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तर्ज़नी से अनामिका तक - भाग ७

51. हुनर

बनारस में दो मित्र महेष और राकेष रहते जिन्हें मिठाईयाँ एवं चाट बनाने में महारत हासिल थी। उनके बनाये हुए व्यंजन बनारस में काफी प्रसिद्ध थे। एक दिन इन दोनो के मन मंे विदेष घूमने की इच्छा जागृत हुई। उन्होंने सोच विचार करके इसके लिए चीन जाने का निष्चिय किया। इस हेतु वे दिन रात कडी मेहनत करके रूपया इकट्ठा करने लगे। इस दौरान उन्होेने अपना पासपोर्ट बनवाकर अन्य सभी औपचारिकताएँ पूरी करके अपने संचित धन से टिकिट लेकर चीन के गंजाऊ षहर पहुँच गये।

उन्हें वहाँ पर होने वाले खर्चों का कोई अनुभव नही था। इस कारण उनके पास जो धन था वह तीन चार दिन में ही समाप्त हो गया। इनके वापिस आने की टिकिट पंद्रह दिन बाद की थी। इस बीच में कोई भी सीट उपलब्ध नही होने के कारण निर्धारित तिथि से वापिस आना संभव नही था। अब वे बहुत घबराये हुए थे अब वे कहाँ रहेंगें और क्या खायेंगें। वे अपनी नासमझी पर बहुत दुखी हो रहे थे। एक दो दिन किसी तरह माँग कर गुजारा करने के पष्चात एक दिन उन्हें अचानक ही एक पंडित जी मिल गये। वे दोनो उन्हें रोककर अपना हाल बताते है और उनसे मदद माँगते हैं।

पंडित जी का स्वयं का एक भारतीय रेस्टारेंट उस षहर में था। पंडित जी उन दोनो को अपने रेस्टारेंट में ले जाते हैं और भोजन कराते हैं। उनसे बातचीत के दौरान पंडित जी को यह पता होता है वे देानो मित्र मिठाई और चाट बनाने में माहिर है तो वे उन दोनो से अपने रेस्टारेंट में कार्य करने के लिए कहते हैं। यह सुनकर वे दोनो अत्यंत प्रसन्न हो जाते है और पूरी मेहनत के साथ कार्य करने लगते है। कुछ दिनों बाद ही उनके द्वारा बनाये गये व्यंजन लोगों अत्यंत पसंद आते हैं इस प्रकार पंडित जी रेस्टारेंट की प्रसिद्धि भी बढ़ने लग जाती है।

यह कार्य करते हुए पंद्रह दिन कब बीत जाते हैं उन्हें पता ही नही चलता है और उनके जाने की तिथि आ जाती है और वे जाने से एक दिन पहले पंडित जी को बताते हैं कि कल उन्हें वापिस जाना है। यह सुनकर पंडित जी उन्हें सुझाव देते है कि वहाँ से ज्यादा रूपया तो तुम यहाँ कमा रहे हो, मैं भी यहाँ अकेला हूँ। मेरी इच्छा है कि आप लोग यही रूक जाये। पंडित जी के आग्रह को देखते वे बोले कि हमारी भी यही इच्छा है परंतु हम अपने लंबित कार्यों को निपटाने के बाद ही ऐसा कर सकेंगे अतः आप हमें कुछ समय दीजिए हम पुनः वापिस आकर आपके साथ कार्यरत रहेंगे।

इस प्रकार वे दोनो वापिस अपने गृहनगर आ जाते है और लगभग एक माह में अपने सारे लंबित कार्य समाप्त करके पुनः पंडित जी के पास गंजाऊ लौट जाते है। वहाँ लौट कर वे पूरी लगन और समर्पित भावना से अपने कार्य में जुट जाते है। उनकी लगन और कडी मेहनत से पंडित जी का रेस्टारेंट एक फूड चेन में बदल जाता है जिसकी कई षाखाएँ चीन के विभिन्न षहरों में खुल जाती है। अपनी मेहनत के कारण वे दोनो मित्र रसोइए से पंडित जी के भागीदार बन जाते है। इस प्रकार व्यक्ति अपनी मेहनत और लगन से तरक्की करके जमीन से उठकर उन्नति के षिखर पर पहुँच सकता है।

