulshreshtha द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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जीवन ऊट पटाँगा - 8 - सोने का हार

सोने का हार

नवीन व सोना ने नया नया घर बसाया था। दोनों के चेहरे पर युवा उम्र की लुनाई ,नये रिश्ते के प्यार की चमक झिलमिलाती रहती थी। दो परिवारों ने ये रिश्ता तय किया था इसलिए अभी एक दूसरे को अच्छी तरह जाना नहीं था। एक दूसरे के लिए हम बने हैं---ये रिश्ता सात जन्मों का है---हम एक जान दो शरीर हैं ---जैसे लुभावने भ्रम में जी रहे थे। उन दोनों के चेहरे पर सहज मासूमियत व दुनियाँ जीत लेने ,प्यार पाने की खुशी रहती थी वर्ना हर सुख दुख की स्पष्ट छाप बनती जाती है । ‘दुनिया देख ली है ’-जैसा कुछ बिछता जाता है ।

उन दिनों नवीन के दफ्त़र जाने के बाद सोना के पास करने को कुछ न बचता था । पर्दे सिल गये थे, कुशन कढ़ गये थे, स्वेटर भी बना लिये गये थे । दो वर्ष के लिये परिवार नियोजन चल रहा था । पढ़ने का शौक भी बस फ़िल्मी पत्रिकाओं के चमकते चेहरे देखने या उन चटपटे किस्से पढ़ने तक सीमित था । नवीन भी नौ बजे का निकला शाम को छः बजे घर आता था।

वह बेवजह बिस्तर पर पड़ी पड़ी ऊबती रहती । आसपास की औरतों के बीच बैठने का मन नहीं होता था । सब पड़ोसिनें छोटे मोटे व्यापारियों की खूसट बीवियां थी । ऐसी दोपहर में यदि किसी कंपनी का सेल्समैन या सेल्सगर्ल आ जाती तो वह उस से घंटा आधा घंटा माथापच्ची करती रहती । एक एक चीज की दस बार अच्छाई बुराई पूछती रहती । समय किसी तरह तो काटना था ।

ऐसी ही एक उबाऊ दोपहर थी । बाहर सड़क से अचानक ढोल व बांसुरी की आवाजें आने लगी । ‘ऊंह, अनाथालय वाले होंगे । `पता नहीं इस शहर में कमबख्त कितने अनाथालय हैं । जब देखो, कोई न कोई चला रहा है ।’ अभी वह सोच ही रही थी कि दरवाज़े की घंटी बज उठी । हाथ में बालों को सुलझाती वह अलसाए हुए उठी । दरवाज़ा खोलते ही वही चिरपरिचित दृश्य दिखाई दिया जो पिछले छः महीनों से यहाँ आने के बाद से हर हफ़्ते दो हफ़्ते में दिखाई देता था- हाथ में लगा परिचयपत्र व चेहरे पर निराश्रित सी करुणा लिये अनाथ बालक.

सामने दरवाज़े पर खड़े बारह तेरह वर्ष के एक सुकुमार व भोले चेहरे वाले लड़के ने उसे देखते ही कहा, “दीदी !हम हुसैनगंज के अनाथालय से आए हैं । आप कुछ भी दे दीजिये-कपड़ा, खाना, पैसे ।”

अनाथों के प्रति उस के दिल में शुरू से ही एक नाजुक ममत्व था, लेकिन हर दस पंद्रह दिनों में आने वाले अनाथों ने उस में झुंझलाहट भर दी थी । झुंझलाये हुए स्वर में उस ने कहा, “क्या रोज रोज इधर चले आते हो, और कोई जगह नहीं मिलती?”

“दीदी! हम तो पहली बार इधर आये है । बस कभी कभी आया करेंगे । कुछ तो दे दो, बहन।”

“क्या पता तुम लोग अनाथालय के हो भी या नहीं । लाओ, अपना अनाथालय का कार्ड दिखाओ, मैं उस पते पर पत्र डाल कर पता करूंगी ।”

“आप जरूर पता कर लीजिये...” वह कुछ और कहता इस से पहले ही उस ने उस के हाथ में से कार्ड ले कर गुस्से में दरवाज़ा बंद कर लिया । फिर कार्ड कहीं रख कर भूल गई । वह जानती थी कि अनाथालय से आने वाले लड़कों को वही सब से अधिक देती है । आसपास की औरतें उसे इस वजह से टोकती भी थीं, किंतु पता नहीं उस दिन क्यों उसे गुस्सा आ गया ।

