तर्ज़नी से अनामिका तक - भाग २ Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

तर्ज़नी से अनामिका तक - भाग २

1. दृढ़ संकल्प

ठंड से ठिठुरती हुयी, घने कोहरे से आच्छादित रात्रि के अंतिम प्रहर में एक मोटरसाइकिल पर सवार नवयुवक अपने घर वापिस जा रहा था, उसे एक चैराहे पर कचरे के ढ़ेर में से किसी नवजात बच्चे के रूदन की आवाज सुनाई दी। जिसे सुनकर वह स्तब्ध होकर रूककर उस ओर देखने लगा, वह यह देखकर अत्यंत भावुक हो गया कि एक नवजात लडकी को किसी ने कचरे के ढ़ेर में फेंक दिया है। अब उस नवयुवक के भीतर द्वंद पैदा हो गया कि इसे उठाकर किसी सुरक्षित जगह पहुँचाया जाए या फिर इसे इसके भाग्य के भरोसे छोड दिया जाए। इस अंतद्र्वंद में उसकी मानवीयता जागृत हो उठी और उसने उस बच्ची को उठाकर अपने सीने से लगा लिया और उसे तुरंत नजदीकी अस्पताल ले गया। वहाँ पर उपस्थित चिकित्सक से उसने अनुरोध किया कि आप इस नवजात शिशु की जीवन रक्षा हेतु प्रयास करें यह मुझे नजदीक ही कचरे के ढ़ेर में मिला है। इसकी चिकित्सा का संपूर्ण खर्च मैं वहन करने के लिए तैयार हूँ। यह सुनकर डाॅक्टर उस नवजात को गहन चिकित्सा कक्ष में रखकर इसकी सूचना नजदीकी पुलिस थाने में दे देता है।

कुछ समय पश्चात पुलिस के दो हवलदार आकर उस नवयुवक जिसका नाम राकेश था, उससे कागजी खानापूर्ति कराकर अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हुए उसकी प्रशंसा करते हुए चले जाते है। दूसरे दिन सुबह राकेश अपने घर पहुँचता है और अपने माता पिता को रात की घटना की संपूर्ण जानकारी देता है। जिसे सुनकर उसके माता पिता भी स्तब्ध रह जाते है और कहते है कि आज ना जाने मानवीयता कहाँ खो गयी है। वे राकेश की प्रशंसा करते हुए कहते है कि तुमने बहुत नेक काम किया है। वह नवजात बच्ची जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष करते हुए अंततः प्रभु कृपा से बच जाती है। उस बच्ची को देखने के लिए राकेश के माता पिता भी अस्पताल पहुँचते है। वे उस लड़की का मासूम चेहरा देखकर भावविह्ल हो उठते है और आपस में निर्णय लेते है कि अपने परिवार के सदस्य की तरह ही उसका पालन पोषण करेंगें। इस संबंध में राकेश सभी कानूनी कार्यवाही पूरी कर लेता है। वे बच्ची का नाम किरण रख देते है। कुछ वर्ष पश्चात राकेश के माता पिता उसके ऊपर शादी के लिए दबाव डालने लगते है। यह सब देखकर राकेश एक दिन स्पष्ट तौर पर उन्हें बता देता है कि वह शादी नही करना चाहता और सारा जीवन इस बच्ची के पालन पोषण और उज्जवल भविष्य हेतु समर्पित करना चाहता है। राकेश की इस जिद के आगे उसके माता पिता भी हार मान जाते है।

किरण धीरे धीरे बडी होने लगती है और अत्यंत प्रतिभावान और मेधावी छात्रा साबित होती है। कक्षा बारहवीं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण करने के पश्चात वह उच्च शिक्षा के साथ साथ राकेश के पैतृक व्यवसाय दुग्ध डेरी का कार्य भी संभालने लगती है और अपनी कडी मेहनत और सूझबूझ से अपने व्यवसाय को बढाकर उसे शहर के सबसे बडे डेयरी फार्म के रूप में विकसित कर देती है। उसकी इस प्रतिभा के कारण मुख्यमंत्री द्वारा उसे प्रदेश की बेटी कहकर संबोधित करते हुए उत्कृष्ट महिला उद्यमी के रूप में सम्मानित किया जाता है। वह दिन राकेश के लिए अविस्मरणीय बन जाता है।

समय धीरे धीरे व्यतीत हो रहा था और राकेश के मन में किरण के विवाह की चिंता सता रही थी। एक दिन उसने अपने इन विचारों को किरण के सामने रखा और किरण ने आदरपूर्वक उन्हें बताया कि अभी उसने विवाह के विषय में कोई चिंतन नही किया है। अभी फिलहाल मेरा सारा ध्यान आपकी सेवा और पढाई एवं व्यवसाय की उन्नति के प्रति है। इस के बाद भी राकेश ने कई बार इस बारे में बात करने का प्रयास किया परंतु हर बार किरण उसे वही जवाब देकर इस विषय को टाल देती थी।

