AATMKATHY SHELI ME BHAVBHUTI books and stories free download online pdf in Hindi

आत्मकथ्य शैली में भवभूति

आत्मकथ्य शैली में भवभूति

भवभूति का पदमपुर (विदर्भ) से प्रस्थान

मैं भवभूति............ के नाम से आज सर्वत्र प्रसिद्ध हो गया हूँ। मेरे दादाजी भटट गोपाल इसी तरह सम्पूर्ण विदर्भ प्रान्त में अपनी विद्वता के लिये जाने जाते थे। मैं अपनी जन्मभूमि में श्रीकण्ठ के नाम से चर्चित होता जा रहा था। मेरे दादाजी ने शायद मेरे प्रारंभिक स्वर को महसूस करके मेरा नाम श्रीकण्ठ रखा था। मेरा गायन में कण्ठ स्वर बहुत अच्छा था। इसी कारण मेरे दादाजी ने अपनी कुछ कवितायें मुझे रटा दीं थीं।

उन्हें दादाजी की मित्र मण्डली के समक्ष सुरीले स्वर में सुनाने लगा था। उनके मित्र सुरीले स्वर में उनकी कवितायें सुनकर वाह वाह! कह उठते। अपनी प्रश्ंसा सुनकर में गद्गद् हो जाता। मेरे सुरीले स्वर के कारण लोग मुझे श्रीकण्ठ के नाम से सहज ही बुलाने लगे थे। दादाजी को भी उनका दिया हुआ नाम पसन्द आगया था।

पद्मपुर कस्वे के कवि-नाटककार हमारे यहाँ आकर इकत्रित हो जाते। घर में काव्य गोष्ठियों का दौर चलता रहता था। वे लोग भी अपने मधुर स्वर में अपनी- अपनी कविताओं का वाचन करते। उनके स्वर की तान मेरे मन को आज भी झंकृत करती रहती है। ‘‘आप सब ये किसकी कविताओं का वाचन करते हैं।’’एक दिन मैंने बाबाजी से पूछा था।

वे मुझे समझाते हुये बोले-‘‘हम सब किसी अन्य की नहीं, अपनी-अपनी रचनाओं का वाचन कर सुनाते रहते हैं। जिससे हमने इनमें जो अनुभूतियाँ व्यक्त की है वह कितनी सजीब होकर श्रोता पर प्रभाव डाल रही हैं। यों हम उनका मूल्यांकन भी करते चलते हैं।’’

मैंने पूछा था-‘‘ कैसे लिख लेते हैं ऐसी रचनायें!’’

उन्होंने मुझे समझाया-‘‘हमारे मन में हर पल नये-नये भाव बनते-मिटते रहते हैं। जो भाव हमें नयी-नयी अनुभूतियेंा से सराबोर लगते हैं उन्हें छन्द-बद्ध कर लेते हैं।’’

क्या मैं भी ऐसी रचनायें लिख सकता हूँ। मुझे सिखलादो ना लिखना।’’मैंने बाबा जी से निवेदन किया था।

बाबा जी ने मुझे कुछ छन्दों के नियम रटवा दिये और बोले-‘‘ मन में उठने वाले भावों की लय के छन्द को लिपि बद्ध करते चलो।’’ उसके बाद मैंने इसी प्रक्रिया से एक छन्द लिखकर पहली वार बाबाजी को सुनाया था। उन्होंने उसमें कुछ परिवर्तन कर मुझ से वह छन्द वार-वार सुना था और अपने कवियों की सभा में भी सुनवाया था। सभी ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उसी दिन से मेरा लेखन शुरु होगया था।

एक दिन की बात है ,बाबाजी के साहित्यकार मित्र तेजनारायण शर्मा जी एक काव्य नाटिका लिखकर लाये। प्रसंग था‘‘ सीता निर्वासन’। वे वाल्मिकि रामायण से प्रथक काव्यमय संवाद का निर्माण करके लाये थे। मधुर स्वर में गाकर जिसको उन्होंने अभिनय के साथ प्रस्तुत किया। वे मेरी ओर देखते हुये बोले-‘‘ इनमें से तुम किस पात्र का अभिनय कर पाओगे।’’

मेरे मँुह से निकल गया-‘‘ लव का।’’

मुझे खूब याद है,बचपन से ही मेरी स्मरण शक्ति इतनी ठीक थी कि किसी के मुख से एक वार किसी बात केा सुन लेने पर याद बनी रहती थी। उस दिन मैंने उनके द्वारा सुने लव के संवाद को सस्वर यथावत सुना दिया। इससे वे इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने उस गीत नाटिका में लव का पाठ मुझे दे दिया।

वे हमारे घर आकर मुझे उसका अभिनय सिखाने लगे। कुछ ही दिनों में उन्होंने दूसरे पात्रों का भी चयन कर लिया।

मुझे याद है ,शिवरात्री के अवसर पर वह नाटक पद्मपुर के शिवालय के मंच पर खेला गया था। उसमें सूत्रघार का कार्य स्वयम् उन्होंने ही किया था। मेरे अभिनय की सभी ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उसी दिन से मेरा चित्त नाटक के रूप में कुछ लिखने के लिये उत्सुक रहने लगा था।

मेरी माँ जातुकर्णी ने जब यह प्रशंसा सुनी तो उन्होंने मुझे अपने गले से चिपका लिया था। मेरे रक्तिम् गोरे गाल पर काजल की बिन्दी लगादी। जिससे मुझे किसी की नजर न लग जाये।

आज याद आ रही है परम पूज्य दादी केशर वा की। वे मुझे बहुत प्यार करतीं थीं। प्रतिदिन नोनी अर्थात् नवनीत का लोंदा मेरे भोजन में परोस देतीं। और कहतीं-‘‘हमारे बालकृष्ण इस नवनीत को खाकर ही बलवान बने थे। इसमें जितने गुण हैं उतने घृत में नहीं हैं। हमारे राम जी तो माखन रोटी कौवों को खिला दिया करते थे। मैं बचपन से ही रात्री के समय दादी के साथ ही सोता था। वे उस समय प्रतिदिन कोई न कोई कहानी सुनाती रहती थीं। उनकी कहानियाँ श्रीराम जी के चरित्र पर ही हुआ करती थीं।

एक दिन वा ने सोते वक्त कथा सुनाई-‘‘वत्स, तुमने महान तपस्वी शम्बूक का नाम सुना है।’’

मैंने उत्तर दिया-‘‘जी, वा सुना तो है। वह कोई तांत्रिक साधना कर रहा था।’’

‘‘नहीं वत्स, वह सात्विक तपस्वी था। उस समय के व्राह्मणों को शम्बूक की तपस्या रास नहीं आई। वे उसे अपने पेट पर लात मानने लगे।’’

‘‘वा, मैंने ये बातें नहीं सुनी।’’

‘‘जो नहीं सुनी ,मैं उन्हीं बातों को सुना रही हूँ।’’

‘‘तो सुनाइये ना वा। किसी की तपस्या, किसी को रास न आना न्सायोचित बात नहीं है।’’

‘‘वत्स,तुम्हीं बताओ,राम जैसा व्यक्तित्व इस धरती पर कोई दूसरा हुआ है? ....फिर किसी के तप करने से किसी ब्राह्मण बालक की मृत्यु होना।.....और इस कारण को आधार मानकर राम के द्वारा उसे मारना, तुम्हें यह कथा क्षेपक नहीं लगती।’’

‘‘वा, आपकी बात ठीक लगती है।’’

‘‘ब्राह्मणों ने अपनी इज्जत बचाने के लिये यह कथा वाल्मीक रामायण में जोड़ दी है।’’

‘‘वा, आपकी बात विचारणीय तो है,मैं इस बात पर विचार करने का प्रयास करुंगा।’’यों इस प्रसंग के प्रति विचार बचपन से ही मन में बैठ गया था।

नाटकों के लेखन के प्रति आर्कषण हेतु एक घटना घटी-विदर्भ प्रान्त में गणेश चतुर्थी का त्योहार प्राचीन काल से मनाने की परम्परा रही है। मैं प्राथमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त करके मध्यमा की पढ़ाई कर रहा था। हमारे मध्यमा के छात्रों द्वारा गणेश चतुर्थी के अवसर पर श्रवण पितृभक्ति नामक नाटक खेला गया। मैंने उस नाटक में श्रवण कुमार की भूमिका का निर्वाह किया था।

मेरा अभिनय देखकर सभी दर्शक वाह-वाह कह उठे थे। मेरे बाबाश्री भटट गोपाल ने मुझे गले से लगा लिया। मेरे इस अभिनय के लिये दर्शक बाबाजी को धन्यवाद दे रहे थे। इससे मेरा उत्साह बढ़ गया। उसके बाद तो मुझ पर ऐसा जुनून चढ़ा कि हर पल नये नये नाटकांे के वारे में सोचने लगा।

उधर राम कथा से जुड़े प्रसंगों पर बचपन से ही चिन्तन प्रवाीहत हो उठा था। जब में अकेला होता राम कथा के सम्वाद दर्पण के समक्ष अभिनय के साथ बोल कर देखने लगा। नारी का स्वर निकालते समय उसकी भाव भंगिमाओं के साथ अभिनय करके देखता। यों धीरे धीरे नाटक लेखन के कार्य में दक्ष होता चला गया।

वदर्भ प्रान्त का पदमपुर कस्बा उन दिनों शिक्षा का केन्द्र था। क्षेत्र भर के विद्यार्थी पढ़ने के लिये वहाँ आते थे। घर में सुवह का कार्यक्रम यज्ञ से शुरू होता था। पिताश्री नीलकण्ठ पढ़ने वाले छात्रों से जैसे ही यज्ञ कराना शुरु करते । बाबाश्री भट्गोपाल सजे-सँभरे ,माथे पर रामानन्दी चन्दन लगाये पीला अचला ओढ़े यज्ञशाला में प्र वेश करते। वेदों की ध्वनि वातावरण को आनन्दित करने लगती। वे यज्ञशाला में विश्वामित्र के स विराज मान होजाते। मैं भी वेद ऋचाओं के भाव और लय के अनुसार हाथ से अभिनय करते हुये वाचन करता। इससे अभिनय में तन्मयता आजाती। सारे छात्र इसमें एकाकार होजाते।

बचपन में छोटी-छोटी बातों को लेकर जब-जब मैं व्यथित होता मेरे दादाजी मेरा चेहरा देखकर भँाप लेते। मुझे दुलारते हुये पास बुलाते और मेरे सिर को सहलाते हुये पूछते-‘‘कहो वत्स, चिन्तित क्यों दिखाई देरहे हो?’’

