Jeevan Oot Patanga - 7 - Aap Hi Ka Saala books and stories free download online pdf in Hindi

जीवन ऊट पटाँगा - 7 - आप ही का साला

नीलम कुलश्रेष्ठ

आदमी जिस जगह की मिट्टी से बना होता है वहीं के रिश्तेनाते उस में कहीं गहरे रचबस जाते हैं । न वह उसका पीछा छोड़ते हैं न उन की यादें पीछा छोड़ती हैं । जब मयंक ने दरवाजा खोला तो आने वाले का प्रश्न था, “होलीपुरा के मयंक चतुर्वेदी का मकान यही है ?”

आने वाले व्यक्ति गंदे कपड़ों, बिखरे बालों व उदास चेहरे से यह साफ जाहिर हो रहा था कि वह बड़ा परेशान है तथा किसी बड़ी विपत्ति का मारा है । बड़ी हताश मुखमुद्रा में झिझक व संकोच सहित वह दरवाजे पर खड़ा था ।

होलीपुरा अपने गांव का नाम सुनते ही वह एकदम अभिभूत हो गया । लोगों के इस महासमुद्र में सैंकड़ों लोगों से लदी फदी बंबई की इस बहुमंजिली इमारत में भला कौन जानता है कौन सा ‘होलीपुरा’ है और कौन सा ‘मयंक चतुर्वेदी’ है । आसपास के पड़ौसी ज़रूर एक उचटती सी नजर दरवाज़े पर टंगे नामपट पर डाल कर जान गये हैं कि इस फ़्लैट में रहने वाले की उपाधि ‘चतुर्वेदी’ है ।

“हां, कहिये मैं ही मयंक हूं ।”

“जी नमस्त .” आने वाले ने बहुत आदर सहित हाथ जोड़ कर नमस्ते किया ।

“मैं होलीपुरा के सुधांशु चतुर्वेदी की पत्नी का भाई हूँ । मैनपुरी से इंटर्व्यू के लिये बंबई आया था । आते ही मुसीबत में फंस गया हूं ।”

सुधांशु के नाम ने उसे आश्वस्त कर दिया था । वह स्कूल के दिनों में उस के साथ पढ़ा था । हां, अब बरसों से उस से मिलना नहीं हुआ था । उस से जुड़ा कोई उस के दरवाज़े पर खड़ा था । वह जैसे बचपन में लौट कर रोमांचित हो उठा था । उसे याद आया, जब वह और सुधांशु दोनों साथ साथ स्कूल जाते थे, स्याही की शीशी में खड़िया घोलते थे । उसी सुधांशु से जुड़ा कोई उस के दरवाज़ेज पर खड़ा था । उस ने गर्मजोशी से कहा, “पहले अंदर तो आइये ।”

वह कुछ सकुचाते हुए सोफ़े पर बैठ गया। उस के चेहरे पर लंबी यात्रा की थकान साफ झलक रही थी । बालों में धूल के कण उलझे हुए दिखाई दे रहे थे । मयंक मन ही मन आश्चर्य कर रहा था कि इतनी दूर की यात्रा, वह भी इंटर्व्यू देने, बिना सूटकेस के यह जनाब कैसे चले आ रहे हैं ? फिर भी उस ने उसे बाथरूम का रास्ता बताते हुए कहा, “आप वहां जा कर थोड़ा फ़्रेश हो लीजिये । मैं तब तक चाय बनवाता हूं ।”

सहानुभूति से वह आगंतुक कुछ तनावरहित महसूस करता हुआ धन्यवाद कह वह स्नानगृह में चला गया। अब तक रीता बाहर के कमरे में झांकने चली आई थी कि मयंक किस से बातें कर रहा है ?