एक दिन डेयरी के कार्य से दूसरे शहर से लौटते समय किरण को एक जगह भीड लगी दिखाई देती है। उसके पूछने पर पता होता है कि कोई अपनी नवजात कन्या को यहाँ छोड़ गया है। यह सुनकर उसका हृदय द्रवित हो उठता है और वह गाडी से उतरकर उस बच्ची को अपने साथ तुरंत अस्पताल ले जाती है। जहाँ पर डाक्टरों के प्रयास से उस बच्ची को बचा लिया जाता है और सभी औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद वह उसे अपने घर ले आती है। राकेश को जब इन बातों का पता होता है तो वह किरण की बहुत प्रशंसा करता है और अपने कमरे में जाकर पुरानी यादों में खो जाता है जहाँ उसे वे दिन और घटनायें याद आने लगती है जब वह किरण को अपने घर लाया था।

समय ऐेसे ही निर्बाध गति से आगे बढ रहा था परंतु एक दिन अचानक ही हृदयाघात से राकेश की मृत्यु हो जाती है। यह देखकर किरण स्तब्ध और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है और अत्यंत गमगीन माहौल में वह स्वयं अपने पिता का अंतिम संस्कार करने का निर्णय लेती है। कुछ दिनों बाद सारे सामाजिक कर्मकांडों से निवृत्त होकर वह एक दिन राकेश के लाकरों को बंद करने के लिए बैंक जाती है और उन लाकरों में उसे फाइलों के सिवा कुछ नही मिलता है। वह सारी औपचारिकताएँ पूरी करके उन फाइलों को घर ले आती है। उसी दिन रात्रि में वह उन फाइलों केा देखती है और पढने के बाद स्तब्ध रह जाती है कि वह राकेश की सगी बेटी नह़ी है बल्कि कचरे के ढेर में मिली एक लावारिस बच्ची है जिसे राकेश ने अपनी बेटी के समान पाल पोसकर बडा किया और वह सुखी रहे इसलिए शादी भी नही की। राकेश के त्याग, समर्पण व स्नेह की यादें लगातार उसके मन में आती रही और सारी रात वह इन्ही विचारों में खोयी रही।

कुछ वर्ष पश्चात शहर में एक सर्वसुविधा संपन्न अनाथ आश्रम एवं चिकित्सा केंद्र का उद्घाटन हुआ जिसमें अनाथ बच्चों के लालन पालन, शिक्षा एवं चिकित्सा की समस्त सुविधाएँ उपलब्ध थी और इसका निर्माण किरण ने अपने पिता स्वर्गीय राकेश की स्मृति में कराया था। ऐसे बच्चों की सेवा को ही उसने अपना ध्येय बना लिया था और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने अपने पिता के समान ही आजीवन अविवाहित रहने का दृढ संकल्प ले लिया था।

2. हृदय परिवर्तन

नर्मदा नदी के किनारे एक संत करते थे। उनके आश्रम के बगल में ही एक कसाई रहता था जिसकी नीयत स्वामी जी के आश्रम की जमीन हडपने की थी। वह चाहता था कि स्वामी जी किसी प्रकार से यहाँ से चले जाये और वह जमीन पर कब्जा कर ले। अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए वह प्रतिदिन एक मुर्गी को मारकर उसकी हड्डियाँ, आश्रम के मुख्य द्वार के पास फेंक आता था इससे वहाँ पर बदबू फैलने के कारण स्वामी जी एवं आश्रम में आने जाने वाले उनके अनुयायियों को काफी कष्ट होता था। यह जानकर वह कसाई मन ही मन प्रसन्न हुआ करता था। उसके विचित्र स्वभाव के कारण उसकी पत्नी और उसका बेटा उसे छोडकर अन्यत्र निवास करते थे।

कुछ माह के पश्चात शहर में प्लेग नामक बीमारी का प्रकोप अचानक फैल गया। शहर में रहने वाले लोग इसके प्रकोप से बचने हेतु शहर छोडकर बाहर जाने लगे। इसी दौरान वह कसाई भी इस बीमारी की चपेट में आ गया। उसकी पत्नी और बेटा पहले ही शहर छोडकर जा चुके थे। स्वामी जी ने ऐसी विकट परिस्थितियों में उसकी बहुत सेवा की जिससे अभिभूत होकर उसने एक दिन स्वामी जी से पूछा कि मै तो आपका अहित चाहता था और आपके आश्रम की जमीन हडपना चाहता था। मेरे इतने दुर्भावना पूर्ण व्यवहार के बाद भी आप इतने तन, मन से मेरी सेवा कर रहे है। ऐसा क्यों ?