लगभग डेढ़ महीने बाद एक दिन दरवाज़े की घंटी बजने पर उस ने दरवाज़ा खोला तो सामने प्यारी भली भली सी सूरत देखने को मिली । अंदर का प्यार उमड़ आया। कहीं किसी का भाई या बेटा होता तो क्या इस तरह दरवाज़े दरवाज़े भटक भटक कर झिड़की खा कर रहम की भीख मांगता फिरता ? जब इतने आत्मविश्वास से दोबारा दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ है तो जरूर उसी अनाथाश्रम का लड़का होगा । फिर तो जैसे अचानक ही दया, ममता उमड़ आई । उस ने उसे कुछ बचाखुचा खाना, कुछ पैसे तथा कहीं से ढूँढकर नवीन की एक पुरानी कमीज दे दी ।

फिर कुछ दिनों बाद दरवाज़ा खोला तो एक लंबी हंसी उस के होठों से फिसल गई । सामने वही लड़का खड़ा था । उस के कन्धो से कमीज के कंधे काफ़ी नीचे खिसके हुए थे, इसी लिये उस ने कमीज की बांहे आगे से मोड़ी हुई थीं ।

“क्यों, रे, तुझे कोई कमीज छोटी करने वाला नहीं मिला?”

“कौन छोटी करेगा? अपना कौन बैठा है?” उस ने मायूस हो कर जवाब दिया।

उस का यह उत्तर सुन कर वह करुणा से भर उठी । अब जब भी कभी वह महीने डेढ़ महीने बाद आता, वह उसे दरवाज़े  से खाली हाथ नहीं लौटा पाती थी ।

एक रविवार को सुबह सोना रसोई में नाश्ते के लिये पकौड़ियां तैयार कर रही थी। नवीन को ठेल ठाल कर उठाया था। वह वाश बेसिन के पास ब्रश कर रहा था । तभी दरवाज़े की घंटी बजी । उस ने बेसन लगे हाथों से ही दरवाज़ा खोला । दरवाज़े पर वही अनाथ लड़का खड़ा था । उस के साथ बीस बाईस वर्ष के दो लड़के और खड़े थे जो अक्सर ढोल व बांसुरी बजाया करते थे ।

उस की चढ़ी त्योरियां देख कर वह कुछ सहम गया और जल्दी से बोला, “दीदी !मैं आज कुछ मांगने नहीं आया । ये मेरे साथी हैं । इन को साहब से कुछ काम है ।”

वह दरवाज़ा अधखुला छोड़कर नवीन के पास आई, “सुनो, अनाथालय का वही सुरेश या है । उस के साथ दो लड़के और आये हैं । उन्हें तुम से कुछ काम है ।”

“मुझ से?” नवीन ने कुल्ला करते हुए कहा ।

“हां ।”

नवीन मुंह धो कर दरवाज़े पर आया और बोला, “कहो ।”

उन में से एक लड़का बोला, “साहब !हम दोनों भी उसी अनाथालय के हैं, हमें आप की मदद चाहिये ।”

“क्या मदद चाहिये ?” नवीन ने मुस्कराते हुए पूछा ।

वह छोटे लड़के की तरफ इशारा कर के बोला, “सुरेश ने कहा था कि उस की एक दीदी हैं, शायद वही कोई सहायता करें ।”

दूसरा बोला, “आगर आप किसी से न कहें तो हम आप से कुछ राय लेना चाहते हैं ।”

“हां...हां, बताओ न ।”

पहला बोला, “पहले आप वचन दीजिये कि आप किसी से कुछ नहीं कहेंगे ।”

“देखो, मैं तो ऐसा हूँ नहीं कि किसी का विश्वास तोडूं । यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास हो तो अपनी बात बता दो ।”

नवीन उन्हें कमरे में ले आया । सब से बड़े लड़के ने ही झिझकते हुए बात शुरू की, “साहब! बात यह है कि हमारे पास सोने का एक हार और व चाँदी के पचास सिक्के हैं । यह पता लगवा दीजिये कि वह हार खरे सोने का है या नहीं ।”

“तुम्हें यह सब कहाँ से मिला? क्या तुम लोग चोरी भी करते हो ?” नवीन कुछ उत्तेजित हो कर बोला ।

“नहीं, साहब, चोरी करते होते तो अपने आप बेचने की हिम्मत भी कर सकते थे । एक बार हम लोग एक गांव में मांगने गये थे । वहां किसी सेठ के यहाँ लड़की की शादी थी, इसलिये उस ने हमें आटा, दाल-चावल दे दिये और एक पुरानी टूटी फूटी सी धर्मशाला दिखाते हुए कहा कि हम वहाँ अपना खाना बना सकते हैं ।”