मैं उनके स्वभाव से परिचित था। वे जितने नरम थे उतने ही सख्त भी थे। मन की व्यथा कहने में, उनका कठोर स्वभाव दीवार बनकर खड़ा हो जाता। मैं सहज बनते हुये झूठ बोला-‘‘कहीं कुछ भी तो नहीं!’’

वे समझ गये- मैं उनके कठोर स्वभाव के कारण मन की बात कहने से टाल रहा हूँ। उन्हांेने मुझे अपने हृदय से लगा लिया। इससे मैं समझ गया कि मेरी बात सुनकर वे क्रोघित नहीं होगे। मैं फिर भी डरते-डरते बोला-‘‘दादाजी, आज मैं मित्र मन्डली के साथ बिना बतलाये बड़े सरोवर में स्नान करने चला गया था। जब लौटकर आया तो मेरी माताजी वहुत क्रोध में हैं।’’

‘‘वत्स ,तुम्हारी माँ जातुकर्णी विदुषी हैं। उन्हें सम्पूर्ण रामायण कठस्थ है। वे संस्कारवान पिता की पुत्री हैं। तुम्हारे नानाजी महेन्द्र त्रिपाठी जी यहाँ राज परिवार में न्यायविद् हैं। उनके कोई पुत्र तो है नहीं। इसलिये वे चाहते हैं कि तुम न्यायशास्त्र के ज्ञाता बनो।’’

‘दादाजी ,मुझे न्यायशास्त्र उतना प्रिय नहीं लगता जितना वाल्मीकि रामयण पर कार्य करना।’’

वे मेरे मन्तव्य को समझ गये। मुझे समझाते हुये बोले-‘‘तुम्हारी माँ की तरह हमें भी तुम्हारा कस्वे के आवारा लड़को के साथ खेलना अछा नहीं लगता। तुम्हारा पढ़ाई में भी मन कहाँ.....!’’

‘‘दादाजी ,मेरी माँ भी ऐसे ही सोचतीं हैं।’’

‘‘वे ठीक ही सोचती हैं। आपके काका के दोनों पुत्र पढ़ने -लिखने में प्रवीण हैं। मैं देख रहा हूँ, तुम्हारा सम्पर्क छोटी जातियों के लड़को के साथ अधिक हैं। इससे हमारी प्रतिष्ठा को ठेस लगती है।’’

दादाजी की छोटी जातियों वाली बात उस दिन बहुत खली थी। मुझे वड़े कहलाने वाले लोगों से सामान्य जाति के लोग अच्छे लगते हैं। उनमें न कोई बनावट न अहम्। यदि उनमें कोई अहम् है तो अपनी जाति के गौरव का। सभी जातियों का अपना-अपना इतिहास है, उनका अपना गौरव है। हम अपनी जाति के गौरव के आगे उसे अनदेखा कर जाते हैं।

मुझे वंशकार की लड़की वन्दना वहुत अच्छी लगती है। वाल्मीकि

ऋषि के द्वारा वणित सीता की सहेली वासन्ती की मन मोहक मुश्कान की तरह उसका मुश्काना बहुत भाता है। कई वार उसके निकट होने का मन करता है। मेरा बस चले तो मैं उसी के पास बैठा रहूँ।

मुझे वह परसों सरोवर पर मिली थी। मैंने उससे पूछा-‘‘वन्दना कैसी हो?’’ उसने निगाह नीचे करके मुश्करात हुये उत्तर दिया-‘‘हमारी जाति के लोग जैसे होते हैं मैं वैसी ही हूँ।’’

आज दिन प्रति- दिन जातियों में दूरी बढ़ती जारही है। आर्य एक जाति थी । आज आर्याें की उप जातियाँ सिर उठा रही हैं। ऊँच-नीच की खाई गहरी होती जा रही है। मानवीय द्रष्टिकोण नीचे खिसकता जा रहा है।

मैं पन्द्रह बर्ष का हो गया था। अवस्था के कारण वन्दना के प्रति आकर्षण सहज ही होने लगा था। मुझे पता चल गया था,वह सरोवर में कब स्नाान करने जाती है? मैं उससे मिलने की इच्छा से पढ़ाई -लिखाई छोड़कर स्नान करने के बहाने वहाँ पहुँच जाता। सरोवर के निकट वट वृक्ष की छाया का आश्रय लेकर उसे तैरते देखना अच्छा लगता था। उसके शरीर से चिपके वस्त्रों में उभरे उरोजों की आभा, सरोवर में खिले कमल सी उसकी चितवन, उसकी खिली पंखुड़ियों सी मुश्कान को मैं इतने लम्बे अन्तराल के बाद भी भूल नहीं पा रहा हूँ।

जब उसका स्नान करने से मन भर जाता तो वह सरोवर से निकलती, उस वक्त उसके अंगों की कलाकृति मुझे भावविभेार कर देती। वह मेरे देखने को अनदेखा करते हुये मुझे दिखा-दिखाकर वस्त्र बदलती। इससे उससे निकटता बढ़ाने के लिये मन व्यग्र हो उठता। मैं वटवुक्ष की छाया से उठकर उसके पास पहुँच गया। प्रकृति की शोभा से उसके अंगों की तुलना करने लगा।

मुझे सोचते हुये देखकर उसने पूछा-‘‘कहे !श्रीकण्ठ आपके घर वालों को जब यह बात ज्ञात होगी उस समय की तुमने कोई कल्पना की है।’’

‘‘मैं इसकी चिन्ता नहीं करता।’’

‘‘इससे आपके परिवार की साख नहीं गिरेगी?’’

‘‘अमृतपान के बाद देवताओं की साख गिरी!’’मैंने उसकी बात का उत्तर दिया। मेरी बात सुनकर वह ठहाका लगाते हुये बोली-‘‘ श्रीकण्ठ ,दूर की चीज दूर से देखने में ही अच्छी लगती है।’’ यह कहकर वह तेज कदमों से चली गई थी। उसकी बात गुनते हुये मैं वहाँ से चला आया था।

मैं जन सामान्य के निकट रहना चहता हूँ। यहाँ के लोग हैं कि मेरे परिवार की संस्कृत निष्ठ प्रतिष्ठा के कारण दूर रहना चाहते हैं। यह बात मुझे बहुत खलती है। यह सोचते हुये मैंने करवट बदली। पत्नी दुर्गा बोलीं-‘‘आज आप व्यथित दिख रहे हैं? ’

मैंने उन्हें समझाया-‘ व्यथित तो ऊँच-नीच की खाई के कारण उस दिन भी रहा था जब उस बालिका से दूर होना पड़ा किन्तु आज याद आरही है उस दिन की जब मैंने ऐसी ही समस्याओं से जूझते हुये अपनी पहली कृति महावीरचरितम् का मंचन कराया था। सभी वर्गों के लोगों में से पात्रों का चयन करना बहुत कठिन कार्य्र्र था। फिर उन्हें पढ़ाया-लिखाया। नट्यकला में दक्ष करने में सालों गुजर गये। ऊँच-नीच की खाई को पाटने का पूरा प्रयास किया गया। तब कहीं मंचन हो पाया है।’’ वे बोलीं-‘‘ यह सब रामजी की कृपा ही है।’’

मैंने दुर्गा से कहा-‘‘ रामजी की कृपा तो है किन्तु जाने यह क्यों लग रहा है कि मैं रामजी के चरित्र के साथ न्याय नहीं कर पाया हूँ?’’

यह सुनकर वे मेरे चहरे पर दृष्टि गड़ाते हुये बोलीं-‘‘ मैंने महावीरचरितम् के सारे सम्वाद पढ़े हैं मुझे तो उसमें कहीं कोई दोष दिखाई नहीं देता। कहें आप कहाँ संतुष्ट नहीं हैं!’’

मैंने उन्हीं की भावभूमि में उत्तर दिया-‘‘सीता माँ की अग्नि परीक्षा वाला प्रसंग न्यायोचित नहीं है।’’

‘‘यह तो आप महार्षि वाल्मीकि के लेखन पर शंका कर रहे हैं।’’

मैंने संतुलित होकर उत्तर दिया-‘‘ आज नारी की स्थिति और वदत्तर हुई है। आज के परिवेश में इसका क्या औचित्य!’’

वे बोलीं-‘‘ महाकवि, ऐसा न करके पौराणिक आख्यान के प्रति छेड़-छाड़ न होती। जो कथानक जनमानस के अन्तःकरण में छिपा बैठा है उसे कैसे विदा करेंगे! जनमानस उसके साथ छेड़-छाड़ पसन्द नहीं करेगा। आपने उस प्रसंग को यथवत प्रस्तुत करके जन जीवन के साथ खिलवाड़ नहीं की है।’’

‘‘हमारे इसी मोह ने इस प्रसंग को महार्षि बाल्मीकि के अनुसार रहने दिया है। किन्तु आज का परिवेश ........।’’

‘‘महाकवि, परिवेश तो युग-युग से बदला है और बदलता चला जायेगा। किन्तु पौराणिक आख्यान वही के वही इतिहास के साक्षी बनकर उपस्थित रहेंगे।’’

‘‘किन्तु देवी, मैंने इस कृति को लिखकर आज के समाज को क्या देना चाहा है! कहीं यह पौराणिक प्रसंगों की पुनरावृति तो नहीं है। यदि ऐसा है तो ऐसे लेखन से क्या लाभ? जो पहले से था उसे फिर से लिख दिया। क्यों लिख दिया यह सब? अब कहो, इसका क्या उत्तर है तुम्हारे पास?’’