52. कर्तव्यपरायणता

एक बार बचपन में मुझे अपने पितामह स्व. गोविंददास जी के साथ जो कि तत्कालीन लोकसभा के सदस्य भी थे, सडक मार्ग द्वारा भोपाल जाने का अवसर प्राप्त हुआ। रास्ते में एक स्थान पर रेल्वे फाटक बंद होने के कारण हमें वहाँ रूकना पड़ा। लगभग आधा घंटा व्यतीत हो गया और गाडी नही आने से फाटक नही खुला तो वे गाडी से उतरकर फाटक पर तैनात कर्मचारी के पास गये और उससे पूछा कि इतनी देर पहले से फाटक क्यों बंद कर दिया गया है। इससे लोगों को तकलीफ होने के साथ साथ समय भी बेवजह नष्ट हो रहा है। जब रेलगाडी आने में विलंब है तो इसे जनसुविधा के लिए खोल क्यों नही देते।

वह कर्मचारी उन्हे जानता था। उसने हाथ जोडकर बहुत ही विनम्र वाणी में कहा कि सेठ जी आप तो स्वयं ही लोकसभा के सदस्य है और आप लोगों के माध्यम से ही यह नियम बनाया गया है कि रेलगाडी आने के आधे घंटे पहले से फाटक बंद कर दिया जाए। रेल्वे के नियमों के अनुसार जब तक गाडी निकल नही जाती, मैं फाटक खोलने में असमर्थ हूँ। मै एक षासकीय कर्मचारी हूँ और नियमों को पालन करना मेरा कर्तव्य है। मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ कि आपका समय व्यर्थ नष्ट हो रहा है परंतु मैं कुछ भी कर पाने में असमर्थ हूँ। यह सुनकर पितामह को मन ही मन रेल्वे के ऐसे नियमों के प्रति काफी खीज हो रही थी और साथ ही उस रेल्वे कर्मचारी की कर्तव्य परायणता देखकर चेहरे पर मुस्कुराहट भी आ रही थी।

कुछ समय पष्चात उन्होने इस संबंध में रेल मंत्रालय के उच्चाधिकारियों से संपर्क किया और इस समस्या का निवारण करवाकर फाटक बंद होने के समय को कम करवा दिया। इसके साथ ही साथ उस कर्तव्य परायण कर्मचारी को भी सम्मानित किया गया।

53. नेता जी

एक दिन षहर के एक धार्मिक स्थल पर रात में किसी षरारती तत्व द्वारा गंदगी फेंक दी गई और अवांछनीय पोस्टर भी धर्मस्थल पर चिपका दिये गये। दूसरे दिन सुबह जब धर्मावलंबियों ने यह देखा तो वे आगबबूला हो गये और कु्रद्ध हो गये एवं दूसरे धर्म के धर्मावलंबियो पर यह निंदनीय कृत्य करने का आरोप लगाने लगे। दोनो धर्मावलंबियों के बीच देखते ही देखते वाद विवाद बढने लगा और आपस में मारपीट की स्थिति निर्मित होने लगी। उसी समय क्षेत्र के एक नेताजी दौड़े-दौड़े वहाँ पर आये और पूरा माजरा जानने के बाद दोनो पक्षों को समझाइष देने लगे एवं आपसी सद्भाव और एकता पर लंबा चैडा उद्बोधन दे दिया। इससे प्रभावित होकर दोनो पक्षों ने गंभीरतापूर्वक मनन किया की यह किसी षरारती तत्व द्वारा किया गया निंदनीय कृत्य है जिसका उद्देष्य दोनो समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाना था। अब नेताजी ने वहाँ साफ सफाई कराकर दोनो पक्षों के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाकर वहाँ से चले गए। वहाँ पर उपस्थित सभी लोग नेताजी की सक्रियता से बहुत प्रभावित थे। रात के अंधेरे में एक व्यक्ति चुपचाप अकेले नेताजी के घर आकर उन्हें बधाई देते हुए बोला कि आपका काम हो गया है। अब आपकी चुनाव में जीत सुनिष्चित है। नेताजी ने भी मुस्कुराकर उसे नोटो की गड्डी दी और अगले सप्ताह दूसरे मोहल्ले में ऐसा ही कृत्य करने का निर्देष दे दिया।

