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जीवन ऊट पटाँगा - 3 - तुम चोर पकड़ने क्यों गये ?

तुम चोर पकड़ने क्यों गये ?

नीलम कुलश्रेष्ठ

“आ...आ..- आ.” तुम बिलकुल गलत समझे...यह कोई शास्त्रीय राग का आलाप नहीं है, न कोई गाना गाने से पहले अपना सुर साध रहा है, यह तो मेरी कराह है । मेरा सूजा हुआ बायाँ हाथ करवट लेने से दब गया है, इसीलिए मेरे मुँह से कराह निकल गई ।

तुम तो मुझे पहचानते नहीं हो....अब पूछोगे कि मैं कौन हूँ..मैं हूँ सिद्धार्थ....प्यार से लोग मुझे सिद्धू कहते हैं, तुम ने मुझे अपनी कॉलोनी में पहले नहीं देखा न ? देखते भी कैसे, मैं यहाँ गरमी की छुट्टियों में आया हूँ। किस के घर ? अजी, पान की दुकान के पीछे रहने वाले महेन्द्रजी के घर । उनकी पत्नी, जिन्हें सारी कॉलोनी ‘मोटी’ के नाम से जानती है, मेरी बूआजी हैं । मैं यहाँ आ कर सोच रहा था कि छुट्टियाँ खूब आवारागर्दी करते हुए बिताऊंगा, लेकिन मैं तो बिस्तर पर ही पड़ गया ।

यह चोट कैसे लगी ? अभी बता रहा हूँ भाई । लेकिन यहाँ आने के बाद के वे खुमार भरे 13-14 जिन तो याद कर लूं । दरअसल, मैं बूआजी के घर आया नहीं था, मेरे मातापिता ने जबरदस्ती मुझे खदेड़ दिया था, कारण ? क्यों कि मैं अपनी बोर्ड की परीक्षा की साल भर की कड़ी मेहनत की कुंठा शिप्रा व सुमित की जान खा कर दूर कर रहा था । वे माँ को धमकी देते की यदि सिद्धू भैया ने उन्हें पढ़ने नहीं दिया तो वे फेल हो जायेंगे । इस तरह उन के इस साल का भविष्य सुरक्षित रखने के लिये यह कदम उठाया गया ।

इधर अश्विन व अंकित ने 10वीं व 12वीं की बोर्ड की परीक्षाएं दी थीं, इसलिये हम तीन तिलंगे अपनी छुट्टियों का रस घोल घोल कर पी रहे थे ।

बड़े भैया, अंकित को तो तुम पहचानते ही हो, बड़ा मस्तमौला इनसान है । मेरे पहुँचते ही वह एक दिन जा कर ‘चिली सौस’, ‘विनेगर’, ‘सोमा सौस’, ‘अजीनो मोटो’ ले आया । जब मूड होता, रसोई में घुस कर कभी ‘चाइनीज फ्राइड राइस’ बनाता, कभी नूडल्स ।

मैं अश्विन से पूछता, “क्यों, तुम्हें खाना बनाने का शौक नहीं है ?”

“जब घर में कोई बेवकूफ पकाने वाला मिल ही गया है, तो क्यों मैं तकलीफ उठाऊँ?”

तब अंकित की आँखें उबल पड़ती, “अब तू देखना, तुझे एक चम्मच भी बना कर नहीं खिलाऊँगा ।” लेकिन दूसरे दिन फिर कोई व्यंजन बनाने के बाद एक प्लेट, उस की तरफ भी बढ़ा देता । क्या कहा, तुम्हें भी उस के ‘कुकिंग लव’ की बातें पता हैं ?

