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तर्ज़नी से अनामिका तक - भाग ८

61. जागरूकता

यह बात लगभग तीस वर्ष पुरानी है जब कोलकाता में हिंदुस्तान मोटर्स का एंबेस्डर कार बनाने का कारखाना हुआ करता था। उस कारखाने के मालिक बिड़ला जी एक बार दमदम एयरपोर्ट पर अपने विमान के निर्धारित समय से पहले आ जाने के कारण अपनी गाड़ी आने का इंतजार कर रहे थे। उन्होने मन में सोचा कि समय क्यों बेकार नष्ट किया जाए। आज टैक्सी लेकर आॅफिस चले जाते है और उन्हेाने ऐसा ही किया और वे टैक्सी में रवाना हो गया।

रास्ते में बिडला जी ने समय व्यतीत करने के लिए टैक्सी ड्राइवर से बातचीत षुरू की, बातचीत के दौरान पता हुआ कि वह टैक्सी वाला उच्च षिक्षित व्यक्ति था जो कि नौकरी ना करके अपने स्वयं के व्यवसाय में रूचि के कारण यह कार्य कर रहा था। उन्होने चर्चा के दौरान महसूस किया कि गाडी अत्याधिक आवाज कर रही थी एवं बैठने पर कंपन भी महसूस हो रहा था। उन्होेने ड्राइवर से कहा कि क्या तुम गाड़ी की उचित देखभाल नहीं करते हो जिस कारण इतनी आवाज कर रही है। तब वह टैक्सी ड्राइवर बोला कि यह गाडी अभी पिछले हफ्ते ही मैंने नई खरीदी है। उसके यह कहने पर कि उसका अनुभव है कि इस कार में हार्न के अलावा और सब कुछ आवाज करता है। इसमें ऐसी कोई विषेषता नहीं है, जिसके लिए इसकी तारीफ की जा सके। यह तो मजबूरी है कि और कोई कार उपलब्ध ना होने के कारण हमें यही खरीदना पड़ती है। यह सुनकर बिडला जी को मन ही मन बहुत दुख हुआ।

इस वार्तालाप के दौरान ही उनका आॅफिस आ गया और वे उतर गये। उन्होंने अपने निजी सचिव को बुलाकर निर्देष दिया कि उनके निजी उपयोग के लिए जो गाड़ी कंपनी से आज ही भेजी गयी है उसकी चाबी इस व्यक्ति को दे दी जाए एवं गाडी का रजिस्ट्रेषन भी इस व्यक्ति के नाम करवाकर यह गाड़ी इसे सौंप दी जाए। इतना कहकर वे तेजी से अपने आॅॅफिस की ओर चले गए। वह टैक्सी ड्राइवर यह सब देखकर आष्चर्यचकित हो गया और उसने उस कर्मचारी से पूछा कि यह साहब जो मेरी टैक्सी से उतरे हैं वे कौन है ? जब उसे पता हुआ कि वे इस कंपनी के मालिक है तो उसकी सिट्टी पिट्टी गुम हो गई। कुछ समय बाद वह उनके प्रति धन्यवाद व्यक्त करता हुआ और उनके स्वभाव की प्रषंसा करता हुआ चला गया।

इस घटना के बाद बिडला जी ने कंपनी सारे अधिकारियों की मीटिंग ली और उन्हें अपने अनुभव से अवगत कराया और उत्पादन की गुणवत्ता के सुधार हेतु कडी हिदायत दी जिससे कंपनी की कार्यप्रणाली में जागरूकता आकर कार्य की गुणवत्ता में काफी सुधार हो गया।

62. सच्चा संत

एक सात वर्षीय बालक षहर के एक प्रसिद्ध महात्मा जी के आश्रम में काफी दूर से आता है और उनसे मिलने के लिये बैठ जाता है। महात्मा जी के प्रवचन का समय होने पर वे बाहर आते है और उस बालक को बैठा देखकर उसके पास आकर बडे प्यार व स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरकर पूछते है कि तुम मुझसे क्यों मिलना चाहते हो ? वह बडी ही विनम्रता से कहता है कि मेरी छोटी बहन बीमार है, मुझे नही पता उसे क्या हुआ है पर उसका आॅपरेषन करना बहुत जरूरी है। मेरे पिताजी के पास इतना धन नही है कि वे यह खर्च वहन कर सके और उसकी जान बचा सके। मेरी माँ ने कहा है कि अब भगवान ही इसे बचा सकते है। आप भगवान के देवदूत है और अगर आप चाहे तो भगवान से कहकर मेरी बहन को बचा सकते है। मैं अपने साथ यह गुल्लक भी लाया हूँ जिसमें मेरे द्वारा बचाये गये जेब खर्च के रूपये जमा है और वह गुल्लक खोलकर उसमें रखे ग्यारह रूपये दान पेटी में डाल देता है और स्वामी जी की तरफ देखकर पूछता है कि अब आप भगवान से कहेंगें ना।

