तर्ज़नी से अनामिका तक - भाग ५ Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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तर्ज़नी से अनामिका तक - भाग ५

३१. आपातकाल मेरे जीवन का स्वर्णिम काल

श्री अजय विश्नोई जबलपुर ही नही बल्कि मध्य प्रदेश में भा.ज.पा. के वरिष्ठ एवं महत्वपूर्ण नेताओं में अपना विषिष्ट स्थान रखते है। वे अपनी स्पष्टवादिता, ईमानदार व्यक्तित्व एवं नीतिगत राजनीति के लिये जाने जाते है। उनसे चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि उनके जीवन का स्वर्णिम काल आपातकाल के दौरान विभिन्न जेलों में बिताए हुए दिन है। उनकी बात सुनकर आष्चर्यचकित होकर मैंने उनसे पूछा यह कैसे संभव है और इन स्वर्णिम दिनों में आपके अनुभव जो कि देष के युवाओं के लिए षिक्षाप्रद हो बताने की कृपा करें। उनके द्वारा बताई गई घटनायें उन्ही के षब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूँ।

वे बोले कि 25 जून 1975 की रात पुलिस ने मीटिंग के बहाने बुलाकर 26 जून की सुबह उन्हें जबलपुर जेल पहुँचा दिया। इसके बाद उन्हें टीकमगढ जेल ( बंुदेलखंड ) पुनः वापिस जबलपुर जेल, जावरा जेल ( रतलाम ) और वापिस जबलपुर जेल भेजकर अंततः 29 जनवरी 1977 को रिहाई के साथ 19 माह 4 दिन की जेल यात्रा का समापन हुआ। मुझे 23 वर्ष की उम्र में ही मिला यह अनुभव जिससे मेरी राजनैतिक पहचान भी बनी और वह मेरे अभिन्न व्यक्तित्व का आज भी हिस्सा है। लोकतंत्र के इस काले अध्याय के तमाम कष्टों एवं यातनाओं के बावजूद मेरे जीवन का वह स्वर्णिम काल था।

मेरा काॅलेज जीवन अभी समाप्त नही हुआ था और स्नातक की डिग्री भी प्राप्त नही हुई थी। मध्यप्रदेष के एकमात्र कृषि विष्वविद्यालय का छात्र नेता और जय प्रकाष नारायण के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की पृष्ठभूमि के कारण जेल यात्रा प्रारंभ हो गई और 1 अगस्त 1975 को हम 8 लोगो को टीकमगढ जेल ( बंुदेलखंड ) भेज दिया गया।

यहाँ से मेरा स्वर्णिम काल प्रारंभ हुआ। हम 8 लोगों में जनसंघ के कद्दावर नेता श्री बाबूराव परांजपे, एड. श्री निर्मलचंद जैन आदि षामिल थे। मैं उम्र में उन सबसे छेाटा था। जनसंघ का इतिहास और राजनीति का पाठ पढने मुझे किताबों की आवष्यकता नही हुई क्योंकि चलता फिरता ज्वलंत इतिहास चैबीसों घंटे मेरे साथ था।

टीकमगढ जेल में हम 8 मीसा बंदियों को मिलने वाली सीमित सुविधाओं के कारण हमारा जीवन कष्टप्रद हो गया था। हमें ना ही सुबह की चाय समय पर मिलती थी और ना ही भर पेट भोजन की व्यवस्था थी। इन देानो नेताअें की सहमति से जेल के बंदियों को मैने प्रयास करके अपने साथ मिलाया और 15 अगस्त 1975 को बंदियो से जेलर का घेराव करा दिया। इसके उपरांत लगभग तीन घंटे के बाद जेलर को कैदियों की माँगें पूरी हो जाने के बाद उन्हें घेराव से मुक्त करा दिया गया था। इस आंदोलन से जेलर और जेल प्रषासन हमारी मुठ्ठी में आ गया था जिसके फलस्वरूप जेल से सभी सुविधायें हम मीसा बंदियों को मिलने लगी एवं जेल के खर्चे पर ही प्रति सप्ताह 100 रू की अपनी आवष्यकता की सामग्री बाजार से बुलाने की अनुमति भी मिल गयी।

मेरी अंग्रेजी बहुत कमजोर थी और एड. श्री निर्मलचंद जैन जो कि बाद में म.प्र. उच्च न्यायालय के महाधिवक्ता, सांसद एवं राजस्थान के राज्यपाल भी बने, वे अंग्रेजी के प्रकाण्ड विद्वान थे। टीकमगढ जेल के पुलिस अधीक्षक श्री आर्या के पास अंग्रेजी पुस्तकों का भंडार था। मुझे मानो गुरू और षिष्य दोनो मिल गये। मेरे पास समय ही समय था और मैने इसका उपयोग अंग्रेजी भाषा को सीखने में व्यतीत किया । आज मैं जो कुछ भी अंग्रेजी जानता हूँ। वह इसी स्वर्णिम काल की देने है। मुझे जब वापिस जबलपुर जेल भेजा गया तो सेग्रीग्रेषन वार्ड के 100 मीसा बंदी साथियों केा अंग्रेजी में लिखे स्वतंत्रता संग्राम से जुडे राजनैतिक पृष्ठभूमि की किताबों का अध्ययन कर हिंदी में अनुवाद कर भाषण देने लगा। इस प्रकार इतिहास को जानने, पढ़ने और बोलने का अभ्यास स्वतः ही हेाता गया।

