zahir kureshi ka gazal sansar books and stories free download online pdf in Hindi

जहीर कुरैशी का गजल संसार

जहीर कुरैशी का गजल संसार

किस्से नहीं हैं ये किसी विरहन की पीर के।
ये शेर हैं अँधेरों से लड़ते जहीर के।
चिन्तन ने कोई गीत लिखा या ग़ज़ल कही ?
जन्मे हैं अपने आप ही दोहे कबीर के।

गीत और गज़ल परंपरा के प्रतिमान कवि जहीर कुरेशी की सम्पूर्ण काव्य-चेतना और विचार संवेदना को समक्षता में समझने के लिये ये दो शेर आधार हो सकते हैं लेकिन उनमें व्यक्त अनुभूति विरोधाभासी न लगे, इसके लिये पाठकीय सजगता आवश्यक है।
पीर कोई भी हो उसके प्रति मानवीय संवेदना अपेक्षित ही नहीं स्वाभाविक भी है और स्त्री की पीर के प्रति तो और भी अधिक। जहीर कुरेशी जिस विरहन की पीर के किस्सों की बात कर रहे हैं वह रीतियुग के सामंती काव्यशास्त्र में निर्मित, निर्धारित निष्प्राण, अवश और अमूर्त स्त्री की वेदना का तटस्थ और निःस्पन्द कथावाचन है जिसमें उसकी देह की रूपरेखाएँ तो हैं पर उसकी अस्मिता और उसका अस्तित्व गायब है। विरहन का रूढ़ स्वरूप ही प्रायः पुरुष सत्तात्मक समाज का आनन्दोपभोग है। इसके विपरीत जहीर अँधेरों के विरुद्ध युद्ध में खड़े होकर जो शेर कहते हैं वे पीढ़ा के केवल किस्से न होकर भीतर से उपजी संवेदना की आवेश युक्त करुणा के वक्तव्य हैं। ऐसी ही पाठकीय सजगता तब भी आवश्यक है जब वह पूछते हैं कि चिन्तन ने कोई गीत लिखा या गजल कही। यहाँ वह कविता से विचार को निर्वासित या निरस्त नहीं कर रहे हैं क्योंकि विचार के बिना कविता ही क्या, पूरी मानवीय सभ्यता और संस्कृति निराधार है। यहाँ वह जीवन से विच्छिन्न उस किताबी, निराकार और दार्शनिक बौद्धिकता को रचनात्मक संवेदना से बाहर मानते हैं जिसे कबीर ने पोथी पढ़ना कहा है। वह मानते हैं कि हिन्दी गजल आज की यानी विचार युग की गजल है। वह कोठों पर गाई जाने वाली संगीत उन्मुख गजल नहीं बल्कि खेतों, दफ्तरों, कारखानों में काम करते रफ टफ लोगों की भावनाओं की निर्मल अभिव्यक्ति है।

हिन्दी में आने के बाद गुज़ल और अधिक विचारवान हुई है। समकालीन कविता के बरअक्स खड़ी हो सके, इसके लिये उसे विचार सम्पन्न होना ही होगा। जहीर कुरेशी गहरी मानवीय निकटता और व्यापक सरोकारों के कवि हैं। उनके लिये कविता प्रतिबद्धता और उद्देश्यपरकता की अपने आप जन्मी ईमानदार अभिव्यक्ति है। पेशेवर कविताई से अलग जहीर कुरेशी कहते हैं कि लेखन मेरे लिये केवल आत्मानन्द तक सीमित नहीं है। मैं अपने शेरों को कारगर अस्त्र के रूप में प्रयोग करना चाहता हूँ। गजल के शेरों को मैं आज की परिस्थितियों में प्रतिरोध के कारगर हथियार का दायित्व सौंपना चाहता हूँ।

अनेक लेखक और बुद्धिजीवी प्रायः यह कहने में गर्व का अनुभव करते हैं कि वह किसी प्रतिबद्धता में बँधकर नहीं रहे मानो प्रतिबद्ध होना कोई विवशता का या बन्धन है। प्रतिबद्ध होना नैतिक होना है, कर्तव्यशील होना है, सामाजिक होना है। फ़र्क सिर्फ इनता है कि हमारी प्रतिबद्धता कहाँ है और उसमें कितनी मानवीयता है।