उस बालक का उसकी बहन के प्रति प्रेम और समर्पण देखकर स्वामी जी भौचक्के रह गये और प्रवचन छोड कर उस बालक के साथ उसके घर पहुँच गये। वहाँ उन्होंने उसकी बहन की हालत देखकर तुरंत चिकित्सालय ले जाकर उसकी चिकित्सा एवं आॅपरेषन का प्रबंध कर दिया और सारी रकम अपने पास से अस्पताल में दे दी। उस बच्ची को तुरंत आॅपरेषन संपन्न हो गया और उसकी जान बच गयी। स्वामी जी भी आॅपरेषन होने तक अस्पताल में ही बैठकर भगवान का नाम जप कर उसके ठीक होने की प्रार्थना करते रहे और चिकित्सकेां के यह कहने के बाद कि अब उसकी जान को कोई खतरा नही है, वापिस आश्रम चले गये।

वह बालक सबको कह रहा था कि भगवान ने महात्मा जी की बात मानकर उनके माध्यम से रूपये भिजवाकर मेरी बहन की जान बचा ली। महात्मा जी को जब बच्चे के मन की यह बात पता हुयी तो उनके चेहरे पर असीम प्रसन्नता एवं खुषी का भाव आकर असीम संतुष्टि व तृप्ति का अहसास हुआ।

63. सच्चा स्वप्न

अरूणाचल प्रदेष के तवांग जिले में हरिकिषोर नाम के पंडित देवांग षहर मे रहते थे। देवांग और तवांग के बीच में 15 कि.मी. लंबी एक झील है जो कि प्रायः बर्फ से जमी रहती है और देानों षहरों को जोडती है। यही पर भारतीय सेना की देखरेख में एक मंदिर बना हुआ है जिसमें पंडित जी प्रतिदिन पूजा अर्चना करके अपनी सेवाएँ देते थे। पंडित जी का व्यक्तित्व और कृतित्व प्रभु के प्रति समर्पित था। वे प्रतिदिन प्रातः सैन्य वाहन से अन्य लोगों के साथ आना जाना करते थे।

एक दिन पंडित जी को प्रातःकाल ब्रम्ह मुहूर्त में स्वप्न आया कि किसी आकस्मिक दुर्घटना के कारण वाहन क्षतिग्रस्त होकर पलट गया है एवं उसमें सवार सभी यात्रियों की मृत्यु हो गयी है। पंडित जी इस स्वप्न के विषय में चिंतन कर ही रहे थे तभी सैन्य वाहन पाँच छः लोगों केा लेकर पंडित जी को लेने के लिए उनके घर पर पहुँच गया। पंडित जी तब तक सपने के विषय में विस्तृत चिंतन के बाद ना जाने का निर्णय ले चुके थे और उन्होंने इस सपने के बारे में सहयात्रियों को भी बताकर उन्हें भी ना जाने की सलाह दी। उनमें से एक दो यात्री तो पंडित जी की बात मान गये और यात्रा स्थगित करके वही उतर गये। गाड़ी षेष लोगो को लेकर गंतव्य की ओर आगे बढ गई।

कुछ देर बाद वास्तव में जबरदस्त आंधी तूफान का अनुभव होने लगा और बर्फ के तूफान में गाडी फंसकर तेज हवाओं के कारण पलट गई और दुर्भाग्यवष उन सब की मृत्यु हो गईं। यह खबर दूसरे दिन समाचार पत्रों में छपी तो लोगों को बहुत आष्चर्य हुआ और वे पंडित जी के दर्षनार्थ आने लगे। कुछ वर्षों के बाद पंडित जी का देहांत हो गया और आज भी यह घटना उस षहर में प्रसिद्ध है कि यदि किसी को भी रात में ऐसी किसी भी दुर्घटना का संकेत मिलता है तो वह अपनी यात्रा का कार्यक्रम स्थगित कर देता है।