54. यम्मा

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त डाॅ. मदन कटारिया द्वारा स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता हेतु देष एवं विदेष के कई प्रमुख षहरों में लाफ्टर क्लब की स्थापना की गई है। उनके जीवन का प्रेरणास्पद संस्मरण पूछने पर वे कहते है कि मानव को मानव से ही प्रेरणा प्राप्त हो यह जीवन में आवष्यक नही है। हमें जानवरों से भी जीवन जीने की प्रेरणा प्राप्त हो सकती है।

ऐसा ही एक उदाहरण उन्होंने बताया कि लगभग दस वर्ष पूर्व उनके पडोस में एक वृद्ध दंपति रहते थे, उनके पास भूरे बालों वाला एक सुंदर सा यम्मा नाम का कुत्ता था। वह दंपति कुत्तों के प्रति बहुत प्रेमभाव रखते थे और सडक पर आवारा घूमने वाले कुत्तों के लिए भी भोजन का प्रबंध कर देते थे इतना ही नही बल्कि वे सभी कुत्तों को समय समय पर पषु चिकित्सालय ले जाकर उनका इलाज भी करवाते थे।

डाॅ. कटारिया एक दिन प्रातः काल अपने लाफ्टर क्लब जाने के लिए निकल रहे थे तो उन्होने देखा कि यम्मा जो कि बहुत संुदर दिख रहा था परंतु उसका एक पांव खराब होने के कारण वे उसकी ओर सहानुभूतिपूर्वक देखते हुए अपने आप को उसके पास जाने से नही रोक सके। उन्हे जब पता हुआ कि उसकी यह दषा एक दुर्घटना के कारण हुई है तो उन्हें बहुत दुख हुआ। वे यह देखकर आष्चर्यचकित थे कि वह तीन पांव के बल पर भी अन्य सामान्य कुत्तों की तरह दौड लेता था और उसके चेहरे पर दुख या चिंता का कोई भाव नही था। उसकी आँखों से प्यार व स्नेह झलक रहा था। उनके मन में विचार आया कि मानव को यदि ऐसा कष्ट हो जाये तो उसका आत्मविष्वास टूट जाता है और वह निराष होकर अपने जीवन को बोझ समझने लगता है तथा उसके साथ साथ उसका पूरा परिवार भी हताष हो जाता है।

वह कुत्ता एक जानवर होकर भी अपना जीवन यापन अपने मालिक के प्रति समर्पित रहते हुए खुषी खुषी व्यतीत कर रहा था। इस दृष्य ने उनके मन में विचार जाग्रत किया कि यम्मा कितना साहसी कि इस अपंगता को भी सामान्य रूप लेकर अपना व्यतीत कर रहा है। उन्होंने इसे उदाहरण के रूप में अपने क्लब के सभी सदस्यों को अवगत कराया। एक दिन उन्हें पता हुआ कि किसी कार चालक की लापरवाही के कारण यम्मा की मृत्यु हो गई है। यह जानकर वे बहुत दुखी हुये परंतु आज भी उन्हें उसका आत्मविष्वास प्रेरणा देता है।

55. भिखारी की सीख

एक भिखारी ने, एक अमीर व्यक्ति से भीख माँगते हुए कुछ देने का अनुरोध किया। उस अमीर व्यक्ति ने कहा कि तुम तो अच्छे खासे, हट्टे कट्टे नौजवान हो, मेहनत करके धन क्यों नही कमाते ? यह भीख माँगने की आदत का त्याग करो और अपनी मेहनत की कमाई से जीवन यापन करो। वह भिखारी बोला कि वह दिनभर मेहनत मजदूरी करता है परंतु उसे मात्र दो सौ रूपये ही प्राप्त होते है। वह षाम को दो तीन घंटे भीख माँगकर उससे कही ज्यादा रकम प्राप्त कर लेता है इसलिये उसने भीख माँगना अपना व्यवसाय बना लिया है।