हाँ, तो वे दिन, दूरदर्शन पर चैनल बदलबदल कर टीवी देखते हुए या वीडियोगेम खेलते हुए बीत रहे थे। बूआ अगर बाजार का काम बतातीं, तो हम तीनों उसे एकदूसरे पर टालते रहते । गरमी के बोझ से दबे जैसे सरपट भागे चले जा रहे थे ।

बूआजी भी मेरे आने से खुश थीं । मैं बड़ी मुस्तैदी से शाम को आंगन व छत पर पानी का छिड़काव करता, रात को उन का व फूफाजी का बिस्तर आंगन में लगाता, कूलर में पानी भी मैं ही भरता । अंकित अक्सर बाजार का काम करता । इस के अलावा वह सलाद काटने या एक व्यंजन बनाने का काम संभालता । अलबत्ता अश्विन फ्रिज की खाली बोतलें भरने का काम भी रोतेपीटते कर ही लेता ।

फूफाजी अपने बिजनेस में हर समय उलझे रहते । घर आते तो थकेमांदे, लेकिन उन के हाथ में आम या खरबूजों से भरा कोई कैटी बैग जरूर होता । अपने सपाट चेहरे से एक बार जरूर रस्म अदायगी कर देते, “सिद्धू बेटे, कैसे हो?”

मेरे यहाँ पहुँचने के चौथे या 5वें दिन ही अश्विन मुझ से बोला, “भैया, चलो मंदिर घूम आयें ।”

“मंदिर तो घर में ही है....कहीं और चलते हैं ।”

“चलो न, इतना अच्छा मंदिर तुम ने देखा कहाँ होगा ।”

तुम्हारी कॉलोनी के पीछे ही तो मंदिर है, जिस का गुंबद चौथी सड़क से दाईं ओर मुड़ते ही दिखाई देने लगा । उस के सामने वाले चबूतरे पर 8-10 लड़के डेरा जमाये बैठे थे ।

मै ने हैरानी से पूछा, “क्या यहाँ कोई पार्टी चल रही है ?”

अश्विन मुस्करा दिया, “कॉलोनी की अधिकतर लड़कियां इसी मंदिर वाली लेन में रहती हैं । तभी शाम को सभी हीरो बने इधर ही मंडराते रहते हैं ।”

“अच्छा,” मेरा दिल भी फुदक उठा । मेरा हाथ स्वतः ही पैंट की जेब में पहुँच गया और उस में से कंघा निकाल कर बाल काढ़ने लगा ।

अश्विन बताने लगा, “पहले बाग के सामने वाले मकान में कॉलोनी की सब से खूबसूरत लड़की रहती थी, इसलिये तब बाग में जमघट लगता था।”

“वह ब्यूटी क्वीन अब कहाँ है?”

“उस के बाप का तबादला हो गया है..”

“ओ....हो...” एक हसीन चेहरे को न देख पाने की कसक भरी आह मेरे मुँह से निकल गई, “खैर, यह तो बता, तेरी किसी से दोस्ती हुई है या नहीं?”

“मन तो करता है, लेकिन अपन तो दूर की दोस्ती ही रखते हैं ।”

शाम को मंदिर के चक्कर, दोपहर को वीडियोगेम या फिल्म देखते हुए कटते हैं । अरे, मैं अपने हाथ की चोट के बारे में तो बताना ही भूल गया ।

हाँ, तो रोज की बोरियत को तोड़ने के लिये एक दिन तुम्हारी कॉलोनी के लड़कों ने शिवांगी कॉलोनी वाले लड़कों से क्रिकेट मैच रखा था । हर लड़के ने अपनी जेब से 5 रुपये निकाले थे, जोकि जीती हुई टीम को मिलने थे ।

अंकित के एक दोस्त ने ‘टास’ करने से पहले ही एक शर्त रख दी, “कैसे भी हो, 6 बजे तक मैच समाप्त हो जाना चाहिये ।”

दूसरी टीम वालों ने प्रतिरोध किया, “आजकल उजाला तो 7 बजे तक रहता है ।”

“नहीं, हम लोग 6 बजे के बाद नहीं रुकेंगे । 6 बजे हमें मंदिर में देवियों के दर्शन करने पहुँचना होता है।”

“हो...हो...हो...,” हमारी टीम हुल्लड़ मचाते हुए हंसने लगी ।

दूसरी टीम वाले मूर्खों की तरह हमें घूर रहे थे । हमारी टीम के एक लड़के ने उस टीम के एक लड़के के कान में खुसरफुसर की । फिर क्या था, वे सब भी शोर मचाने लगे, “हम भी मंदिर दर्शन करने चलेंगे ।”

अंकित ने सब को शांत करते हुए कहा, “ऐसा करते हैं, प्राइज डिस्ट्रीब्यूशन वहीं चबूतरे पर रख लेते हैं।”