मुक्तिबोध जब पूछते हैं कि पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है तो वह किसी राजनीतिक संलग्नता की बात नहीं कर रहे होते बल्कि वह पूछते हैं कि तुम किस ओर खड़े हो। अपनी प्रतिबद्धता के बारे में जहीर कुरेशी एक साक्षात्कार में कहते हैं कि 'प्रतिबद्धता का मेरे लिये सीधा सा अर्थ है कि आप किसके पक्ष में खड़े हैं। लेखन में भी प्रतिबद्धता मुझे उन लोगों की तरफदारी करने की प्रेरणा देती है जो हाशिए पर हैं। पतनशील पूँजीवाद की सदी में भी मेरे शेर सांप्रदायिकता, आतंकवाद, भूमंडलीकरण, वैश्विक बाजारवाद का समर्थन नहीं करते।'

अपनी रचनाधर्मिता के बारे में जहीर कुरेशी के ये वक्तव्य उनके रचना संसार के अन्वेषण में उसी तरह सहायक होते हैं जैसे ज़मीन के भीतर गड़े खजाने को खोजने में बीजक के पत्थर होते हैं। गजल के सम्बन्ध में प्रायः विवाद की सीमा तक पहुँचती भिन्न धारणाएँ मिलती हैं। जैसे अभी तक इस पर बहस चलती है कि व्यंग्य एक विधा के रूप में स्वतंत्र है अथवा वह माध्यम भर है। उसी तरह गजल कविता का एक रूप विशेष भी माना जाता है जो गीत की तरह छन्दबद्ध होता है और कभी उसे एक फॉर्म ही नहीं बल्कि कथ्य की दृष्टि से भी विशिष्ट माना जाता है जिसका अरूज़ अथवा काव्यशास्त्र अलग है। वस्तु में ही नहीं, शिल्प में भी अन्य कविता रूपों से उसकी अलग पहचान रही है। लेकिन जिस वस्तु या फिनॉमेना में समय की चेतना के अनुसार परिवर्तन नहीं होता उसे पुरातत्त्व की तरह सिर्फ संरक्षित करना पड़ता है। प्रेम के संवाद या श्रृंगार-हकीकी या मजाज़ी-की गज़ल की यात्रा के पड़ाव में दरबार और महफिलें भी आयीं और वह आज जीवन के कठोर यथार्थ की खुरदरी जमीन पर भी चल रही है। वह भी आत्मानन्द और व्यक्तिगत मनोरंजन की दायित्वविहीन सामाजिक असंपृक्ति की चौखट से बाहर निकल कर मनुष्य की चिन्ता करने लगी, समकालीन अन्यायों, विषमताओं, और शोषक शक्तियों के विरुद्ध अस्त्र बनने लगी। हताश, निराश, गुमज़दा गजल के स्वर में उम्मीद के रदीफ काफिये आने लगे जहीर खुद कहते हैं कि 'मेरी गजलों का मूल स्वर तो उम्मीद का ही है। मैं अपने शेरों के माध्यम से रोशनी घर (ग्वालियर के पावर हाउस को रोशनी घर ही कहा जाता है) में किवाड़ों के पीछे मौजूद उन अँधेरों की आँखों में झाँकना चाहता हूँ जिनकी तरफ किसी का भी ध्यान नहीं जाता। मैं मानवीयता के ताप को शिद्दत से महसूस करते हुए, मनुष्यता के चेहरे को बार बार बाँचना चाहता हूँ। मैं हिन्दी गजल को लोकप्रियता के लांछन से निकालकर समकालीन कविता (फीवर्स पोइट्री) जैसा ही विचार सम्पन्न बनाना चाहता हूँ।' उर्दू गजल के यथा स्थितिवाद और हिन्दी गजल की संस्कृतनिष्ठ तत्समता से अलग जहीर कुरेशी हिन्दी गजल के प्रवक्ता और प्रयोक्ता हैं जो अपनी समकालीनता के साथ सार्थक और सकर्मक भाषा के माध्यम से संवाद करती है । वह कहते हैं -
अपने शेरों से दुनिया बदलते हुए।
शायरी के मिशन का पता चल गया
यह प्रश्न अभी तक उत्तर माँग रहा है कि समकालीन कविता के विमर्श में केवल फ्रीवर्स (छन्दमुक्त कविता) की बात क्यों होती है। उसमें गीत और गजल को शामिल क्यों नहीं किया जाता। असद जैदी ने 'दस बरस' नाम से (1992 से 2002 तक) दो कविता-संग्रह निकाले। उनमें छन्द कविता के नाम पर सिर्फ दो तीन गजलें थीं। फ्रीवर्स में विवेचन की अधिक क्षमता हो सकती है पर आज गजल और गीत भी समय की उन सारी चिन्ताओं को व्यक्त कर रहे हैं जो जीवन से जुड़ी हैं और वह भी जैसा कि जहीर कुरेशी का कहना है, अधिक सघनता (density) और शब्दों की आवश्यक मितव्ययिता (economy of words) के साथ। 'शेर समकालीन कविता से न बातूनी सही/ फिर भी कह जाते हैं गहरी बात संकेतों के बीच । जहीर आन्तरिकता, लोच, सूक्ष्मता और एकाग्रता के साथ ही सांकेतिकता को गजल का अनिवार्य और विशेष तत्त्व मानते हैं। उसकी यह भी विशेषता मानी जा सकती है कि उसका हर शेर एक अलग कविता प्रतीत होती है।

