जीवन ऊट पटाँगा - 6 - दो पाटों के बीच बतर्ज़ सैंडविच Neelam Kulshreshtha द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

जीवन ऊट पटाँगा - 6 - दो पाटों के बीच बतर्ज़ सैंडविच

बीच वाले

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

बुआ ने अब की बार बोरिया बिस्तर हमारे यहाँ पटककर झंडा गाढ़ दिया कि उर्मि की शादी किये बिना यहां से नहीं टलेंगी। हमारे घर में आते ही उर्मि माँ से शादी की बात सुनकर आँखें झुकाये शर्मायी सी उँगली में चुन्नी लपेटने लगी थी। मैंने ध्यान से देखा चेहरे की कस्बाई किसकिसाहट से पूर्ण रूप से उसके व्यक्तित्व को अपनी चपेट में ले रक्खा था। वैसे भी उसके नाक नक्श सुंदर कहलाने लायक नहीं थे। मुंहासों के नोचने से बने निशानों के कारण बीच बीच में उखड़े सीमेंट सा चेहरा हो गया था।

बुआ जब जब आईं हैं, तब तब एक महीने से पहले अपने घर वापिस नहीं लौटीं। उन्हें अचानक आया देखते ही मेरी पत्नी सुषमा के चेहरे का तनाव मेरी नज़रों से छिपा नहीं रहा था. ख़ैर, वह इस तनाव को पोंछकर चाय बनाने में लग गई थी। बुआ पिताजी की लाड़ली अकेली बहिन रहीं हैं। फूफा जी की मृत्यु के बाद वे ही उनकी गृहस्थी का बोझ ढोते रहे हैं. उनकी पांच लड़कियों में से चार की शादी अपने सामने ही कर गए थे। आजकल वे कस्बे में अपने मकान में किराए से उर्मि व अपने दो बेटों के साथ जैसे तैसे गुज़र कर रहीं थीं।

मनु को लाड़ से गोदी में उठाने के बाद, चाय सुड़कने के बाद उन्होंने अपने पर्स में से एक मुड़ा तुड़ा काग़ज़ निकाला, "ऊर्मि के चाचा जी ने पता लगाया है यहां कोई गया प्रसाद जी हैं जिनका मोहन नाम का बेटा है। वह रेडियो ठीक करने का काम करता है। "

"एक गया प्रसाद जी को तो मैं जानता हूँ जिनका एक मोहन नाम का बेटा है। वह भी कोई लड़के में लड़का है ?न आमदनी का कोई ठिकाना, मिजाज़ का बहुत ख़राब है। अपने घर में गाली गलौज करते उसे देख आया हूँ। रास्ता चलते चलते जिस तिस से लड़ पड़ता है। अच्छी तरह सोच लो बुआ जी। "

"मैं कुछ नहीं जानती जैसे भी हो तू ये रिश्ता पक्का करवा दे। बाद में उर्मि जाने व उसका भाग्य। अगर ये भाग्यवान हुई तो उसे सीधे रास्ते पर ले आएगी। "

उनकी बात सुनकर उर्मि डबडबाई आँखों से अपनी नाश्ते की प्लेट रखने चली गई ।

मैं उन दिनों नया नया फ़रीदाबाद आया था। तब मेरी शादी भी नहीं हुई थी। तब मैं जिस होटल में खाना खाता था मैंने सबसे पहले मोहन को वहीं देखा था।उस दिन सामने की मेज़ पर चार पांच लड़के खाना खा रहे थे। एक लड़के ने अपनी हाथ के अख़बार को मेज़ पर रखकर कहा था, " इसमें मैं पढ़ रहा था कि साइंस ने प्रूफ़ कर दिया है कि किसी सुंदर लड़की को देखकर लड़कों के दिल की धड़कन बढ़ जाती है। "

दूसरा बोला था "क्यों मोहन ! ये बात क्या सच है ? किसी ख़ूबसूरत लौंडिया को देखकर तेरे दिल की धड़कन बढ़ जाती है ? "

अब मैंने मोहन नाम के इस लड़के को ध्यान से देखा था --माथे पर रूखे बाल, कानों के नीचे मोटी कलमें, मोटे नाक नक्श, गदबदा शरीर, तोंद कुछ निकली हुई। यही था मोहन जिसने एक हाथ दिल पर रखकर, बांयीं आँख दबाते हये कहा था, "किस साले ने झूठ उड़ाया है ? यहाँ तो सुंदर लौंडिया देखकर दिल की धड़कन रुक जाती है। "उसके बाद उनके जंगली ठहाके से होटल गूँज उठा था।