‘‘अब क्या कहती, इसका मंचन तो हो ही चुका है। अब कृति आपकी नहीं रही वल्कि सारे समाज की हो गई है। अब इसमें परिवर्तन-परिवर्घन न्यायोचित नहीं होगा।’’

उनकी बात सुनकर मुझे लगा-इस कृति की उपादेयता पर विचार करके मुझे व्यथित होने की आवश्यकता नहीं है।

इस समय याद आने लगी है बचपन की जब में व्यथित होकर करवटें बदलने लगता तो मेरे बूढ़े दादाजी भट्ट गोपाल मेरी खटिया पर झुककर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुये पूछते-‘‘ आज क्या बात है,नींद नहीं आरही है?’’

उस दिन मैंने अनमने मन से उत्तर दिया था-‘‘दादाजी जाने क्यों मेरा सिर भारी है। विचार विराम ही नहीं ले रहे हैं।’’

दादाजी सिर के बालों में अगुलियॉ डालकर सिर को सहलाते हुये पूछते-‘‘वत्स, क्या मैं यह जान सकता हूँ कि कौन से विचार उठ रहे हैं?’’

मैं झूठ बोला-‘‘ ऐसे कोई निश्चित विचार नहीं हैं। किसी भी विषय पर विचार घनीभूत होने लगते हैं।

दादाजी बोले-‘‘सोने के लिये विचार शून्य होना आवश्यकहै।’’

मैंने पूछा-‘‘विचार शून्य होने का रास्ता?’’

दादाजी ने मुझे प्यार से समझाया-‘‘मैं तुम्हें सोने के लिये मन्त्र बतलाता हूँ। जरा ध्यान से सुनें-सृष्टि की उत्पति शब्द से हुई है। हमारे अन्दर से भी शब्द उठ रहा है। जब हम एकान्त में होते हैं तो उसे ध्यान से सुनने का प्रयास करें। यों अपने अन्दर झाकने का प्रयास तब तक करते रहें जब तक कुछ ध्वनियाँ सुनाई न पड़ने लगें।। धीरे-धीरे कुछ ही दिनों के प्रयास से कुछ ध्वनियाँ हमें सुनाई पड़नेे लगेंगी। इससे दो लाभ होगे। एक विचार शून्यता आने लगेगी। दूसरे नींद आसानी से आ सकेगी। वत्स, मेरी बात कुछ समझ में आई।’’

‘‘दादाजी , आपकी बात समझने के लिये तो अभ्यास करना पड़ेगा।’’

दादाजी बोले-‘‘मैं समझ गया मेरी बात तुम्हारी समझ में आ गई है।’’यह कहकर वे अपने विस्तर पर सोने के लिये चले गये।

मुझे यहाँ-वहाँ घूमना-फिरना अच्छा लगता है। मुझे वे ही मित्र अच्छे लगते हैं जो अपने अन्दर की बातें वेझिझक सामने उड़ेल दें।

मैं ऐसे ही जाने क्या-क्या सोच रहा था कि घर के भृत्य कलहंस ने सूचना दी-‘‘ घर के सभी परिजनों की बैठक कक्ष में बैठक जमी है। आपको वहाँ शीघ्र बुलाया है, चलें।’’ यह सुनकर मेरा माथा ठनका- अनायास घर के सभी लोगों की बैठक और उसमें भी मुझे बुलाया गया है। इसका अर्थ है कहीं बैठक का बिषय मैं ही तो नहीं हूँ। कहीं वंशकार की लड़की की बातें किसी ने दादाजी से तो नहीं कह दीं। यह सोचकर मेरा दिल धड़कने लगा। न चाहते हुये कदम बैठक कक्ष की ओर बढ़ने लगे।

जब मैंने बैठक कक्ष में प्र वेश किया उसमें सन्नाटा पसरा था। मेरी दादी केशर वा और माताश्री जतुकर्णी एक कोने में सिमटी बैठीं थी। मैं समझ गया कहीं कोई विशेष बात है जिसकी आहट में ये सन्नाटा शान में तना इतरा रहा है। मैंने सबसे पहले कक्ष में दादाजी को साष्टांग प्रणाम किया। उनके मुखारविन्द से शब्द निकले-‘‘ प्रभू तुम्हें सद्बुद्धि दे।’’

दादी ने मुझे आवाज दी-‘‘श्रीकण्ठ इधर मेरे पास आकर बैठ।’’ उनकी बात सुनकर मुझे कुछ राहत मिली। मैं उनके पास जाकर उनसे सटकर बैठ गया। इससे मेरे मनोवल को कुछ सहारा मिला।

जब-जब मुझे कोई डाँट रहा होता तो मैं उसी समय दादी के पास पहुँच जाता। वे मेरे गलत होने पर भी मेरा पक्ष लेने में संकोच न करतीं। उस समय दादा जी उनसे कहते-‘‘ तुमने इसका पक्ष लेकर इसे बिगाड़ दिया है।’’

यह सुनकर दादी मुश्करात हुये कहतीं-‘‘ अभी उम्र ही क्या है? जब समझ आयेगी तब देखना। यह अपने परिवार की तरह महाकवि ही होगा।’’

दादा जी के व्यंग्य बाण मुझे आहत करते-‘‘सो तो पूत के पाँव पालने में ही दिख रहे हैं।’’

आज भी दादाजी के शब्द बैठक कक्ष में गूँजे-‘‘ श्रीकण्ठ की दादी, देख लिये अपने दुलारे के आचरण ।’’

आचरण शब्द से स्पष्ट होगया कि मैं पकड़ा गया हूँ। उन्होंने सुझाव प्रस्तुत किया-‘‘पानी सिर के ऊपर से निकले इससे पहले उसका निदान खोज लेना चाहिये।’’

दादी ने उनके आक्रमक रूप को शान्त करने के लिये कहा-‘‘अभी ना समझ है। पिछले माह ही तो पन्द्रह वर्ष का हुआ है।’’

उन्होंने दादी के तर्क का विरोध करते हुये कहा-‘‘तुम्हारे करण ही यह इतना बढ़ गया है कि इसे हमारी मान-मर्यादा का ही ध्यान नहीं है। अभी यहाँ का अध्ययन ही पूरी हुआ है, इसे सुधारना है तो इसका तत्काल व्याह करना पड़ेगा। कई ब्राह्मण कुल भूषण परिवारों से रिस्ते आने लगे हैं। मैं सेाचता हूँ यह व्याकरण, न्यायशास्त्र और मीमांसा का विद्वान बन जाये किन्तु इसका पढ़ने में मन ही नहीं है।’’

दादी ने फिर मेरा साथ दिया-‘‘यह पढ़ने की कब मना कर रहा है!’’ यह कहकर वे मेरी तरफ मुखातिव होते हुये बोलीं-‘‘बोल श्रीकण्ठ बोल, तुम पढ़ना चाहते हो या घर-गृहस्थी के काम में लगना चाहते हो?’’

दादी ने मेरे सामने दोनों ही रास्ते खोल दिये। मुझे एक रास्ता चुनना था। मैं अभी शादी-व्याह के पचड़े से दूर रहना चाहता था। इसलिये अध्ययन का रास्ता चुनना ही श्रेयकर था-‘‘ दादी, मैं आगे अध्ययन करना चाहता हूँ।’’

मेरी बात सुनकर दादा जी झट से बोले-‘‘व्याकरण, न्यायशास्त्र और मीमांसा का अध्ययन तो इन दिनों पद्मावती नगरी में मेरे सहपाठी ज्ञाननिधि करा रहे हैं। जिनकी तुलना आज सम्पूर्ण भारत वर्ष में अंगरा ऋषि से की जा रही है। हम चाहते हैं तुम उनके पास अध्ययन करने चले जाओ।’’

दादी बोलीं-‘‘ इतनी दूर?’’

इस पर दादा जी बोले-‘‘ श्रीकण्ठ की दादी यदि इसे नहीं भेजना चहतीं तो इसका व्याह किये देते हैं। अच्छा है पौत्र वधू के साथ रह कर सेवा कराती रहें।’

दादा जी की यह बात उन्हें व्यंग्य लगी।’वे बोलीं-‘‘यह वहाँ जाने को तैयार तो है। बोलो, कब जाना है?’’