गेयता अथवा लयात्मक सांगीतिकता गीत या गजल का स्वाभाविक और पारंपरिक लक्षण रहा है और गेयता कोमलता को मधुरता का श्रुतिसुखद सहयोग भी देती है लेकिन यह भी देखा गया है कि गेयता विचार अथवा यथार्थ की संप्रेषणीयता को प्रभावित भी करती है। छन्दबद्धता गेयता का पर्याय नहीं है। जहीर स्वयं यह मानते हैं कि गेयता गज़ल का अनिवार्य अथवा निर्विकल्प तत्त्व नहीं है। जहीर कुरेशी अपने रचनात्मक सरोकारों में जिस दुनिया की बात करते हैं वह अपने आसपास की वास्तविक दुनिया है जिसमें हमारी जिन्दगी साँसें लेती है, बेहद असहनीय स्थितियों से गुजरती है, जो स्पशर्य है, चाक्षुष है, प्रामाणिक है। कविता ने वायवीय सफ़र बहुत कर लिये। जहीर उसे धरती की व्याकरण में बाँचते हैं। वह कहते हैं कि तलाश का कवि होना बहुत जोखिम का काम है तलाश के रास्ते पर थोड़ा सा आगे बढ़ते ही कवि पारलौकिक उधेड़बुन की ओर मुड़ जाता है। सबसे पहले तो मैंने अपनी गजलों को पारलौकिक तलाश से मुक्त किया मैंने अपने बेहद नजदीक की स्थितियों, वस्तुओं, बिम्बों के उन तमाम दृश्यों को देखने की कोशिश की जिन्हें हम देखकर भी नहीं देख पाते। जैसे

समुद्र शक्ल से कितना शरीफ लगता है।

वह तस्करों से मिला है - पता नहीं लगता।।

यही तलाश उन्हें अपने समय के उस व्यापक परिदृश्य की ओर ले जाती है जिसमें राजनीति की श्रेष्ठता है, अस्मिता और व्यक्तित्व को तरसती स्त्री की करुणा है, सारी नैतिकता और मानवीयता को कन्ज्यूम कर लेने वाला बाज़ार है, पंथों की हठधर्मिता है और बेहतर दुनिया के सपनों को साकार करने की मनुष्य की संघर्षशीलता भी है। बदलाव के लिये स्वप्न देखना एक आकार की कल्पना होती है। उसका आकार लेना ही असंभव हो तो उसे बदल देना धरातलीय यथार्थ है

ऐसा भी स्वप्न देखने वाला मिला मुझे। साकार हो न पाया तो सपना बदल दिया।।

जहीर कुरेशी अपने संबोध्य के आगे खड़े होकर काँपते नहीं, उससे उत्तर माँगते हैं -

प्रजा के तंत्र में राजा से कम नहीं हो तुम।

तुम्हारी मुट्ठी में हिन्दोस्तान रहता है।

या

कल महोत्सव वोट गिरने का है शायद इसलिये।

आज पर्वत पूछने आया है कंकर का पता।।

विमर्श अक्सर जटिल, अकादमिक और अनुभवातीत होकर सिर्फ भाषिक मकड़जाल बन कर रह जाते हैं। वे प्रायः भूल जाते हैं कि वे किस व्याकुलता से प्रेरित होकर जन्मे थे। इसके विपरीत जहीर कुरेशी की गुजुलों में विचार को संवेदना में बदलती सरलता है, आत्मीयता के साथ मिलती निजता है