64. मूर्तिकार

एक जंगल में पत्थर की ऊँची ऊँची पहाडियाँ थी। इन्ही पहाडियों के बीच मंे एक दर्षनीय स्थल था जहाँ पर प्राचीन काल में किसी मूर्तिकार द्वारा पत्थर को तराष कर बडी संुदर प्रतिमाएँ बनाई गई थी जिनका पुरातात्विक महत्व भी था। एक दिन पत्थर के पहाड़ों ने मन ही मन में सोचा कि हमारा स्वरूप इतना विषाल है परंतु हमारी कोई पूछ परख नही होती। हमें लोग पत्थर कहकर उलाहना देते रहते है परंतु वह मूर्ति भी पत्थर की ही है जिसको देखने के लिए दूर दूर से पर्यटक आते है और प्रषंसा करते हुए चले जाते है। पत्थरों ने अपने मन की यह व्यथा वृक्षों को बताई तो उनमें से एक बुजुर्ग वृक्ष ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि पत्थर की पूजा तब तक नही होती जब तक उसे तराष कर मूर्ति का स्वरूप ना दे दिया जाए। इसके बाद ही उसे भगवान का स्वरूप मानकर पूजा जाता है। इसी प्रकार मानव को भी अपने विषाल जीवन में गुरू रूपी मूर्तिकार की आवष्यकता होती है जो कि अपने ज्ञान के द्वारा हमारे जीवन को सुंदर और संस्कारित करते हुए अमूल्य बना देता है।

65. सेवक की सेवा

रामकिषोर नगर के सफल उद्योगपतियों में से एक थे। वे अपने व्यापार के साथ साथ धार्मिक प्रवृत्ति के भी व्यक्ति थे और उनके यहाँ उनके धर्मगुरू स्वामी प्रषांतानंद जी आये हुए थे। एक दिन दोपहर के भोजन करने से उन्होने मना कर दिया। यह खबर जैसे ही रामकिषोर को मिली वह भागता हुआ स्वामी जी के पास पहुँचा और उसने विनम्रतापूर्वक उनसे भोजन ग्रहण ना करने का कारण पूछा। स्वामी जी ने उत्तर देते हुए कहा कि तुमने मुझे बताया नही कि तुम्हारे कारखाने में अकस्मात् दुर्घटना के कारण एक पुराने कर्मचारी का हाथ बेकार हो गया है। तुमने यद्यपि सभी उपलब्ध चिकित्सीय सुविधायें उसे प्रदान करवा दी थी परंतु इस दुर्घटना के कारण उसका परिवार इतना दुखी है कि पिछले 72 घंटों से उसके परिवार में भोजन भी नही बनाया जा रहा है। यह सुनकर रामकिषोर तुरंत ही उस कर्मचारी के घर जाता है और उनके परिवारजनों को आष्वस्त करता है कि दुर्घटना ग्रस्त व्यक्ति को नौकरी से नही हटाया जाएगा एवं उसके परिवार के एक वयस्क लडके को भी नौकरी में रख लिया जाएगा। रामकिषोर की इन आष्वासनों से उसके परिवारजनों को बहुत संतोष मिलता हैं और वे रामकिषोर के द्वारा लाये गये भोजन को ग्रहण कर लेते है।

स्वामी जी को जब यह पता होता है तो उनकी नाराजगी भी दूर हो जाती है। अब वे रामकिषोर के साथ ही भोजन करने लगते है। भोजन करते हुए स्वामी जी रामकिषोर को बताते है कि यह ध्यान रखना कि कर्मचारी भी हमारे परिवार के सदस्य के समान होता है और हमें उसके सुख दुख में बराबर की भागीदारी करनी चाहिए। यह कार्य मालिक और सेवक के संबंध को मजबूत बनाता जिस कारण सेवक सदैव मालिक द्वारा बताये गये कार्यो के प्रति पूर्ण समर्पित रहता है।