इसके बाद गुरुदेव ज्ञाननिधि के पास जाने की तैयारियाँ की जाने लगीं। मेरे साथ घर का प्रिय भृत्य कलहंस रहेगा। यह दिखने में काला दिखता है किन्तु बहुत विवेकशील है। इसीलिये दादा जी ने इसका नाम कलहंस रखा है। हमारे साथ नाना जी के मित्र का पुत्र मकरन्द भी अध्ययन की रुचि के कारण चलने के लिये तैयार है। इसके पिताश्री के पद्मपुर के राज परिवार से गहरे सम्बन्ध हैं।

हमारे पदमावती नगरी के प्रस्थान की बात सारे पद्मपुर में फैल गई। नगर भर में दूर देश की बातें चर्चा का विषय बन गया। इन्हीं दिनों इसी नगर के कुछ छात्र अवन्तिकापुरी के सांदीपनि आश्रम के लिये अध्ययन करने हेतु प्रस्थान कर रहे हैं। यों अवन्तिकापुरी तक उनका साथ रहेगा किन्तु वहाँ से यात्रा मकरन्द और कलहंस के साथ करना पड़ेगी।

जिस दिन से जाने की योजना बनी थी उस दिन से दादी और माँ दोनों ही अधिक दुलार प्रदर्शित करने लगी थीं। उन्हें लगने लगा होगा कि उनका इकलौता इतनी दूर जा रहा है। इससे वे व्यथित भी रहने लगी थीं। मैं उनके पास होता तो वे मुझे अपने सीने से चिपका कर रोने लगतीं। एक दिन पिता जी ने यह सब देख लिया तो वे बोले-‘‘जातुकर्णी, तुम विदुषी हो, यह सोभा नहीं देता। इससे तो इसका मन और कमजोर पड़ जायेगा। अरे! कभी हम मथुरा के प्रवास पर चलेंगे। पास ही पदमावती नगरी है। इसके पास रह लेंगे। चिन्ता की बात नहीं है। कुछ पाने को कुछ खोना ही पड़ता है। यों उन्होंने उन्हें ढाढ़स बाँधाया था।

पिताजी उज्जैयनी की ओर जाने वाले यात्रियों की खेाज में रहने लगे। इन दिनों बंजारे माल लादकर इधर से उधर जाया करते थे। इससे देश एक सूत्र में बाँधा सा लगता था। लम्बे समय से काशीनाथ नामका वंजारा हमारे नगर में डेरा डाले हुये था। वह संतरे की खरीद कर रहा था। जब उसके गधे और ऊँट लद गये तो पता चला कि वह शीघ्रही उज्जैयनी की ओर प्रस्थान कर रहा है। दादाजी ने उसी के साथ हमें रवाना कर दिया। वह विर्दभ से संतरे लेकर चला था। वह शिव रात्री के अवसर पर महाकाल के मेले से पहले वहाँ पहुँचना चाहता था जिससे मेले के अवसर पर संतरे बेच सकें।

काशीनाथ ने सुरक्षा के लिये कुछ चौकीदार रखे थे। उनमें से कुछ आगे-आगे चलते थे ,कुछ पीछे-पीछे निगरानी करते हुयेे। यों उसके साथ चलने में दस्युयों से बचने की व्यवस्था थी। आराम से यात्रा धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। शाम होने से पहले जो भी गाँव अथवा कस्वा मिला, कोई चौरस जगह अथवा धर्मशाल दिखी वहीं पडाव डाल दिया। तम्बू लगा लिये। उनके भेाजन बनाने बाले भेाजन बनाने लगे।

कलहंस पर मेरे और मकरन्द के लिये भेाजन बनाने की जुम्मेदारी थी। दल के सदस्यों की तरह कलहंस रास्ते से ही लकड़ियाँ बीन लिया करता था। तीन पत्थर रखकर चूल्हा बनाने में देर नहीं लगती। जब हम सन्ध्या-वंदन करके निवृत होते, भोजन तैयार मिलता। भोजन करने के उपरान्त जमीन पर ही बिस्तर लगाये और लेट गये। दिनभर के थके होने से नीद आ जाती। इस तरह यात्रा सुगमता से आगे वढ़ने लगी।

खुले आकाश के नीचे सोने का मेरा यह पहला अनुभव था। वड़ी देर तक आकाश की ओर आँखें फाड़-फाड़ कर निहारते हुये सप्तऋषि मंडल को पहचानने की कोशिश करता रहा। सारे तारागण मिलकर अन्धकार को दूर करने का प्रयास कर रहे थे। दिनभर की थकान से नीद आ गई। सुवह जब उठा काशीनाथ का दल चलने की तैयारी कर रहा था। मैं दौड़कर सरोवर के निकट निवृत होने चला गया। स्नान के बाद रास्ते में ही दैनिक पूजा से निवृत हो पाया।

हम घने जंगलों के मध्य बने पथ से आगे बढ़ते रहे। एक प्रहर दिन चढ़े एक वाबड़ी के पास रुक कर सभी ने जल-पान किया। इसी समय लोगों ने अपना स्वल्पहार भी लिया। शीघ्रही आगे बढ़ गये । दोपहर के समय भी किसी बाग बगीचे के पास भेाजन-विश्राम का समय मिल जाता। इन दिनों मकरंद मेरे पास ही रहता। हर क्षण अपने घर-परिवार की बातें करता रहता। मैंने उसे समझाया-‘‘मित्र मकरंद, वहाँ की याद करके क्या होगा? अब लौटकर जाया तो नहीं जा सकता। वर्तमान में जीने में ही लाभ है।’’

उसने उत्तर दिया-‘‘ इसका अर्थ यह हुआ अध्ययन के वहाने हमें देश निकाला हुआ है।’’

मैंने उसे परामर्श दिया-‘‘अब तो हम इस काशीनाथ के कब्जे में हैं।’’

उसने फिर कहा-‘‘ जब इसे चलना होता है तो चलने का आदेश दे देता है और जब इसे जल-पान करना होता है तो वह एक प्रहर तक रुकने का आदेश प्रसारित कर देता है। इच्छा हो रही है कि हम इसका साथ छोड़ दें और अपनी गति से चलें।’

‘‘नहीं मित्र मकरंद, फिर हम स्तंत्रता से चल तो सकेंगे किन्तु यात्रा की नई-नई समस्यायें हमारे सामने होंगी।’’

‘‘आप ठीक सोचते हैं, फिर पथ-प्रदर्शन की नई समस्या सामने होगी। रास्ता पूछते-पूछते वावले हो जायेंगे। भटक गये तो जाने कहाँ होंगे!’’

मैंने उसी की बात का समर्थन किया-‘‘इसके साथ में निश्चिन्त होकर तम्बू में सो तो लेते हैं। चोर और दस्युओं का भी भय नहीं रहता।’’

कलहंस ने करवट बदलते हुये खाँसा और हमें सुनाकर धीरे से बोला-‘‘अरे! देखा , काशीनाथ इधर ही आ रहा है।’

वह गोरा- चिटा, सिर पर पगड़ी, शरीर में बन्डी पहने हुये और कमर से नीचे वणिक प्रवृति की धोती पहने हुये। हम दोनों उसी ओर देखने लगे। वह हमारे पास आकर बोला-‘‘ क्यों बच्चो, कोई परेशानी तो नहीं है। कुछ हो तो कहने में संकोच न करें। आपके नानाजी मेरे परम मित्र हैं। जब लौटकर आऊँगा तो पूछेंगे, बच्चे कैसे रहे। किसी चीज की जरुरत हो तो कह देना। हमारे पास आवश्यकता की सभी चीजें पर्याप्त रहती हैं।’’

मैंने उससे निवेदन किया-‘‘जी अभी दो-तीन दिन ही तो हुये हैं। जिस चीज की जरुरत होगी ,हम संकोच नहीं करेंगे।’’

उसने हमें पुनः समझाया-‘‘रास्ता लम्बा है। हम व्यापारी लोग हैं , कहीं रुकना भी पड़ सकता है वैसे वहाँ पहुँचने की जल्दी है। डर है कहीं पहुँचते-पहुँचते संतरे खराब न होजायें।’’यह कहते हुये वह दूसरे झुन्ड के लोगों के बीच पहुँच गया था।

मैंने मकरंद को समझाया-‘‘ये व्यापारी लोग हैं। अपने सद्व्यवहार से सभी का दिल जीत लेते हैं। हमारे दादा जी का निर्णय ठीक ही रहा , नहीं तो जाने कहाँ- कहाँ भटकते फिरते!’’

मकरंद ने मुझसे कहा-‘‘आपके नानाजी ने कहा है कि हम दोनों पद्मावती में न्यायशात्र, व्याकरण और मीमांशा का अध्ययन करके आयें और उनके दायित्व का निर्वाह करें।’

कलहंस ने कहा-‘‘आपके नानाजी वहाँ न्याय व्यवस्था का कार्य कर रहे हैं। वे उसे ही आपको सँभलाना चहते हैं। जिससे उनके न्याय की पहचान बनी रहे।’’

‘‘मित्र पहचान तो सभी को अपनी-अपनी बनाना पड़ती है। किन्तु जिससे कोई नया कार्य सम्पन्न हो जाता है उसकी पहचान अक्षुण हो जाती है।’’

मकरंद मेरे चहरे की ओर देखते हुये बोला-‘‘तब तो हमारा मित्र निश्चय ही कोई नया कार्य करके दिखायगा।’’

‘‘देख मकरंद, मैंने तो सिद्धान्त की बात की है।’’

‘‘ ...और मैंने उस सिद्धान्त में से सार निकाल लिया।’’

अब तक कलहंस भोजन तैयार कर चुका था। वह बोला-‘‘भेाजन तैयार है , पहले गरम-गरम भोजन करलें और बतायें कि स्वादिष्ट बना है या नहीं?’’

मैंने उसे थपथपाया-‘‘तुमने कब अस्वादिष्ट भेाजन बनाया ,बताओ?’’

कलहंस ने अपनी पाककला का श्रेय दादी को दिया-‘‘मुझे पाककला में प्रवीण तो दादी ने किया है।’’ यह सुनते हुये दोनों मित्र भोजन करने बैठ गये। यों यात्रा अनवरत आगे बढ़ती रही।

जिस गाँव या कस्वे में काशीनाथ के आगमन की सूचना पहुँचती, उस के प्रमुख लोग दौड़े चले आते। ऐसा कोई स्थान नहीं मिल रहा था जहाँ काशीनाथ की पहचान न मिली हो। वह भी मिलने वालों से ऐसे मिलता जैसे उसका रोज का मिलना जुलना हो। काशीनाथ पूछता- कहो मित्र कैसे हो?काम-धन्धा कैसा चल रहा है? खेती -वाड़ी कैसी है?कोई समस्या तो नहीं?लड़के बच्चों के कब शादी-व्याह हैं?’’’’