उसने उस के पास जा कर फुसफुसा कर कहा, “मेरे बचपन के होलीपुरा के मित्र का साला है । किसी मुसीबत में फंस कर यहाँ आया है, जरा जल्दी चाय बना दो ।”

बंबई इतनी दूर है कि अपनी ओर के मेहमान जरा कम ही आते हैं । वैसे भी नवदंपतियों के पास मेहमाननवाजी का समय ख़ूब रहता है, बल्कि कहना चाहिये अपना फ़ालतू समय काटने का इस से बढ़िया शगल कोई नहीं रहता । रीता उत्साह से चाय बनाने में जुट गई । कहीं मन में छिपा हुआ उत्साह था कि होलीपुरा के मेहमान की ख़ातिरदारी अच्छी होनी चाहिये, जिस से ससुराल वालों में उस का नाम आदर से लिया जाये ।

चाय का प्याला उठाते हुए ही उस अजनबी ने कहा, “मेरा नाम रवि चतुर्वेदी है । यहाँ भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र में कल मेरा इंटर्व्यू है । जीजाजी ने मुझे आप का पता दे दिया था । इंटर्व्यू की खबर एकदम अचानक मिली इसलिये मैं आप को पत्र नहीं डाल सका । आज सुबह जब नींद खुली तो देखा कि मेरा सूटकेस ही रेलगाड़ी से गायब था ।”

“अच्छा ? आप का सूटकेस गाड़ी से चोरी चला गया ? मैं इतनी देर से आप के सूटकेस के बारे में ही सोच रहा था । आप ने पहली बार इतनी लंबी यात्रा की है शायद ?”

“बंबई पहली बार आया हूं ।वैसे यात्राएं तो करता ही रहता हूं ।”

“ओह ।”

“संयोगवश मैंने रात में अपनी जेब से निकाल कर सारे रुपये भी सूटकेस में रख दिये थे, जिस से वे जेब से नीचे न गिर जायें । मेरा इंटर्व्यू पत्र भी उसी में था । जीजाजी ने आप के नाम एक पत्र भी दिया था, वह भी उसी में था ।”

“लेकिन सुधांशु को मेरा पता कैसे मिला? मैं तो उस से बरसों से नहीं मिला हूं ।”

“मैनपुरी में रहने वाले आप के किसी रिश्तेदार से उन्होंने आप का पता ले लिया था ।”

“आप उस की चिंता मत करिये । भाभा अनुसंधान केन्द्र में मेरी बहुत जानपहचान है । किसी को भी फ़ोन कर के आप की समस्या का हल कर दूँगा ।”

“आप इतनी तकलीफ़ मत करिये । वहाँ पर भी एक नरेश चतुर्वेदी को जानता हूं । कल इंटर्व्यू दे कर मैं वापस चला जाऊंगा ।”

“आप आये हैं तो रुक कर जाइये । इसे अपना ही घर समझिये । आप के पिताजी किस विभाग में काम करते हैं ?”

“वह हरिद्वार में चिकित्सा महाविद्यालय में अधीक्षक हैं । मेरे दो भाई भी डाक्टर हैं । मैं ने भौतिक शास्त्र में एम.एससी. व पीएच.डी. किया है ।”

उस मामूली से व्यक्तित्व में इतनी विद्वता छिपी होगी, मयंक को विश्वास करना मुश्किल हो रहा था । मयंक चाय खत्म करते हुए बोला, “आप नहाना चाहेंगे?”

रीता ने हलका पानी गरम कर के स्नानगृह में रख दिया । मयंक का भूरे रंग का लखनवी कुरता पजामा भी वहां रख दिया ।

जैसे ही रवि ने नहा कर स्नानगृह खोला रीता तत्परता से पूछने चली गई, “आप को तेल, कंघा चाहिये होगा । वह दाईं तरफ ही शीशे के पास रखा है ।”

रवि आड़ेतिरछे हाथ चला कर अपने कपड़े धो रहा था । रीता की बात सुन धीरे से बोला, “जी अच्छा, आज ज़िंदगी में पहली बार अपने हाथ से कपड़े धो रहा हूँ । कभी मौका ही नहीं पड़ा ।”

रीता को उस की तहजीब, उस के बोलने का लहजा बहुत भला लग रहा था । तरस भी आ रहा था कि बेचारा इंटर्व्यू देने इतनी दूर पहली बार आया और आते ही मुसीबत में फंस गया । अपने घर तो उसे नौकरों के कारण कपड़े नहीं धोने पड़ते होंगे । वह बोली, “आप हट जाइये, मैं आप के कपड़े धो देती हूं ।”

“अरे नहीं, वैसे ही आप को मैं क्या कम कष्ट दे रहा हूँ ?”