आप बुरा ना माने तो एक बात कहूँ, अमीर व्यक्ति बोला हाँ कहो। भिखारी ने कहा कि आप भी प्रतिदिन सुबह प्रभु से प्रार्थना करते समय मन ही मन यह माँगते है कि आज का दिन अच्छा व्यतीत हो और कामकाज में अच्छी कमाई हो। यदि इसे गंभीरता से सोचे तो आप दोनो हाथ जोडकर भगवान से भीख ही माँग रहे होते है। मैं दोनो हाथ फैलाकर भगवान के नाम पर आपकेा निमित्त मानते हुए धन प्राप्ति की आषा करता हूँ, आप कुछ दे देंगें तो प्रभु से आपकी खुषी की दुआ माँगते हुए चला जाऊँगा।

उस अमीर व्यक्ति ने सोचा कि इसे भीख में कुछ ज्यादा धन दे दिया जाए तो यह खुष होकर मेरे लिए ज्यादा दुआ माँगेगा। यह सोचकर उन्होेंने उसे पाँच सौ रूपये दे दिये। वह भिखारी मुस्कुराता हुआ यह कहकर कि काष आपने बिना किसी लालच के भिक्षा दी होती तो दुआएँ आपके लिए बहुत प्रभावी होती। किसी आषा एवं अपेक्षा में दिए गए किसी भी प्रकार के दान से पुण्य प्राप्ति की अपेक्षा नही रखनी चाहिए। यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया।

56. ईमानदारी

पिछले वर्ष दिसंबर के अंतिम सप्ताह में मुझे अपने कारोबार के संबंध में दुबई जाना था। उस दिन रविवार था और मैं दिल्ली एयरपोर्ट पर षाम 7 बजे की फ्लाइट का इंतजार कर रहा था। मै अपना समय व्यतीत करने के लिए एयरपोर्ट के एक रेस्टारेंट में काॅफी पीने बैठ गया। मैंने बिल चुकाने के लिए जेब हाथ डाला तो मेरा पर्स नही मिला यह देखकर मेरे होष उड़ गये क्योंकि उसमें मेरा अंतर्राष्ट्रीय के्रडिट कार्ड और दो लाख रू. मूल्य के अमेरिकन डाॅलर थे। मैंने खूब ढूँढने की कोषिष की परंतु पर्स नही मिला। मैंने रेस्टारेंट के मैनेजर से अपनी स्थिति बताते हुए प्रार्थना की, कि मैं दुबई वापिस आने पर आपका रूपया दे दूँगा। मैनेजर बहुत ही सहृदय व्यक्ति था उसने मेरी बात मानली और अपने पास से भी मुझे कुछ डाॅलर आवष्यक खर्च हेतु दे दिये। मैं बहुत निराष था एवं सबसे ज्यादा चिंता मुझे अंतर्राष्ट्रीय के्रडिट कार्ड की थी।

मैं निराष कदमों से बोर्डिंग काऊंटर की ओर बढ़ रहा था तभी दरवाजे पर जब सिक्योरिटी को मैंने अपना बोर्डिंग कार्ड दिखाया तभी उसकी बगल में खड़े एक सफाई कर्मचारी ने मुझसे पूछा कि क्या आपका ही पर्स गुम गया था। मैंने कहा हाँ। वह कर्मचारी मेरा पर्स मुझे वापिस करते हुए बोला सर आपका पर्स मुझे वेटिंग हाल के पास पडा हुआ मिला था इसमें आपके विजिटिंग कार्ड से आपका नाम जानकर मैंने जानकारी ली तो मुझे मालूम हुआ की आप षाम 7 बजे की फ्लाइट से दुबई जा रहे है। इसलिये मैं इस काऊंटर पर आकर खडा हो गया ताकि आपको पहचान कर पर्स दे सकूँ आप इसमें रखे हुए रूपये अन्य एवं सामग्री जाँच ले। मैंने उसे धन्यवाद दिया और इनाम स्वरूप 5000 रूपये देने का प्रयास किया परंतु उसने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। मैं भी जल्दी में था इसलिये मैंने उसका पता एवं फोन नंबर अपने कार्ड पर लिख लिया और कहा मैं तुमसे जल्दी ही संपर्क करूँगा। इतना कहकर मैं अपनी फ्लाइट की ओर रवाना हो गया।