इस अन्तिम प्रश्न के उत्तर में सभी अपनी-अपनी व्यथा-कथा कहने लगते। उसे पता रहता कब किसके लड़कों-लड़कियों की शादी है। कौन किस गौत्र का है? उसे मौखिक याद रहता। वह उनके शादी-व्याह भी पक्की करा देता। इन्हीं सब बातों के कारण लोग उसकी राह में बिना पलक झपकाये बैठे रहते। हर गाँव-कस्बे में उसका लेन- देन चलता रहता था।

उसकी स्मरण शक्ति बड़ी विलक्षण थी। उसे लोगों के नाम याद रहते। सामने पड़ते ही वह उसे नाम से पुकारता । लोग सोचते इतना बड़ा व्यापारी उनका नाम जानता है। उसके मुँह से अपना नाम सुनकर लोग कृतार्थ हो जाते। वह लोगों से लेन- देन में पाई-पाई का हिसाब करता चलता। उसे गरीबों पर दया भी थी। किसी की लड़की के व्याह में व्यवहार करना न भूलता। यों साख कमाना ही उसके जीवन का लक्ष्य था।

वह जिन्हें उधार देकर गया था ,उस गाँव में पहुँचते ही पहले उनसे हिसाब-किताव करता फिर जिन्हें देना- लेना होता उन्हें देता- लेता। मैं यह सब चुपचाप देखता रहता। इससे उसकी कार्य प्रणाली पर मेरा विश्वास दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था।

रात सभी अपने-अपने तम्बुओं में चले जाते। रक्षा का कार्य रात भर जागकर रक्षाकर्मी रक्षा करते। काशीनाथ बीच-बीच में किसी भी कार्य का अवलोकन करने पहुँच जाता। जहाँ उसे किसी के काम में त्रुर्टि दिखती वह गेहुँअन साँप की तरह फुफकार उठता। अच्छे-अच्छे उसके नाम से काँपते थे। उसके दोनों लड़के जय-विजय लेन देन का हिसाब रखते। इससे हर जगह उनका भी परिचय बढ़ता जा रहा था।

एक दिन काशीनाथ अपने दोनों लड़कों को मेरे पास लेकर आया और बोला-‘‘ पण्डितजी, हमारे इन लड़को को भी कुछ पढ़ा- लिखा दो जिससे ये हिसाब-किताव अच्छी तरह रख सकें।

इसके बाद तो जय और विजय सुवह शाम मेरे पास पढ़ना- लिखना सीखने के लिये बैठने लगे थे। वे पढ़ना-लिखना तो पहले से ही जानते थे। वे हिसाब-किताब में माहिर थे। उन्हें हिसाब- किताब के बचपन से ही संस्कार जो मिले थे। मैं समझ गया कि सेठ जी उन्हें मेरे सम्पर्क में रखना चाहते हैं। एक दो दिन में वे मेरे मित्र बन गये। सुवह जब वे मेरे पास आते तो संतरे की टोकरी भर कर लाते। जल-पान के बाद हम पाँचों उस टोकरी को एक बैठक में निपटा देते।

यह सोचते हुये मैंने करवट बदली। पत्नी दुर्गा चुपचाप पड़ी-पड़ी अर्धरात्री तक मेरी छटपटाहट देखतीं रहीं। उनके स्वभाव में था कि वे जब समझ लेतीं कि मैं किसी गहन चिन्तन में डूवा हूँ तो वे बोलतीं नहीं थीं किन्तु पता नहीं क्यों मेरी तरह छटपटाने लगतीं। जब उन्हें मेरी यह दशा सहन न होती तो बोलतीं-‘‘ स्वामी, आज ऐसा क्या हो गया है जो नींद नहीं आ रही है।’’

मैं समझ जाता पकड़ा गया हूँ इसलिये सच कह देता-‘‘ बचपन की घटनायें पीछा कर रहीं है। कैसे इस चौराहे तक आया हूँ।

0000000

नट मण्ड़ली के प्रमुख नट ने आकर कहा-‘‘श्रेष्ठी जी प्रणाम।’’

‘‘कहो सुम्मेरा तुम्हारी नट मण्डली का काम -काज कैसा चल रहा है?’’

‘‘ठीक नहीं चल रहा है , मेरी बड़ी लड़की मालती और लड़का मेघनाथ, जी- जान लगाकर खेल-तमाशा दिखाते हैं। फिर भी लोगों की जेब से पैसा नहीं निकलता।’’

‘‘मित्र सुम्मेरा, लोग भी क्या करें? कुछ बरसों से पानी ही नहीं वर्ष रहा है। अकाल की स्थिति बन गई है। लोगों की जेब में पैसा है ही नहीं तो निकलेगा कहाँ से?’’

‘‘विदर्भ में तो अकाल का प्रभाव अधिक दृष्टि गोचर हो रहा है। किन्तु छत्तीसगढ़ और मालवा में तो थोड़ा भी पानी बरस गया तो ज्वार-बाजरा की फसल तो हो ही जाती है। ...और अच्छा पानी बरस गया तो इन क्षेत्रों में धान और गेहूँ की अच्छी फसल हो जाती है। यहाँ से चावल और गेहूँ देश के सभी हिस्सों में पहुँच जाता है।’’

‘‘सुम्मेरा तुम ठीक कहते हो मैं पिछली चार साल से मालवा से गेहूँ देश भर में पहुँचा रहा हूँ।’’

उनकी ये बातें, मैं बड़े ध्यान से सुन रहा था। इन बातों ने मुझे सारे देश के बारे में सोचने को विवश कर दिया। अभी हम यात्रा में विदर्भ के पहाड़ी क्षेत्र को पार करके नर्मदा के कछारीय क्षेत्र में आगये थे। इससे आगे मालवा क्षेत्र की सीमा शुरू हो जाती है। मालवा की धरती में ऐसा क्या है कि कम वर्षा होने पर भी भरपूर फसल देती है। इस प्रश्न का उत्तर मुझे थोड़ा आगे बढ़ने पर ही मिल गया था। काली मिट्टी से बनी यह धरती सभी का स्वागत करने को व्याकुल रहती है। यहाँ का आदमी मेहनती तो है साथ ही कृषि कार्य में चतुर भी है। कम वर्षा होने पर भी इस क्षेत्र की भरपूर फसल देेश की भूख को शान्त करती रही है। वन्दनीय है यह मालवा की धरती।

हमें यहाँ से कोलाश नदी तक पहुँचने में एक दिन का समय लगेगा। काशीनाथ ने आदेश प्रसारित कर दिया कि आज यहीं नर्मदा के तट पर विश्राम रहेगा। तम्बू तन गये। सभी अपने-अपने तम्बू में पहुँच गये। सुम्मेरा का तम्बू हमारे पास में ही लगा था। मेरी दृष्टि न चाहते हुये भी बार-बार उसकी लड़की की ओर चली जाती। कैसे रहती है? क्या काम करती है? सुना है बड़े करतव दिखाती है। उसका शरीर जाने किस माटी का बना है! मरने से तो विल्कुल नहीं डरती।

मैं यही सोच रहा था कि उसी समय वह अपने वस्त्र लिये नर्मदा की ओर स्नान करने जाती दिखी। मैंने तत्क्षण मकरंद से कहा-‘‘ मित्र ,जब तक कलहंस भोजन पकाता है तब तक हम भी नर्मदा में स्नान करके आते हैं। मैं और मकरंद दोनों स्नान करने के अपने वस्त्र लेकर नर्मदा के ऐसे स्थान पर पहुँच गये जहाँ से उसे बिना बाधा पहुँचाये स्नान करते समय उसके पानी के करतव देख सकें।

उसकी निगाहें वड़ी तीक्ष्ण थी। उसने जाने कैसे हमें उसे देखते ,देख लिया होगा इसीलिये वह भीगे वस्त्रों में हमारे सामने आकर खड़ी हो गई। मैं उसे नीचे से ऊपर तक देखता रह गया। उसके वस्त्र उसके अंगों से चिपके थे। उसकी सुडोल देह पर मेरी आँखें टिक गई। पद्मपुर के सरोवर में तैरते वन्दना की देह से तुलना करने लगा। उसका अंग-अंग गम्भीरता लिये हुये और इसके अंग-अंग में चंचलता, फडकन! वह अपने अंगों को छिपाने का प्रयास करती और इसका उनके प्रदर्शन में विश्वास है।’’

मुझे सोचते देख मकरंद ने पूछा-‘‘ मित्र, क्या सोचने लगे?’’

मैंने अपने मन की कमजोरी छिपाने का प्रयास करते हुये कहा-‘‘मालती को इस रुप में देखना कितना सुखद लग रहा है।’’

उसने मेरे मर्म पर चोट की-‘‘इसी जल क्रीड़ा देखने के कारण तुम्हें देश निकाला हुआ है। अब इसे देखकर जाने कहाँ जाना पड़ेगा?’’