“हाँ, हां, बिलकुल सही है, ” खुशी में कुछ सीटियाँ भी बजने लगीं ।

मैच की शुरूआत में ही मैं ने जाने कैसे एक विकेट ले लिया । नये लड़कों पर अपना रोब जमाने की खुशी ने मुझे उत्साही बना दिया था । मैं ने उस दिन 5 विकेट लिये । अपनी बारी आने पर 60 रन भी बनाये । तुम समझ ही गये होंगे कि इन नये लड़कों के बीच में “मैन आफ दि मैच” घोषित किये जाने पर कितना फूला हूँगा ।

मंदिर के चबूतरे पर जमघट देख कर कई चेहरे अपनी मम्मियों, आंटियों सहित बालकनी व बरामदे में आ जुटे थे । छोटेछोटे बच्चे अपना खेलना छोड़ कर हमारे आसपास घेरा बना कर खड़े हो गये थे । शेफाली (यह नाम मुझे अश्विन ने बताया था) के पिता रोज मंदिर दर्शन करने आते थे । अनुरोध कर के उन्हें मुख्य अतिथि बना दिया गया । तुम समझ ही सकते हो, अपना पुरस्कार लेते हुए मैं कितने फुट ऊँचे पेड़ पर चढ़ गया हूँगा । सच कहुँ, यही नशा मेरी चोट का कारण बना ।

उस दिन बूआजी ने अपने भतीजे की सफलता पर बहुत प्रसन्न थीं । उन्होंने इसी खुशी में एक “आइसक्रीम ब्रिक” मंगवाई । खाना खाने के बाद हम लोगों ने छत पर चलती थोड़ीबहुत हवा के बीच वह आइसक्रीम खाई ।

बूआजी व फूफाजी के नीचे जाते ही अश्विन बोला, “हमें क्या पता था कि चबूतरे पर ‘फंक्शन’ करने पर लोग अपनेअपने दर्शन देने लगेंगे ।”

अंकित बोला, “सिद्धू, देख लेना, यह अब कुछ न कुछ इसी तरह का हंगामा चबूतरे पर किया करेगा ।”

बेसिरपैर की बातें करतेकरते हम तीनों सो गये । मुझे पता नहीं कैसेकैसे ऊलजुलूल सपने आने लगे । मैं कभी “फैंटम” बना गुंडों को मार रहा हूँ, कभी “स्पाइडरमैन” बना एक “स्काईक्रेपर” से दूसरे पर छलांग रहा हूँ या राबिनहुड बना चोरों के पीछे गरीबों का पैसा छुड़ाने भागा जा रहा हूँ । लोग चिल्ला रहे हैं “चोर...चोर...”

भागतेभागते मैं ने सांस ली । कुछ होश आया तो हैरान रह गया, यह क्या ? सचमुच तुम्हारी कॉलोनी के लोग “चोर...चोर...” चिल्ला रहे थे । मैं चादर फेंक कर एक झटके से चारपाई पर उठ कर बैठ गया । मैं ने अंकित को झंझोड़ा, “जल्दी उठ, कहीं से चोर गये हैं ।”

वह करवट बदल कर सो गया, “चोर आये हैं तो कॉलोनी वाले भगा देंगे ।”

अश्विन भी टस से मस न हुआ । लेकिन मेरे अंदर “स्पाइडरमैन” व “फैंटम” की आत्माएं प्रविष्ट कर गईं । मैं ने ध्यान से उन आवाजों को सुना । मुझे लगा कि कोई औरत किसी पास के घर से चिल्ला रही है । ऐसा लग रहा था, वह मुसीबत में हैं ।

मैं जल्दीजल्दी छतें फलांगने लगा । चौथे मकान के आंगन में बत्ती जल रही थी । मैं ने नीचे झांका, एक औरत आंगन के बीच खड़ी चिल्ला रही थी, “चोर...चोर...”