मैं ज्यादा दिन जबलपुर जेल में नही रूक पाया। मेरे पहुँचने के बाद मुझे मीसा बंदियों की दैनिक गतिविधियों का सूत्रधार और मुखिया मानकर पहले मुझे अलग करके कोढी बैरक में स्थानांतरित किया गया और अंततः नौ दिन के बाद जावरा जेल वापिस भेज दिया गया। इस यात्रा में जबलपुर के वर्तमान आधुनिक विजय नगर के विकासकर्ता, जबलपुर विकास प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष स्वर्गीय विषाल पचैरी जी भी मेरे साथ थे।

जावरा जेल में मैं स्वतंत्र रहता था। मुझे ताले में बंद नही किया जाता था और इस दौरान वहाँ पर मुझे श्री लालचंद जी मित्तल ( महापौर, इंदौर ) एड. चितले, विष्णु षुक्ला उर्फ बडे भैया का सान्निध्य मिला। इसके बाद हमें वापिस जबलपुर जेल भेज दिया गया। जहाँ हमने सिवनी, छिंदवाडा, नरसिंहपुर के मीसा बंदियेां को वालीबाॅल, कैरम, षतरंज जैसे खेल सिखाकर उनकी प्रतियोगितायें षुरू करा दी जिससे मनोरंजन के साथ साथ उनका समय भी अच्छा व्यतीत होने लगा। जेल में ही हमने समय समय पर धार्मिक आयेाजनों का भी आयोजन कर हरे राम हरे कृष्ण का 21 दिनों का अखंड कीर्तन भी प्रारंभ करा कर जेल में एक अच्छे वातावरण के निर्माण की षुरूआत की । जेल से बाहर आते ही जनता पार्टी के चुनाव चिन्ह पर मैंने विधानसभा का चुनाव लडा और विजय हासिल की। इस दौरान मैंने राजनीति के मैदान में नेताओं के आर्षीवाद से अनेकों जवाबदारियों के निर्वहन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मेरा देष के युवाओं से अनुरोध है कि यदि वे राजनीति में आते है तो वे देष की उम्मीदों के द्वीपस्तंभ बनें।

३२. धर्म और कर्म

एक दिन धर्म और कर्म में संवाद होने लगा कि उनमें से कौन ज्यादा महत्वपूर्ण है। वे दोनो एक संत के पास पहुँचे और उनसे इस विषय पर मार्गदर्शन देने का अनुरोध करने लगे। संत जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि तुम दोनो एक दूसरे के पर्याय हो और एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नही है। यदि धर्म नही होगा तो कर्म सही दिशा में नही होगा वह दिग्भ्रमित हो जायेगा। यदि कर्म नही होगा तो धर्म की प्रधानता समाप्त हो जायेगी क्योंकि कोई भी कार्य धर्मपूर्वक होकर सही दिशा में ही हो इसका निर्धारण करना असंभव हो जायेगा।

इसलिये कहा जाता हैं कि धर्मपूर्वक कर्म करने से सृजन सही दिशा में होता है जिसका लाभ व्यक्ति, समाज और सबको प्राप्त होता है। अब तुम दोनो स्वयं निर्णय लो कि एक के बिना दूसरे का क्या अस्तित्व रहेगा। इसलिये कहा जाता है कि कलयुग में कर्म आगे और धर्म उसके पीछे और सतयुग में धर्म आगे और कर्म उसके पीछे रहता है। उन दोनो की स्थिति उस रेलगाडी के समान है जिसमें एक इंजिन और एक गार्ड रहता है और दोनो की सहमति के बिना रेलगाडी प्रस्थान नही कर सकती। उसी प्रकार मानव जीवन धर्मपूर्वक कर्म के बिना अपूर्ण है। संत जी की बात उनकी समझ में आ गयी और उनके मन से अभिमान समाप्त हो गया तथा वे पहले की तरह एक दूसरे के प्रति समर्पित हो गये।

३३. सेवाभाव

राकेश नाम का एक व्यक्ति कान्हा नेशनल पार्क की एक होटल में कार्यरत् था। एक रात बहुत तेज बारिश हो रही थी और ऐसे खराब मौसम में रात के 11 बजे के आसपास एक कार आकर रूकी जिसमें से दो वृद्ध व्यक्ति निकल उसके होटल के काऊंटर पर आये जहाँ वह रिसेप्शन पर बैठा हुआ था। उन्होने दो कमरे देने का अनुरोध किया। उसकी होटल में कोई भी कमरा खाली नही था। वह उन ग्राहकों को वापिस भी नही भेजना चाहता था। उसने उन्हें कहा कि भाई साहब होटल के सभी रूम बुक है। मैं आपको अपना बेडरूम उपयोग करने हेतु दे सकता हूँ। वह पूर्णतया व्यवस्थित एवं सर्वसुविधायुक्त है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपके लिए वह कमरा आरामदायक रहेगा। उनमें से एक व्यक्ति ने पूछा कि तब आप कहाँ रहेंगें। उसने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया कि यह मेरा कर्तव्य है कि होटल में आये ग्राहक को कोई असुविधा ना हो और उसका ख्याल रखना हमारा नैतिक दायित्व है। उन दोनो आगंतुको ने कमरे को देखकर सहर्ष ही वहाँ रहना स्वीकार कर लिया। राकेश रात भर रिसेप्शन पर ही किसी प्रकार विश्राम करता रहा परंतु उसने अपने मेहमान ग्राहकों को किसी प्रकार की तकलीफ नही होने दी। दूसरे दिन सुबह उसे धन्यवाद देते हुए उन ग्राहकों ने उससे कमरे के भुगतान के लिए बिल माँगा। राकेश ने विनम्रतापूर्वक उनको कहा कि मैंने अपना व्यक्तिगत कमरा आपको उपयोग के लिए दिया था इसलिये बिल चुकाने का कोई प्रश्न ही नही है। उन ग्राहकों ने आश्चर्यचकित होकर पूछा कि फिर आपने यह कमरा हमें क्यों दिया ? राकेश बोला कि इतनी रात में आपको कही भटकना ना पडे और आपको कोई तकलीफ ना हो इसलिये मैनें अपना कमरा, आपको दे दिया था। मुझे आशा है कि अगली बार जब भी आप कान्हा आयेंगें तो हमारी होटल में रूककर हमें सेवा का अवसर अवश्य देंगे। वे दोनो सज्जन यह सुनकर उसे धन्यवाद देते हुए चले गये।

