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तर्ज़नी से अनामिका तक - भाग ३

११. समानता का अधिकार

एक वृक्ष जो उम्रदराज हो चुका था और कभी भी जमीन पर धराषायी होने की स्थिति में था। वह अपनी जवानी के दिनो को याद कर रहा था जब उसकी चारों दिषाओं में फैली हुई षाखाओं के नीचे पथिक आराम करते थे और बच्चे फलों का आनंद लेते थे। एक वृद्ध व्यक्ति उसके तने का सहारा लेकर विश्राम करने लगा। वह मन ही मन सेाच रहा था कि उसका एक पुत्र और पुत्री दो बच्चे है। उसने अपने पुत्र पर पुत्री की अपेक्षा अधिक ध्यान दिया, उसे उच्च षिक्षा दिलायी और एक कुलीन परिवार में विवाह भी कराया। उसे अपने पुत्र से काफी आषायें थी परंतु वह इतना निकम्मा और चालाक निकला कि पिता की सब संपत्ति हडप कर उन्हें ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया कि वे स्वयं घर छोडकर कही अन्यत्र अपना बसेरा की तलाष कर ले। ऐसे कठिन समय में उनकी बेटी व दामाद उन्हें सम्मानपूर्वक अपने घर ले आये और सेवा सुश्रुषा सब करते हुए उनसे पुराने बातों को भूल जाने का आग्रह करते थे। उन्हें जानकारी मिली की उनका बेटा व बहू नौकरी के सिलसिले में अमेरिका चले गये है। अब दिन ढलने का समय हो गया था और वह वृद्ध व्यक्ति वापिस अपनी बेटी के घर चला गया।

उस रात अचानक ही उसकी तबीयत खराब हुई और अथक प्रयासों के बाद भी उसकी प्राणरक्षा संभव नही हो सकी और रात में ही उसकी मृत्यु हो गई। उसकी बेटे को इसकी सूचना दी गई तो उसने अपनी नौकरी से छुट्टी ना मिलने की बात कहकर वापिस आने से मना कर दिया। दूसरे दिन उसका अंतिम संस्कार एवं समस्त परंपरायें उसकी बेटी के द्वारा संपन्न की गई। ष्मषान घाट में अग्निदाह देने के उपरांत सभी लोग चले गये केवल उसकी लडकी दुखी मन से अपने पिता के साथ बिताये हुये दिनों की याद करते हुए उनकी जलती हुई चिता को एकटक देख रही थी। जब काफी समय व्यतीत हो गया तो उसका पति ने उसके कंधे पर हाथ रखकर धीरे से समझाते हुए कहा कि जो चला गया वह अब वापिस नही आयेगा, आओ अब हम वापिस चले। वह इतना कहकर उसे सांत्वना देते हुए अपने सीने से लगाकर उसकी अश्रुपूर्ण आंखेां से आंसुओं को पोंछते हुए वे देानेा वापिस अपने घर की ओर चले जा रहे थे। इससे यह जनसंदेष मिलता है कि आज के वर्तमान युग में पुत्री किसी भी रूप में पुत्र से कम नही होती और दोनो में भेद करना समाप्त होना चाहिए।

१२. शिक्षा ही स्वर्णिम भविष्य का आधार

श्रीमती डा. शशिबाला श्रीवास्तव जो कि एक शिक्षाविद् एवं मो.ह.गृहविज्ञान महाविद्यालय जबलपुर की प्राचार्या भी है, उनका कथन है कि शिक्षा ही सफलता का मूलमंत्र है। उनके अनुसार शिक्षा का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। यह विषेष रूप से भारतीय नारियों के लिये बहुत आवश्यक हैं।

मेरे मन में बचपन से ही नारी जगत के लिये क्रांतिकारी विचार रहे है। मैं अपने बाल्यकाल में भी सदा ही लडकियों को लडकों के समकक्ष मानती थी। मुझे ऐसा लगता था कि लडकियों में लडकों से अधिक सहनशीलता, क्षमता, योग्यता एवं रचनात्मकता होती है। नारी अपने आप में परिपूर्ण होती है और उसमें पुरूष वर्ग को जीवन के हर क्षण में अपनी सलाह एवं सहारा देने की योग्यता रहती है। मेरे विचार से इस क्षमता के पीछे उसका आत्मविश्वास होता है जो कि उसके शिक्षित होने पर और भी सुदृढ हो जाता है।