यहीं पर कभी ये दोस्त मंडली टकरा जाती थी। इस तरह मेरा मोहन से परिचय हुआ था। उसके लिजलिजे व्यक्तित्व को न चाहते हुये भी मैं एक जाति का होने के कारण औपचारिकतावश अपने कमरे पर आने का निमंत्रण दे आया था।

उसने दूसरे दिन ही 'ही, 'ही 'वाली हंसी के साथ मेरे कमरे के दरवाज़े पर दस्तक दे दी थी। इस तरह अनेक बार उसकी उपस्थिति झेलनी पड़ गई थी। मोहन की आय का कोई निश्चित ठिकाना नहीं था। हायर सेकंडरी में बार बार फ़ेल हो जाने के कारण उसने रेडियो मैकेनिक का कोर्स कर लिया था। कभी किसी दुकान पर काम करता, कभी किसी पर। किसी एक दुकान पर वह जम नहीं पाता। कारण भी मुझे किसी दोस्त से पता लगा था। वह ग्राहक के रेडियो में से असली पार्ट निकालकर नकली पार्ट्स या ख़राब डाल देता। चोरी पकडे जाने पर उसे दुकान मालिक द्वारा सड़क पर खड़ा कर दिया जाता था। मेरे समझाने पर भी बुआ जी उर्मि की शादी इसी मोहन से करने को अड़ी हुईं थीं।

हम लोग जब गया प्रसाद जी के यहाँ उर्मि का रिश्ता लेकर गए तो वे ये सुनते ही कि उर्मि बी ए पास है, शादी के लिए फ़ोटो देखकर बिना दहेज़ शादी के लिए लगभग तैयार हो गए। दूसरे दिन ही मिठाई, मेवा, एक साड़ी व अंगूठी लेकर हमारे घर आकर स्वयं ही रोका कर गए।

शादी तय होते ही बुआ ने पंडित को बुलाकर पंद्रह दिन बाद शादी का मुहूर्त तय कर लिया। मेरे व सुषमा से पूछे बिना ही हमारे घर से शादी करने का निर्णय भी ले लिया। मैं कुछ क्रोधित हुआ, "कुछ तो सोचिए इस छोटे से घर से शादी कैसे होगी ?"

"तू कुछ फिकिर मत कर। दिल में जगह होनी चाहिए। तेरा पड़ौस इतना अच्छा है। हमारे मेहमानों को अपने घर का एक कमरा देकर ठहरा लेंगे। "

उन्होंने आगे पिताजी की कसम देकर मेरे हाथ में एक बड़ा चैक रखकर आगे के रास्ते बंद कर दिये थे। मैं चकरघिन्नी सा उन उस चैक को भुनाकर उस रूपये से सारे इंतज़ाम करता घूम रहा था। सुषमा रसोई में काम करती पस्त थी क्योंकि खाना बनाने के लिए मिसरानी रखना सम्भव नहीं था। उर्मि की बरात हमारी कॉलोनी क्या ख़ानदान के लिए अनूठी बारात थी। शराब पीये बैंड की धुन पर नाचते 'पनवाड़ी स्टाइल'के मोहन के दोस्त जिनकी खाने की मेज़ पर भी मस्ती नहीं छूटी थी। बाउल्स की जगह मटर पनीर व रायता डोंगे से मुँह से लगाकर पी रहे थे जब पीते पीते दिल भर जाता तो उस डोंगे को धाड़ से ज़मीन पर मार देते, कभी किसी ग्लास को। जब बर्तनों की कमी होने लगी तो नखरे से चिल्लाने लगे, "आप लोगों का कैसा इंतज़ाम है ? बरात की क्या ऐसी ख़ातिर की जाती है ? "

मैंने यह बदतमीज़ी तो जैसे तैसे सहन कर ली लेकिन जैसे ही मोहन के एक दोस्त के पास से हमारे घर की कोई लड़की गुज़री, उसने अश्लील फ़िकरा कसा, "अय, हय --क्या सैक्सी फ़िगर है, दिल चाह रहा है ----"

मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उसे कॉलर पकड़कर कुर्सी से खींच लिया था। झगड़ा बहुत बढ़ जाता यदि कुछ बुज़ुर्गों ने बीच बिचाव कर रोका न होता।