इसके पाँच वर्ष पश्चात गोवा की एक फाइव स्टार होटल में एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर के महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति हेतु एक विज्ञापन प्रमुख समाचार पत्रों में छपा था। राकेश ने भी यह विज्ञापन देखा और उस पद के लिए अपना आवेदन भिजवा दिया। उसकी आशा के विपरीत उसे वहाँ से साक्षात्कार हेतु बुलाया गया। जब वह साक्षात्कार के लिए वहाँ पहुँचा तो कक्ष में प्रवेश करते ही अपने सामने बैठे दो सज्जनों को देखकर वह अपनी स्मृति पर जोर देने लगा कि उन्हे कहीं देखा हुआ है। वह सोच ही रहा था तभी उनमें से एक ने कहा कि राकेश जी आपकी नियुक्ति इस पद पर कर दी गई है। आपको इंटरव्यू देने की कोई आवश्यकता नही है। यह नियुक्ति पत्र आप स्वीकार करें। यह सुनकर राकेश आश्चर्यचकित हो गया और पूछने लगा कि सर ऐसा क्यों किया जा रहा है ? वे बोले तुम्हारा इंटरव्यू तो उसी रात हो गया था जब तुमने हम लोगों को परेशानी में देखकर रात बिताने के लिए अपना कमरा निःशुल्क दे दिया था। हमें ऐसे ही योग्य एवं प्रतिभावान व्यक्ति की इस महत्वपूर्ण पद पर आवश्यकता थी जो कि पूरी हो गई है। अब राकेश को याद आया और वह मन से ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए इस नये पद पर सेवारत हो गया।

३४. अनुभूति

जबलपुर शहर के समीप पनेहरा गांव में दो मालगुजार हिम्मत सिंह और अवतार रहते थे। उन दोनो का स्वभाव बिल्कुल विपरीत था। हिम्मत सिंह सीधा सादा, मिलनसार एवं धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करने में विश्वास रखता था, जबकि अवतार सिंह अपनी अहंकार प्रदर्शन एवं विलासितापूर्ण जीवन में व्यस्त रहता था। वह मन ही मन हिम्मत सिंह की प्रसिद्धि एवं उसके मान सम्मान से जलता था और अप्रिय स्थिति निर्मित करने के लिए कभी कभी उसके खेत में मवेशियों को चराने के लिए भेज देता था। हिम्मत सिंह इन परिस्थितियों में भी संयम बरतते हुए चुपचाप अपना नुकसान सह लेता था। वह किसी प्रकार के अप्रिय विवाद में नही उलझना चाहता था।

एक दिन वर्षा ऋतु में तेज बारिश हो रही थी। अवतार सिंह को किसी जरूरी काम से शहर जाना था और वह तेजी से अपनी मोटर साइकिल चलाता हुआ जा रहा था। गांव के समीप ही एक रपटा था जिस पर पानी चढने के बाद उतर चुका था परंतु पानी में काई के कारण वह अत्यंत फिसलन भरा हो गया था। अवतार सिंह ने इस बात पर ध्यान नही दिया और तेज रफ्तार के कारण रपटे पर उसकी मोटरसाइकिल बहक गई जिसे वह संभाल नही पाया और गिरकर बमुश्किल रपटे के किनारे लगी रेलिंग को पकडकर नदी में गिरने से अपने को बचा रहा था। उसे अपनी मृत्यु साक्षात दिख रही थी तभी उसने देखा कि हिम्मत सिंह भी मोटरसाइकिल पर उस ओर आ रहा था। हिम्मत सिंह ने जब अवतार सिंह को रेलिंग पकडे संघर्ष करते हुए देखा तो उसने अपनी मोटरसाइकिल को रोका और उतरकर बडी कठिनाई से किसी प्रकार खींच कर बाहर सुरक्षित निकाल लिया। अवतार सिंह मोटरसाइकिल से गिरने के कारण बुरी तरह से घायल हो चुका था। हिम्मत सिंह उसे तुरंत नजदीकी चिकित्सा केंद्र में जाकर भर्ती कराया और उसके परिवार को इसकी सूचना दी।

अब अवतार सिंह चार पाँच दिन के बाद जब अस्पताल से जब गांव वापिस आया तो सबसे पहले हिम्मत सिंह के घर जाकर उसने उसके इस उपकार के लिये उसे धन्यवाद देते हुए उसके पैर पकड लिए। हिम्मत सिंह ने उसे तुरंत उठाकर कहा कि मैंने कोई उपकार नही किया। यह तो मेरा कर्तव्य था और मुझे इस बात की खुशी है कि मैं ऐसी विकट परिस्थितियों में किसी के काम आ सका। अवतार सिंह का हृदय हिम्मत सिंह के प्रति बदल चुका था और उसने अपनी पुरानी गलतियों की माफी माँगते हुए उसके प्रति बहुत आदर व सम्मान गांव वालों के सम्मुख प्रकट किया। अब वे दोनो अच्छे मित्र हो गये थे। इसलिये कहा जाता है कि बुराई को भलाई से खत्म किया जा सकता है। बुराई से बुराई का जवाब देने से वैमनस्यता बढ जाती है।