स्वामी जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि मानव में मानवीयता के साथ मानव की सेवा करने की मन में भावना एवं उसे कार्यरूप में परिणित करना ही वास्तविक धर्म है। मैंने केवल अपने कर्तव्य का पालन किया है। यह सुनकर वह कसाई स्वामी जी के चरणों में गिरकर अपने द्वारा किये गये पूर्व कृत्यों के लिए माफी माँगता है। स्वामी जी की बातों से उसका हृदय परिवर्तन हो चुका था। उसने अपनी जमीन भी आश्रम को दान देकर स्वयं उनका शिष्य बनकर सेवा का संकल्प ले लिया। इससे हमें यह शिक्षा प्राप्त होती है कि निस्वार्थ सेवा के द्वारा कठोर व्यक्ति का भी हृदय परिवर्तन हो सकता है।

3. प्रतिभा पलायन

भारतीय रेल्वे में अपनी उत्कृष्ट व कर्तव्यनिष्ठ सेवा प्रदान करने हेतु डायेरक्टर जनरल के स्तर पर गोडल मैडल, जनरल मैनेजर अवार्ड आदि से सम्मानित आई आई टी मुंबई से उत्कृष्ट अंको से उत्तीर्ण सचिन शुक्ला वर्तमान में जबलपुर में डिप्टी जनरल मैनेजर के पद पर कार्यरत है।

उन्होंने अपना अनुभव बताते हुए कहा कि वे जब आई आई टी मुंबई में इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में पढ रहे थे तब उनके अधिकतर मित्र व सहपाठी अमेरिका के विश्वविद्यालयों में उच्च अध्ययन हेतु जाने के लिये लालायित थे। अमेरिका के विश्वविद्यालय भी भारत के अच्छे अंक प्राप्त करने वाले आई आई टी के छात्रों को बहुत पसंद करते है क्योकि ऐसे विद्यार्थी बहुत मेहनती, बुद्धिमान एवं अपने कार्य के प्रति समर्पित रहते है। मेरे अधिकांश सहपाठियों को अमेरिका के विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा छात्रवृत्ति देकर उन्हें प्रवेश प्राप्त हो गया था और वे सब इतने खुश हुये कि मानो भगवान ने उन्हें एक नयी जिंदगी दे दी हो।

मुझे भी मेरे मित्रों ने सुझाव दिया कि तुम भी अमेरिका चले जाओ क्योंकि यहाँ अपने देश में योग्यता का सही मूल्यांकन नही है। यहाँ तो सिर्फ जातिगत आरक्षण और भ्रष्टाचार है। यहाँ अच्छे और ईमानदार लोगों को तरक्की के अवसर मिलने में बहुत कठिनाई होती है। यदि तुम अमेरिका चले जाओगे तो तुम्हें उन्नति के अवसर आसानी से प्राप्त होते रहेंगें और तुम आर्थिक रूप से भी बहुत संपन्न हो जाओगे। उनकी बात मानकर मैं भी अमेरिका जाने हेतु प्रयासरत हो गया और प्रभु कृपा से मुझे भी छात्रवृत्ति के साथ वहाँ प्रवेश मिल गया। मैंने जाने की तैयारी शुरू कर दी थी परंतु इससे मुझे बहुत प्रसन्नता महसूस नही हो रही थी और मैं अपनी अंतरात्मा में सोचता था कि अपनी अच्छी जिंदगी के लिए देश छोडकर विदेश में क्यों बस जाऊँ ? क्या अपने देश में ही ईमानदारी से काम करना संभव नही है ? यदि हमारे देश की प्रतिभाओं का इसी तरह पलायन होता रहेगा तो हमारे देश की उन्नति और तरक्की कैसे हो सकेगी ?