मेरे जीवन में भी शिक्षा को लेकर एक बार बहुत विघ्न आया था। मैं एम.एस.सी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के पष्चात पी.एच.डी करना चाहती थी और मुझे दाखिला भी मिल रहा था किंतु मेरे ही घर के एवं आस पडोस के लोगो से मुझे हतोत्साहित करते हुये अपनी सलाह दी कि पी.एच.डी करने से तुम्हें क्या लाभ प्राप्त होगा ? यह तो समय की बर्बादी ही होगी। हमारे घर मे पिता के ना रहने एवं आर्थिक स्थिति मजबूत नही होने के कारण मेरी माँ के रिश्तेदारों ने सलाह दी कि इसकी शादी कर दो क्योंकि यह ज्यादा पढेगी तो लडके ढूँढने में परेशानी होगी, दहेज की माँग भी ज्यादा होगी तो उसका इंतजाम कैसे करेंगें।

मेरी माँ ने इसका जो उत्तर दिया, वह मुझे आज भी याद है। उन्होने कहा था कि मेरी बेटी पढना चाहती है तो मै उसे पढाऊँगी जीवन में कितनी भी कठिनाईयाँ आ जाये यह मेरा अंतिम फैसला है। उनके इस एक वाक्य के कथन ने मुझे जो हिम्मत, सहारा और मार्गदर्शन दिया वह मैं शब्दों में नही बता सकती हूँ। मुझे यू.जी.सी की स्कालरशिप मिली जिससे मेरी पढाई आसान हो गई। मैंने चार साल में थीसिस जमा की एवं मुझे एक शासकीय महाविद्यालय में अस्सिटेंट प्रोफेसर की नौकरी मिल गई।

आज मैं प्राचार्य के पद पर कार्य कर रही हूँ और जब मैं चिंतन करती हूँ तो मुझे महसूस होता है कि यदि उस समय मेरी माँ ने मेरा साथ ना दिया होता तो मैं आज जिस मुकाम तक पहुँची हूँ, यहाँ तक नही पहुँच पाती। मेरा युवा छात्र छात्राओं से अनुरोध है कि वे शिक्षा के महत्व को समझे क्योंकि आपके स्वर्णिम भविष्य निर्माण और निर्धारण इसी पर निर्भर है।

१३. सब दिन होत ना एक समाना

हरीशचंद नगर के एक सफल व्यवसायी माने जाते थे, जिनका व्यापार दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहा था। उनकी धर्मपत्नी एक बहुत ही विदुषी एवं जागरूक महिला थी। वे अक्सर अपने पति को कहती थी कि ईश्वर कृपा से अभी अपना समय बहुत अच्छा चल रहा है तुम्हारी आमदनी को देखते हुए मैं तुम्हें सुझाव देना चाहती हूँ कि तुम अपनी आय का एक बडा हिस्सा सुरक्षित रखो। जीवन में वक्त हमेशा एक सा नही रहता और ना जाने कब व्यापार में उतार-चढ़ाव आ जाये तब वह संचित धन तुम्हारे बहुत काम आयेगा। हरीशचंद यह सुनकर हंसकर कह देता था कि अभी क्या जल्दी है। हम कुछ दिनों के बाद तुम्हारे सुझाव को मानकर रूपये इकट्ठा करना शुरू कर देंगें। तुम चिंता मत करो तुम तो अभी केवल खाओ, पियो और मौज करो। अपने आप को खुश रखो और मुझे भी शांति से रहने दो। इस तरह समय बीतता गया और हरीशचंद ने अपनी पत्नी की बातों को नजर अंदाज कर दिया।