एक दिन अवतार सिंह ने हिम्मत सिंह को कहा कि मैंने मृत्यु को साक्षात उस दिन देखा था। एक दिन हम दोनो इस दुनिया से चले जायेंगे और हमें कोई भी कुछ दिनों के बाद याद नही रखेगा। हम दोनो के ही पास अपार धन संपदा है। यदि हम इसका कुछ भाग अपने गांव के निवासियों की तरक्की व उत्थान के लिये खर्च करे तो हमारे इन कर्मों को सदैव याद रखा जाएगा। हिम्मत सिंह ने अवतार सिंह की विचारधारा से प्रभावित होते हुए अपनी सहमति दे दी एवं उससे कार्ययोजना के बारे में भी पूछा। अब अवतार सिंह ने उत्साहित होकर बताया कि हम गावं में उन्नत कृषि के लिए षासकीय अधिकारियों को लाकर उनके विचारों एवं योजनाओं को क्रियान्वित करके छोटे किसानों का मुनाफा बढा सकते है। अब इन दोनो ने शासकीय सहायता एवं स्वयं के धन का दान करते हुए गांव में हाई स्कूल, सडके, शौचालय, सामुदायिक भवन आदि बनवाकर प्रतिदिन शाम को गांव की चैपाल की व्यवस्था करवाई जिसमें किसी भी प्रकार के विवादों का निराकरण एवं गांव की प्रगति के लिए दिये गये सुझावों पर विचार विमर्श किया जाता था। इन सब के होने से गांव का नक्शा ही बदल गया और वह गांव एक आदर्श गांव के रूप में प्रसिद्धि पाकर दूसरे गांवों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन गया।

३५. लक्ष्य एक रास्ते अनेक

एक गांव में हरिसिंह और रामसिंह नाम के दो किसान रहते थे। वहाँ स्थित एक मंदिर में एक संत जी भी निवास करते थे। आसपास के कस्बे के लोग उनसे सलाह मशवरा लेते रहते थे। एक दिन रामसिंह उनके पास गया और बोला कि महाराज खेती करने में बडी कठिनाई आती है। हमें मेहनत करने के बाद भी प्राकृतिक परिस्थितियों पर बहुत अधिक निर्भर रहना होता है। आकाश से पानी की बरसात एवं ओलों का प्रकोप असमय हो जाने पर खड़ी हुई फसल बर्बाद होकर हमारी सारी मेहनत और परिश्रम बेकार हो जाता है। मैं सोचता हूँ कि जमीन के दाम बाजार में इतने अधिक हो गये है कि इसे बेचकर इस रकम को बैंक में रख दूँ तो ब्याज में ही मुझे खेती करने से अधिक कमाई होने लगेगी। स्वामी जी ने कहा कि तुम्हारी सोच सही है तुम चाहो तो ऐसा करके परिश्रम एवं चिंताओं से मुक्त हो सकते हो।

इसके बाद हरिसिंह स्वामी जी के पास आकर अपने मन की बात बताकर उनकी सलाह माँगता है। वह कहता है कि मेरी खेती की जमीन में परिश्रम तो मुझे करना पड़ता है परंतु यदि आधुनिक तकनीक अपनाकर फसलों को बदलकर लगाया जाए तो काफी मुनाफा हो सकता है। इसे कार्यरूप देने के लिए पूँजी का निवेश करना पडेगा परंतु उससे लाभ इतना अधिक बढ़ सकता है कि सभी आर्थिक कठिनाईयाँ समाप्त हो जायेंगी। हरिसिंह स्वामी जी से पूछता है कि क्या मुझे ऐसा करना चाहिए ? क्योंकि हमारे निकट के दूसरे गांव के किसान इसका प्रयास किया था परंतु उसे सफलता नही मिली और उसे वापिस अपनी पारंपरिक खेती पर ही आना पड़ा।

अब स्वामी जी बोले तुम्हें आधुनिक नई पद्धति अपनाकर खेती में परिवर्तन करके अधिक लाभ कमाने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। एक बात का जरूर ध्यान रखना कि तुम्हें इस विषय पर जो भी सुझाव दे रहे हो वे वास्तव में उस विधा के पूरे जानकार है या नहीं इस विषय में पूरी जानकारी जरूर प्राप्त कर लेना। यह सुनकर हरिसिंह संतुष्ट होकर चला जाता है।

संत जी का एक शिष्य उनके द्वारा दोनो किसानों को दिये गये सुझाव जो कि एक दूसरे से विपरीत थे सुनकर पूछने लगा कि आपने ऐसा क्यों किया ? रामसिंह को तो आपने जमीन बेचने का सुझाव दे दिया और हरिसिंह को खेती करने के लिए प्रोत्साहित कर दिया ऐसा क्यों ? स्वामी जी ने कहा कि रामसिंह की बातों से स्पष्ट था कि वह खेती मे मेहनत से थक चुका था। यदि मैं उसे खेती में बदलाव करने का सुझाव देता तो उसे वह स्वीकार नही होता इसलिये मैंने उसे जमीन बेचकर घर बैठे खेती से प्राप्त होने वाले मुनाफे से कहीं ज्यादा ब्याज में प्राप्त होना सही समझा। हरिसिंह की बातों से स्पष्ट था कि वह खेती करने के लिए प्रतिबद्ध था और उसी में अधिक मुनाफा कमाने के लिए प्रयासरत था। मैंने जिसकी जैसी मनोवृत्ति देखी वैसी ही मैंने उसे प्रेरणा दी। दोनो ही किसानों की मंजिल एक ही है कि अधिक से अधिक धनोपार्जन करना पर उसे प्राप्त करने के रास्ते अलग अलग है। जीवन में उद्देश्य महत्वपूर्ण होता है। हमें उसे हर परिस्थिति में प्राप्त करना चाहिए।