‘‘कहीं नहीं जाना पड़ेगा, हाँ काशीनाथ को यह बात पता चल गई तो यात्रा में व्यवधान पड़ सकता है।’’

‘मित्र, हमें उसे स्नान करते हुये नहीं देखना चाहिये था।’’ मैं उससे कुछ कहता कि मालती बोली-‘‘मुझे देखना ही है तो अभी रस्सी पर नाचते हुये देख लेना। अभिनय के समय हमें केवल अभिनय ही सूझता है। वहाँ मैं नहीं होती मेरी कला होती है।’’ यह कह कर वह अपने तम्बू में चली आई थी।

‘‘अभिनय के समय हमें केवल अभिनय ही सूझता है। वहाँ मैं नहीं होती, मेरी कला होती है।’’उसके शब्द मेरे जहन में उतर गये। हम भी नर्मदा में स्नान करके लौट आये। अभी दिन अस्त होने में देर थी। बाहर चौड़े स्थान में नट मण्डली की डुलकिया खनकने लगी थी। दोनों तरफ बाँसों के मध्य एक रस्सी तनी थी जिस पर उसे नाचना था। कुछ ही क्षणों में मालती नटी के भेष में सामने थी। डुलकिया की ताल पर वह बाँसों के सहारे रस्सी पर पहुँच गई। उसने रस्सी पर नाचना शुरू किया। वह झूम-झूमकर इस तरह नाची कि देखने वाले दंग रह गये। रस्सी पर चढ़ने से पहले उसने मुझे देख लिया था। देखने वाले कह रहे थे कि वह ऐसी पहले कभी नहीं नाची। यह सुनकर मुझे लगा ,क्या वह मुझे अपने करतव दिखाने के लिये नाची है।

लौटकर जब हम अपने तम्बू में पहुँचे तो मुश्करात हुये मकरंद बोला-‘‘ श्रीमान को यदि पसन्द है तो मैं उसके पिताजी से आपके व्याह की बात करुँ।’’

मित्र की यह बात सुनकर मैं सन्न रह गया। मैंने उसे डाँटा-‘‘मैं विद्या अध्ययन के लिये जा रहा हूँ विवाह करने के लिये नहीं।’

‘‘ विवाह के चक्कर में ही तो तुम्हें वहाँ भेजा जा रहा है।’’

मैंने उसे पुनाः डाँटा-‘‘तुम ,ये जाने कैसी व्यर्थ की बातें कर रहे हो!’

‘‘मित्र’, आपने यह तो सुन ही लिया होगा कि पद्मावती के मंत्री की पुत्री से आपके पिताश्री के अध्ययन काल में विवाह की बात चली है। दोनों वडे घनिष्ट मित्र रहे हैं। दोनों ने अपनी घनिष्टता बनाये रखने के लिये निश्चय किया था कि पुत्र-पुत्री होने पर विवाह सम्बन्ध करके जुड़े रहेंगे।’’

‘‘मकरंद , ये बातें पिताजी के विद्यार्थी जीवन की बातें हैं। उन बातों से हमारा क्या सरोकार? यों इन बातों को वे भूल गये होंगे ।’’

‘‘कहीं न भूले हो तब?’’

भोजन बनाते समय कलहंस हमारी बातों पर ध्यान दे रहा था। उसने बातों को विराम देने के लिये कहा-‘‘इन बातों कों रहने दे। पहले भोजन करलें, अरे! भोजन ठन्डा हो रहा है। फिर रात भर बातें करते रहना।’’

हम दोनों ने कलश से जल लेकर हाथ-पैर धोये और भोजन करने बैठ गये। किन्तु मेरा मन मालती से चिपका रहा। उसकी कला ने जैसे मुझे पागल ही बना लिया है। यों दिन-रात वह मेरे चिन्तन में रहने लगी। उसके वे शब्द तो मैं जीवन भर नहीं भूल पाया।

हम दूसरे ही दिन सूर्य अस्त होने से पहले कोलाश नदी के तट पर पहुँच गये। छोटे से पहाड़ों के मघ्य एक विशाल सरोवर के निकट डेरा डाल दिया। चारों ओर हरितमा आच्छादित थी। इससे यात्रा की थकान से विराम महसूस होने लगा। पता चला काशीनाथ ने यहाँ किसी काम से दो दिन ठहरने का आदेश दे दिया है। कल यहाँ हाट का दिन भी है। सोमवार के दिन यहाँ वर्षों से हाट लगती आ रही है। सभी यात्री आनन्द का अनुभव कर रहे थे। सरोवर में यात्रियों की सुविधा के लिये नावें पड़ी थी। काशीनाथ अपने परिवार के लोगों के साथ सरोवर की ओर जाने की तैयारी करने लगा। कलहंस हमारे रथ के घोड़ों को दाना-पानी देने चला गया था।

श्रेष्ठी के बड़े पुत्र जय ने आकर कहा-‘‘ पिताजी ने कहा है आप हमारे साथ सरोवर की सैर पर चलें। मैं मकरंद से अनुमति लेकर उनके साथ चला गया। काशीनाथ के दोनों पुत्र जय और विजय पुत्री नन्दनी एवं उनकी माताजी सुमित्रा देवी भी साथ में थीं। वहाँ एक पुरानी सी नॉव पड़ी थी हम सभी उसमें में बैठ गये। हम सैर का आनन्द लेने लगे। नाव जैसे ही तट से हटी काशीनाथ बोला-‘‘हमारे दोनों पुत्र आपके पढ़ाने-लिखाने की बहुत प्रसंशा करते रहते हैं। दोनों पाठ याद करके आते हैं या नहीं?’’’

‘मैंने कहा-‘‘ये दोनों मेंरे अच्छे मित्र बन गये हैं। ’’

वे बोले-‘‘ आपका साथ पाकर ये बहुत खुशहैं। ये मेरा काम-काज सँभाल लें। मेरे लिये यही बहुत है। मैंने अपनी लड़की नन्दनी के लिये पद्मावती में एक सुन्दर सा लड़का देख लिया है। सगार्इ्र तो पहले ही पक्की कर दी है। इस वार वहाँ नन्दनी का विवाह करने जा रहे हैं। कालप्रियनाथ की परिधि में विवाह का आयोजन होगा। पद्मावती बहुत अच्छा नगर है, बड़े-बड़े महल-अटारी हैं किन्तु शिक्षा का बहुत बड़ा केन्द्र है। आपको वहाँ बहुत अच्छा लगेगा।’’

यह सुनकर मैंने कहा-‘‘‘यह अच्छा रहा वहाँ अभी से एक बहन और मिल गई। अब तो मैं और मकरंद दोनों नन्दनी को परेशान किया करेंगे।’’ यह सुनकर नन्दनी सरमा गई तो मैंने ही बिषय बदला-‘‘ क्यों काका कैसा है पद्मावती नगर?’’

‘‘नगर क्या है! सिन्धु नदी के किनारे बसा पद्म के स जिसकी आभा चारों ओर फैल रही है। उस नगर में देवता भी बास करने को तरसते हैं। वह विद्या का बहुत बड़ा केन्द्र है। गुरुदेव ज्ञाननिधि की साख सम्पूर्ण आर्यावर्त में फैली हुई है। मैं सम्पूर्ण देश में जाता हूँ ,सभी जगह उनके नाम की चर्चा है। हम लोगशिव रात्री के समय पर वहाँ पहुँच जायेंगे।’’

‘‘सुना है वहाँ कालप्रियानाथ का वड़ा भारी मेला लगता है।’’ मेरी बात सुनकर काशीनाथ ने बात आगे बढ़ाई-‘ कालप्रियानाथ के कारण उस पूरे क्षेत्र में तान्त्रिकों का अधिपत्य हो गया है।‘उनसे बचकर रहने की जरुरत है।’’’

मैंने आश्चर्य व्यक्त किया-‘‘अरे!’’

उसने अपनी कहन जारी रखी-‘‘पद्मावती नगरी के एक बड़े व्यापारी है। उनके लड़के को नन्दनी की माँ ने पसन्द कर लिया तो सम्वन्ध जुड़ गया। पद्मावती जैसी सम्पन्न नगरी में नन्दनी आराम से रहेगी।’’

‘‘मुझे कहना पड़ा-‘‘काकाजी आप नन्दनी की चिन्ता नहीं करैं। मैं उसके यहाँ जाता रहूँगा।’’ यह कह कर मैंने नन्दनी की ओर देखा , वह आकाश की ओर देख रही थी। इसी समय विजय ने प्रश्न कर दिया-‘‘पिताजी, सुना है वहाँ एक विशाल वौद्ध विहार भी है।’’

‘‘वहाँ मातेश्वरी कामादकी वौद्ध विहार की प्रमुख हैं। वे सेवा भावना के लिये सम्पूर्ण्र्र पद्मावती नगरी में जानी जाती हैं। वहाँ के राज परिवार में उनकी अच्छी पहुँच है। वे करुणा की साक्षात् देवी हैं।’’

उनकी ये बातें सुनकर मेरा चित्त मातेश्वरी कामादकी के दर्शन करने व्याकुल हो उठा। निश्चय ही हमारे कोई पुण्य उदय हुये हैं जिससे ऐसी विदुषी तपस्वनी महिला के दर्शन करने का सौभाग्य मिलेगा।

इस तरह सोचते-सोचते डेरे पर आ गया था।

आज जब मैं अपने ही लेखन से व्यथित हूँ। आज के परिवेश में अग्नि परीक्षा जैसे प्रसंग का हमारे मानव समाज में कोई औचित्य नहीं है। इस समाज में नारियों की स्थिति बदत्तर हुई है। मुझे यह प्रसंग बचपन से ही संकात्मक लगता रहा। उसके बाद भी परम्परागत लेखन के प्रभाव में आकर यह लिख गया। मेरा चित्त परम्परागत लेखन का विद्रोह कर रहा है किन्तु महावीर चरित्म के लेखन के समय यह विद्रोह जाने कहाँ तिरोहित हो गया था। हम लेखकों को बहुत सोच विचार कर कलम चलाना चाहिये ,कहीं ऐसा न हो कि मेरी तरह बाद में आपको भी पश्चाताप करना पड़े।

कभी-कभी सोचता रहता हूँ कि यदि मैंने इस प्रसंग को न लिखा होता तो मैं अपने पाठकों को कैसे संन्तुष्ट करता? रावण को मारने के बाद क्या सीता जी को बिना अग्नि परीक्षा के, राम को उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिये था। इससे हमारे राम का कद ऊँचा तो हो जाता किन्तु क्या जन मानस मेरे इस तर्क को मान लेता । मेरी सम्पूर्ण राम कथा झूठ का पुलन्दा लगने लगती। इसी भय से यह प्रसंग लिखता चला गया। उस समय कोई नया प्रसंग ही नहीं सूझा। किन्तु आज व्यवस्था से त्र्रस्त होकर इसका परिहार्य करने की सोच रहा हूँ। कोई नया सोच समाज के सामने प्रस्तुत करना पड़ेगा जिससे सभी उससे सहमत हो सकें।

दूसरे दिन हाट में नट मण्डली अपनी कला के प्रदर्शन की तैयारी करने लगी। मालती ने सुवह से ही पैरों में घुघरु बाँध लिये। छम्म-छम्म की आवाज उसकी ओर देखने को विवश करने लगी।

एक रस्सी जिसे त्रिभुजाकार बाँस की लकड़ियों के सहारे ऊचाइयों पर तान दिया। नगाड़े की लय पर मालती नाचने लगी। मैं टकटकी लगाकर उसे देखने लगा। मकरंद बोला-‘‘उस दिन नर्मदा में स्नान करते हुये तुमने जब से उसे देखा है ,मित्र मैं तुम्हारी द्रष्टि को पहचान रहा हूँ।’’

मैंने उसे डाँटते हुये कहा-‘‘ मेरी द्रष्टि में तुम्हें कौन से भाव दृष्टि गोचर हो रहे हैं?’’