मैं इसी उधेडबुन में उलझा हुआ था तभी मुझे भारतीय रेल्वे में उच्च पद पर कार्य करने का अवसर प्राप्त हो गया, फिर भी लोगो का मत था कि अपने देश में केवल चापलूस और भ्रष्ट लोगों की जल्दी प्रगति होती है। तुम अमेरिका में बस जाआगे तो आराम से रहोगे। इसी उधेडबुन में मैं उलझा हुआ था तभी मुझे बचपन में पढा हुआ एक श्लोक याद आया कि जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान होती है। यह स्मरण आते ही मैंने दृढ निश्चय कर लिया कि यदि हम स्वयं ऐसी स्थिति को आगे बढकर समाप्त करने का प्रयास नही करेंगें तो हमें ऐसे तंत्र को दोष देने का कोई अधिकार नही है।

किसी भी शासन तंत्र को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने हेतु शासन प्रणाली में अच्छे लोगों की आवश्यकता रहती ही है। यदि ईमानदार और समर्पित लोग नही होंगे तो शासन तंत्र जनता के हित में सुचारू रूप में कैसे चल पायेगा ? मन में यह विचार आते ही मैंने अमेरिका जाने की सोच को अलविदा करके भारत में ही रहकर भारतीय रेल में नौकरी करने का निश्चय कर लिया। मेरा युवाओं को संदेश है कि मैंने जीवन में जो रास्ता चुना वह सही था। मेरी प्रतिभाशाली युवाओं से प्रार्थना है कि वे सिर्फ आर्थिक दृष्टिकोण के कारण देश से पलायन करने का निर्णय ना लेकर अपने देश में ही रहकर सकारात्मक सोच के साथ आगे बढने हेतु कृत संकल्पित हों।

4. संत का मार्गदर्शन

एक ग्रामीण इलाका जो कि शहरी विकास से बहुत दूर था, प्रतिवर्ष गर्मी के दिनों में सूखे से प्रभावित होता रहता था जिससे वहाँ के निवासी तो कष्टप्रद जीवन तो जीते ही थे इसके साथ ही साथ उन्हें पशुधन की भी हानि उठानी पडती थी। एक दिन एक संत वहाँ पर आये और उन्हें जब इस कठिनाई का पता हुआ तो उन्होने इसे दूर करने का बीडा उठा लिया। उन्हें वहाँ के निवासियो से पता हुआ कि उपर पहाडी पर एक बरसाती झरना है जो कि बरसात के दिनों लबालब बहता रहता है। उस पानी का कोई उपयोग नही हो पाता है और वह व्यर्थ ही बह जाता है। यह सुनकर संत जी ने गांव वालों के सहयोग से एक तालाब को खुदवाया और उसमें ऐसी व्यवस्था कर दी कि बरसात में उसे झरने से बहने वाला जल सीधे तालाब में आकर इकट्ठा होने लगा इसके साथ साथ उन्होने बरसात के पानी से भूमिगत जल स्तर बढाने के लिए गांव में कुए खुदवाये एवं आसपास फलदार वृक्ष लगवाकर एवं पौधारोपण को बढावा दिया। स्वामी जी के इन प्रयासों से अगली बरसात में तालाब पानी से लबालब भर गया एवं पौधारोपण के कारण भूमिगत जल का स्तर जो लगातार नीचे जा रहा था वह भी बढने लगा। बारिश की वजह से कुए भी पानी से भर गये। इस प्रकार उनके एवं गांववालो के संयुक्त प्रयास से बरसाती जल को इकट्ठा करने के कारण सूखे की समस्या का हमेशा के लिये निदान हो गया। वहाँ पर वृहद पौधारोपण के कारण हरियाली भी बढ गयी। इस प्रकार एक महात्मा के निस्वार्थ सेवा एवं मार्गदर्शन के कारण उस गांव को आदर्श ग्राम के रूप में शासन ने चुन लिया और अब उसी आधार पर अन्य सूखा प्रभावित गांवों में भी विकास कार्य प्रारंभ हो गये।

5. विष्वास

मुम्बई की एक बहुमंजिला इमारत में मोहनलाल जी नाम के एक बहुत ही सज्जन व दयालु स्वभाव के व्यक्ति रहते थे। उसी इमारत के पास एक महात्मा जी दिन भर ईष्वर की आराधना में व्यस्त रहते थे। मोहनलाल जी के यहाँ से उन्हें प्रतिदिन रात का भोजन प्रदान किया जाता था। यह परम्परा काफी समय से चल रही थी। एक दिन उन महात्मा जी ने भोजन लाने वाले को निर्देष दिया कि अपने मालिक से कहना कि मैंने उसे याद किया है। यह सुनकर मोहनलाल जी तत्काल ही उनके पास पहुँचे और उन्हंे बुलाने का प्रायोजन जानना चाहा। महात्मा जी ने कहा कि मुझे आप पर आने वाली विपत्ति का संकेत प्रतीत हो रहा है। क्या आप कोई बहुत बड़ा निर्णय निकट भविष्य में लेने वाले हैं ? मोहनलाल जी ने बताया- मैं अपने दोनों पुत्रों के बीच अपनी संपत्ति का बंटवारा करना चाहता हूँ। मैं और मेरी पत्नी की आवष्यकताएं तो बहुत सीमित हैं जिसकी व्यवस्था वे खुषी-खुषी कर देंगे। महात्मा जी ने यह सुनकर कहा कि आप अपनी संपत्ति के दो नहीं तीन भाग कीजिये और एक भाग अपने लिये बचाकर रख लीजिये। इससे आप दोनों जीवन में किसी पर भी निर्भर नहीं रहना पड़ेगा।