३६. वट वृक्ष

श्री विनय सक्सेना एक ओजस्वी व्यक्तित्व के धनी, प्रखर वक्ता एवं नीतिगत राजनीति में विष्वास रखने वाले कांग्रेस पार्टी के प्रति समर्पित एवं वरिष्ठ नेता है। वे वर्तमान में जबलपुर नगर निगम में वरिष्ठ पार्षद है एवं पूर्व नेताप्रतिपक्ष भी रह चुके है। उनसे वार्तालाप होने पर उन्होंने बताया कि उनकी षिक्षा पूर्ण होने उपरांत वे युवावस्था से ही समाज सेवा और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भूमिका निभाने लगे थे। उनके संयुक्त परिवार में माता पिता से मिली नैतिक षिक्षा एवं संस्कार आज भी उनका मार्गदर्षन करते है। वे वर्तमान परिस्थितियों में राजनीति में नैतिक मूल्यों के हृास से काफी चिंतित है। वे कहते हैं कि आज जीवन के हर क्षेत्र में धन की महिमा और चमक ने अपने दुष्प्रभाव से आदर्ष जीवन को झकझोर दिया है। वे अपने जीवन की एक पुरानी घटना याद करते हुये बताते है।

आज से लगभग दो दषक पहले एक बहुत बडी त्रासदी के रूप में भूकंप आया था जिससे जबलपुर षहर भी अछूता नही बचा था। षहर मे जानमाल का भारी नुकसान हुआ था और ऐसी कोई इमारत नही बची थी जिसमें इस भूकंप के कारण दरार ना आ गई हो। म.प्र.षासन ने भी इस विभीषिका को देखते हुये मुआवजे के रूप में आर्थिक मदद भूकंप पीडितों को देना प्रारंभ कर दिया था। वे क्षेत्रीय पार्षद होने के कारण इस आर्थिक सहायता से पीडित लोगो की मदद करने का प्रयास कर रहे थे। जब मुआवजे का वितरण किया जा रहा था उसी समय क्षेत्र के एक संभ्रांत एवं आर्थिक रूप से संपन्न सज्जन उनके पास आये और बोले कि जब तुम मुआवजे की रकम बाँटोगे तो मेरे घर पर चार अलग अलग जगह मुआवजा देकर जाना क्योंकि हमारे यहाँ बँटवारा हो चुका है और हम सब के चैके चूल्हे एक ना होकर चार हो चुके है। वे उस परिवार को बहुत अच्छे से जानते थे और उनकी संपन्नता से भी भली भाँति परिचित थे। बचपन में उन्हेांने उन सब को एकसाथ एक ही थाली में खाना खाते हुए, खेलते हुए, और सारे सुख दुख आपस में बाँटते हुए देखा था। आज जब इस भयंकर त्रासदी के समय सारा षहर अपना धर्म, संप्रदाय, अमीर गरीब का भेदभाव भूलकर एक दूसरे की पीडा में सहयोगी बन रहा है ऐसे कठिन समय में वह परिवार संपन्न होते हुए भी मदद करने के स्थान पर चार गुना मुआवजा प्राप्त करने के लिए निवेदन कर रहा था।

वे उस रात ठीक से सो नही पाये और सोचते रहे कि जब तक वह परिवार एक था कितना संपन्न और सुखी था, अब बँटवारा हो जाने पर वह वटवृक्ष कई हिस्सों में बँटकर अपनी संपन्नता खो चुका है एवं मुआवजे की छोटी सी राषि भी ज्यादा प्राप्त करने के लिये लालयित है। एक वटवृक्ष तो सभी को छांव देता है और उसकी षाखायें जितनी फैलती है उतना ही मजबूत होता है एवं फैलकर हमें छांव रूपी सुख देता है, उसी प्रकार हमारा परिवार रूपी वटवृक्ष भी यदि एक होकर रहेगा तो सदैव मजबूत रहेगा कभी मजबूर नही होगा। संयुक्त परिवार की प्रासंगिकता आज भी अपना महत्व रखती है।

३७. सब का दाता है भगवान

जबलपुर शहर में एक धनाढ्य व्यापारी पोपटमल रहता था। वह कर्म प्रधान व्यक्तित्व का धनी था और गरीबों को दान धर्म, आर्थिक मदद देता रहता था। उसके घर पर प्रतिदिन दोपहर के समय दो भिखारी भीख माँगने आते थे। जिन्हें उसके द्वारा प्रतिदिन भोजन प्रदान किया जाता था। उसमें से एक भिखारी भगवान के प्रति आभार व्यक्त करता और दूसरा भिखारी उस व्यापारी का गुणगान करता हुआ चला जाता था।