“हम तीनों एक साथ थे, बाकी लड़के गांव में मांग रहे थे । हम लोगों ने जैसे ही चूल्हा बनाने के लिये ज़मीन खोदनी शुरू की तो ऐसा लगा कि धातु का कोई बरतन दबा हुआ है । हम लोग जल्दीजल्दी ज़मीन खोदने लगे । थोड़ी सी ज़मीन खोदने पर एक लोटा गढ़ा हुआ मिला । लोटे के मुँह से कुछ मिट्टी हटा कर जैसे ही उसे ज़मीन पर उलटा किया, उस में से चांदी के सिक्के और हार नीचे गिर गये । आप तो जानते ही हैं कि हम लोग अनाथालय में ही पले हैं, इतना धन देख कर घबरा गये कि क्या करें । बस, हमें यह पता लगवा दीजिये कि हार खरे सोने का है या पीतल का ।”

“जब किसी ने इसे यत्न से ज़मीन में दबाया है तो निश्चित ही सोना होगा ।”

सोना भी उन के पास खड़ी बातें सुन रह थी । वह बोली, “तुमने अनाथालय के मैनेजर को क्यों नहीं बताया ?”

“दीदी! उसे कैसे बताते ? यदि हार सोने का हुआ तो उसे बेच कर वह सारा पैसा हजम कर जायेगा । हमारे नाम से मिलने वाले दान तक को वह डकार जाता है । ऐसे नीच व्यक्ति से क्या राय ली जा सकती है ?”

सोना की आंखों में फ़िल्मों  में देखी अनाथालय के मैनेजर की छवि उभर आई, आंखों व चश्मे से झांकता हुआ काइयांपन और हाथ में छड़ी जो बच्चों की पीठ पर जब तब निशान उभार देती थी ।

“आप क्या कहीं से पता लगा सकते हैं कि यह हार सोने का है या नहीं?”

“भई, हम इस शहर में नये हैं. किसी सुनार को ठीक से नहीं जानते ।” नवीन ने उन्हें टालना चाहा ।

“साहब! आप पता लगवा दें तो अच्छा है । यदि हार सोने का हुआ तो हमारी जिंदगी बन जायेगी । 25 साल के होने पर हमें अनाथाश्रम छोड़ना पड़ता है । कुछ रकम पास में होगी तो कोई धंधा कर लेंगे ।” उन में वही लड़का सब से बड़ा लग रहा था । उस का नाम मोहन था । बाद में पता लगा कि वह अगले वर्ष पच्चीस वर्ष का होने वाला है ।

“दीदी! आप ही पहचान कर बता दीजिये न ।” इस बार सुरेश बोला ।

“देखो, मैं तो सोना नहीं पहचान सकती ।”

“आप के पास जो सोना हो उस से मिला कर बता दीजिये ।”

“मैं तो यहां घर पर सोना रखती नहीं हूं । जो भी थोड़ा बहुत है वह बैंक के लाकर में रहता है ।” उस ने थोड़ा झूठ बोल दिया । क्या पता रात में चोरी करने के लिये टोह ले रहे हों ?

“साहब! हमारी कुछ सहायता कीजिये । नहीं तो हम कहाँ जायेंगे ? आप लोग विश्वास के लगते हैं, इसलिये यह बात बता दी है । नहीं तो सात महीने से हम लोग न तो ठीक से खा पाते हैं और न ही सो पाते हैं । किस का विश्वास करें, समझ नें नहीं आता । सच ही माया का मोह बुरा होता है ।”

“चल, तेरी दीदी सहायता नहीं करती तो हम उस हार कहीं नदी में डाल दें । हो सकता है, हार सोने का न हो, क्यों उस की चिंता में बेकार परेशान रहें? ” बीच की उम्र वाला ललित दरवाज़े की तरफ मुड़ते हुए सुरेश से बोला ।

“क्या तुम लोग हार अपने साथ लाये हो?”