तड़के ही उर्मि विदा कर दी गई। उधर बुआ जी पंद्रह दिन और रुकीं। उर्मि का दूसरा फेरा पूरा किया। अपने दिए रुपयों का चार चार बार हिसाब लिया, हमारे बेपनाह ख़र्चे को अनदेखा करते हुए सामान बांधकर जब चलीं गईं, तब हमने सांस ली। सोचा था इस शादी के बाद सब झंझटों से मुक्त हो जाएंगे लेकिन अपनी गलतफ़हमी का अहसास बहुत बाद में हुआ। मोहन कभी अकेला, कभी उर्मि के साथ जब तब टपक पड़ता। बेशर्मी से सोफ़े पर फैलते हुए कहता, "आज हम भाभी जी के हाथ का टेस्टी खाना खाने के मूड में हैं। "

कभी उसकी फ़रमाईश पकोड़ों की, कभी छोटे भटूरे, कभी पूरी सब्ज़ी की होती। सुषमा झुंझलाती उनकी ख़ातिरदारी में लगी रहती। महीने के अंत पैसों की खींच तान शुरू हो जाती। सुषमा क्या करती ?उनके आगे परांठे व सब्ज़ी रखती तो वह चिढ़ता, " क्या आपके घर बहनोइयों की ख़ातिर ऐसे की जाती है ? "

वह बेशर्म फिर भी आना नहीं छोड़ता। उर्मि तो खूंटे से बंधी गाय थी, मूक -हर बात से सहमत। उसका चेहरा दुःख से लिपटा रहता। वह बोलती तो पहले ही कम थी, अब तो जैसे सके होंठ चिपक गए थे। उसके चेहरे पर गर्दन या खुली पीठ पर लाल काले निशान बहुत कुछ बता देते । मैंने उसे एक दिन अंदर कमरे में ले जाकर घेर ही लिया, "मोहन तुम्हें मारता है ? उससे बात करुं ?"

वह घबरा गई थी, "भैया !उनसे कुछ मत कहिये। ये सब तो चलता रहता है। ये सोच रहे थे कि बिना मांगे ही शादी में ढेर सा रुपया मिल जाएगा। इसी बात की खीज मुझ पर उतरती है। "

कभी कभी उर्मि की सास अगर मुझे बाज़ार में मिल गईं तो समझो मेरी तो इज़्ज़त गई। वे हाथ नचा नचा कर ताने देतीं, "भैया ऐसी भी क्या कंजूसी की लड़की को एक सोने की कील भी नहीं दी ?अपनी इज़्ज़त ख़ातिर भी तो इंसान कुछ सोना देता ही है। हमें क्या पता था कि हम भूखे कंगलों के यहाँ शादी कर रहे हैं। "

"क्या आपको नहीं पता था कि उर्मि बुआ की पांचवी बेटी है। "

"शादी के बीच में तुम पड़े थे। तुम्हारी अच्छी नौकरी देखकर हमने शादी की थी। "

"मेरी नौकरी और उर्मि की शादी का क्या लेना देना है ?आपको अब बताये देता हूँ कि मैं कभी रिश्वत नहीं लेता। "

"हाँ, हाँ, ऊपर से सभी हरिश्चंद्र की औलादें बने हैं। लड़की भी एकदम काम काज में ईंधन दे दी है। "

मैं उनसे इतना घबरा गया था कि भूलकर भी शाम को बाज़ार नहीं जाता था।

उधर जब रिश्तेदार फ़रीदाबाद आते तो बुआ जी की जातिवालों में उड़ाई बातें पता लगतीं कि उनकी सोने जैसी लड़की को मैंने एक आवारा लड़के से बाँध दिया है और मैंने उनके दिए शादी के रुपयों में भी घपला किया है। मेरा दिल होता कि दीवार से अपना सिर फोड़ लूँ लेकिन उर्मि की ख़ातिर चुपचाप मोहन को अपने घर के सोफ़े पर सहता रहता।

एक दिन मोहन मेरी फ़ैक्टरी में चला आया और उसने बहुत मुलायम आवाज़ में कहा, "मुझे अपने दोस्त से पता लगा है कि आपकी कंपनी अपनी बनाई मोटर सायकिल को अपने कर्मचारियों को चालीस प्रतिशत छूट पर दे रही है। तो आप अपने नाम से एक मोटर सायकिल लेकर मुझे दिला दीजिये। मैं आपको रूपये दे दूंगा। "

"ठीक है, मैं ऑफ़िस में बात करता हूँ। "

मुझे ये स्कीम पता थी। घर पर आकर मैंने सुषमा से ज़िक्र किया। वह एकदम गुस्सा हो गई, " क्या आप जानते नहीं हैं मोहन कैसा है ?वह कभी हमारे रूपये चुकाएगा क्या ?"