पोपटमल को ईश्वर के ऊपर कोई विश्वास नही था और वह मंदिर जाकर पूजा पाठ या भक्ति सेवा में किसी प्रकार का विश्वास नही रखता था। इस प्रकार कई वर्ष जरूरतमंदो को आर्थिक सहयोग, बच्चों को शिक्षा प्रदान करने हेतु उनकी फीस, किताबें इत्यादि के लिए व्यतीत हो गये। एक दिन उसने सोचा कि जो भिखारी उसका गुणगान करता है। उसे आर्थिक समस्याओं से निजात दिलाने के लिए कुछ करना चाहिए। यह सोचकर वह अपनी मँहगी अँगूठी उसे भीख में दे देता है और कहता है कि इसकी बिक्री से तुम्हें इतना धन मिल जाएगा कि तुम अपना बाकी का जीवन बिना भीख माँगे काट सको। वह भिखारी उस अँगूठी को लेकर एक सुनार के पास जाता है। वह उसका आकलन करता है और असली होने पर भी उसे नकली बताकर कहता है कि इसकी कीमत पाँच सौ रूपये से ज्यादा नही है।

यह सुनकर भिखारी अवाक् रह जाता है तभी उसे दूसरा भिखारी जो व्यापारी के यहाँ प्रतिदिन आता था, उसके निकट आता दिखाई देता है। वह गुस्से और क्षोभ से वह अँगूठी सुनार से लेकर उस भिखारी को दे देता है और खुद पैर पटकता हुआ व्यापारी को मन ही मन में कोसता हुआ वहाँ से चला जाता है। वह सुनार अब दूसरे भिखारी जिसके पास अँगूठी रहती है उसको पाँच सौ रूपये देकर अँगूठी देने का निवेदन करता है। उसकी बात सुनकर भिखारी का माथा ठनकता है और वह उसे अँगूठी ना देकर गहनों की एक दूसरी दुकान में जाकर अँगूठी का मूल्यांकन करवाता है। यह जानकर वह भौचक्का रह जाता है कि उसका मूल्य दस लाख से ऊपर है।

दूसरे दिन वह अपने नियत समय पर पोपटमल के यहाँ भीख माँगने जाता है और उन्हें अँगूठी दिखाकर कहता है कि सबका दाता है भगवान और उसे वापस पोपटमल को देते हुए कहता है कि देखिए यह आपने दी किसी और को थी परंतु भगवान की कृपा से यह मेरे पास आ गयी। मेरा कहना सच है ना कि सबका दाता है भगवान। पोपटमल यह सुनकर हतप्रभ होकर चिंतन करने लगता है कि यह भिखारी होने के बाद भी मन से कितना ईमानदार है कि अँगूठी वापस करने आ गया। इसकी भक्ति और साधना में कितना समर्पण है और ईश्वर के प्रति कितना विश्वास है। यह सच प्रतीत होता है कि सबका दाता भगवान ही होता है।

इस घटना का पोपटमल के मन और मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पडता है और वह नास्तिक से आस्तिक हो जाता है। वह उस भिखारी को कहता है कि इस अँगूठी पर मेरा कोई अधिकार नही है। वह भिखारी उनसे अनुरोध करता है कि इसको बेचकर प्राप्त होने वाली धनराशि का सदुपयोग करना चाहिए। पोपटमल उस अँगूठी को बेचकर नर्मदा किनारे एक आश्रम का निर्माण करा देता है जिसमें नर्मदा परिक्रमा करने वालों के लिए विश्राम एवं भोजन की निःशुल्क व्यवस्था होती है और वह उस भिखारी के मार्गदर्शन में उस आश्रम को सौंप देता है।

३८. आपदा प्रबंधन

गोकुलदास नाम का एक नवयुवक नये साल की पूर्व संध्या का आनंद उठाने के लिए दुबई गया था। वहाँ वह सायंकाल के समय विश्व प्रसिद्ध बुर्ज खलीफा होटल के पास एक रेस्टारेंट में बैठकर वहाँ का मनोहारी दृश्य देख रहा था। वहाँ पर चारों ओर दर्शकों का सैलाब था। सभी रास्ते सिर्फ पैदल चलने वालों के लिए ही खुले थे। शाम से ही मनोरंजक कार्यक्रमों का शुभारंभ हो गया था और रात्रि में साढें दस बजे तक नववर्ष के आगमन का जश्न पूरे शबाब पर पहुँच चुका था।

उसी समय अचानक ही सामने की ओर स्थित बहुमंजिला होटल एम्प्रेस में अचानक ही आग लग गई और देखते देखते ही वह दस मिनिट में विषम रूप से फैल गई और कई मंजिल उसकी चपेट में आ गई। इस दुर्घटना से चारों ओर अफरा तफरी मच गई तभी फायर बिग्रेड की गाडियाँ, पुलिस एवं अन्य उच्चाधिकारियों की गाड़ियों के सायरन की आवाजें जश्न के स्थान पर गूँजने लगी।

यह दृश्य देखकर गोकुलदास को अपने बचपन की याद आ गयी जब वह पाँच वर्ष का था और उसके मकान में आग लग गयी थी। यह देखकर मोहल्ले के सभी रहवासी अपनी अपनी क्षमता के अनुसार आग बुझाने का प्रयत्न कर रहे थे। यह देखकर वह भी अपनी पानी की बाटल में पानी भरकर बुझाने का प्रयास करने लगा। यह देखकर वहाँ पर खड़ा मूकदर्शक के रूप में खड़ा एक लडका उससे बोला कि इतने कम पानी में क्या आग बुझ जायेगी ? वह बोला जब सब लोग कुछ ना कुछ प्रयास कर रहे है तो मैं भी जो कुछ कर सकता हूँ वही कर रहा हूँ। जब इस बात की समीक्षा होगी तो मेरा नाम भी सहयोग करने वालों में होगा। मोहल्ले में यदि कभी कोई दुर्घटना हो तो सभी को एक जुट होकर उसका सामना करना चाहिए।