“हम हार को अपने साथ नहीं रखते । हम ने उसे अनाथालय की बगिया में मिट्टी में दबा रखा है ,” मोहन ने बाहर जाने के लिये दरवाज़ा खोल लिया था ।

नवीन को कुछ तरस आया । वह बोला, “सुनो, मैं पता लगा दूंगा । लेकिन मैं पूरा हार बाज़ार नहीं ले जाऊँगा, उस का एक टुकडा ही ले जाऊंगा ।” उसे भय था कि यदि हार चोरी का हुआ तो कहीं वह फंस न जाये ।

“ठीक हैं । हमें पता लगवा दीजिये । हम लोग तीन रोज़ बाद इधर आयेंगे ।” तीनों के बुझे चेहरे फिर से प्रदीप्त हो उठे थे ।

“तीन रोज बाद नहीं, अगले रविवार को आना । मैं रविवार को ही मिल सकता हूं ।”

अगले रविवार पता नहीं कैसे जल्दी ही आँख खुल गई । समय धीरे धीरे सरकता सा लग रहा था । दरवाज़े  की घंटी बजी । दोनों झटपट दरवाज़े की तरफ भागे, लेकिन सामने काम वाली खड़ी मिली । फिर थोड़ी देर बाद घंटी बजी । इस बार दूध वाला था । तीसरी बार वे तीनों ही थे सहमे, सकुचाए से । उन को अंदर बुला कर नवीन ने दरवाज़ा बंद कर लिया ।

“हार ले कर आये हो?”

“हाँ,” कहते हुए मोहन ने अपनी जेब से मैले कपड़े की थैली निकाली । सोना का दिल जोर से धड़क उठा, एक सनसनाहट सी होने लगी । वह भी यह जानने को उत्सुक थी कि क्या सचमुच उन लड़कों का ज़मीन में दबा खजाना मिला है ।

मोहन ने थैली पर कसी डोरी खोली और उस को उस की हथेली पर उलट दिया । उस के हाथ पर पड़ा पांच लड़ियों वाला भारी भरकम चमचमाता कम से कम एक सौ पचास ग्राम सोने का हार । सोना के मुंह से एकदम निकला, “अरे, यह तो वाकई सोना है ।”

ललित बोला, “आप के पास कोई चीज़ होगी जिस से यह तोड़ा जा सके ?”

नवीन अंदर से संड़ासी और हथौड़ी ले आया । ललित ने एक लड़ी का एक मनका निकाल लिया । मनके को उस ने संभाल कर एक कागज में लपेट लिया और सोना को पकड़ा दिया ।

“साहब! हम लोग इस हार को कहां कहां लिये घूमेंगे ?ऐसा कीजिये, आप ही इसे अपने पास रख लीजिये ।”

“नहीं....नहीं, हम लोग इसे नहीं रख सकते । तुम लोगों की चीज़ है, तुम्हीं संभालो ।”

“साहब, हम को आप पर व दीदी पर पूरा विश्वास है, इसलिये आप से कह रहे हैं.” इस बार सुरेश बोला।

“भई, मैं होऊं या दीदी, सोने की चीज़ के लिये किसी पर विश्वास नहीं करना चाहिये । किसी और व्यक्ति के पास भी मत रख देना, उसकी नीयत डोल सकती है । इसे अपने पास ही रखो, शायद तुम्हारा भविष्य बन जायेगा ।”

“हम लोग आप से अब कब मिलने आएं?”

“देखो, तुम में से अब कोई एक ही आये । इकट्ठे आओगे तो आसपास वालों को शक होगा । मैं इस का परसों तक पता लगा लूंगा ।”

बाज़ार में सुनार भी उस मनके को कसौटी पर परख कर खुश हो गया, “एकदम खरा सोना है । आजकल बाईस कैरेट का सोना मिलता कहाँ है? बाईस का लोग बोलते जरूर हैं, लेकिन होता बीस का ही है ।”

यह सुनते ही नवीन अनजानी खुशी से भर गया । ‘अच्छा है बेचारों का भविष्य बन जायेगा । हार कम से कम एक सौ पचास ग्राम का जरूर होगा.’ नवीन ने सोचा ।

तीसरे दिन मोहन ही पहले आया । हार शुद्ध सोने का है, यह बात सुन कर उस की आंखें भर आईं । वह नवीन का हाथ अपने हाथ में ले कर बोला, “साहब! आप जिंदगी भर खूब उन्नति करें । आप ने हम अनाथों की सहायता की है । अब जब की फ़ुर्सत हो तो सिक्का भी परखवा दें ।”

“सुनो, यह मोहन उन तीनों में बड़ा लगता है । पता नहीं दोनों को बतायेगा या नहीं कि हार सोने का है। हार को नकली बता कर वह कहीं स्वयं ही न हजम कर ले,” सोना रात में नवीन के पास लेटते हुए बोली थी।

“अरे, यह तो मैं ने सोचा ही नहीं । हमें तीनों को बुला कर यह बात बतानी थी । बेचारा सुरेश सब से छोटा है । ये लोग उसे बहका न दें,” नवीन ने कहा । फिर दोनों ही आशंका से भर गये ।

यह आशंका बार बार सिर उठाती रही जब तक कि सुरेश व ललित उन के पास नहीं आ गये । उन्हें देखते ही सोना ने पूछा, “क्या तुम को पता लग गया है कि वह हार सोने का ही है?”