मोहनलाल जी यह सुनकर बोले कि हम सभी आपस में बहुत प्रेम करते है। उन्होनें महात्मा जी की बात पर ध्यान न देते हुये बाद में जब संपत्ति का वितरण किया तो उसके दो ही हिस्से किए।

कुछ समय तक तो सब कुछ सामान्य रहा फिर उन्हें धीरे धीरे अनुभव होने लगा कि उनके बच्चे उद्योग-व्यापार और पारिवारिक मामलों में उनकी दखलन्दाजी पसन्द नहीं करते हैं। कुछ माह में उनकी उपेक्षा होना प्रारम्भ हो गयी और जब स्थिति मर्यादा को पार करने लगी तो एक दिन उन्होने अपनी पत्नी के साथ दुखी मन से अनजाने गन्तव्य की ओर प्रस्थान करने हेतु घर छोड़ दिया। वे जाने के पहले उन महात्मा जी के पास मिलने गए। उन्होंने पूछा आज बहुत समय बाद कैसे आना हुआ ? तो मोहनलाल जी ने उत्तर दिया कि मैं प्रकाष से अन्धकार की ओर चला गया था और अब वापिस प्रकाष लाने के लिये जा रहा हूँ। मैं अपना भविष्य नहीं जानता किन्तु प्रयासरत रहूँगा कि सम्मान की दो रोटी प्राप्त कर सकूं। महात्मा जी ने उनकी बात सुनी और मुस्कराकर कहा कि मैंने तो तुम्हें पहले ही आगाह किया था। तुम कड़ी मेहनत करके सूर्य की प्रकाष किरणों के समान प्रकाषवान होकर औरों को प्रकाषित करने का प्रयास करो।

मेरे पास बहुत लोग आते हैं जो मुझे काफी धन देकर जाते हैं जो मेरे लिये किसी काम का नहीं है। तुम इसका समुचित उपयोग करके जीवन में आगेे बढ़ो और समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत करो। ऐसा कहकर उन महात्मा जी ने लाखों रूपये जो उनके पास जमा थे वह मोहनलाल जी को दे दिये।

मोहनलाल जी ने उन रूपयों से पुनः व्यापार प्रारम्भ किया। वे अनुभवी एवं बुद्धिमान तो थे ही, बाजार में उनकी साख भी थी। उन्होंने अपना व्यापार पुनः स्थापित कर लिया।

इस बीच उनके दोनों लड़कों की आपस में नहीं पटी और उन्होंने अपने व्यापार को चैपट कर लिया। इधर मोहनलाल जी पहले से भी अधिक समृद्ध हो चुके थे। व्यापार चैपट होने के कारण भारी आर्थिक संकट का सामना कर रहे दोनो पुत्र उनके पास पहुँचे और सहायता मांगने लगे।

मोहनलाल जी ने स्पष्ट कहा कि इस धन पर उनका कोई अधिकार नहीं है। वे तो एक ट्रस्टी हैं जो इसे संभाल रहे हैं। जो कुछ भी है उन महात्मा जी का है। तुम लोग जो भी सहायता चाहते हो उसके लिये उन्हीं महात्मा जी के पास जाकर निवेदन करो। जब वे वहाँ पहुँचे तो महात्मा जी ने उनकी सहायता करने से इन्कार कर दिया और कहा कि जैसे कर्म तुमने किये हैं उनका परिणाम तो तुम्हें भोगना ही होगा।