66. आषादीप

एक वृद्ध महिला अपने बेटे के साथ नर्मदा नदी के पास एक झोपडी में रहती थी। एक दिन उसका बेटा बीमार पड गया, उसका काफी इलाज करने के बाद भी वह ठीक नही हो रहा था। इससे वृद्धा बहुत मायूस, चिंतित एवं दुखी थी। एक दिन चिकित्सकों ने उस वृद्ध महिला से कहा कि हम अपना सारा प्रयास कर चुके हैं परंतु इसकी बीमारी में कोई सुधार नही हो रहा है। अब इसका जीवन ईष्वर के हाथ में है। उसी समय एक प्रकांड विद्वान, आध्यात्मिक वक्ता उस षहर में आते है। वह वृद्ध महिला उनके पास मिलने जाती है और उन्हें अपना दुख बताकर इस बारे में समाधान माँगती है। वे संत उसे कहते हैं कि माई हम लोगों में इतनी षक्ति नही है कि हम किसी को नवजीवन दे सके। हम तो आध्यात्मिक विषयों पर प्रवचन देते है और जनता को मार्गदर्षन देने का प्रयास करते रहते है। यह सुनकर वह वृ़द्ध महिला भरे मन से अपने घर आ जाती है। उसके मन में विचार आता है कि अब परमपिता परमेष्वर से ही उसके बेटे के जीवनरक्षा की प्रार्थना की जाए। यह सेाच कर वह नर्मदा नदी के तट पर पहुँचती है और सच्चे मन एवं श्रद्धा, भक्ति से एक दीपक जलाकर प्रभु से अपनी मनोकामना पूरी करने की आषा के साथ उसे नदी में प्रवाहित कर देती है और वापिस अपने घर चली जाती है।

नदी में तेज प्रवाह के बाद भी वह दीपक थोडी सी दूर जाकर अटक जाता है परंतु उसकी बाती बुझती नही है और दीपक लगातार जलता रहता है। वहाँ के आसपास के श्रद्धालुजन इस चमत्कार को देखते है तो वे भी आष्चर्यचकित हो जाते है। वृद्धा का पुत्र ईष्वर कृपा से स्व्स्थ्य होने लगता है जिससे चिकित्सक भी आष्चर्य में पड़ जाते है। जब उसे यह पता होता है कि नर्मदा किनारे उसके द्वारा प्रवाहित दीपक नदी की धारा में समाहित नही हुआ है अभी भी दीपक की लौ वैसे ही विद्यमान है। वह प्रभु के इस चमत्कार को उसके परिवार के उपर असीम कृपा मानकर उसे नदी से निकालकर अपने घर लाकर भगवान की पूजा की मूर्ति के सामने पूर्ण श्रद्धा के साथ रख देती है। उस दीपक में प्रतिदिन सिर्फ एक बंूद तेल डालने से ही दीपक पूरा भर जाता है और यह दीपक की लौ मानो अखंड ज्योति के समान प्रज्जवल्लित रहती है। चार पाँच वर्ष के बाद उस वृद्ध महिला का निधन हो जाता है और उसका बेटा दीपक पूजा की मूर्तियों को एक मंदिर को सौंपकर षहर छोडकर चला जाता है। वह मंदिर आज भी दीपदान के नाम से प्रसिद्ध हैं।

67. सफलता का आधार

माॅडल हाई स्कूल में कक्षा बारहवीं के छात्रों को सफल जीवन के सूत्र प्रधानाध्यापक महोदय ने उनके विदाई समारोह में बताए। वे बोले कि उनका व्यक्तिगत अनुभव है कि हमारा जीवन प्रतिभा, प्रतीक्षा, अपेक्षा, उपेक्षा में व्यतीत हेाता है। हमारी प्रतिभाएँ सीमित रहती है परंतु हमारी अपेक्षाएँ असीमित हो जाती है। यदि हम अपनी कार्यक्षमता को समझकर किसी भी कार्य को करें तो हमारी अपेक्षाएँ पूरी होंगी और कोई भी हमारी उपेक्षा नही कर सकेगा। जीवन में वही व्यक्ति सफल होता है जो संघर्षषील रहकर सही वक्त की प्रतीक्षा करता है। ऐसा ही व्यक्तित्व समाज में मान सम्मान पाता है यही जीवन में सफलता और विकास के ज्ञान की पहली कुंजी है। जीवन में अपने लक्ष्य को पाना आसान नही होता परंतु यह असंभव भी नही रहता। तुम्हारी राहें कितनी भी कठिन हो तुम अपने श्रम, कर्म और समर्पण में अडिग हो तो तुम स्वतः ही ऐसी कठिन राहों में भी मार्गदर्षक और प्रेरणा स्त्रोत बनकर धैर्य और लगन से लक्ष्य की ओर कदम बढाते हुए एक दिन अपनी मंजिल पर अवष्य पहुँचोगे। जीवन में याद रखना जिस प्रकार गुलाब काँटों में खिलते हैं उसी प्रकार सफलता भी कठिनाईयों के बीच से ही अपना रास्ता बनाती है। यह जीवन में सफलता का दूसरा सूत्र है।