“हां, दीदी । जब तक अनाथालय में हैं तब तक हम तीनों में से कोई भी बेईमानी नहीं करेगा, लेकिन...” कहतेकहते ललित कुछ रुक सा गया ।

“लेकिन क्या?”

“यह मोहन अगले वर्ष पच्चीस वर्ष का हो जायेगा । क्या पता अनाथालय से निकल कर सीधे हार ले कर कहीं चंपत हो जाये । तब हम क्या करेंगे ? मैं अभी बीस वर्ष का हूं । सुरेश तो बस चौदह साल का ही है ।”

सोना भी उन की समस्या के बारे में सोच रही थी । सुरेश की बड़ी बड़ी आंखें उस से प्रार्थना करती सी लग रही थीं । एक तो कम उम्र, ऊपर से इतना भोला भाला । वह सारी बातचीत सिर्फ टकटकी लगा कर सुनता रहा, बहुत ही कम बोलता । लगता था हार हाथ से निकल जाने का भय उसके चेहरे पर चिपक गया हो ।

“तो फिर हम क्या कर सकते हैं ?” नवीन बोला ।

“साहब, आप यह हार किसी को बेच दीजिये । चाहे तो आप भी अपना कुछ हिस्सा ले लीजिये ।”

“एक बात  साफ़ समझ लो, मैं तुम्हारी सहायता हिस्से के लालच में नहीं कर रहा हूं । तुम ने कहा था, सोने का पता लगा दो । मैं ने पता लगा दिया । अब तुम जा सकते हो ।”

ललित व सुरेश खिसियाए से उठ कर चले गये । सोना का दिल सुरेश का चेहरा देख कर बैठा जा रहा था । उस ने नवीन से कहा, “आप को हार बेचने में क्या आपत्ति थी?”

“पता नहीं क्या लफड़ा है, हम तो अब बीच में नहीं पड़ेंगे ।”

चौथे दिन छः बजे के करीब सुरेश अकेला आया और हिचकी भरभर कर रोने लगा, “साहब! हार बिकवा दो, नहीं तो मेरा हिस्सा मारा जायेगा । दोनों इतने बड़े हैं कि मुझे डरा धमका कर मेरा भी हिस्सा ले जायेंगे । दीदी!साहब को समझाओ न ।”

वाकई उन दोनों को तरस आ गया । नवीन ने धीमे से कहा, “अच्छा, तुम उन दोनों को भेजना ।”

नवीन रविवार को ही घर पर मिलता था, इसलिये मोहन, ललित और सुरेश उसी दिन आये । आते ही मोहन बोला, “साहब! आज तो हमें शहर के दूसरे कोने में मांगने जाना था, फिर भी हम लोग चुपके से चले आये हैं । वहां से लौटने के समय तक पहुंच जायेंगे ।”

“तो तुम लोग हार बेचने को तैयार हो? देखो, मेरी एक शर्त है, तुम लोगों में से एक को मेरे साथ सुनार के यहां चलना होगा ।”

“ठीक है, मैं चला चलूंगा,” मोहन बोला ।

“साहब !यह नहीं हो सकता,” अचकचा कर ललित बोला ।

“क्यों?” नवीन ने उत्सुकता से पूछा ।

“क्योंकि हम लोग शुरू से ही इसी शहर में एक एक गली से न जाने कितनी बार गुजरे हैं । हम  बाज़ार में भी मांगते हैं, सब दुकानदार हमें पहचानते हैं । यदि दुकानदार को शक हो गया तो वह अनाथालय के मैनेजर को खबर कर देगा, फिर तो...”

“तू तो पागल है । हम तीनों में से एक साहब के साथ चला जायेगा तो क्या हो जायेगा?” मोहन उसे समझा रहा था ।

“नहीं, अगर हम तीनों में से एक भी गया तो भांडा फूट सकता है ।”

मोहन काफ़ी देर तक ललित को समझाता रहा, लेकिन वह नहीं माना । इस पर नवीन ने सुरेश से पूचा, “तुम क्या चाहते हो?”