उसी समय तेजी से जोर की आवाज के साथ धमाका हुआ जो संभवतः गैस की टंकी के फटने के कारण हुआ था, उसकी आवाज से अपने बचपन की यादों में खोये हुए गोकुलदास का ध्यान भंग हुआ। उसने सोचा कि उसे भी ऐसे हालात में सहयोग करना चाहिए वह मदद के लिए आगे बढा परंतु पुलिस ने उसे रोक दिया। वह चुपचाप अग्निकांड का वीभत्स रूप देखता रहा और मन ही मन चिंतित होता रहा कि ना जाने इसमें कितनी जनहानि होगी।

वह यह देखकर आश्चर्यचकित था कि फायर बिग्रेड उस बिल्डिंग को बचाने का कोई प्रयास नही कर रही थी उनका पूरा ध्यान उस बिल्डिंग के समीप स्थित दूसरी बिल्डिंग में आग ना फैले इस पर था। कुछ समय पश्चात उसे रेडियों प्रसारण से जानकारी मिली कि एक हजार से भी ज्यादा होटल में ठहरे पर्यटकों को इस दुर्घटना के कुछ ही देर के भीतर पूर्ण रूप से सुरक्षित निकाल लिया गया। इस काम को संपन्न करने के लिए वहाँ के प्रशासनिक अधिकारियों के निर्देश पर फायर बिग्रेड के सभी कर्मचारी गण बिल्डिंग की आग को बुझाने का प्रयास छोडकर केवल लोगों को बचाने में लगे हुए थे। इतनी भीषण आग के बाद भी विद्युत प्रवाह बंद नही किया गया था, वहाँ के प्रशासन का मत था कि बिल्डिंग में चाहे जो नुकसान हो जाए परंतु वहाँ पर ठहरे एक भी पर्यटक की जनहानि नही होना चाहिए। आर्थिक हानि की पूर्ति तो हो सकती है परंतु जिंदगी को वापिस नही लाया जा सकता।

३९. जुए की लत

रामसिंह एक कारखाने में उच्च पद पर कार्यरत था। उसे बुरी संगत के कारण जुआ खेलने की लत लग गई। इस लत के कारण प्रारंभ में तो वह ताश के पत्तों से जुआ खेलता था, धीरे धीरे कैसिनो जाना भी उसने शुरू कर दिया जिससे वह प्रतिदिन हजारों रूपयों का जुआ खेलने लगा। वहाँ पर उसकी मुलाकात कई धनाढ्य व्यक्तियों से होती थी जिस कारण उनके सुझावों पर उसने शेयर मार्केट में भी प्रतिदिन शेयर खरीदने और बेचने का काम शुरू कर दिया। उसकी पत्नी को जब इन सब बातों का पता हुआ तो उसने रामसिंह को बहुत समझाया कि इस प्रकार के कामों में यदि तुम्हें घाटा हो गया तो अपना परिवार बर्बाद हो जायेगा।

रामसिंह कहता था कि शेयर मार्केट का काम तो एक व्यवसाय है और इसमें नफा नुकसान का होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। मै बहुत होशियारी के साथ शेयर की खरीद फरोख्त करता हूँ यदि वक्त और भाग्य ने साथ दिया तो बहुत जल्दी ही तुम्हें लाखों रूपया कमाकर दे दूँगा। उसकी पत्नी बहुत समझदार थी उसने उससे कहा कि शेयर की प्रतिदिन खरीद और बिक्री करना एक जुए के समान है। तुम्हें ऐसे गलत कार्यों से बचना चाहिए। रामसिंह ने उसकी बात नही मानी और प्रतिदिन इस प्रकार की सटटेबाजी करता रहा।

एक दिन उसने त्वरित धन कमाने की अभिलाषा मे अपनी हैसियत से ज्यादा शेयर खरीद लिये और दुर्भाग्य से उसी दिन उनका दाम कम हो जाने के कारण उसे काफी लंबा घाटा लग गया। इस कारण उसके होश फाख्ता हो गये और उसे रकम चुकाने में अपना स्वयं का घर, कार और अन्य सामान बेचना पड़ा। इतना सब होने के बाद भी यह लत वह नही छोड़ पा रहा था और क्रमश वह दिवालिया होता गया।

उसकी पत्नी ने उनके गुरू स्वामी राजेश्वरानंद जी को जाकर इस समस्या के बारे में बताकर उनसे समाधान हेतु निवेदन किया। उन्होंने कहा कि रामसिंह को मेरे पास आश्रम में भेज देना। यहाँ के वातावरण और मेरी निकटता, निश्चित रूप से उसके स्वभाव को परिवर्तित कर देगी। रामसिंह तदनुसार उनके आश्रम आ जाता है। वहाँ पर कुछ दिन तो वह शांत रहता है और स्वामी जी की इच्छाओं का पालन करता है परंतु धीरे धीरे उसके मन में जुए की इच्छा प्रबल होने लगती है। एक दिन वह स्वामी जी के पास जाकर स्पष्ट रूप से कहता है कि स्वामी जी मै जुआ खेले बिना नही रह सकता हूँ। आप कोई ऐसा चमत्कार कर दे कि मेरे मन से जुआ खेलने की प्रवृत्ति खत्म हो सके।