6. गुमशुदा बचपन

एक धनाढ्य व्यक्ति अपने बच्चों के लिए ढ़ेर सारे खिलौने खरीदकर लाया करता था। कुछ समय बाद बच्चे के बड़े हो जाने के कारण वे सारे खिलौने उनके लिए अनुपयोगी हो गये थे। उस व्यक्ति ने सोचा कि क्यों ना इन्हें गरीब बच्चों में बाँट दिया जाए। जिससे वे भी इनसे खेलकर खुश हो जायेंगें। अपनी इस भावना को कार्यरूप देने के लिए वह पास ही की एक गरीब बस्ती की ओर निकल पडता है। रास्ते में उसे एक गरीब बच्चा मिलता है जिसे वह खिलौना देने की पेशकश करता है। वह बच्चा यह सुनकर बहुत खुश होता है एवं खिलौना ले भी लेता है परंतु अचानक ही कुछ सोचकर उसे मायूस होकर वापिस कर देता है। वह व्यक्ति इसका कारण पूछता है तो वह बच्चा कहता है कि मेरे माता पिता मुझसे भीख माँगने का काम करवाते है अगर वे यह खिलौना देख लेंगे तो समझेंगें की मैंने भीख से प्राप्त पूरे रूपये उन्हें ना देकर उसमें कुछ रूपये से यह खिलौने खरीदे है तो मुझे बहुत मार पडेगी। वह बच्चा यह कहकर चुपचाप चला जाता है। उस व्यक्ति को आगे जाकर एक दूसरा गरीब बच्चा मिलता है। वह उसे भी खिलौने देने की पेशकश करता है परंतु वह बच्चा मना करते हुए कहता है कि मैं तो दिनभर बिडी बनाने का काम करता हूँ, मेरे पास इन खिलौने से खेलने का वक्त ही नही है। यह कहकर वह बच्चा आगे बढ जाता है। कुछ और आगे जाने पर उस व्यक्ति को तीसरा बच्चा मिलता है जो कि सहर्ष ही सभी खिलौने लेकर उसे धन्यवाद देता हुआ चला जाता है। वह व्यक्ति मन में सोचता है चलो देखते है कि यह बच्चा इन खिलौनों के साथ क्या करता है। वह उस बच्चे का पीछा करता है और देखता है कि उसने एक दुकान पर जाकर उन खिलौनों को बेच दिया और उससे प्राप्त राशि से पास ही की एक दवा दुकान से दवा खरीदकर ले जाता है। वह भी चुपचाप उसके पीछे पीछे उसके घर तक पहुँच जाता है। वहाँ उस बच्चे को अपनी बीमार माँ को दवाई पिलाते हुए देखकर द्रवित हो जाता है और उसकी आँखें नम हो जाती है। वह मन ही मन सोचता है कि जिस देश का बचपन ऐसा हो उस देश की जवानी क्या होगी ?

7. कर्तव्य

एक गरीब महिला अपने बेटे के साथ नदी से लगी हुई रेल्वे लाइन के ब्रिज के पास झोपड़े में रहती थी। एक दिन रात में दो बजे के आसपास तेज आवाज हुई जिससे उसकी नींद खुल गई वह देखने के लिए उठ बैठी कि यह अजीब सी आवाज किस बात की है। उस समय वर्षा ऋतु का मौसम था और तेज बरसात हो रही थी। वह यह देखकर चौक गई कि नदी पर बना रेल्वे का ब्रिज नदी के प्रवाह के कारण आधा झुककर टूट गया था। यह देखते ही उसकी नींद गायब हो गई और उसके होश उड़ गये क्योंकि आधा घंटे के बाद एक ट्रेन को वहाँ से गुजरना था। उसने तुरंत अपने बेटे को उठाया और इस घटना के बारे में बताया अब दोनो के मन में यह चिंता हो रही थी कि बीस पच्चीस मिनिट के बाद वहाँ से निकलने वाली गाड़ी को कैसे रोका जाए अन्यथा वह गंभीर हादसे की षिकार हो जायेगी और सैकडों लोगो को जान माल से हाथ धोना पड़ेगा।

ट्रेन को रोकने का एक ही उपाय था कि लाल रोशनी इस प्रकार से बताई जाए ताकि ड्राइवर सचेत होकर गाड़ी को रोक दे, परंतु यह कैसे हो वे मन ही मन सोच रहे थे। वृद्धा के मन मे आया कि उनकी जो खटिया है उसको जलाकर उसकी जो लाल रंग की साड़ी है उसको हिला हिला कर दिखाया जाए उस रेल्वे लाइन के पास एक टीला था और वे दोनो बिना समय गंवाए अपनी खटिया को खींचकर टीले पर ले जाते है। उसमें आग लगाकर उसको ऊँचा करके उसकी रोशनी में एक डंडे में साडी लपेटकर इस प्रकार हिलाना शुरू किया कि ड्राइवर को वह नजर आ जाये और वह सावधान हो जाए।

रात के अंधेरे में गाडी अपनी दु्रत गति चल रही थी तभी ड्राइवर और उसका सह चालक दोनो ने यह दृश्य देखा और सह चालक ने ड्राइवर से कहा कि लगता है कोई डाकुओ का गिरोह यहाँ पर क्रियाशील है और रात्रि का लाभ उठाकर ट्रेन को रोकना चाहते है। ट्रेन का ड्राइवर उससे सहमत नही था उसने स्वविवेक से ट्रेन को रोकने का निर्णय लेकर इमरजेंसी ब्रेक लगाकर ट्रेन को रोक दिया। ट्रेन रूकते ही वह महिला और उसका बेटा खुशी से पागल होकर दौडते हुए जाकर ट्रेन के ड्राइवर को आगे होने वाली संभावित दुर्घटना से अवगत कराते है।