रीता को लगा, पता नहीं वह कितना भूखा होगा । रुपये निकल जाने के कारण दोपहर में उस ने कुछ खाया होगा या नहीं । यही सोच कर रीता ने ढेर सी चीज़ें खाने में बना डाली ।

खाने की भरी मेज देख कर रवि और सकुचा गया, “आप ने तो बहुत सारी चीज़ें बना डालीं ।”

मयंक ने बेतकल्लुफ होते हुए कहा, “यार, बार बार तकल्लुफ कर के क्यों लज्जित कर रहे हो । दोस्त का साला मतलब अपना साला ।” रवि की भी झिझक समाप्त होने लगी । उस ने डोंगे में से रायता लेते हुए कहा, “आप दिल्ली के पूसा इंस्टीट्यूट के डाक्टर राजन चतुर्वेदी को जानते हैं ?”

“हां, वह तो बहुत प्रसिद्ध डाक्टर है ।”

“वह भी हमारे ख़ानदान  से हैं ।”

“मतलब आप के ख़ानदान  में बहुत से लोग डाक्टर हैं ।”

“जी, मेरे पिताजी मुझे डाक्टर ही बनाना चाहते थे, किंतु मेरा मन भौतिक शास्त्र में शोध करने का था । आप ने बंबई की नृत्यांगना रूपसी चतुर्वेदी का नाम भी सुना होगा ।”

“हां ।”

“वह मेरी बड़ी चचेरी बहन हैं । होली पर याद आया, बंबई की होली कैसी होती है ?”

“किसी किसी इलाके में जोर से मनाई जाती है, लेकिन हमारे यहां इस जगह की होली बहुत फिकी होती है । गुलाल का टीका भर लगाने जैसी खानापूरी होती है ।”

“आप भी उधर की होली की याद तो करते होंगे?”

“क्या बात याद दिला दी यार, होली से अधिक तो होली की आग के चारों तरफ बैठ कर रस भरे गीतों की याद आती है ?”

“कुछ रसभरे या अश्लील?” रवि ने झिझकते हुए कहा ।

मयंक ठहाका मार कर हंस पड़ा, “तुम ने तो दिल की बात कह दी यार ।”

खाने के बाद मयंक व रवि टहलने चले गये, रीता ने रवि के कपड़े प्रेस कर दिये । कल उसे इंटर्व्यू में जाना था । कपड़े तो वही होने ही चाहिये थे ।

दूसरे दिन रवि इंटर्व्यू के लिये तयार होता हुआ बोला, “मैं सोच रहा हूँ कि इंटर्व्यू दे कर सीधे ही स्टेशन निकल जाऊं ।”

“बंबई आये हो तो यहाँ रुक कर, सैर कर के जाओ ।”

“वैसे तो रुक जाता किंतु मेरा परसों दिल्ली में इंटर्व्यू है । पहले सीधे दिल्ली जाऊंगा । जैसे भी हो मुझे आज जाना ही पड़ेगा ।”

“इंटर्व्यू है तब तो मजबूरी है ।” कहते हुए मयंक ने कुछ रुपये चुपचाप उस के हाथों में थमा दिये । रवि ने आंखों ही आंखों में कृतज्ञता व्यक्त की ।