कुछ तरह से दुनिया में आया उदारवाद
घर तक दुकान आई तो बाज़ार कर गई।

'आजकल बाजार जाने की ज़रूरत है कहाँ
घर के अन्दर तक खुले बा जार लेकर आ गई।

वह उन विक्षमों को तोड़ते हैं जो यथार्थ के ऊपर धुंध की तरह छाये रहते हैं। अनेक विडम्बनाओं की तरह यह विडम्बना भी हमारे सामने है कि थोड़े से उजाले के कुछ वृतों ने अँधेरे के विस्तारों को झूठा बना दिया है। अखबार बेहद और तटस्थता से एक साथ मॉलों की समृद्धि और भूख से आत्महत्या करते किसानों की खबरें छापते है। यह सब उस प्रतिकार और प्रतिरोध की चेतना को नहीं जागने देता जिसे जहीर कुरेशी इस समय के लिये जरूरी मानते हैं-

मौन रहने को स्वीकार मानेंगे लोग,
खुल के प्रतिकार का बस यही वक्त है।
वो मिसाइल, कहानी हो या शेर हो।
दूर तक मार का बस यही वक्त है।

स्त्री की स्थिति को ज़हीर ने संभवतः सबसे ज्यादा मर्म के साथ अभिव्यक्त किया है। वह कभी प्रतीकों की सांकेतिकता का भी प्रयोग करते हैं -

'तिमिर की पालकी निकली अचानक
घरों से गुल हुई बिजली अचानक
नदी को अंततः बनना पड़ा है।
किसी बूढ़े समन्दर की कहानी।

और कभी सीधे तौर पर भी बोलते हैं -
'क्या कहे अखबार वालों से व्यथा औरत
यौन शोषण की युगों लम्बी कथा औरत
कल सती होकर जली थी आज पति के हाथ/
बन गई जीवित जलाने की प्रथा औरत/
अपहरण कर ले गया रावण कभी बिल्ला/
कल थी सीता आज गीता चोपड़ा औरत।"

जहीर कुरेशी जब अपनी गजल को हिन्दी गजल कहते हैं तो उनका आशय सिर्फ भाषा से नहीं होता। वह मानते हैं कि उसका परिवेश अलग है। वह हिन्दी की प्रकृति की गजल को आम आदमी की जनवादी अभिव्यक्ति (भीड़वादी नहीं) मानते हैं जो सबसे पहले अपने पाठक को तलाश करती है। उनकी भाषा ठीक वह हिन्दी है जिसकी संरचना इकहरे तौर पर नहीं हुई, जिसमें अभिव्यक्ति की सहजता और शक्ति है। वह परिनिष्ठित भाषा के साथ ज्यादा 'कम्फर्टेबिल' हैं। 'शर चले अविराम', 'तिमिर की पालकी', 'उर्वर धरा', मुक्तिबोध ताप' और 'हिम पिघलते ही अभियान का/ सूर्य निकला समाधान का जैसी प्रयुक्तियाँ उनकी गजलों को संप्रेषण की सहजता प्रदान करती है। वह इस बात के प्रति भी सजग हैं कि भाषा में तत्समता अगर सकिय न होकर किताबी रह गयी तो वह कृत्रिम लगने लगती है। जहीर की भाषा में तत्समता अलग नहीं, उसमें रची-बसी है। उन्हें न शाब्दिक श्रृंगार की आवश्यकता लगती है, न उक्तिगत चमत्कार की। उन्होंने वह चादर बुनी है जिसमें न जाने कितने तानों से बाने मिले हैं। वशिष्ठ अनूप जब कहते हैं 'कौन कहता कि आकाशफल है गजल/ वक्त से रूबरू आजकल है गुजल एक सुन्दर जगत के सृजन के लिये। शब्द संसार में एक पहल है गजल। तो लगता है कि वह जहीर कुरेशी की कविता की व्याख्या कर रहे हैं। जहीर सृजन की इस पहल करने वालों की पहली कतार में खड़े हैं।

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED