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बहस--परिचर्चा

गांव की चौपालों और गली मोहल्लों के चबूतरों से निकलकर बहस टी वी चैनलो पर जा पहुंची है।आज कोई भी न्यूज़ चैनल बहस यानी परिचर्चा से अछूता नही है।धर्म,राजनीति,खेल,फ़िल्म, भ्रष्टचार, सरकारी की नाकामी अनगिनत विषय है।साइन बाग़ खूब चला।फिर कोरोना।फिर किसान आंदोलन और फिर कोरोना रिटर्न्स।मतलब कोई कमी नही है।बहस होती रहती है।इसकी रिकॉर्डिंग को भी बार बार दिखाया जाता है।
अगर आपको बहस देखने सुनने का शौक है,तो आप बहस जरूर देखते होंगे।आपने बहस देखते समय एज बात जरूर नोट की होगी।बहस मे भाग लेने वाले वी ही गिने चुने लोग ही नज़र आएंगे।
राजनीतिक पार्टियों के बारे में एज बात कही जा सकती है कि हर पार्टी ने अपने प्रवक्ता नियुक्त कर रखे होते है।और उन्हें ही टी वी चैनलों पर बहस में भाग लेने का अधिकार होता है।यहाँ भी एक बात जरूर आपने नोट की होगी।केवल एक पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टियों के पास प्रवक्ताओं कभी जबरदस्त अभाव है।खैर
राजनीतिक क्षेत्र की बात तो समझ मे आती है।लेकिन दूसरे क्षेत्र जैसे धर्म,शिक्षा,आर्थिक मामले,नारी से जुड़े,रक्षा आदि अनेक क्षेत्र है।उनमें भी वो ही जाने पहचाने चेहरे।कभी कभी तो मन मे ऐसा विचार आता है।शायद इन चेहरों की मीडिया से सांठगांठ है।
बहस के विषय तो अच्छे होते है।कुछ विषय टी बहुत ही अच्छे होते है।पर बहस का जो विषय होता है उस पर कभी भी सार्थक बहस होती ही नही है।ज्यादातर समय विशेषत राजनीतिक पार्टी के प्रवक्ताओं का एक दूसरे पर कीचड़ उछालने या गड़े मुर्दे उखाड़ने में ही निकल जाता है।बहस में भाग लेने वाले एंकर के प्रश्न का सीधा उत्तर नही देते।कभी कभी तो वे प्रश्न के उत्तर में प्रतिप्रश्न करते है।कभी कभी लगता है बहस में भाग लेने के लिए आये है या एंकर की भूमिका निभाने के लिए।
कभी कभी किसी बहस में राजनीतिक विश्लेषक या समाजसेवी आदि लोग भी बुलाये जाते है।वैसे तो इन्हें स्वतंत्र व निष्पक्ष बताया जाता है।लेकिन वास्तव में ये किसी दल की विचारधारा से प्रभावित होते है।
कमर्शियल ब्रेक अगर न हो तो फिर बहस कैसी?गम्भीर विषय पर बहस हो रही हो तो भी ब्रेक हो जाता है।कभी कभी टी वक्ता की बात पूरी भी नही हो पाती और बहस हो जाती है।यह बात सही है कि कम्पनियों द्वारा बहस को प्रायोजित किया जाता है।इसलिए वे अपने उत्पाद का प्रचार करेंगे ही।लेकिन बहस की गम्भीरता और सार्थकता का भी ख्याल रखा जाना चाहिए।विज्ञापन दिखाए जाने चाहिए।लेकिन इस तरह की बहस की निरंतरता न टूटे।
चौपालों और गली मोहल्लों में होने वाली बहस प्रायः सार्थक विषयो पर नही होती थी।और उस बहस में बोलने और सुनने वाले गिने चुने लोग ही होते थे।लेकिन टीवी चैनलो पर होने वाली बहस को देश दुनिया मे सुना जाता है।और सुनने वालों की संख्या भी लाखों में होती है।
बहस में सुनने में लोगो की रुचि बनी रहे।इसके लिए कुछ मेरे सुझाव है।जो शायद काम आ सके।
बहस का समय विषय की गम्भीरता को लेकर निश्चित होना चाहिए।बहुत से विषय ऐसे होते है जो ज्यादा समय की मांग करते है।
राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं को छोड़कर धर्म,शिक्षा आदि विषयों के लिए अच्छे लोगो को बुलाया जा चाहिए।
बहस में भाग लेने वाली को विषय पर ही केंद्रित रखा जाना चाहिए।
ब्रेक से बहस की सार्थकता भंग नही होनी चाहिए।
विश्लेषक किसी विचारधारा के न होकर निष्पक्ष होने चाहिए।
एक समय मे एक ही आदमी बोले
और भी सुधार हो सकते है

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