उस दिन मयंक आधे दिन की छुट्टी ले कर ही घर आ गया । बहुत दिनों बाद उसे लग रहा था, कोई अपनी तरफ़ का मिला है जिस से वह दिल खोल कर बात कर सकता है, ठेठ गालीगलौज मिला कर ।तीन बजे तक रवि भी लौट आया । इंटर्व्यू से बेहद ख़ुश था, “मुझे लग रहा है मेरा चुनाव हो ही जायेगा ।”

“तो फिर गोली मारो दिल्ली के इंटर्व्यू को । कुछ दिन बाद चले जाना ।”

रीता ने भी अनुरोध किया, “रवि भैया, रुक ही जाइये । हम लोगों का आप का आना बहुत अच्छा लग रहा है ।”

“अगर इंटर्व्यू नहीं होता तो रुक ही जाता। मुझे तो लग ही नहीं रहा कि मैं पहली बार आप लोगों से मिल रहा हूँ, इतना स्नेह आप लोगों ने दिया है । यहाँ और भी चतुर्वेदी परिवार के लोग होंगे ?”

“हां, एक मैनपुरी के ख़ास रहने वाले हैं । दो आगरे के हैं.” मयंक बड़ी दिलचस्पी से एक एक का परिचय रवि को बताने लगा । उसे आश्चर्य हो रहा था कि युवा पीढ़ी का होते हुए भी रवि को अपनी जाति वालों के बारे में इतनी उत्सुकता है, वरना आजकल के पढ़े लिखे लड़के तो रिश्तेदारी व जाति के नाम पर ही नाक चढ़ाने लगते हैं ।

रवि ने बड़ी आत्मीयता से कहा, “लाइए, उन सब के पते नोट कर लेता हूं । कभी बंबई में नौकरी मिल गई तो उन से संपर्क करने में आसानी होगी ।” मयंक ने भी उन सब के टेलीफ़ोन नंबर व पते नोट करा दिये ।

रीता उस के लिये खाना बनाने में लगी रही । रात का खाना, सुबह नाश्ते के लिये मठरी व बिस्कुट भी रखना नहीं भूली । मयंक ने कहा, “मैं तुम्हें स्टेशन छोड़ देता हूं ।”

“भाईसाहब! क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं?” रवि झेंपते हुए बोला, “स्टेशन तो मैं स्वयं ही चला जाऊंगा । बंबई में स्टेशन इतना दूर है कि स्टेशन छोड़ने के लिये किसी को कहना सज़ा देने से कम नहीं है ।”

“अच्छा, यह कुछ रुपये रख लीजिये, आप के किराये के काम आयेंगे । पहले यहाँ से आप को दिल्ली जाना होगा, फिर वहां से हरिद्वार ।” मयंक ने एक लिफाफे में रुपये रख कर दे दिये ।

रवि उस का हाथ दबाते हुए बोला, “आप का यह उपकार मैं जिंदगी भर नहीं भूलूंगा । मैं इस समय ऐसे भीषण संकट में फंस गया था जबकि मेर तकदीर मेरे कैरियर का फ़ैसला करने वाली थी । ऐसे में यदि आप सहारा नहीं देते तो मैं कहीं का न रहता । आगे शोधकार्य करने का मेरा सपना जाने कब पूरा होता । मैं चार दिन बाद हरिद्वार पहुंच जाउंगा । वहाँ जाते ही आप को रुपये का मनीआर्डर कर दूंगा ।”

“अमा यार !तुम तो हमें ऊपर चढ़ाए दे रहे हो । हम भी अपने आप को महात्मा जैसा महसूस कर रहे हैं । तसल्ली से रुपये भेज देना, जल्दी क्या है ?”