आस्था जीवन का आधार है,परंतु जीवन नहीं है। श्रद्धा और भक्ति हमारी मार्गदर्षक है परंतु वह हमारी मंजिल नही रहती है। सत्य जीवन को ऊर्जा प्रदान करता है और हमें अनवरत बहती हुई हवा और बहते हुए पानी के समान संघर्षरत रखता है। अपनी मंजिल को पाने के लिए कैसी भी दषा हो दिषा को कभी मत भूलना। ऐसा कोई व्यक्तित्व नही है जिसने कठिनाईयों और परेषानियों के बीच संघर्षरत रहकर सफलता प्राप्त ना की हो। जीवन क्या है ? मानव की अपनी आस्था पर विष्वास और संयम के साथ अविचलित रहकर लक्ष्य को प्राप्त करने को प्रयास ही जीवन है। यह संघर्ष की गाथा ही सफलता की पूंजी बनती है और इसे प्राप्त करके ही समाज में सम्मान, यथोचित स्थान मिलकर नव जीवन का प्रारंभ होता है। यही परमात्मा की कृपा है और यही जीवन के ज्ञान का तीसरा सूत्र है। इन सूत्रों को जीवन में याद रखना। ईष्वर तुम्हारा भला करे और तुम जीवन मे सफल रहकर संतुष्ट रहो,यही मेरी मनोकामना है।

68. वाणी पर नियंत्रण

सेठ बनवारीलाल नगर के एक प्रसिद्ध उद्योगपति थे। उनकी एकमात्र संतान मुकुंदीचंद षिक्षा, सामाजिक गतिविधि एवं साहित्य के क्षेत्र में काफी प्रतिभावान समझे जाते थे। उनके स्वभाव में एक बहुत बडी कमजोरी थी कि उन्हें धन का घमंड होने के साथ साथ वे वाचाल थे। उन्हें गुस्सा बहुत जल्दी आ जाता था। इस अवस्था में वे कब किसे क्या कह दें, इसका उन्हें खुद भी ध्यान नही रहता था।

एक दिन उन्होने कारखाने में श्रमिक नेता को बुलाकर पूूछा कि कारखाने में समुचित उत्पादन और गुणवत्ता क्यों नही आ रही है ? इस विषय पर बातचीत होते होते मुकंुदीचंद नाराज हो गये और उन्होंने श्रमिक नेता एवं श्रमिकों के प्रति अपषब्दों का प्रयोग करने लगे। यह सुनकर श्रमिक नेता भड़क उठा और दोनो के बीच तनातनी एवं बहस होने लगी। यह जानकर सारे कर्मचारी अपनी ड्यूटी छोडकर मुकंुदीचंद के कमरे के बाहर खडे हो गये। उनमें से तीन लोग वार्तालाप हेतु मुकंुदीचंद के पास गये। वहाँ पर बातचीत के दौरान मुकंुदीचंद इतने गुस्से में आ गये कि उन्होंने तीनों को थप्पड मार दिया। यह देखकर श्रमिक नेता ने बाहर आकर सभी मजदूरों को इस घटना से अवगत कराया। वे यह सुनते ही भडक उठे और सब के सब एक साथ कमरे के अंदर घुस गये और मुकंुदीचंद से हाथापाई करने लगे।