वह अंध श्रद्धा से बोला, “जैसा दीदी कहेंगी, मैं वैसा ही करूंगा ।”

लेकिन ललित उठते हुए बोला, “छोड़ो इस झंझट को, उसे किसी कुएं में डाल देंगे । बेकार ही हैरान हो रहे हैं ।”

“नहीं...नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । साहब, अब तो बस एक ही चारा है, आप ही वह हार ख़रीद  लें,” मोहन बोला ।

“मैं...मैं क्यों?” नवीन आश्चर्यचकित रह गया ।

“आप अकेले हार बेच नहीं सकते । ललित आप के साथ किसी को भेजने के लिये राजी नहीं है । फिर इस समस्या का हल कैसे हो? साहब, आप को भी तो दीदी के लिये ज़ेवर चाहिये होंगे । आप ही ले लीजिये न,” मोहन ने हाथ जोड़ कर दयनीय स्वर में कहा ।

“ इसे ख़रीद ना मेरी हिम्मत से बाहर है ।”

“साहब! हमें तो थोड़ा रुपया ही चाहिये ।बहुत रुपया हम लोग कहाँ संभाल पाएंगे? आप हमें पांच लाख रुपया ही दे दीजिये, वही बहुत है ।”

“तुम से कहा न, मेरे पास इतने पैसे नहीं है । मैं इसे नहीं ख़रीद  सकता ।”

छठे दिन फिर उन तीनों ने आ कर उन्हें घेर लिया, “साह!, हम पर कुछ तरस खाइये । हम और किस के पास जाएं? दीदी को अपना माना है, इसलिये आप को इतना बता भी दिया । मैं साइकिल मरम्मत की दुकान खोलना चाहता हूं, ललित पेंट की दुकान खोलना चाहता है । हमारे सब सपने अधूरे रह जायेंगे.” मोहन दयनीय स्वर में बोला ।

“मैं ने कहा न, मेरे पास पैसा नहीं है ।”

इस बार ललित बोला, “साहब !यह क्या कम है कि आप जैसा दयालु आदमी हमें मिला है, कोई दूसरा होता तो हमें फंसवा ही देता । इसलिये हम लोगों ने तय किया है कि आप तीन लाख रुपये में ही यह हार ले लीजिये । यदि यह भी न दे सकें तो वैसे ही रख लीजिये ।”

“तीन हजार में?” नवीन हैरान हो गया । बैंक में उस का सिर्फ एक लाख रुपया ही था । वह सोच कर बोला, “अच्छा ऐसा करो, तुम लोग परसों आना । तब मैं अंतिम रूप से जवाब दूंगा ।”

उस रात नवीन सो नहीं पाया । सोना भी पलंग पर कसमसाती रही । जब पास की मिल का रात की पाली का हूटर बजा तो वह पानी पीने के लिये उठी । उसे उठते देख नवीन ने पूछा, “क्या अभी सोई नहीं हो ?”

“नहीं, नींद नहीं आ रही है ।”

“क्या हार का खयाल आ रहा है?” उस के लेटते ही नवीन ने पूछा ।

“नहीं, पर न जाने क्यों सुरेश का बार बार खयाल आ जाता है ।”

“मैं कुछ और ही सोच रहा हूं,” नवीन बोला, “यदि ये लोग किस्तों में रुपया लेने को तैयार हो जाएं तो उन्हें एक  लाख अभी दे देंगे । बाकी रुपया हार की दो लड़ बेच कर ही चुका देंगे । फिर भी हमें बहुत फ़ायदा हो ही जायेगा ।”

“मुझे ऐसे रुपये से मोह नहीं है,” वह उपेक्षा भाव से बोली ।

“मोह करना सीखो, मेरी जान ! मेरी बहिन और तुम्हारी बहन शादी के लायक है । मेरे पापा की हालत तो तुम जानती ही हो । मैं यह रुपया उस की शादी में लगा दूंगा । वैसे तो हम उन के लिये कुछ कर नहीं सकते । फिर इस से उन अनाथों का भी तो भला होगा ।”

नवीन की बात सुन कर सोना` न` नहीं कर सकी ।

तीसरे दिन तीनों लड़के नवीन का निर्णय सुन कर बहुत खुश हुए । सुरेश ने तो सोना के पैर छू लिये, “दीदी !यह सब आप के कारण ही हुआ है ।”

दूसरे दिन ही वे लोग हार देने आ पहुंचे । नवीन बैंक से रुपया ले आया था । बाकी का धीरे धीरे चुकाने का वादा कर लिया था ।

ललित ने अपनी पैंट की जेब में से हार की थैली निकाली और आहिस्ता से सोना की हथेली पर रख दी ।

“संभाल कर रख लीजिये, दीदी !”