“आप को नहीं है तो मुझे तो होगी ही ।”

रवि आंखों से कृतज्ञता छलकाते जैसे ही चलने लगा, रीता ने एक थैले में एक बिछाने का और एक ओढ़ने की चादर रख दी । और दूसरे थैले में नाश्ता रख दिया । यह सोच कर कि बंबई इतनी दूर कोई मेहमान कहां आ पाता है । वह बोली “ये चादरें जब आप को सुविधा हो मैनपुरी मेरी बहन के यहाँ भिजवा दीजियेगा जिन का पता आप ने नोट किया है ।”

“ज़रूर , ज़रूर , यदि संभव हुआ तो मैनपुरी होता हुआ ही हरिद्वार जाऊँगा ।”

रवि को गये पंद्रह दिन हो गये थे, फिर महीना बीता, फिर डेढ़ महीना । न कोई उस का पत्र, न मनीआर्डर । अब मयंक का माथा ठनकने लगा, “क्या बात है? उस ने कोई सूचना क्यों नहीं दी ? बड़ा अहसान फ़रामोश निकला ।”

“ऐसा करो, सिविल अस्पताल हरिद्वार के पते पर उस के पिताजी को पत्र डाल दो । वह तो जवाब देंगे ही ।”

मयंक ने हरिद्वार पत्र लिखा तो थोड़े दिन बाद वह पत्र ही वापस लौट आया । रीता भुनभुनाई, “पता नही, कैसे तुम अजनबियों पर विश्वास कर लेते हो ? उसे घर में ठहरा कर बैठ गये ।”

“तुम भी तो ‘रवि भैया’ ‘रवि भैया’ कहतेकहते उस के आगेपीछे घूम रही थीं ।”

“तुम्हारे दोस्त का साला था । जब तुम उसे इतना मान दे रहे थे तो मेरा तो कर्तव्य हो जाता है कि मैं भी उस की देखभाल करूं । नहीं तो वह मेरी बदनामी करता फिरता । वैसे भी हमारी नई नई शादी हुई है । उधर मैनपुरी व होलीपुरा में लोग मेरे बारे में क्या क्या सोचते ?”

“तो उस के लिये इतना सब करने की क्या ज़रूर त थी कि दो चादरें भी पकड़ा दीं ?”

“तुम ने भी तो उस के लिये क्या कम किया है? ढेर से रुपये दे डाले । दिल्ली तक का किराया दे कर भी चलता कर सकते थे । वहाँ पर किसी और रिश्तेदार से पैसे ले लेता । महीने के आख़िर में मुझे बैंक भागना पड़ गया ।”

“हां, हां, वह लौटा देगा । शोध करते करते बेचारा आधा रह गया है । कहीं हरिद्वार जाते ही बीमार न पड़ गया हो ।”

“मैं लिखकर दे सकती हूं, वह हरिद्वार का होगा ही नहीं । नहीं तो यह पत्र क्यों वापस आता?”

बात सिर्फ़ रुपये की नहीं थी । बात थी बेहद बुरी तरह छले जाने की । बात थी उन के मेहमान नवाज़ी व स्नेह के अपमान की । रीता को तो कई रात नींद नहीं आई । विवाह के बाद वैसे ही दुनिया सतरंगी दिखाई देती है । उस लुभावनी दुनिया से यथार्थ की दुनिया के धरातल पर पटकने वाला पहला इनसान रवि ही था ।

बस रोज़ दोनों के बीच इसी तरह की तकरार चलती रहती । अचानक एक रविवार को विवेक चतुर्वेदी व उस की पत्नी रचना आ धमके । विवेक आते ही बोला, “यार! पिछले महीने बंबई से तुम ज़ी हमें बताये बिना कहाँ गायब हो गए थे?”

“हम लोग?” मयंक बोला, “हम तो बंबई में ही थे ।”

“क्या बात कर रहे हो ? अपने साले को बंबई में घुमाने का निमंत्रण दे कर स्वयं गायब हो गये ।”

“मेरा कोई भाई है ही नहीं तो इन का साला कहाँ से पैदा हो गया ?”

“भाभीजी! आप के कोई भाई नहीं है तो रवि आप का कौन लगता है ?”