कुछ वर्षों के बाद आर्थिक मंदी के कारण बाजार में व्यापार ठप्प पडने लगा। इसका असर हरीशचंद के व्यापार पर भी हुआ और उसकी बिक्री कम होने के साथ-साथ उसके द्वारा बाजार में अन्य व्यापारियों को दिया हुआ उधार भी समय पर वापिस ना आ पाया, उसके द्वारा अपने मित्रों को दिया गया धन भी उसके वापिस माँगने पर उसे नही मिला। इस प्रकार इन सब परिस्थितियों के कारण हरीशचंद को व्यापार में घाटा होने लगा क्योंकि वह अपने व्यापार में आवश्यक पूंजी का विनिवेश नही कर पा रहा था। वह बहुत चिंतित और परेशान था और उसे अब अपनी पत्नी के द्वारा दिये गये सुझाव को ना मानने के कारण पछतावा हो रहा था। इन्ही चिंताओं के कारण उसका स्वास्थ्य भी गिरता जा रहा था और एक दिन उसकी पत्नी के पूछने पर उसने अपनी व्यथा से उसे अवगत करा दिया। उसने बडे प्रेम से अपने पति से पूछा कि तुम्हें अपने व्यापार को संभालने एवं सुचारू रूप से चलाने के लिए कितने धन की आवश्यकता है। हरीशचंद मायूस होकर बोला कि मुझे 20 लाख रू की तुरंत आवश्यकता है। यदि कही से इसका इंतजाम हो जाये तो मैं विपरीत परिस्थितियों में भी अपने व्यापार को घाटे से उबार लूँगा। उसकी पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा कि बस इतनी सी बात के लिए तुम इतने चिंतित हो मैंने तुम्हारे द्वारा दिये गये घरखर्च में से रकम बचाकर इकट्ठी की हुई है वह मैं तुम्हें दे रही हूँ। यह देखकर हरीशचंद को पुनः अपनी गलती का अहसास हुआ कि उसे सही समय पर धन संचित करके रखना चाहिए था आज उसकी पत्नी की बुद्धिमानी एवं दूरदर्षिता ने ना केवल उसकी साख बचा ली बल्कि उसके व्यापार को भी सहारा दे दिया।

१४. सकारात्मक सोच

सेठ मनोहरलाल श्रीनगर के एक प्रसिद्ध व्यवसायी थे जिनका कालीन बनाने का बहुत बडा कारखाना था। उनका विदेशो में भी निर्यात होता था। एक बार संयोग से उन्हें विदेश में कालीन निर्यात करने का बहुत बडा सौदा प्राप्त हुआ और वे इसी के निर्माण में व्यस्त थे।

एक दिन अचानक ही नदी में बाढ आ जाने के कारण पूरा श्रीनगर जलप्लावन से घिर गया। इस प्राकृतिक आपदा में सैकडो लोग मारे गए एवं बहुत आर्थिक क्षति हुयी। इस प्राकृतिक आपदा के कारण सेठ मनोहरलाल का कारखाना भी नष्ट हो गया एवं उसमें काम करने वाले कुशल कर्मचारी भी मारे गए। गोदामों में पानी भर जाने के कारण सेठ जी द्वारा बनाया गया सारा माल भी खराब हो चुका था। इस समय वे भयंकर आर्थिक तंगी में आ गये थे और इस आपदा में उनका घर भी गिरकर तहस नहस हो चुका था। ऐसी विकट परिस्थितयों में एक दिन राहत शिविर में जब सेठ मनोहरलाल भोजन कर रहे थे तो उनके एक परिचित व्यापारी मित्र ने पूछा कि भाई साहब ऐसी विकट परिस्थिति में जबकि आपका सबकुछ नष्ट हो चुका है परंतु आपके चेहरे पर चिंता एवं दुख की कोई लकीर भी नजर नही आ रही है। इसका क्या कारण है ?

सेठ जी ने जवाब दिया कि जो कुछ होता है सब प्रभु इच्छा से होता है और हमें उसे स्वीकार करना ही होता है। प्रभु की कृपा से ही मैंने धन कमाने की कला सीखी है। इस प्राकृतिक आपदा में भले ही मेरा अत्याधिक आर्थिक नुकसान हो गया है परंतु जिस कला से मैंने इतना धन कमाया था वह कला नष्ट नही हुई है और अभी भी मेरे दिल और दिमाग में बसी हुई है। मैं पुनः इसके माध्यम से अपने व्यवसाय को आरंभ करूँगा और एक दिन अपने को पुर्नस्थापित करके बता दूँगा। सेठ मनोहरलाल की यह बात सुनकर उनके मित्र को इस दुखद घडी में बहुत सांत्वना मिली और ऐसी सकारात्मक सोच से उसके मन में भी अपने व्यवसाय को पुनः स्थापित करने की हिम्मत पैदा हो गयी।