"मुझसे उर्मि का दुखी चेहरा नहीं देखा जाता। शायद इस कदम से उसकी खुशियां लौट आएं। "

"मैं तम्हें आगाह कर रहीं हूँ। इनके चक्कर में मत पड़ो। "

मैंने भी बहुत सोचा कि सुषमा सही बात कह रही है लेकिन मेरी रगों में अपने पिता का ख़ून दौड़ रहा था जिन्होंने बुआ की चार बेटियों की शादी की थी।

मैंने दूसरे दिन ऑफ़िस की सारी कार्यवाही पूरी की व स्वयं ही मोहन के घर मोटर सायकिल देने चल दिया। बाहर के कमरे में उर्मि के श्वसुर अखबार पढ़ रहे होंगे इसलिए बनियान व धारीदार पायजामा पहने वे मोटर सायकिल की आवाज़ सुनकर हाथ में अख़बार लिए बाहर निकल आये। मैं उन्हें नमस्कार किया। वे बोले, "ख़ुश रहो बेटा !वाह !शानदार मोटर सायकिल ख़रीदी है। "

"जी, ये मेरी नहीं है मोहन जी ने मुझसे कहा था कि वो लेना चाह रहे हैं। "

"अहा --देर आये दुरुस्त आये --शादी में स्कूटर दे नहीं पाए तो अब ग़लती सुधार ली। भई वाह !भाई हो तो ऐसा हो। "

"जी आपको ग़लतफ़हमी हो गई है, मैं ---."

"ग़लतफ़हमी दूर होती रहेंगी, चलिए अंदर चलिए, मुंह मीठा तो कीजिये। । "

"नहीं, मैं जल्दी में हूँ. मुझे वापिस फैक्ट्री पहुँचना है, ड्यूटी से मोटर सायकिल देने यहाँ आया हूँ। "

जो मोहन हर चौथे पांचवे दिन 'भाभी जी ', भाभीजी 'कहता घर आ टपकता था, उसके एक महीने से कुछ पते ही नहीं थे।

अचनाक सुषमा बहुत परेशान रहने लगी। उसके गर्भाशय में गांठ हो गई थी, बिना ऑपरेशन के गुज़ारा नहीं था। मेरा डेढ़ महीना सुषमा के ऑपरेशन, उसके बाद घर की देख रेख में निकल गए। मनु को सँभालने के लिए आया रखनी पड़ गई थी। खाना तो मैं बना ही लेता था। अभी वह पूरी तरह स्वस्थ नहीं हुई थी की उसके भाई की शादी तय हो गई। मैंने नहीं जाने के बहाने भी बनाये, "सुषमा! देख तो रही हो, हमारी आर्थिक स्थिति कैसी चल रही है ?."

"मेरा सिर्फ़ एक ही भाई है। मैं कैसे उसकी शादी में नहीं जाऊं ? "

मैं पैसों के इंतज़ाम को लेकर बहुत परेशान था। अचानक मुझे मोहन की याद आई। मुझे पता था कि सीधे ही मोहन से पैसों की बात की तो वह बिदक जायेगा इसलिए मैंने तरकीब से काम लिया। एक दिन सुबह ही मैंने उसके घर जाकर उसे घेर लिया। वह तैयार होकर कहीं निकलने वाला था। मैं दुआ सलाम के बाद मतलब की बात पर आ गया, " मेरे साले की अगले महीने शादी है। सासु माँ ने विदाई की पच्चीस साड़ियां मँगवाई हैं। हम लोगों को भी कपड़े बनवाने हैं। तुम्हारा एक सिंधी दोस्त है जिसकी कपड़े की दुकान है। उससे उधार कपड़े दिलवा दो। शादी से लौटकर रूपये दे दूँगा। "

"ओ --बस इतनी सी बात ? वह आपको पहचानता तो है ही। मैं उसे बता दूँगा। आप व भाभी उसकी दुकान से कपड़े ले लीजिये। "

हम लोगों ने जी भरकर उस दुकान से शॉपिंग की। शादी से लौटकर एक सप्ताह भी नहीं हुआ था कि उर्मि वह कपड़ों का बिल लेकर आगे आ गई और संकोच से उसे मेरे हाथ में रखकर बोली, "सिंधी इनसे इस बिल के पेमेंट के बारे में तकाज़ा कर रहा है। "

मैंने उर्मि का संकोची चेहरा देखा तो चुप रहना ही उचित समझा। यदि अभी कुछ कहा तो टसुये बहाने आरम्भ कर देगी।