“हूं,” कहती हुई वह अलमारी की तरफ बढ़ी । उस की आंखें अपनी बहन की भरी मांग की कल्पना कर के झूम उठी थीं ।

“साहब! अगर आप नौ हज़ार रुपये और दे दें तो हम लोग आराम से रुपया बांट लेंगे ।”

“हां...हां, अभी ले लो ।” कहते हुए नवीन ने नौ हज़ार रुपये और दे दिये ।

“अब हम लोग बाकी रुपया लेने कब आएं?”

“अगले महीने बोनस मिलने वाला है । तब मैं र और रुपये दे दूंगा । तभी बताऊंगा बाकी रुपया कब तक दे पाऊंगा ।”

“अच्छा, साहब! हम आप का एहसान ज़िंदगी भर नहीं भूलेंगे. ” कहते हुए तीनों चले गये ।

वह रात भी उन की अजीब उत्तेजना में कटी । अगले दिन शाम को नवीन दफ्तर से जल्दी ही आ गया और बोला, “सोना! चलो हार की दो लड़  बाज़ार में बेच कर थोड़ा रुपया बैंक में डाल लें । इस समय तो अपने पास कुछ भी नहीं रहा है ।”

अपनी आदत के विपरीत सोना पांच मिनट में तैयार हो गई । सुनार की दुकान पर पहुंच कर जैसे ही उन्होंने लड़ें सुनार के हाथ में दी, उसे कसौटी पर घिसने से पहले ही वह मुसकरा कर बोला, “क्या बात है, साहब ! पीतल बेचने चले हैं?”

दोनों एकाएक भौंचक हो कर एकदूसरे को देखने लगे । नवीन ने किसी तरह अपने को संभाला और बात बना कर बोला, “सोना, देखा न, तुम शर्त हार गईं । मैं पहले ही कह रहा था कि दीदी का यह हार नकली है । तुम मान ही नहीं रही थीं ।”

वे बुझे मन से  बाज़ार से किसी तरह घर आये । वे कई रातों तक सो नहीं पाये । रुपया हाथ से निकल जाने से अधिक उन्हें अपने बेवकूफ बना दिये जाने का एहसास कचोटता रहा ।

एक दिन सोना अलमारी  साफ़ कर रही थी कि अचानक उसे सुरेश का दिया अनाथालय का कार्ड हाथ लग गया । नवीन ने उस कार्ड को देख कर कहा, “एक बार अनाथालय जा कर उन लोगों का पता तो लगाना चाहिये...”

“वे अनाथालय के लड़के थोड़े ही होंगे, जरूर गुंडों के किसी गिरोह के होंगे । वहाँ जाने से क्या फ़ायदा? फिर वैसे भी मैं तुम्हें अकेले नहीं जाने दूंगी । क्या पता वहां का मैनेजर ही उन से मिला हुआ हो ।” एक अनजाने भय से सोना डर रही थी ।

“एक बार वहां जा कर देखने में क्या हर्ज़ है?”

“ठीक है, लेकिन मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी ।”

अनाथालय के बगीचे में कुछ लड़के काम कर रहे थे । नवीन और सोना दोनों उन लड़कों को ध्यान से देखते हुए मैनेजर के कमरे की तरफ बढ़ रहे थे । मैनेजर से मिलने पर वह उन्हें बहुत सहृदय लगा । नवीन ने अपना परिचय दिया और कहा कि वे सुरेश, मोहन व ललित नाम के लड़कों से मिलना चाहते हैं । इतनी ही देर में एक लड़का पानी का गिलास लिये कमरे में घुसा । सोना हतप्रभ रह गई । वह सुरेश ही था। एक पल के लिये वह सकपका गया, किंतु पानी का गिलास मेज पर रख कर वह हाथ जोड़ कर बोला, “नमस्ते, दीदी !नमस्ते, साहब, आप यहाँ कैसे?”

मैनेजर ने उस से पूछा, “तुम इन्हें जानते हो?”