१५. आत्मसम्मान

” मैंने चोरी नही की है, मुझे आपकी चूड़ियों के विषय में कोई जानकारी नही है। मुझे पुलिस के हवाले मत कीजिए, वे लोग मुझे बहुत मारेंगे, मैं चोर नही हूँ, गरीबी की परिस्थ्तिियों के कारण आप के यहाँ नौकरी कर रहा हूँ। ऐसा अन्याय, माँ जी मेरे साथ मत कीजिए। मेरे माता-पिता को पता होगा तो वे बहुत दुखी होंगे। “ मानिक नाम का पंद्रह वर्षीय बालक रो-रो कर, एक माँ जी को अपनी सफाई दे रहा था। वह घर का सबसे वफादार एवं विष्वसनीय नौकर था।

माँ जी की सोने की चूड़ियाँ नही मिल रही थी। घर के नौकरों से पूछताछ के बाद भी जब कोई समाधान नही निकला तो पुलिस को सूचना देकर बुलाया गया। पुलिस सभी नौकरो को पूछताछ के लिए थाने ले गई। उन्हेें सबसे ज्यादा षक मानिक पर ही था क्योंकि वही सारे घर में बेरोकटोक आ जा सकता था। पुलिस ने बगैर पूछताछ के अपने अंदाज मेें उसकी पिटाई चालू कर दी। वह पीड़ा से चीखता चिल्लाता रहा परंतु उसकी सुनने वाला कोई नही था। इसी दौरान अचानक ही बिस्तर के कोने मेंै दबी हुई चूड़ियाँ दिख गई, उनके प्राप्त होते ही पुलिस को सूचना देकर सभी को वापिस घर बुला लिया गया।

मानिक मन में संताप लिये हुए, आँखों में आँसू, चेहरे पर मलिनता के साथ दुखी मन से घर पहुँचा और तुरंत ही अपना सामान लेकर नौकरी छोडने की इच्छा व्यक्त करते हुए सबकी ओर देखकर यह कहता हुआ कि उसके साथ आप लोगो ने अच्छा व्यवहार नही किया, उसके मान सम्मान को ठेस पहुँचाकर एक गरीब को बेवजह लज्जित किया है। मुझे लग रहा था कि मानिक की आँखें मुझसे पूछ रही हों कि क्या गरीब की इज्जत नही होती ? क्या उसे सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार नही है ? उसकी सच बातों को भी झूठा समझकर उसे क्यों अपमानित किया गया ? यह जानकर परिवार के सभी सदस्यों ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए उसे नौकरी नही छोडने का निवेदन किया। वह यह देखकर कि उसके मालिक के द्वारा स्वयं माफी माँगी जा रही है। वह हतप्रभ एवं द्रवित होकर नौकरी छोडने का विचार छेाड देता है।

१६. दिषा बोध

जबलपुर के प्रसिद्ध उद्यमी, व्यवसायी एवं गांधीवाद के अनुयायी स्वर्गीय मुलायमचंद जी जैन के पुत्र श्री अरूण जैन भी उद्योगपति के साथ साथ समाजसेवा में भी सदैव अग्रणी रहते है। वे महाकौषल चेंबर आॅफ कामर्स के आधार स्तंभ रहे है। वे एक मिलनसार, धैर्यवान एवं स्पष्टवादी व्यक्तित्व के धनी है। उनसे चर्चा होने पर उन्होंने बताया कि उनके जीवन में प्रेरणास्त्रोत उनके पिताजी रहे है, जिनके अनुभवों एवं विचारों की स्पष्ट छाप उनके व्यक्तित्व में झलकती है। अरूण जी का मानना है कि दूसरांे के लिये जीना और उनके हित के लिये समर्पित रहना ही जीवन हैै। वे जब महाकौषल चेंबर आॅफ काॅमर्स के अध्यक्ष थे तब जबलपुर के औद्योगिकीकरण के लिये विषेष रूप से प्रयाासरत रहते थे। आज भी उद्योग से संबंधित जो भी अतिथि नगर में आते है, उनसे आत्मीयता से मिलकर विचार विमर्ष कर नगर के औद्योगिकीकरण के विकास पर चर्चा करना उनके जीवन का एक अभिन्न्न अंग है। वे अतिथि देवो भवः की भावना का हमेषा पालन करते है। वे बताते है कि:-

“मैंने अपनी कल्पना के छोटे से फलक पर सागर की विभिन्न छवियों को अंकित करने का प्रयास किया है। प्रातः के धुंधलके में, दोपहर की खिली धूप में, ढलती षाम और चढती रात के गहरे अंधेरे में, मैंने सागर के हर रंग को और उसकी हर तरंग को देखा है। सागर विष्वास-धैर्य-सहनषीलता का है, और सचमुच सागर है। वह जरा भी कम नही है। मैने सागर को गागर में भरने का एक प्रयास किया है।“