मैंने उस लम्बे चौड़े बिल के पीछे लिखा -"प्रिय मोहन !तुम्हें याद कि तुमने अभी तक मुझसे अपने लिए ख़रीदवाई बाइक के पैसे मुझे वापिस करने की एक बार भी बात तक नहीं की है। तुम ऐसा करो कि सिंधी का बिल क्लीयर कर दो। बाकी का पैसा बाद में दे देना। "हालाँकि सासु माँ ने पच्चीस साड़ियों के रूपये मुझे दे दिए थे।

पांच दिन बाद सिंधी का एक नौकर उसकी चिठ्ठी लेकर रुपयों का तकाज़ा करता मेरे घर आ गया। मैंने उसे समझा दिया कि मोहन के ऊपर मेरी उधारी है इसलिए वही रूपये देगा।

तीन दिन बाद ही मोहन, उसके माता पिता मेरे घर आकर धमक गये। मैं मनु को गोदी में से उतारकर उनके पैर छूने झुका तो ससुर अकड़ पड़े, "ये नौटंकी रहने दो। "

वे तीनों सोफ़े पर बैठ गए, सुषमा के ट्रे में लाये पानी पीने के बाद बोले, "तुम अब तक सिंधी की उधारी क्यों नहीं चुका रहे ?हमारी इज़्ज़त का ख़्याल नहीं है.और तुमने सिंधी के बिल पर ये क्या लिखकर दिया है? "

मैंने शांत स्वर में कहा, "पहले आप अपने बेटे से कहिये कि मुझे बाइक का रुपया वापिस करे तो मैं उसमें से सिंधी की उधारी चुका दूंगा। "

उसकी बदतमीज़ माँ बदतमीज़ी से चीखते हुए बोली, "तू ही तो बाइक हमारे घर रखने आया था। "

"ज़रूर आया था क्योंकि मोहन हमारी फ़ैक्टरी में से इसे खरीदना चाहता था। ये सामने बैठा है इससे पूछ लीजिये। "

मोहन ने पूरी बेशर्माई दिखाई, "मैं तो किश्तों पर बाइक ख़रीदने आया था लेकिन तुमने ही कहा था कि शादी में बाइक दे नहीं पाए तो अब गिफ़्ट कर रहे हो। और तुम ये गिफ्ट ख़ुद देने हमारे घर आओगे। "

मैं सकते की हालत में था कि लोग किस कदर झूठ बोल सकतें हैं, मैं चिल्ला उठा, " क्या मैं तम्हें कोई सेठ नज़र आता हूँ जो बाइक रिश्तेदार को गिफ़्ट करूंगा ?"

"ओ साले --तेरे कहने का मतलब है कि मोहन झूठा है ? "कहते हुये उसने मेरा कॉलर पकड़ लिया। मैं कहाँ पीछे हटने वाला था, मैं भी गुंथ गया।उसे घूंसे मारने के दौरान मेरे कानों में उसके माता पिता की आवाज़ आ रही थी, "अरे क्या कर रहे हो ---रुको तो -हम पुलिस केस कर देंगे। "

मैं दहाड़ा था, "आप लोग क्या केस करोगे मेरी बहिन दहेज़ माँगने व मार पीट के इलज़ाम में मोहन व आप दोनों को मैं आपको अंदर करवा दूँगा । "

सुषमा ने बड़ी मुश्किल से मुझे मोहन से अलग किया और चिल्लाई, "आप लोग इसी समय मेरे घर से बाहर निकलिये, जो करना है करिये। हम भी देख लेंगे। "

मोहन ने अपने माथे पर बिखरे बालों को एक हाथ से ऊपर करते हुये लाल आँखों से कहा, "जब तक उर्मि गवाही नहीं देगी तब तक कौन तुम्हारी बात पर विश्वास करेगा ?"

कहीं मैं उन पर केस न कर दूँ इसलिए वे चुप लगा गए हैं। ऐसी चुप जिसमें बाइक के रूपये चुकता करना भी शामिल है।

-------लाचार मैं सिंधी के बिल का पैसा भर आया हूँ। बाइक के रुपयों की हर माह फ़ैक्टरी में किश्तें भर रहा हूँ, इस डर से मुझे सपने में भी बाल बिखराये, चेहरे व शरीर पर चोट के निशान लिए उर्मि अपना सूटकेस लिए हमारे घर में घुसती दिखाई देती रहती है।

-------मैं लाचार किश्तें भर रहा हूँ फिलहाल दूसरे बच्चे को तीन चार वर्ष तक आने से रोकने में लगा हूँ। और कर ही क्या सकता हूँ ?

--------------------------------------

नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail—kneeli@rediffmail.com