“कौन रवि?” वे दोनों चौंक कर एक साथ बोले ।

“वही रवि चतुर्वेदी, होलीपुरा वाला ।”

“तुम उसे कैसे जानते हो ?” मयंक जल्दी से बोला ।

“वह अपना सूटकेस ले कर हमारे पास आया था व कहने लगा जीजाजी व जीजी ने उसे बंबई घुमाने बुलाया था । लेकिन जब तुम्हारे फ़्लैट पहुंचा तो पता लगा कि ताला बंद है । वह कह रहा था तुम्हारे पड़ौसी ने बताया कि कोई तार आया था, तुम लोगों को अचानक जाना पड़ा । उसी पड़ौसी ने मेरा पता दिया था ।”

“ओह, वह क्या तुम्हारे घर भी ठहरा था?”

“हम ने तुम्हारा साला समझ कर दो दिन उसे ख़ूब घुमा कर अच्छी तरह खिलायापिलाया । तीसरे दिन उसे अकेले घूमने भेजा तो उस बेचारे की जेब कट गई । दिल्ली जाने का किराया भी हम ने दिया ।”

“तो आप भी लुट गये?” रीता के मुँह से बेसाख्ता निकला ।

“क्या मतलब?”

संक्षेप ने मयंक ने पूरी बात उन्हें बताई । फिर सोचते हुए बोला, “लेकिन वह सूटकेस कहां से लाया होगा ? यहां से तो खाली हाथ गया ।”

“आप ने जो रुपये दिये थे उसी से सूटकेस खरीद लिया होगा । लिंकरोड से सस्तेसस्ते कपड़े खरीद लिये होंगे ।” रीता सोचते हुए बोली ।

विवेक के मुँह से एकदम निकला, “ ख़ूब उल्लू बनाया साले ने ।”

***

एक महीने बाद विवेक फिर मयंक के यहाँ इतवार को लंच पर आये। अचानक टेलीफ़ोन की घंटी बजी । मयंक ने फ़ोन उठा  कर बात की व व फ़ोन विवेक के हाथ में देते हुये कहा ,``तेरे लिए पवन का फ़ोन है। ``

उधर पवन ने कहा, “यार कहने में संकोच हो रहा है लेकिन कहना पड़ रहा है ।”

“बोल न, क्या बात है?”

“मुझे पांच हज़ार रुपये की ज़रूरत है । कल बीना का आपरेशन करवाना है । तुम्हारे घर फ़ोन किया । तुम नहीं थे, इसलिये मैं समझ गया कि तुम लोग मयंक के यहाँ गप्पें मार रहे होंगे ।”

“पांच हज़ार रुपये कल ऑफ़िस में आ कर ले लेना । मैं ने तुझ से पहले भी कहा है कि बीना भाभी की बीमारी के लिये रुपये मांगने में कभी भी संकोच मत करना ।”

“लेकिन मैं तो अपने ही रुपये मांग रहा हूं, उधार नहीं ।”

“कौन से रुपये? मैं ने तुझ से रुपये कब लिये हैं ?”

“नहीं, तुम ने नहीं तुम्हारे साले रवि ने लिये हैं । एक महीने पहले आया था । तुम दोनों किसी की शादी में अचानक चले गये थे । वह हमारे पास ठहर गया था । अच्छा हुआ तुम उसे हमारा पता दे गये थे, नहीं तो बेचारा इंटर्व्यू कैसे दे पाता । जिस दिन इंटर्व्यू दे कर लौट रहा था, तब उसकी जेब कट गई । हम ने पांच हज़ार रुपये उसे दे दिये थे । वह तो भेज नहीं पाया, इसलिये तुम से मजबूरी में मांग रहे हैं ।”

“तो वह तुम्हें भी चूना लगा गया ।”

“क्या मतलब?”