‘‘मित्र, कलाकार की कला से तुम्हे प्रेम होता तो तुम कला प्रदर्शन के समय ही उसके हाव भाव देखते।’’

मैंने उसे संतुष्ट करने के लिये कहा-‘‘मैं उन्हीं हाव- भावों को एक कलाकार के सामान्य जीवन जीने की शैली में भी परखना चाहता हूँ। मैं अपने नाटकों के पात्रों के जीवन में वह सब घटित होते देखना चाहता हूँ कि एक कलाकार सामान्य जनेां से कैसे प्रथक जीवन जीता है। यहाँ यही सीखना मेरा लक्ष्य है। देख नहीं रहे वह रस्सी पर कैसे मस्ती में नृत्य कर रही है। उसके चलने में जो थिरकन है वह मन को बाँध रही है।’’’

‘‘देखना मित्र ,कहीं इस नटनी के जीवन से अपने को न बाँध लेना।’’

‘‘मेरा मन तो उसकी थिरकन से बँध ही गया है। मुझे ऐसे ही पात्र अच्छे लगते हैं जो अपने जीवन को कला के लिये अर्पित कर दें। इच्छा होती है मैं भी अपना जीवन इन्हीं पात्रों के नाम अर्पित करदूँ।’’

‘‘फिर तुम गुरुदेव ज्ञाननिधि के पास क्यों जा रहे हो? तुम तो इसी नट मण्डली के साथ रम जाओ। कहो तो मैं सुम्मेरा से तुम्हारे उसके साथ काम करने की बात करुं?’’

‘‘क्या बात करोगे ,उससे?’’

‘यही, मेरे इस मित्र को अभिनय में स्थान दे दें। लेकिन मालती के साथ रस्सी पर नृत्य कर सकोगे?’’

यह सुनकर मैं भावुक हो गया, बोला-‘‘मेरा मन तो उस रस्सी पर चढ़कर अनेक वार नाच चुका है। किन्तु वास्तविक रुप से उस रस्सी पर चढ़ने का साहस नहीं जुटा पा रहा हूँ। जिस दिन साहस जुटा पाया उस दिन नट मण्डली में सम्मिलित हो जाऊँगा।’’

इस समय सुम्मेरा नट मेले को अपनी ओर मोड़ने के लिये डमरु बजाने लगा था। उसकी पत्नी सुमित्रा ढुलक़िया पर विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ निकाल रही थी। ढुलक़िया की ध्वनि कभी धीमी कर देती और कभी तेज। मालती उसी लय पर उस रस्सी पर टहल रही थी।

उसके इन हाव भावों को देखकर मैं आनन्दित होने लगा। उस समय उसकी देह की सुन्दरता देखते ही बनती थी। अभी उसकी उम्र अधिक नहीं थी किन्तु किशोर अवस्था की लावण्यता लोगों को उसकी ओर खीच रही थी। उसके सीने की उठान वस्त्रों से झाँक रही थी। भीड बढ़ने लगी। सारे दर्शक उसके इस रुप का पान कर रहे थे। मकरंद और कलहंस मेरे पास ही बैठे थे।.

मकरंद मालती की ओर देखते हुये बोला-‘‘देख नहीं रहे, वह हिरणी की तरह फुदकती सी चल रही है।’’

‘‘कलहंस बोला-‘‘कभी-कभी वह हथिनी की तरह मदमस्त चाल में भी चलने लगती है।’’

‘‘मैंने अपने मन की बात कही-‘‘ वह शेरनी की तरह झपट्टा मरते हुये रस्सी पर छलांग लगाती है फिर वह उस रस्सी पर चलने के ऐसे-ऐसे करतव दिखाती है कि देखने वाले दंग रह जाते हैं।

‘‘इसी समय सुम्मेरा नट ने जोर-जोर से डमरु बजाया-डम-डम ड डम ड..... और बोला-‘‘मैं अपनी इस बेटी का विवाह करना चहता हूँ। है कोई कर्ददान जो मेरी इस बेटी से विवाह कर सके।’’ डम डम ड डम डम.........। है किसी में साहस जो मेरी इस बहादुर बेटी का हाथ थाम सके। मैं नगर-नगर गाँव-गाँव घूम-घूम कर इस जैसे वर की तलाश कर रहा हूँ। क्या करुँ कहीं कोई इसके लायक वर ही नहीं मिल रहा है।’’

‘‘डम डम ड डम डम.........। ’’

मैंने मकरंद से कहा-‘‘जा मित्र पहुँच जा मैंदान में और करले उससे व्याह। यह नटनी बड़े काम की है।’’

‘‘काम की है तो तुम्ही उससे व्याह कर लो।’’ उसने मेरे प्रस्ताव को मेरी ओर ही मुखातिव कर दिया।

‘‘मित्र ,मुझे जीवन साथी के रुप में ऐसा ही कोई चाहिये जो.....।’’

कलहंस बोला-‘‘आप लोग कहें तो मैं पहुँच जाऊँ मैंदान में।’’

मुझे स्वीकृति देनी पड़ी-‘हाँ... हाँ... पहुँच जाओ , फिर तो तुम्हें भोजन बनाने वाली मिल जायेगी।’’

‘‘आप लोग उसके हाथ का बना भोजन गृहण कर सकेंगे कि नहीं?’’

मकरंद झट से बोला-‘‘हमारे श्रीकण्ठ जी तो कर लेंगे।’’

यह सुन कर मैंने उत्तर दिया-‘‘वह एक कलाकार है और कलाकार की कोई जाति नहीं होती।’’

मकरंद ने प्रश्न किया-‘‘ जातियों सें तो हमारा सारा समाज बना है।’’

‘‘मित्र, सभी जातियों के कलाकार जब कला प्रदर्शन के लिये निकल पड़ते हैं , उन्हें लोग नट-नटी के नाम से जानने लगते हैं। बैसे इनमें सभी जातियों के लोग होते हैं।’’

मकरंद ने आदेश दिया-‘‘फिर तो कलहंस तुम्हें श्रीकण्ठ की ओर से विवाह करने की अनुमति मिल गई है।’’ यह बात हो ही रही थी कि एक कालाकलूटा लम्बा-तगड़ा व्यक्ति सुम्मेरा के समक्ष जाकर खड़ा होगया और बोला-‘‘मैं आपकी इस लड़की से विवाह करने को तैयार हूँ।’’

उसकी बात सुनकर सुम्मेरा बोला-‘‘अहो भाग्य जो आप जैसा बलिष्ठ युवक ने एक नटनी से विवाह करने का साहस तो किया। किन्तु हमें अपनी लड़की से पूछना पड़ेगा कि वह तुम से विवाह करना चाहेगी कि नहीं?’’

डम डम ड डम डम.........। डमरु बजाते हुये उसने अपनी पुत्री से पूछा-‘‘ बेटी मालती......।’’

‘‘जी पिताजी’’

‘‘ये युवक तुमसे विवाह करना चाहता है।’’

‘‘लेकिन......।’’

‘‘मैं समझ गया । तूँ इसकी चमड़ी के रंग को देखकर भिनक रही है। किन्तु ये दिल का बड़ा अच्छा जान पड़ता है।’’

‘‘होगा दिल का अच्छा, किन्तु मैं इससे विवाह नहीं करना चाहती।’’

‘‘सब के सामने इसका ऐसा अपमान उचित नहीं है। तुम्हारे बूते का ये नटनी का काम नहीं है।’’

‘‘पिताजी, यह काम मेरे बूतेका क्यों नहीं है?’’

‘‘इसलिये नहीं ह , जब तुम इस रस्सी पर नाचती हो तो गिर भी जाती हो।’’

‘‘ पिताजी अब मैं नीचे नहीं गिरुँगी।’’

‘‘अच्छा ऐसा करते हैं, यदि तुम इस रस्सी पर नाचते समय नीचे गिर गई तो इस भीड़ के सामने ही इस युवक से विवाह करना पड़ेगा। बोेल ,तैयार है कि नहीं?’’