अब चालक दल यह सुनकर ट्रेन से उतरकर नीचे आता है, और दस फीट आगे जाने के बाद ही टूटे हुये पुल को देखता है तो उनके होशोहवास गायब हो जाते है और वो महिला और उसके बेटे के प्रति उनके चरणों में प्रणाम करते हुए आभार व्यक्त करते है। ट्रेन में सवार यात्रियों को जब यह पता चलता है कि इन दो लोगो के कारण आज उनकी जान बच गई तो उन्हें अकल्पनीय खुशी होती है और वे सच्चे दिल से माँ बेटे के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपनी दुआएँ देते है। जब इस घटना की खबर रेलमंत्री को मिलती है तो वे अभिभूत होकर उन दोनो का सम्मान करते हुए लड़के को रेल्वे में नौकरी प्रदान कर देते है।

8. कर्म करे मालिक बनें

म.प्र. की संस्कारधानी जबलपुर शहर में सरल, सौम्य एवं समर्पित महिला श्रीमती पुष्पा बेरी ने अपने दृढ संकल्प एवं अपने अथक प्रयासों से जरूरतमंद महिलाओं के हित में जो कार्य किया है वह प्रशंसनीय एवं वंदनीय है। उन्होंने सहकारिता के क्षेत्र में लिज्जत पापड का उत्पादन करके आज लगभग 3500 महिलाओं को रोजगार उपलब्ध करवाकर उन्हें स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में गति प्रदान की है। देश में सहकारिता के क्षेत्र में गुजरात के अमूल उद्योग के समान ही लिज्जत पापड के निर्माण ने भी अपनी अलग पहचान बनाई है। इतनी अधिक संख्या में महिलाओं से कार्य करवाना और उनका लेखा जोखा रखना अपने आप मे चुनौती है। संस्था को प्राप्त शुद्ध लाभ में से शतप्रतिशत राशि इन महिलाओं को उनके कार्य के अनुसार बांट दी जाती है। अभी तक संस्था के द्वारा 80 करोड़ से भी अधिक राशि बोनस के रूप में संस्था में कार्यरत महिलाओं को दी जा चुकी है। संस्था बेवजह के फिजूलखर्ची को नियंत्रित करके कहीं पर भी अपना विज्ञापन नही देती है।

श्रीमती बेरी का सिद्धांत है कि जो काम करे वही मालिक, जितनी मेहनत करो उतने लाभ के हकदार बनो। आज बेरोजगारी को हटाना और मानव शक्ति का समुचित उपयोग करना हमारे देश की वर्तमान आवश्यकता है। मशीनों से आधुनिकीकरण उतना ही करना चाहिए जिससे उत्पादन में गति एवं गुणवत्ता आ सके। जीवन में सफलता तभी प्राप्त होती है जब आत्मविश्वास, कडी मेहनत एवं ईमानदारी का साथ हो। आज युवा पीढी को किसी भी उद्योग के प्रारंभ करने से पहले उसकी गहराई तक उसे स्वयं पहुँचना होगा। यदि आप पानी के किनारे बैठकर तैरना चाहेंगे तो यह संभव नही है, आपको कूदना ही पडता है। वे युवा पीढी को अपना संदेश देती है कि हमारा उद्देश्य देश और समाज के हित में काम करना होना चाहिए। देश में करोडों जरूरतमंद लोग है जिनके सुख के लिए हम चुनौतियों को स्वीकार करते है और इसी से हमें मन की शांति प्राप्त होती है। यदि हमारे पास धन है किंतु शांति नही है तो वह धन हमारे किसी काम का नही हैं। उनका कथन है कि आपको आपके दो हाथ ही मंजिल तक ले जा सकते है। कभी भी दूसरों से यह अपेक्षा मत करो कि वे तुम्हें मंजिल तक ले जायेंगे। लिज्जत पापड गृह उद्योग स्वरोजगार के माध्यम से आगे बढने के इच्छुक लोगों की मदद करने हेतु सदैव तैयार है और इसके लिए संस्था अपना तकनीकी सहयोग निशुल्क देने के लिए सदैव तत्पर है।