“तुम कल ऑफ़िस आना । रुपये तो मैं तुम्हें दे दूंगा लेकिन अपने साले की बात कल बताऊंगा ।” विवेक फ़ोन रखते हुए बोला, “यह मेरा भी साला बन कर पवन के घर पहुंच गया ।”

“जय हो साले की ।”

“अभी तो धीरे धीरे पता लगेगा कि उस ने कितने जीजा व जीजी को फंसाया है.” रीता हंसते हुए बोली।

धीरे धीरे अन्य परिवारों से पता लगने लगा कि ‘जगत साले’ साहब बंबई से काफ़ी पैसा कमा कर वापस लौटे हैं । रीता व मयंक के दिमाग में अब ठंडक थी । वे तनावमुक्त थे कि बंबई में रहने वाले, छोटे छोटे शहरों से निकले व अपने को चुस्तदुरुस्त समझने वाले उन के क्षेत्र के लोग बेवकूकफ़ बन चुके हैं ।

ठीक एक वर्ष बाद मयंक अचानक सुधांशु से टकरा गया । वह चौपाटी पर पेंट की जेब में हाथ डाले घूम रहा था । उन्हें कुछ क्षण तो एक दूसरे को पहचानने में लगे । एक दूसरे को पहचानते ही दोनों ने एकदूसरे को बांहों में जकड़ लिया । थोड़े हालचाल पूछने के बाद मयंक ने कहा, “तेरा साला पिछले वर्ष बंबई आया था ।”

“मेरा साला?” सुधांशु की आँखें आश्चर्य से फैल गईं, “मेरी तो अभी तक बीवी ही पैदा नहीं हुई तो साला कहाँ से पैदा हो गया?”

“क्या तू ने शादी नहीं की?”

“नहीं ।”

“तो रवि कौन है ? रवि चतुर्वेदी ?”

“किस रवि की बात कर रहा है? कहीं होलीपुरा वाले रवि की बात तो नहीं कर रहा है । दुबला पतला मध्यम कद का लड़का है । उस के ऊपर का एक दांत टेढ़ा है ।”

“हां, हां, वही।”

“तू किस के चक्कर में पड़ गया? वह तो महा चार सौ बीस है ।”

“उस के पिता हरिद्वार के मेडिकल कालेज में अधीक्षक है ।”

“मेडिकल कालेज में ? वह तो एक मामूली से स्कूल में क्लर्क हैं। उन के छः बच्चें हैं । रवि उन में सब से बिगड़ा लड़का है । दूसरे शहरों के चतुर्वेदी परिवारों के लोगों के पते ले कर ऐसे ही लोगों को ठगता रहता है । मां बाप बहुत शरीफ हैं । उस पर काबू पाने में असमर्थ है ।”

मयंक के घर लौटते ही रीता ने बुझे स्वर में बताया, “ रवि ने दीदी के यहाँ हमारी चादरें लौटा दीं ।”

“चलो कुछ तो लौटाया लेकिन तुम यह बात इतना मुंह लटका कर क्यों बता रही हो ?”

“इस लिये कि वह दीदी की अलमारी से पांच हज़ार रुपये निकाल कर ले गया ।”

“कैसे?”

“दीदी को तो मैनपुरी गये हुए दो महीने ही हुए हैं । वह तुम्हारे चाचा का लड़का बन कर पहुंचा था । वह चादरें दीदी ने ही मेरी शादी में दी थीं, इसलिये उन्होंने पहचान लिया । तुम्हारा भाई जान कर ख़ूब खातिर भी की । जब वह एक दिन बाजार गईं तो अलमारी की चाबी घर पर ही भूल गईँ । पीछे वह रुपये लेकर चंपत हो गया । जेवरों को तो उस ने हाथ भी नहीं लगाया ।”

“न हम उसे घर ठहराते, न हमारे जान पहचान वालों पर इतनी मुसीबत आती ।”

“आगे से अब किसी को इस तरह नहीं ठहराया करेंगे । ठहरायेंगे तो पहले रिश्तेदार या दोस्त का पत्र पढ़ कर ही ठहरायेंगे ।”

“मान लो बिना पत्र के सच ही कोई मुसीबत का मारा आ गया तो ?”

इस बात का उत्तर दोनों ही नहीं ढूंढ़ पाए ।

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नीलम कुलश्रेष्ठ, ई मेल –kneeli@rediffmail.com

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