स्वामी जी उसकी बात सुनकर अपने पालतू कुत्ते को आवाज देकर बुलाते है और उसे पकड़कर वहीं बैठ जाते हैं कुछ देर बाद कुत्ता छूटने के लिए छटपटाने लगता है। वह स्वामी जी के चेहरे को देखता है और बार बार छूटने का प्रयास करता है। यह देखकर रामसिंह घबराकर कि कही कुत्ता स्वामी जी को काट ना ले तो उनसे कहता है कि आप इसे छोडते क्यों नही है। ऐसे में यह नाराज होकर आपको काट सकता है। स्वामी जी कहते है मेरे हाथ इसे छोड नही पा रहे है। मैं क्या करूँ ? रामसिंह आगे बढकर उनके दोनो हाथों को अपने हाथ से अलग कर देता है ताकि कुत्ता छूट जाये।

स्वामी जी रामसिंह की ओर देखकर कहते हैं कि देखो जैसे मैंने कुत्ते को जकड़कर पकडा हुआ था उसी प्रकार तुम जुए की लत को अपने मन में पकडकर रखे हुए हो। तुमने आगे आकर मेरा हाथ हटाकर कुत्ते को मुक्त कर दिया। तुम भी अपने इस व्यसन को पत्नी के अनुरोध पर क्यों नही छोड सकते हो ? यह सुनकर वह स्वामी जी का आशय जान गया और उसने जुआ ना खेलने का दृढ संकल्प ले लिया। इस घटना के बाद वह अपनी इस बुरी आदत से छुटकारा पा गया और पुनः कडी मेहनत करके उसने अपनी खोयी हुयी संपत्ति दुबारा हासिल कर ली और सुखमय जीवन बिताने लगा।

४०. नवोदय

रामसिंह बहुत संपन्न परिवार से थे, उनका भारतीय पुलिस सेवा में चयन हो जाने से वे अत्यंत प्रसन्न थे क्योंकि जनता की सेवा की कामना उनके मन में बचपन से ही थी। वे बहुत ही कुशल, ईमानदार, साहसी एवं विनम्र व्यक्तित्व के धनी माने जाते थे। एक बार अचानक ही भूकंप आने से धरती दहल गई इससे जानमाल के नुकसान के साथ साथ बहुत बड़ी आर्थिक क्षति भी जनता को हुई।

इसकी गंभीरता को देखते हुये, सेवा को कार्य को और गति प्रदान करने के लिए रामसिंह की नियुक्ति भूकंप प्रभावित क्षेत्र में की गई। वे दिन रात अपने साथियों के साथ बचाव कार्य में लगे रहते थे। भूकंप की गंभीरता को देखते हुये सेना को भी मदद के लिए बुलाया गया था। रामसिंह ने देखा और महसूस किया कि सेना के जवान प्राकृतिक आपदा के हालात में बचाव कार्य हेतु पूर्ण रूप से प्रशिक्षित है। जिसके कारण वे बहुत तेजी से हालात संभालते जा रहे थे, जबकि रामसिंह के सभी साथी इस प्रकार के हालात से जूझने के लिए प्रशिक्षित नही थे और उन्हें बचाव कार्यों में अत्यंत कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था।

रामसिंह रात में अपने कैंप में विश्राम हेतु जब लेटे हुये थे तो उनके मन में विचार आया कि हमारे देश के नागरिकों को भी प्राकृतिक आपदाओं के समय बचने की प्राथमिक शिक्षा का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। सेना जिस प्रकार से इसमें निपटने में सक्षम है उसी प्रकार से सभी को ऐसी विषम परिस्थितियों से निपटने का प्रशिक्षण मिलना चाहिए। हमारे देश में ऐसी प्राकृतिक आपदायें प्रतिवर्ष आती हैं जिससे काफी जानमाल का नुकसान होता है। कुछ समय पश्चात रामसिंह का बचाव दल वापस अपने गृहनगर लौट आता है। रामसिंह के मनोपटल पर भूकंप की भयानकता के दृश्य अभी भी घूम रहे थे और वह चैन से नही सो पा रहा था।

रात्रिभर विचार मंथन करने के पश्चात वह एक निश्चय पर पहुँच गया कि आम जनता के लिए ऐसा प्रशिक्षण संस्थान होना चाहिए जहाँ प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए सामान्य जानकारी एवं प्रशिक्षण प्रदान किया जाये। उसने इसकी कार्ययोजना बनाकर शासन की सहमति से ऐसे केंद्र का निर्माण किया और सेना की सहायता से आम नागरिकों को प्राकृतिक आपदा के समय बचाव एवं राहत कार्य के लिए प्रशिक्षित करना प्रारंभ कर दिया। कुछ माह में रामसिंह के संस्थान में काफी लोग जुड गये जो कि प्राकृतिक आपदा के समय सेना एवं प्रशासन के साथ उनका सहयोग करते थे। इन प्रशिक्षित लोगों के कारण बचाव कार्य में अभूतपूर्व तेजी आने लगी जिस कारण रामसिंह के संस्थान को बहुत प्रसिद्धि मिलने लगी।

ऐसे प्रशिक्षण की उपयोगिता को समझते हुए प्रशासन द्वारा विभिन्न स्थानों एवं शिक्षा संस्थानों में भी इसके प्रशिक्षण शिविर आयोजित होने लगे। इस संस्थान की उपयोगिता को देखते हुए देश भर में इसकी प्रसिद्धि फैलने लगी और जगह जगह ऐसे प्रशिक्षण केंद्र खुलने लगे। रामसिंह के इस प्रकार के प्रयासों को देखते हुए सरकार द्वारा सम्मानित किया गया। यदि हमारे मन में दूसरों के हित की भावना हो तो साधन उपलब्ध होकर सफलता अवश्य प्राप्त होती है।