तभी एक आदमी पीलेकाले रंग की लुंगी पर पीला कुरता पहने बरामदे से निकल कर उस औरत के पीछे चुपचाप खड़ा हो गया । आंगन की रोशनी में उस की काली दाढ़ी चमक उठी . इस से पहले कि वह उस औरत को कोई नुकसान पहुँचाता, मैं छत से खिड़की के छज्जे पर और वहाँ से आँगन में कूद पड़ा । नीचे कूदते ही मेरा दायाँ घुटना बड़ी जोर से मुड़ गया । लेकिन दर्द की परवाह किये बिना मैं स्प्रिंग की तरह उछल कर खड़ा हो गया ।

मुझे देखते ही वह औरत और जोर से चीखने लगी, “चोर...चोर...”

मैं बुदबुदाया, “बहन, मैं आ गया हूँ, डरो नहीं,” फिर उछल कर मैं लुंगी वाले से भिड़ गया और उसे पास की चारपाई पर गिरा दिया । उस ने भी ताकत लगा कर मुझे चारपाई पर खींच लिया । चारपाई पर हम दोनों एकदूसरे पर हावी होने की कोशिश कर रहे थे।

वह औरत छटपटाती सी आँगन में चारों तरफ घूमने लगी, जैसे किसी चीज को तलाश रही हो । शायद मेरे डूबते शरीर को देख कर विश्वास नहीं कर पा रही थी कि मैं उसे बचा लूंगा । वह औरत एक छोटा सा डंडा ढूँढ़ने में सफल हो गई थी । उस ने चोर को मारने की कोशिश की, पर डंडा पड़ा मेरी पीठ पर । मैं चिल्लाया, “बहन, जरा देख कर मारो, डंडा चोर को नहीं, मेरे लगा है ।”

वह औरत घबराहट में बोली, “चोर को पकड़े रखना,” फिर उस ने एक डंडा मारा, जो फिर से मेरे बाएं हाथ पर पड़ा । लुंगी वाला चोर मुझ से छूटने की कोशिश में लगा था । हम दोनों बीचबीच में घूंसो से भी एकदूसरे पर वार करते जा रहे थे। वह औरत भी प्रचंड काली के रूप में आ चुकी थी । चोर को मारने के चक्कर में उस का डंडा अधिकतर मेरे ऊपर पड़ रहा था । वह अभी भी चिल्लाए जा रही थी.... “चोर...चोर...”

उस स्त्री से मेरी पिटाई देखी नहीं जा रही थी, इसलिए वह मुझे कमर से पकड़ कर खींचने की कोशिश करने लगी । फिर शीघ्र ही मैं चोर को चादर में लपेटने में सफल हो गया । तभी दरवाजे पर ‘ठकठक’ होने लगी। वह औरत दरवाजे की तरफ दौड़ी । चादर में लिपटा चोर ‘गों...गों...’ कर के अपनी बेबसी प्रकट कर रहा था ।

औरत के दरवाजा खोलते ही बाहर की भीड़ अंदर घुस आई । किसी के पास हाकी थी, किसी के पास छुरा, किसी के पास सिर्फ क्रिकेट बैट और किसी के हाथ में कपड़ा पीटने वाला डंडा था ।

उस डरीसहमी, पसीने से तरबतर औरत ने मेरी तरफ उंगली उठाई और बोली, “यह चोर ऊपर से कूद कर आया था, इस ने मेरे पति की बहुत पिटाई की है ।”

“उफ, यह क्या?” मेरा माथा घूम गया । मेरे हाथ से चादर की गिरफ्त ढीली पड़ गई । वह आदमी चादर फेंक कर इस तरह खड़ा हो गया, जैसे कोई सांप अपनी केंचुली उतार कर फन उठाए फुफकारने लगे । उस ने सीधे मेरी कमीज का कालर पकड़ा और चिल्लाया, “साले, तुझे नहीं छोड़ूंगा ।”

“मारो साले को....” कोई भीड़ में से चिल्लाया, “देखो, कैसे सब के बीच अकड़ कर खड़ा है ।”

“शक्ल से कैसा सीधासादा लग रहा है ।”

मेरे शरीर के हर छिद्र से पसीना छूट निकला । तुम जानते ही हो, भीड़ की अक्ल हमेशा शून्य होती है । मेरे मुँह से सिर्फ हकलाहट निकली, “म...म...मैं चोर नहीं हूँ ।”

भीड़ में से किसी ने पूछा, “बहनजी, आप के घर के दरवाजे तो बंद थे, फिर यह यहाँ कैसे आया?”

मैं ने बाहर शोर सुना, कोई चिल्ला रहा था, “चोर...चोर...” मैंने अपनी छत पर भागते कदमों की आवाजें सुनी । मैं घबरा कर आँगन से निकल कर चिल्लाने लगी कि कहीं वे मेरे घर में ही न घुस आएं । लगभग 5 मिनट बाद उन का यह साथी छत पर से नीचे कूद पड़ा और मेरे पति को... ” वह अपने पति की –जी शक्ल देख कर रो पड़ी ।

बड़ी मुश्किल से मेरी आवाज निकली, “मैं सच कह रहा हूँ, मैं चोर नहीं हूँ, मैं इंद्रजी की पत्नी का भतीजा हूँ, यहाँ छुट्टियाँ मनाने आया हूँ ।”

“हा...हा...हा....हर चोर किसी न किसी का भतीजा होता है ।”

“चलो, साले को घसीट कर सड़क पर ले चलें ।”

किस ने मुझे पकड़ कर सड़क तक कहाँ घसीटा, किस तरह घसीटा, क्या बताऊँ । तभी दूसरी तरफ से 20-25 लोग 2 लड़कों को घसीटते हुए वहाँ ले आये । उन में किसी ने कहा, “2 चोर और मेरे हाथ लगे है...जो खुद चोर हैं, लेकिन सड़क पर चोर...चोर.... करते भागे जा रहे थे । हम लोगों ने पकड़ा तो बात बनाने लगे कि हम तो चोरों के पीछे भाग रहे थे ।”

“इस बार इन लोगों को ऐसा सबक सिखाएंगे कि हमारी कॉलोनी की तरफ देखना भी बंद कर देंगे ।” लोगों के हाथों में खुजली आ रही थी ।

किस ने कहाँ और कितना मारा, मुझे कुछ होश नहीं . तभी भीड़ को चीरता अंकित कहाँ से प्रकट हो गया । वह एक सज्जन की लाठी पकड़ते हुए बोला, “अंकल, रुक जाइए । यह चोर थोड़े ही है...यह हमारा मेहमान है ।”

“अंकित, ठीक से पहचान कर बोल रहे हो न...तुम्हारे रिश्तेदार क्या छत से कूद कर दूसरों के घरों में घुस जाते हैं ?”

मैं ने हौले से कहा, “मैं तो उस बहन को बचाने के लिए कूदा था ।”

अंकित भी अकड़ गया, “ यह मेरा भाई है । इसे कोई हाथ मत लगाना । चल सिद्धू, घर चलें ।”

तुम्हारी कॉलोनी की उन्मादी भीड़ को चीरता मैं किस तरह दुखते हाथपैरों से घर आया, बता नहीं सकता । अंकित यदि समय पर न आता तो मैं बूआ के घर पड़ापड़ा कराहते हुए तुम्हें कहानी सुनाने के बजाय अस्पताल में टूटी हड्डियों पर प्लास्टर चढ़ाए वहीं किसी वार्ड में पड़ा होता ।

अब तुम पूछोगे कि उन दोनों चोरों का क्या हुआ ? वे दोनों लड़के भी मेरी तरह हालात के मारे थे । वे गुप्ता अंकल के नये किरायेदार थे....बेचारे सिर्फ 2 दिन पहले तुम्हारी कॉलोनी में रहने आये थे । दोनों किसी परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, इसलिये पढ़तेपढ़ते उन्हें रात के ढाई बज गये थे ।

उन्होंने असली चोरों को भागते हुए देखा था.... उन्हें पकड़ने के जुनून में वे भी उनके पीछे भाग लिये थे। गुप्ता अंकल ने सही समय पर पहुँच कर उन्हें भीड़ के पंजे से छुड़ाया ।

क्या कहा ? मेरी बात पर विश्वास नहीं होता ? तो जाओ, गुप्ता अंकल की कोठी के बाहर वाले कमरे की खिड़की से झांक कर देखो...वहाँ तुम्हें वे दोनों भी, हाथपैरों पर पट्टियाँ बांधे पलंग पर पड़े, कराहते हुए मिल जायेंगे....आह...ओ...हाय..।

kneeli@rediffmail.com

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