उनके जीवन में सर्वधर्म समभाव एवं गांधीवादी विचारधारा के अद्भुत संगम का प्रभाव गहराई से विद्यमान है। एक ओर जहाँ वे पूज्य स्वामी स्वरूपानंद जी के अनुयायी है, वहीं दूसरी ओर मानस मर्मज्ञ पंडित रामकिषन जी महाराज के प्रवचनों का कार्यक्रम षहर में आयोजित करने में अपना पूर्ण सहयोग देते रहे है। वे जब भी हताषा, निराषा या हीनता की भावना से ग्रसित होते है तो वे अपने स्वर्गीय पिता के अनुभवों से प्रेरित हेाकर इन कठिनाईयों से उबरने का प्रयास करते है। उनके मित्र सदा उन्हें मार्गदर्षन के साथ ही उचित दिषा बोध भी देते रहते है। इससे उन्हें धैर्य, संयम और सहनषीलता का बल मिलता है जो कि विषम परिस्थितियों में भी कार्य को संपादित करने की पे्ररणा देता है। वे मानते है कि यह उनके जीवन की बहुत बडी उपलब्धि है और वे सदैव सद्गुणों को अपने जीवन में उतारने और उनको आचरण में लाने हेतु प्रयासरत रहते है।

वे युवा वर्ग के लिये संदेष देते है कि आज के समय में ऐसे बिरले व्यक्ति ही होते है जो अपने पराये के सुख दुख में आत्मीय बन जाते है। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे कई अडचनों के बीच महत्वपूर्ण सामाजिक, व्यवसायिक कार्य सफलतापूर्वक कैसे किये जा सकते हैं, यह पे्ररित करने वाली सीख मिली। यदि किसी पर विष्वास किया है तो पूरा भरोसा रखो, विष्वास डगमगाये, धैर्य टूटे नही ऐसा अपने व्यक्तित्व का विकास करो कि आप कर्म करो, फल की चिंता मत करो।

१७. विद्यादान

परिधि एक संभ्रांत परिवार की पुत्रवधू थी। वह प्रतिदिन अपने आस-पास के गरीब बच्चों को निशुल्क पढ़ाती थी। उसकी कक्षा में तीन चार दिन पहले ही एक बालक बब्लू आया था। बब्लू की माँ का देहांत हो चुका था और पिता मजदूरी करके किसी प्रकार अपने परिवार का पालन पोषण करते थे। वह प्रारंभिक शिक्षा हेतू आया था। बब्लू शिक्षा के प्रति काफी गंभीर था। वह मन लगाकर पढ़ना चाहता था।

एक दिन अचानक ही उसका पिता नाराज होता हुआ आया और बच्चे को कक्षा से ले गया। वह बड़बडा रहा था, कि मेडम आपके पढ़ाने का क्या औचित्य है, मैं गरीब आदमी हूँ और स्कूल की पढ़ाई का पैसा मेरे पास नही है। इसे बड़ा होने पर मेरे समान ही मजदूरी का काम करना है। यह थोडा बहुत पढ़ लेगा तो अपने आप को पता नही क्या समझने लगेगा। हमारे पड़ोसी रामू के लड़के को देखिए बारहवीं पास करके दो साल से घर में बैठा है। उसे बाबू की नौकरी मिलती नही और चपरासी की नौकरी करना नही चाहता क्योंकि पढ़ा लिखा है। आज अच्छी अच्छी डिग्री वाले बेरोजगार है जबकि बिना पढ़े लिखे, छोटा मोटा काम करके अपना पेट पालने के लायक धन कमा लेते है। आप तो इन बच्चों को इकट्ठा करके बडे-बडे अखबारों में अपनी फोटो छपवाकर समाजसेविका कहलाएँगी परंतु मुझे इससे क्या लाभ? इतना कहते हुए वह परिधि की समझाइश के बाद भी बच्चे को लेकर चला गया।

एक माह के उपरांत एक दिन वह बच्चे को वापिस लेकर आया और अपने पूर्व कृत्य की माफी माँगते हुए बच्चे को वापिस पढ़ाने हेतु प्रार्थना करने लगा। परिधि ने उससे पूछा कि ऐसा क्या हो गया है कि आपको वापिस यहाँ आना पड़ा? मैं इससे बहुत खुश हूँ कि आप इसे पढ़ाना चाहते हैं, पर आखिर ऐसा क्या हुआ?

बब्लू के पिता ने बताया कि एक दिन उसने लाटरी का एक टिकट खरीद लिया था, जो एक सप्ताह बाद ही खुलने वाला था। इसकी नियत तिथि पर सभी अखबारों में इनामी नंबर की सूची प्रकाशित हुयी थी। उसने एक राहगीर को समाचार पत्र दिखाते हुए अपनी टिकट उसे देकर पूछा कि भईया जरा देख लो ये नंबर भी लगा है क्या? मैं तो पढ़ा लिखा हूँ नही, आप ही मेरी मदद कर दीजिए। उसने नंबर को मिलाते हुए मुझे बधाई दी कि तुम्हें पाँच हजार रूपए का इनाम मिलेगा परंतु इसके लिए तुम्हें कार्यालय के कई चक्कर काटने पडेंगे तब तुम्हें रकम प्राप्त होगी। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें पाँच हजार रूपए देकर यह टिकट ले लेता हूँ और आगे की कार्यवाही करने में स्वयं सक्षम हूँ। यह सुनकर मैंने पाँच हजार रूपए लेकर खुषी खुषी वह टिकट उसको दे दी और अपने घर वापस आ गया।

उसी दिन षाम को मेरा एक निकट संबंधी मिठाई फटाके वगैरह लेकर घर आया। उसने मेरी टिकट का नंबर नोट कर लिया था। मुझे बधाई देते हुए उसने कहा कि तुम बहुत भाग्यवान हो, तुम्हारी तो पाँच लाख की लाटरी निकली है। मैं यह सुनकर अवाक रह गया। जब मैंने उसे पूरी आप बीती बताई तो वह बोला कि अब हाथ मलने से क्या फायदा यदि तुम कुछ पढ़े लिखे होते तो इस तरह मूर्ख नही बनते इसलिए कहा जाता है कि जहाँ सरस्वती जी का वास होता है वहाँ लक्ष्मी जी का निवास रहता है। यह कहकर वह दुखी मन से वापस चला गया।

“ मैं रात भर सो न सका और अपने आप को कचोटता हुआ सोचता रहा कि बब्लू को षिक्षा से वंचित रखकर मैं उसके भविष्य के साथ खिलवाड कर रहा हूँ। मैने सुबह होते होते निष्चय कर लिया था कि इसको तुरंत आप के पास लाकर अपने पूर्व कृत्य की माफी माँगकर आपसे अनुरोध करूँगा कि आप जितना इसे पढ़ा सके पढ़ा दे उसके आगे भी मैं किसी भी प्रकार से जहाँ तक संभव होगा वहाँ तक पढ़ाऊँगा।“ परिधि ने उसे वापिस अपनी कक्षा में ले लिया और वह मन लगाकर पढ़ाई करने लगा।

बीस वर्ष उपरांत एक दिन परिधि टेªन से मुंबइ जा रही थी। रास्ते में टिकट निरीक्षक आया तो उसे देखते ही उसके चरण स्पर्ष करके बोला, माँ आप कैसी है ? परिधि हतप्रभ थी कि ये कौन है और ऐसा क्यों पूछ रहा है? तभी उसने कहा कि आप मुझे भूल रही है, मैं वही बब्लू हूँ जिसे आपने प्रारंभिक षिक्षा दी थी। जिससे उत्साहित होकर पिताजी से अथक प्रयासो से उच्च षिक्षा प्राप्त करके आज रेल्वे में टिकट निरीक्षक के रूप में कार्यरत हूँ। परिधि ने उसे आषीर्वाद दिया एवं मुस्कुरा कर देखती रही। उसके चेहरे पर विद्यादान के सुखद परिणाम के भाव आत्मसंतुष्टि के रूप में झलक रहे थे।

१८. एक नई परिकल्पना

यह बात उन दिनों की है जब स्वर्गीय राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री पद पर थे एवं स्वर्गीय अजय नारायण मुशरान जबलपुर से लोकसभा के सांसद थे। उनके नेतृत्व में शहर से युवा कांग्रेस का एक प्रतिनिधि मंडल, राजीव जी से भेंट करने हेतु दिल्ली गया था। उनसे भेंट के दौरान राजीव जी ने अचानक ही एक प्रश्न हम लोगों के सामने रखा कि हम केंद्र से गरीबों के हितार्थ समुचित राशि प्रेषित करते है परंतु उसका अपेक्षित परिणाम नही प्राप्त हो पाता है, इसका क्या कारण है ? हमारे प्रतिनिधि मंडल के एक सदस्य ने उनसे निवेदन किया कि ऐसा क्यों होता है इसे मैं आपकों एक छोटे से उदाहरण के माध्यम से समझाने का प्रयास करता हूँ।

उसने एक बर्फ का टुकडा बुलवाया और राजीव जी के हाथ में देकर कहा कि इसे आप क्रमश एक दूसरे के हाथों में देने का निर्देश दे। यह सुनकर राजीव जी ने अचरज के साथ कहा कि जैसा यह कह रहे है ऐसा करिए। ऐसा कहते हुए उन्होंने अपने हाथ में रखा हुआ बर्फ का टुकडा दूसरे सदस्य के हाथों में दे दिया और उस सदस्य ने किसी दूसरे सदस्य को दे दिया। इस प्रकार क्रमश 50 सदस्यों के हाथों से गुजरने के बाद जब बर्फ का टुकडा अंतिम सदस्य के पास पहुँचा तो वह टुकडा अत्यंत छोटा हो चुका था।

राजीव जी ने जब यह देखा तो वह गंभीर होकर बोले कि मैं समझ गया कि आप क्या कहना चाहते है। जब केंद्र से धन भेजा जाता है तो वह अनेक माध्यमों से होता हुआ जनता के पास पहुँचता है और इसी कारण जितना धन भेजा जाता है तो उसका आधा भी भ्रष्टाचार के कारण जनता तक नही पहुँच पाता है ? इसके बाद राजीव जी ने कहा कि आप लोग ही इसका समाधान भी बताइये।

हमारे सदस्यों ने कहा कि कुछ ऐसा प्रबंधन किया जाए जिससे केंद्र एवं जनता के बीच के माध्यमों की संख्या सीमित हो एवं केंद्र का जनता के साथ सीधा संवाद हो सके। ऐसी प्रणाली यदि विकसित की जा सके तो भ्रष्टाचार में काफी हद कमी आ जायेगी और जनता इससे ज्यादा लाभान्वित होगी। उस समय तो यह बात सामान्य चर्चा बनकर समाप्त हो गई परंतु उस चर्चा की सार्थकता आज नजर आ रही है।

१९. सृजन

प्रसिद्ध कवि रामसजीवन सिंह कवि सम्मेलन में अपना काव्यपाठ प्रस्तुत करने के उपरांत अपने गृहनगर वापिस जा रहे थे। उनके साथ उनके द्वारा लिखी गई नवीन रचनाओं का पूरा संग्रह भी साथ में था। कवि सम्मेलन से लौटते वक्त वे काफी थक गये थे और ट्रेन में गहरी निद्रा में सो रहे थे।

जब उनकी नींद खुली तो उन्होंने देखा कि सामने की सीट के नीचे रखा हुआ उनका संदूक नदारद था। यह देखकर उनके होश उड गये क्योंकि उसमें उनकी नवीन रचनाओं का पूरा संग्रह रखा हुआ था, जो कि उसी सप्ताह प्रकाशन हेतु जाना था। उन्होंने काफी खोजबीन की परंतु उन्हें निराशा ही हाथ लगी। उन्होने इसकी रिपोर्ट रेल पुलिस में दर्ज करायी। इसके लगभग एक सप्ताह बाद उन्हें पुलिस द्वारा जानकारी मिली कि उनका संदूक रेल्वे ट्रेक के पास अस्तव्यस्त हालत में प्राप्त हुआ है एवं उन्हें जाँच हेतु पुलिस स्टेशन बुलाया गया है।

वहाँ पहुँचने पर उन्होने देखा कि उनकी सभी रचनाएँ संदूक में फटी हुई हालत में पडी हुई थी। यह देखकर वे बहुत द्रवित हो गये। उनको देखकर वहाँ के इंस्पेक्टर ने दुख व्यक्त करते हुए कहा कि महोदय आपका इतना परिश्रम एवं समय व्यर्थ नष्ट हो गया। जिस चोर ने यह सामान चुराया था उसे इसकी कीमत का अनुमान नही होगा परंतु मैं स्वयं एक काव्यप्रेमी हूँ। मैं किसी साहित्यकार की इस वेदना को महसूस कर सकता हूँ। अब आपको इसके सृजन में बहुत परिश्रम लगेगा।

वे कवि महोदय उनकी बात सुनकर बोले की जीवन में व्यक्ति को परिश्रम करने से कभी भी हतोत्साहित नही होना चाहिए और सृजन के प्रति सदैव समर्पित रहना चाहिए। मै तो यह मानता हूँ कि ईश्वर जो भी करता है, उसमें कोई ना कोई भलाई छुपी होती है। मैं जब पुनः इन काव्य रचनाओं का लेखन करूँगा तो विचारों में और भी अधिक परिपक्वता लाकर पहले से भी अच्छे साहित्य का सृजन कर पाऊँगा। हमें समय और परिस्थितियों के अनुसार समझौता करना चाहिए और अपने कर्म के प्रति समर्पित रहना चाहिए।

२०. योग यात्रा

योगाचार्य श्री अवनीष तिवारी जो कि योग एवं ध्यान के क्षेत्र में अपना विषिष्ट स्थान रखते है। अपने जीवन की प्रेरणादायक घटना बताते हुये कहते है:- उनका जीवन योग के अनुसंधान एवं व्यवहारिक जीवन में प्रयोग हेतु समर्पित रहा है। वे भावुक होकर बताते हैं कि मानव के मस्तिष्क में प्रभु की कृपा से अनेकों विचारों का आगमन और निर्गमन होता रहता है। ये हमें किसी भी दिषा में आगे प्रगति करने हेतु अनेक संभावनाओं को जन्म देता है, जिसे कार्य रूप में परिणित करने हेतु हम अपनी षारीरिक, मानसिक एवं अन्य क्षमताओं का उपयोग करते है।

वे अपने अतीत में खोकर कहते है कि उनका प्रारंभिक जीवन आर्थिक कठिनाईयों में बीता था। उन्होंने षिक्षक की नौकरी एवं उसके उपरांत म.प्र.वि.मं. में अपनी सेवाएँ दी है। इसी दौरान उनकी मुलाकात विष्व प्रसिद्ध योग गुरू स्वामी सत्यानंद जी से एक षिविर के दौरान हुई, जिसमें वे योगाभ्यास सीखने हेतु गये थे। स्वामी सत्यानंद जी के व्यक्तित्व ने उनके जीवन में का्रंति ला दी और उन्होंने योग के प्रचार प्रसार में अपना जीवन समर्पित करने का संकल्प ले लिया। योग से उनके षरीर में गजब का परिवर्तन आ गया और उनके चेहरे से तेज झलकने लगा। अब उन्होंने योग के माध्यम से हृदय रोग, मानसिक तनाव, मधुमेह, गर्दन एवं कमर का दर्द, मोटापा ,रक्तचाप आदि बीमारियों से निजात दिलाने का भरसक प्रयास किया और इसमें उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई। इस क्षेत्र में उन्हेांने बहुत अनुसंधान किये जिससे उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई।

वे संस्कारधानी जबलपुर के बहुत ऋणी है। यहाँ के नागरिकों, षिक्षण संस्थाओं, मीडिया आदि का इतना सहयोग एवं सम्मान प्राप्त हुआ कि योग के क्षेत्र में उन्हें प्रगति के सोपान की एक नई दिषा प्राप्त हो गई। उनके इस प्रयास से हजारों लोग विभिन्न बीमारियों से निजात पाने में सफल रहे है। इससे उन्हें जो आत्मसंतुष्टि एवं तृप्ति प्राप्त हुई है, उसे षब्दों में बयान नही किया जा सकता। इस संस्कारधानी के संस्कारों ने उन्हें हमेषा जीवन में आगे बढने के लिये प्रोत्साहित किया। आज भी वे निरंतर सुबह से षाम तक अपनी यौगिक क्रियाओं में तन्मयता के साथ योग कक्षायें संचालित कर रहे हैं एवं लोगों को योग के माध्यम से स्वस्थ्य एवं सुखी बनाना ही उनके जीवन का उद्देष्य है। आज की युवा पीढी को उनका संदेष है:-

सबसे बढकर साथी मेरा

करता बहुत कमाल है,

योग सिखाता जीना उनको

जिनका हाल बेहाल है।

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