वापिस लौटने पर मैंने इस बात की चर्चा अपनी कंपनी के मैनेजर से की तो उसका कहना था कि सर ऐसे ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ लोगो की तो हमें जरूरत है क्यों ना हम उसे अपनी कंपनी में नौकरी दें ? मैनेजर का सुझाव मुझे भी बहुत पसंद आया और मैने उस व्यक्ति से संपर्क करके उसे नौकरी देने का प्रस्ताव दिया। वह भी इस प्रस्ताव से अत्यंत प्रसन्न हुआ और कुछ दिनो बाद हमारी कंपनी में नौकरी करने लगा। अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के कारण वह एक वर्ष में ही कंपनी में उच्च पद पर कार्य करने लगा।

57. उपकार

कोलकाता महानगर में मदिरा की एक दुकान के सामने एक व्यक्ति अधिक मदिरा के सेवन के कारण सडक पर पडा अर्धविक्षिप्त अवस्था में लोट रहा था। उसके आसपास आने जाने वाले उसे देखकर हंसकर उसका मजाक उड़ाते हुए चले जाते थे, परंतु कोई भी उसकी मदद करने के लिए आगे नही आ रहा था। उसी समय एक लड़का वहाँ से गुजरा यह दृष्य देखकर द्रवित होकर उसने उस व्यक्ति को उठाकर किसी तरह पास ही के अस्पताल में ले गया। वहाँ उसे चिकित्सा कक्ष में ले जाकर चिकित्सक ने उसका इलाज षुरू कर दिया। चिकित्सक ने उस लडके को बताया कि यदि थोडी देर और हो जाती तो इसकी जान बचाना मुष्किल था। तुमने बहुत परोपकारी कार्य किया है। तुम्हारे इस प्रषंसनीय कार्य को देखते हुए मैं तुम्हें कुछ रूपये इनाम में देना चाहता हूँ। इतना कहते हुए चिकित्सक ने अपना पर्स निकाला और उसमें से कुछ रूपये निकालकर उसे देना चाहा तभी वह बोला कि मैंने अपना फर्ज निभाया है, इसलिये मुझे किसी भी प्रकार की धनराषि लेने की आवष्यकता नही है। उसकी बात सुनकर वह चिकित्सक बहुत प्रभावित हुआ और उससे उन्होंने पूछा कि मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ। उस लडके ने विनम्रतापूर्वक कहा कि मुझे नौकरी की नितांत आवष्यकता है मेरे घर में एक बूढी माँ और मेरी बहन है एवं हम आर्थिक कठिनाईयों में रह रहे है। यह सुनकर डाॅक्टर ने उसे अपने यहाँ नौकरी दे दी और धीेरे धीरे उसे षिक्षा दिलाते हुए कंपाऊंडर की डिग्री दिला दी। उसे अपने ही चिकित्सालय मंे कंपाऊंडर की नौकरी देकर उसे स्वावलंबी बना दिया। वह भी आजीवन उनके यहाँ ही नौकरी करता रहा। इसलिये कहते है कि परोपकार का कार्य करने से कही ना कही ईष्वर की कृपा व्यक्ति पर हो जाती है।