9. वन्य जीव संरक्षण

रामसिंह नाम के एक जमींदार को शिकार का बहुत शौक था। वह प्रायः वनों में वन्य जीवों की खोज में घूमा करता था। एक दिन वह जंगल में शिकार हेतु गया और अचानक उसे एक हिरनी नजर आयी और उसने बंदूक उठाकर उसकी ओर निशाना साधा परंतु वह हिरनी खतरा भांपकर भी वहाँ पर खडी थी। यह देखकर रामसिंह को काफी अचरज हुआ और उसने आगे बढकर देखना चाहा तो वह दृश्य देखकर हतप्रभ रह गया। वह अपने बच्चे को वह दुग्धपान करा रही थी और उसका बच्चा भूखा ना रह जाये इस चिंता में उसे अपनी जान की भी परवाह नही थी।

यह दृश्य देखकर रामसिंह को अपने बचपन की याद आ गयी जब वह अपनी माँ की गोद में बैठकर वात्सल्य सुख लेता था। उसकी गलतियों को भी माँ नजर अंदाज कर देती थी और वह एक पल भी अपनी माँ की आँखों से दूर हो जाता था तो वह विचलित होकर पूरे घर को सिर पर उठा लेती थी। उसको अपनी माँ के प्रति प्रेम और श्रद्धा का मन में स्मरण हो आया और उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली। वह अपनी माँ की याद मे इतना भाव विहल हो गया कि उसे यह भी याद नही रहा कि कब उसके हाथ से बंदूक छूटकर जमीन पर गिर गयी और उसने उस हिरनी के शिकार का इरादा त्याग दिया। वह उन दोनो को जाते हुए तब तक देखता रहा जब तक कि वे आँखों से ओझल नही हो गये।

रामसिंह घर वापिस आता है तब तक उसका हृदय परिवर्तन हो चुका था। उसने निरीह एवं मासूम वन्य प्राणियों को मारने की प्रवृत्ति का मन से त्याग कर दिया अब उसने दृढ निश्चय कर लिया था कि वह वन्य जीवों के संरक्षण के लिए कार्य करेगा और एक शिकारी से वन्य जीव संरक्षक बनकर जीवन यापन करने लगा।

10. महानता

एक बार पश्चिम बंगाल के कई जिलों में वर्षा ना होने के कारण सूखा एवं अकाल पड गया था। एक समाजसेवी व्यक्ति गरीबों की मदद के लिए आगे आया और वह अपने स्वयं के धन से यथासंभव भूखे लोगो को भोजन कराता था। एक दिन इसी दौरान एक बालक उसके पास आया और बोला कि सेठ जी मुझे कृपा करके आठ आने दान में दे दीजिये। सेठ जी के पूछने पर उसने बताया कि चार आने का वह स्वयं भोजन करेगा और बाकी के चार आने अपनी माँ को जाकर दे देगा। सेठ जी यह सुनकर आश्चर्यचकित रह गये और उन्होंने खुश होकर उसे दस रूपये दे दिये और कहा कि अब तुम्हें दो तीन माह तक भीख माँगने की जरूरत नही होगी और तुम अपने परिवार के लिए रोटी का प्रबंध आराम से कर लोगे। वह रूपये पाकर बहुत खुश हुआ और सेठ जी को धन्यवाद देकर उनके पांव छूकर उनके प्रति अपना आदर व्यक्त करते हुए चला गया।

अब लगभग दो वर्ष के बाद वे सज्जन पश्चिम बंगाल के उस शहर मिदनापुर में वापिस आये और उसी स्थान जहाँ उन्होंने उस बच्चे को रूपये दिये अकस्मात पहुँच गये। वहाँ पर उसी समय एक बालक ने आकर उनके पांव पकडकर उनसे निवेदन किया कि आप मेरी अनाज बेचने की दुकान पर पधारकर मेरे परिवार को आशीर्वाद देने की कृपा करे। उस व्यक्ति ने आश्चर्य से पूछा कि तुम कौन हो भाई और मुझसे तुम्हारी यह अपेक्षा क्यों है ? उस लड़के ने बताया कि महोदय मैं वही लड़का हूँ जिसने आपसे आठ आने माँगे थे, और आपने उसकी एवज में दस रूपये दे दिये थें। मेरे परिवार ने उसमें से एक रूपये भोजन में खर्च किया और बाकी बचे नौ रूपये से अनाज के व्यापार का काम शुरू कर दिया था। प्रभु की कृपा और आपके आशीर्वाद से हमारा काम दिन दूनी और रात चौगुनी प्रगति करने लगा। हमने यह दुकान भी खरीद ली है, आपके चरण कमल पडेंगें तो हम और भी अधिक मेहनत करके जीवन में सफल होगें। वह व्यक्ति उसका अनुरोध स्वीकार करके उसके साथ उसकी दुकान पर गया, जहाँ उसका पूरा परिवार उनके प्रति कृतज्ञ था। वह व्यक्ति और कोई नही सुप्रसिद्ध समाज सेवी ईश्वरचंद विद्यासागर थे।