जैसे ही इस घटना की सूचना सेठ बनवारीलाल को मिली वे दौडे दौडे कारखाने आये। वहाँ के माहौल को देखकर हतप्रभ रह गये उन्हेांने तुरंत पुलिस बुलाकर बड़ी मुष्किल से कर्मचारियों पर नियंत्रण करके मुकंुदी की जान बचायी। इसके बाद बनवारीलाल जी ने मुकंदी को कहा कि मैंने कई बार तुम्हें समझाया था कि हमें अपनी वाणी पर नियंत्रण रखना चाहिए परंतु तुम्हारी वाणी हमेषा अनियंत्रित होकर ऐसे षब्दों में उलझ जाती है जिससे सामने वाला अपने को अपमानित महसूस करता है।

आज के घटनाक्रम से परिवार का कितना नाम खराब हुआ है,जिस संस्थान में सभी कर्मचारी मेरे प्रति सम्मान रखते है वहाँ पर मेरा ही बेटा पिटकर घर आ रहा है। तुम्हारी क्या प्रतिष्ठा बची है और अब किस मुँह से तुम कार्यालय आओगे। यह सुनकर और आत्मचिंतन करके मुकंुदीचंद ने अपनी गलती महसूस की और भविष्य में अपनी वाणी पर लगाम रखने की कसम खाई। इसलिए कहा जाता है कि:-

“ ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए।

औरन को षीतल करे, आपहु षीतल होए।। “

69. ईष्वर कृपा

जबलपुर षहर में सेठ राममोहन दास नाम के एक मालगुजार रहते थे। वे अत्यंत दयालु, श्रद्धावान, एवं जरूरतमंदों, गरीबों तथा बीमार व्यक्तियों के उपचार पर दिल खोल केे खर्च करने वाले व्यक्ति थे। वे 80 वर्ष की उम्र में अचानक ही बीमार होकर अपने अंतिम समय का बोध होने के बाद भी मुस्कुराकर गंभीरतापूर्वक अपने बेटे राजीव को कह रहे थे “ बेटा मेरी चिंता मत कर मैं अपने जीवन में पूर्ण संतुष्ट हूँ। तुमने मेडिकल की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में प्रथम आकर हम सब को गौरवांवित किया है। मेरा मन तुम्हारे डाक्टर बनने की खुषी में कितना प्रसन्न है, इसकी तुम्हे कल्पना भी नही है। ”

वे अपनी जिंदगी के पचास वर्ष पूर्व राजीव के जन्म के अवसर की घटनाओं को मानो साक्षात देख रहे थे। वे बोले कि 15 अक्टूबर का दिन था, मैं नर्मदा किनारे गोधूलि बेला में बैठा हुआ नदी में बहते हुए जल की ओर अपलक देख रहा था। आज मेरा मन अवसाद में डूबा हुआ था एवं दिलो दिमाग में निस्तब्धता छायी हुयी थी। सेठ जी भरे मन से उठे और धीरे धीरे भारी कदमों से अपनी कार की ओर बढ़ गए। वे मन ही मन सोच रहे थे कि मैंने अपना सारा जीवन सादगी, धर्म और कर्म को प्रभु के प्रति साक्षी रखते हुए सेवा भावना से अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रखते हुए बिताया है। फिर आज मुझे क्यों इन विकट परिस्थितियों से जूझना पड़ रहा है?”

सेठ राममोहनदास के बचपन में ही पिता का साया उठ गया था। उनकी माँ ने व्यवसाय को संभालते हुए उन्हे बडा किया एवं उनका विवाह भी एक संपन्न और सुषील परिवार में कर दिया था। उनके विवाह के दस साल के उपरांत उनकी पत्नी माँ बनने वाली थी और इस सुखद सूचना को सुनकर पूरा परिवार अत्याधिक प्रसन्न होकर ईष्वर की इस असीम कृपा के प्रति नतमस्तक था। उनकी पत्नी को गर्भावस्था के अंतिम माह में अचानक तबीयत खराब होने से अस्पताल में भर्ती किया गया था और चिकित्सकों ने उनकी स्थिति को गंभीर बताते हुए सेठ जी को स्पष्ट बता दिया था कि बच्चे के जन्म से माँ के जीवन को बहुत अधिक खतरा है तथा उनकी प्रसव के दौरान मृत्यु भी हो सकती है? इन परिस्थितियों में माँ के जीवन को बचाने हेतू गर्भपात कराना होगा। इस खबर से सभी गहन दुख की स्थिति में आ गये थे। सेठ जी अपने प्रतिदिन के नियमानुसार नर्मदा दर्षन हेतू गये हुयेे थे, और वहाँ पर उन्होने दुखी मन से इस निर्णय को स्वीकार करने का मन बनाते हुए वापिस अस्पताल जाकर काँपते हुये हाथों से इसकी सहमति पर हस्ताक्षर कर दिए। अब चिकित्सकों की टीम ने विभिन्न प्रकार की दवाईयाँ व इंजेक्षन देकर गर्भपात कराने का पूरा प्रयास किया। उनकी पत्नी इससे अनभिज्ञ थी व तकलीफ के कारण बुरी तरह कराह रही थी। समय बीतता जा रहा था और उनकी तबीयत गंभीर होती जा रही थी। ऐसी स्थिति में चिकित्सकोेेेें ने षल्य क्रिया के द्वारा स्थिति को संभालने का प्रयास किया। सेठ जी बाहर अश्रुपूर्ण नेत्रों से सोच रहे थे यह कैसी विडम्बना है कि जिन हाथों से उन्होने बच्चे को गोद में खिलाने की कल्पना की थी। उसे ही परिस्थितियों वष गर्भपात हेतू सहमति देनी पड़ रही थी।