58. नियति

डाॅ. मोहन चोपडा दिल्ली के एक प्रसिद्ध चिकित्सक है। उन्होंने अपनी प्रारंभिक षिक्षा जबलपुर में प्राप्त की है एवं ग्वालियर मेडिकल काॅलेज से एम.बी.बी.एस की उपाधि प्राप्त कर टाइम्स आॅफ इंडिया समूह में अपनी सेवाएँ प्रदान की है। वे अपने जीवन में घटी एक घटना के संबंध में बताते है कि एम.बी.बी.एस में दाखिले हेतु आयोजित प्रवेष परीक्षा में सफल होने के पष्चात वे प्रतिदिन मेडिकल काॅलेज जाते थे।

उनका एक घनिष्ठ मित्र जो कि दुर्भाग्यवष उस परीक्षा मंे उत्तीर्ण नही हो सका वह उन्हें प्रतिदिन अध्ययन हेतु जाते हुये देखकर बहुत दुखी हो जाता था। इस कारण वह हीनता की भावना से ग्रस्त होकर अवसाद की स्थिति में आ गया और अपनी जीवनलीला समाप्त करने की सोचने लगा। ऐसी विषम परिस्थितियों में डाॅ. चोपडा एवं उनके उस मित्र के अभिभावकों ने उसे बहुत समझाया जिससे प्रेरित होकर उसने स्नातक की डिग्री लेकर आई.ए.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की एवं षासकीय सेवा में कार्यरत हो गया।

वे बताते है कि आज वह जिस पद पर कार्यरत है, अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है एवं डाॅ. चोपरा को धन्यवाद देता है कि उसके खराब दिनों में भी उसका साथ ना छोडते हुये उसे संबल प्रदान किया। आज समाज में उसकी काफी मान प्रतिष्ठा है। जिसे देखकर मैं बहुत प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ।

मेरा युवाओं को यही संदेष है कि जीवन में किसी भी क्षेत्र में असफल हो जाने का मतलब जीवन से विरक्ति नही होनी चाहिये। हमें अन्य क्षेत्रों में अपना ध्यान देते हुये मेहनत, लगन और परिश्रम एवं समर्पण से उस दिषा में ईष्वर पर विष्वास रखते हुये कडी मेहनत करके सफलता प्राप्त करनी चाहिये। यही जीवन की नियति है।

59. एक नया सवेरा

हिम्मत सिंह नाम का एक व्यापारी था जो अपनी एक मात्र संतान के लिए अच्छी व सुयोग्य वधु की तलाष कर रहा था। एक दिन वह अपने व्यापार के सिलसिले में एक षहर की ओर जा रहा था तभी षाम का वक्त हो गया और अंधेरा घिर आया। वह निकट के गांव में पहुँचा और पता करने पर उसे मालूम हुआ कि वहाँ पर रूकने के लिए कोई धर्मषाला या सराय नही है। वह इलाका काफी खतरनाक माना जाता था और अक्सर डाकू वहाँ से आया जाया करते थे। वह विकट परिस्थिति में उलझ गया था। उसे आगे और पीछे आने जाने में खतरा था जिससे गांव वालों ने आगाह कर दिया था। उसके इस वार्तालाप और चिंता को एक लडकी भांप गयी और उसने आकर उससे निवेदन किया कि आप आज रात हमारी झोपडी मे विश्राम कर ले। हिम्मत सिंह ने ऐसा ही किया और उस लडकी एवं उसके परिवार के प्रति आभार व्यक्त करता हुआ रात्रि विश्राम के बाद सुबह अपने गंतव्य की ओर रवाना हो गया।

हिम्मत सिंह को एक माह के बाद अचानक ही याद आया कि वह मोहरों की एक थैली उसी झोपड़े में जल्दबाजी में भूलकर आ गया है। यह ध्यान आते ही वह वापिस उस स्थान पर पहुँचता है और झोपडी में अंदर आते ही लडकी की माँ ने उसे पहचानते हुए कहा कि भईया बहुत अच्छा हुआ कि आप आ गये। आपकी मोहरों की थैली यही रह गयी थी। हमारे पास आपका कोई पता ठिकाना नही होने के कारण हम इसे आप तक भिजवाने में असमर्थ थे आपकी वह धरोहर मेरी बेटी कल्पना के पास सुरक्षित रखी है। उसकी बेटी ने आकर वह थैली वैसी की वैसी हिम्मत सिंह को सौंप दी। इस ईमानदारी से हिम्मत सिंह बहुत प्रभावित हुआ और उसने लडकी की सुंदरता, गुणों एवं उसके व्यवहार को देखते हुए अपने पुत्र का विवाह उससे करके उसे अपने घर की पुत्रवधू बना लिया।

60. षहादत और समाज

रणभूमि में हमारी रणसेना रण के लिए किसी भी चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार खडी है। युद्ध का बिगुल बज गया और षांत घाटी में गोलियों, तोप के गोलों और मानवीय ललकार की गूंज गूंजने लगी। भारतीय सेना ने यह प्रण करके कि हम दुष्मन की भूमि में घुसकर उन्ही के अस्त्र षस्त्रों को कब्जे में लेकर उनको पराजित कर देंगे। उन्होंने षंखनाद करते हुए उनके हमले का प्रत्युत्तर दिया और उन्हें परास्त करके उस चैकी पर अपना कब्जा कर लिया। हमारी सेना को इस बात की खुषी थी कि दुष्मन सिर पर पांव रखकर भाग गया पर उन्हें इस बात का दुख भी था कि हमारे कुछ सैनिक युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हो गये।

उनके षव यथोचित सम्मान के साथ उनके घरों पर पहुँचाये गये। तब आसपास के पूरे कस्बे के लोग उनके नाम की जय जयकार करते हुए उनकी षहादत अमर रहे के नारों के साथ भारी भीड उन वीर सैनिकों के अंतिम संस्कार में षामिल हुयी। उन्ही वीर सैनिकों में से एक सैनिक रवि की पत्नी एक ओर जहाँ गमगीन थी वहीं दूसरी ओर मातृभूमि की रक्षा करते हुए अपने पति के षहीद हो जाने पर गर्व का अनुभव भी कर रही थी। उसके माता पिता ने अपना बेटा, पत्नी ने अपना पति खो दिया और उसकी एकमात्र दो साल की बच्ची आज अनाथ हो गई। षवयात्रा में षामिल सभी लोग उनके परिवारजनों सांत्वना देते हुए अपने अपने घर चले गये। उन्हें कुछ समय के बाद कंेद्रीय षासन एवं राज्य षासन के द्वारा अनुदान राषि प्राप्त हो गई। जिसका उपयोग उन्हेांने अपने परिवार के लालन पालन एवं बच्ची की षिक्षा हेतु कर लिया।

बीस वर्ष के उपरांत जब वह बच्ची बडी हो गयी तो उसके विवाह के लिये उपयुक्त वर खोजना प्रारंभ हुआ और उनके परिवार को यह जानकर बहुत दुख क्षोभ और आष्चर्य हुआ कि समय में इतना परिवर्तन हो चुका था कि अब उस बच्ची के पिता की षहादत लेाग भूलकर, दहेज के लोभी हो चुके थे। जहाँ भी उसके रिष्ते की बात होती वहाँ पर उसकी उच्च षिक्षा, व परिवार को षासन द्वारा प्रदत्त मेडल की परवाह ना कर दहेज की माँग पहले रख दी जाती। उनका परिवार अपनी बच्ची की षादी किसी भी दहेज लोभी के साथ करने के लिए तैयार नही था। उनके मन में अपनी बच्ची की सुंदरता और गुण देखकर बच्ची की षादी किसी उच्च कुलीन घराने में करने की प्रबल अभिलाषा थी परंतु अंत में यह संभव ना होकर एक कम पढे लिखे मध्यमवर्गीय परिवार के लडके के साथ जिसकी दहेज की कोई माँग नही थी के साथ संपन्न करना पडा।

दहेज की यह कुप्रथा आज भी समाज को मानसिक गुलामी में जकडे हुये है जिससे समाज के प्रतिभावान बच्चे धन के अभाव में अपेक्षित वर को ना पाकर समझौतावादी दृष्टिकोण को अपनाकर मन को संतुष्ट कर लेते है।

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