“जी, हम इन के यहाँ दान मांगने जाते थे ।” फिर वह सोना की तरफ मुड़ कर बोला, “दीदी ! अब मैं चलूं, मेरी कक्षा शुरू होने वाली है । घंटे भर बाद आप से मिलूंगा ।”

सोना हैरान थी कि वह इतना बढ़िया अभिनय भी कर सकता है । मैनेजर भी उन की पूरी बात सुन कर हैरान हो गया । उस ने कहा, “ आप की बात सुन कर मुझे तो बड़ा आश्चर्य हो रहा है । ये तीनों लड़के मेरी आंखों के सामने ही बड़े हुए हैं ।”

“कृपया आप तीनों को जरा बुलवाइये,” नवीन ने नम्रता से कहा । उस के कहने पर मैनेजर ने तीनों को बुलवा लिया । वे दोनों भी चहक कर बोले, “नमस्ते, साहब !”

मैनेजर ने उन से पूछा, “तुम दोनों भी इन्हें जानते हो?”

“हां, साहब, सुरेश इन को दीदी मानता है और वह हम को इन के घर ले गया था।”

जब नवीन ने हार की बात चलाई तो तीनो ऐसे चौंके जैसे उन्होंने कोई विचित्र बात सुन ली हो । “क्या बात करते हो, साहब! इतना पैसा मिल जाता तो हम अनाथालय में पड़े रहते ?” वे किसी तरह हार बेचने की बात मान ही नहीं रहे थे ।

“ठीक है, मत मानो । मैं भी तुम लोगों को देख लूंगा.” नवीन ने उठते हुए कहा ।

नवीन अपने इंस्पेक्टर मित्र संदीप से मिला । उस ने सारी घटना ज्यों की त्यों सुना दी । पूरी बात सुन कर वह उत्तेजित हो कर बोला, “जानते हो, तुमने कितना बड़ा काम किया है । हमारे पास इस तरह की धोखा धड़ी की अनगिनत रिपोर्टें आई हैं । अनाथालय के लड़कों ने लोगों को कभी नकली हार तो कभी नकली कंगन बेचे हैं । सारा पुलिस विभाग यही समझ रहा था कि किसी गिरोह के लड़के अनाथों का ढोंग रचा कर धोखाधड़ी कर रहे हैं । तुम कह रहे हो कि वे सचमुच अनाथ हैं । तब तो रहस्य खुल जायेगा ।”

संदीप अपनी बात समाप्त ही कर पाया था कि अचानक सोना सुरेश को लेकर वहां आ गई । नवीन को देख कर सुरेश उस के पैरों से लिपट कर फूट फूट कर रोने लगा, “साहब !मुझे बचा लो, मुझे उन से बचा लो ।”

जब उसे सांत्वना दी गई तो उस ने बताया, “वे लोग तीनों को किसी दूसरे अनाथालय या पता नहीं कहाँ रखने के लिये रेलगाड़ी में ले जा रहे थे । पेशाब जाने के बहाने उठ कर मैं वहां से भाग आया । मुझ से किसी को धोखा देने का काम नहीं होता । कहीं वे मुझे मार न डालें । दीदी, मुझ से यह काम नहीं होता । मुझे बचा लो ।”

“वे लोग कौन हैं?” संदीप ने उस से पूछा ।

सुरेश ने उन लोगों के विषय में जो बताया वह बेहद आश्चर्यजनक था । उस धोखाधड़ी के पीछे सब से बड़ा हाथ शहर के एक बदमाश का था । उस के कुछ आदमी लोगों को पॉलिश किया माल बेचने के लिये अनाथालय के कुछ लड़कों को पैसा दे कर फुसला लेते थे और उन से धोखाधड़ी करवाते थे । वे लड़के सहृदय लोगों को अपनी मीठी मीठी बातों में फंसाते थे ।

सुरेश का यह पहला पहला काम था । तभी वह हर समय घबराता रहता था, उम्र कम होने के कारण वह यह भी भूल गया था कि पहली बार में ही वह सोना को अपने अनाथाश्रम का कार्ड दे गया था । यदि उसे कार्ड देने की बात याद रहती तो वे लोग सोना को छोड़ कर किसी और को अपना शिकार बनाते । न सोना को घर की सफ़ा में कार्ड मिलता और न ही उस बदमाश की काली करतूतों पर से परदा हटता । उस के पकड़े जाने से पता नहीं कितने अनाथ बच्चे धोखाधड़ी करने के अपराध से मुक्त हो गये ।

बाद में सोना अनाथों के लिये कभी सहज नहीं हो पाई । आज वह जब भी किसी अनाथालय के बच्चों को कॉलोनी में घूमते हुए देखती है तो अपने घर का दरवाज़ा नहीं खोलती ।

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नीलम कुलश्रेष्ठ

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