आपरेषन पूरा हो चुका था और नर्स ने बाहर आकर सेठ जी को बधाई दी और कहा कि आपकोे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है और आपकी पत्नी भी सुरक्षित हैै। सेठ जी यह सुनकर अवाक रह गये और प्रभु कृपा के प्रति भाव विभोर होकर हृदय से उनके प्रति अविष्वास में अनर्गल बातें कहने हेतु ईष्वर से माफी माँग रहे थे। सेठ जी की माता जी भी दादी बनने से अति प्रसन्न थी और प्रभु के प्रति इन विपरीत परिस्थितियों में भी माँ और बच्चे दोनो की रक्षा हेतू हृदय से आभार व्यक्त कर रही थी।

सेठ जी ने राजीव से कहा कि- “ देखो आज तुम डाॅक्टर बन गये हो, यह एक बहुत ही पवित्र पेषा है मेरा अंतिम समय नजदीक दिखाई पड़ रहा है। मैं यह असीम धन दौलत तुम्हें सौंपकर जा रहा हूँ मेरी अंतिम इच्छा यही है कि जिन आदर्षों को अपनाकर मैने अपना जीवन जिया वे तुम्हारे जीवन में मार्गदर्षक बनकर बने रहे।” इतना कह कर वे अपनी अंतिम साँस लेकर अनंत में विलीन हो गये।

70. देहदान

जबलपुर में श्री हरीषचंद्र गौरहार एलायंस इंटरनेषनल क्लब में बहुत सक्रिय सदस्य थे। वे बहुत ही विनम्र, मृदुभाषी, समय के पाबंद एवं क्लब की सामाजिक एवं सेवा कार्यों की गतिविधियों में बहुत सक्रिय रहते थे। वे उच्च षिक्षा प्राप्त कुलीन घराने से थे। एक दिन उनकी अचानक मृत्यु हो जाने पर उनकी पत्नी ने उनकी वसीयत खोलकर बतायी जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से निर्देषित किया था कि उनकी मृत्यु के उपरांत उनके नेत्रदान कर दिये जाए और मृत षरीर का दाह संस्कार ना करके उसे मेडिकल काॅलेज में छात्रों के अध्ययन हेतु दे दिया जाए।

उन्होंने अपनी यह भी इच्छा व्यक्त की थी कि चूँकि उनका दाह संस्कार नही होगा इसलिये इससे संबंधित सभी संस्कारों को करने का कोई औचित्य नही है और इन सब पर खर्च होने वाली राषि किसी गरीब छात्र को अध्ययन हेतु प्रदान कर दी जाए। उनकी इच्छानुसार उनके परिवारजनों ने इससे पूर्ण सहमत ना होते हुए भी उनकी अंतिम इच्छा की पूर्ति उनकी वसीयत के अनुसार कर दी। स्वर्गीय गौरहार जी की सेाच यह थी कि हमारे षरीर का जितना सदुपयोग हो सके उसे करना चाहिए। मृत्यु के उपरांत आत्मा तो अनंत में तुरंत विलीन हो जाती है, अब केवल तन ही बचता है जिसे अग्निदाह करके नष्ट करने से अच्छा तो उसका कुछ सदुपयोग करना है।

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