‘‘प्रश्न सुनकर वह छम्म-छम्म कर ,पैरों में बाँधे घुघुरुओं का स्वर विखेरते हुये अपने पिताजी के सामने जाकर खड़ी हो गई और बोली-‘‘मुझे आपकी सर्त स्वीकार है। डाल से चूके बन्दर को जो सजा मिलती है वह मुझे भी मिलना चाहिये।’’

यह सुनकर सुम्मेरा ,सीधे उस युवक के सामने पहुँच गया और बोला-‘‘ अरे कद्रदान! अब तो इस नटनी से तुम्हारा विवाह भाग्य पर निर्भर है। यदि यह नृत्य करते हुये रस्सी से नीचे गिर गई तो तुम्हारा इससे विवाह निश्चित है। सभी के सामने यह घोषणा करता हूँ कि यह रस्सी से नीचे गिरी कि इससे तुम्हारा विवाह पक्का। यदि नहीं गिरी तो तुम्हारे भाग्य में इस चतुर चालाक लड़की से विवाह सम्भव नहीं है।’’

वह युवक मुश्करात हुये बोला-‘‘चलो, ठीक है ऐसे ही सही।’’

यह सुनकर सुम्मेरा बोला-‘‘तुमने सर्त स्वीकार करली है तो सभी लोग ताली बजाकर इसका स्वागत करें।’’

जोर-जोर से तालियाँ बजीं। सुम्मेरा पुनः बोला-‘‘ युवक अब तो तुम्हारा विवाह शंकर भगवान ही करायेंगे। अब तो तुम अपने विवाह के लिये भगवान से प्रार्थना करो- ‘‘हे भगवन इस लड़की को रस्सी से नीचे गिरा देना जिससे........।’’’

और मैं भी तुम्हारे विवाह के लिये भगवान से प्रार्थना करुँगा जिससे इस बाप के सिर का बोझ कम हो जाये। अब तो सभी लोग इसी बात पर जोर-जोर से तालियाँ बजाओ

पुनः जोर-जोर से तालियाँ बजीं। उसने जोर-जोर से डमरु बजाया ।

डम डम ड डम डम.........।

उसकी पत्नी ने ढुलकिया तेज गति से बजाई। सभी दर्शक दिल थाम कर खेल देखने लगे। मालती उस रस्सी पर झूम-झूम कर नाची। अनेक वार वह गिरते- गिरते बची। जब-जब वह गिरने से बची , भीड़ ओ...ओ करके चिल्लाने लग़ती। जब खेल समाप्त हुआ। सुम्मेरा मैदान में पहुँच गया। बोला-‘‘मुझे अपनी बेटी का विवाह करना है जो कद्रदान इस लड़की का खेल देख रहे हैं मेरी पत्नी अपनी बेटी के विवाह में दहेज देने के लिये झोली फैलाये आपके सामने आ रही है जिस पर जो टका- पइसा बने उसकी झोली में डाल दें। ’’ यह कह कर सुम्मेरा जोर-जोर से डमरु बजाने लगा।

इस खेल में बातों का एक नया खेल देखकर मैं सोचने लगा- इस नट ने अपने खेल में एक नई कहानी जोड़ कर अपने खेल में रोमांच पैदा करके खेल को रोचक बना दिया। मैं देख रहा था सुम्मेरा की पत्नी भीड़ में झोली फैलाये अपने खेल का मूल्य भीख की तरह माँग रही थी।

उस दिन नट-नटी का खेल देखकर व्यवस्था के बारे में जो भाव मेरे अर्न्तमन में उठे थे उससे सोचा था कि मैंने कहीं कुछ लिखा तो उसमें इन बातों का उल्लेख अवश्य ही करुँगा।

अब तो दादा जी के मुख से सुने मंगलनाथ के दर्शन करने की तीव्र इच्छा हो उठी। शास्त्रों में क्षिप्रा की उत्पत्ति आत्रेय ऋषि की तीन हजार वर्ष के तपस्या के फल स्वरुप बतलाई है। शास्त्रों में ही मंगलनाथ के महत्व को प्रतिपादित किया है।

काशीनाथ कह रहा था कि यहाँ से हम लोग सीधे अवन्तिकापुरी जायेंगे। वह अपने संतरे की खेप को दो हिस्सों में बेचना चाहता है। यह बात तो मेरे हित की ही है। इससे अवन्तिकापुरी का भ्रमण हो सकेगा।

ये बंजारे देश के हित में बहुत महत्वपूर्ण हैं। राष्टीय एकता के निर्माण में ये महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। आज भी सम्पूर्ण आर्यावर्त को एक सूत्र में बाँधे हुये हैं। कहाँ कौन सी नई चीजों का अविष्कार हुआ है? उन्हें देश के दूसरे हिस्सों में पहुँचा कर उनका प्रचार- प्रसार करना इन बंजारों ने सुगम कर दिया है। ये जहाँ भी पहुँचते हैं उस नये उत्पादन का प्रचार शुरुकर देते हैं। इससे नई-नई ,खोजों को बढ़़ावा मिलता रहता है। लग रहा है देश आगे बढ़ रहा है। आर्यावर्त की जड़ें मजबूत हो रहीं हैं। देखना किसी दिन सम्राट अशोक की तरह यह पुनः एक राष्ट्र की तरह विकसित हो सकेगा।

ये बंजारे देश की सम्रद्धि में महत्वपूर्ण अंग हैं। ये बहुत सम्म्पन्न जाति के होते हैं। जब-जब इनके पास अधिक धन इक़ित्रत हो जाता है। उस धन को आगे साथ लेकर चलने में इन्हें परेशानी आने लगती है। उस स्थिति में ये लोग अपने बीजक बनाकर उसे गाड़ देते है। हमारी दृष्टि हर पल इन पर गहराती जा रही थी। काशीनाथ तो सामान्य बंजारा है। इनमें लाखा बंजारे भी होते हैं। जिन पर स्वर्ण की लाख मोहरे होती हैं या जिन पर एक लाख बैल सामान लादने के लिये होते हैं उन्हें ही लाखा बंजारा कहा जाता है। इन बीजकों के आधार पर धन गाड़ने की परम्परा है।

इस हेतु दादा जी के द्वारा सुनाया हुआ एक प्रसंग याद आ रहा है। बात एक बंजारे की है। वह घन को आगे ले जाने में असमर्थ हो गया । उस समय दोपहर के बारह बजे थे। वह एक मन्दिर के पास ठहरा हुआ था। उसने दोपहर के समय मन्दिर की गुम्बज का निशान बना लिया और वहीं रुक कर रात्री में अपना धन गाड़ दिया और मन्दिर की दीवार पर बीजक लगा दिया कि दिन के बारह बजे जो इस मन्दिर की गुम्बज को खोदेगा वही धन को प्राप्त कर लेगा। ऐसे अनेक बीजकों की कथायें मुझे दादा जी ने सुनाई हैं।

काशीनाथ ने अपने तम्बू क्षिप्रा के तट पर मंगलनाथ के निकट लगाने का आदेश दे दिया। कलहंस ने अपना तम्बू लगाकर मेरे वस्त्र निकालते हुये कहा-‘‘आज दिन भर के चले हैं। बहुत थकान है। पहले निवृत होलें ,तब तक भेाजन तैयार हुआ जाता है।’’

मैं मकरंद के साथ स्नान करने चला गया। स्नान करके लौटा तो सामने एक छोटा सा शैव परम्परा का मन्दिर दिख रहा था। जानकारी के लिये मैंने वहाँ उपस्थित एक सन्यासी से पूछा-‘‘ये मन्दिर प्रचीन है?’’

प्रश्न सुनकर वे समझ गये मैंने प्रश्न उन्हीं से किया है। वे बोले-‘‘ ये सूर्य के उत्तर पथ पर मंगलनाथ का स्थल है। यह प्रथ्वी के उत्तर पथ का मध्यविन्दु है।’’हम मन्दिर के अन्दर पहुँच गये। सामनेशिव लिंग देखकर भाव विभोर हो गया। भक्ति भाव से पूजा अर्चना कर तम्बू में लौट आये।

कहते हैं उज्जैयनी पृथ्वी का नाभि स्थल है। कर्क रेखा यहीं से निकलती है। यह कुरुक्षेत्र को स्पर्श करती हुई निकलती है। यहाँ महाकाल को काल यानी समय का देवता कहा गया है। इसी कारण यहाँ के पंचाँग से ही सभी, तिथि और वर्ष की गणना करते हैं। प्राचीन काल से ही यहाँ वेधशाला है। जिससे तारों की गति की गणना की जाती है। इसी गणना के आधार पर बारह वर्ष में सिंहस्थ पड़ता है।

प्रकृति ने मुझे उचित ही भोजपाल से सीधा यहाँ पहँुचा दिया है। मैंने भी काशीनाथ काका से साफ-साफ कह दिया था कि पद्मावती जाने से पहले मैं महाकाल के दर्शन करना चाहता हूँ। उन्होंने अपने संतरों की दो खेपें करके एक को सीधा पद्मावती भेज दिया है। वे जब वहाँ जायेंगे मुझे साथ ले जायेंगे। यों उज्जैयनी में ठहरने का पूरा अवसर मिल गया।

इन दिनों जय-विजय दोनों मेरे पास बने रहते। मालती भी जब, जय- विजय मेरे पास न होते तो वह मेरे पास आ जाती। उस दिन उसने आते ही कहा-‘‘आप मुझे भी पढ़ना- लिखना सिखा दो ना....।’’ उसकी यह बात सुनकर मुझे लगा-ये कलाकार पढ़े -लिखे नहीं होते। फिर भी अपनी कला में कितने माहिर होते हैं! काश! इन्हें पढ़ना -लिखना सिखाया जाये तो कालीदास के अभिज्ञान शकुन्तलम् में भी ये अभिनय कर सकते हैं। कहीं मुझ से कोई नाटक लिखा गया तो मैं उसमें यह प्रयोग करके देखना चाहूँगा।

बात याद आती है जब महावीर चरितम् का मंचन हो चुका था। इसके पात्र जन साधारण से लिये गये । मैंने उन्हें पढ़ाया-लिखाया। उन्हें अभिनय कला में दक्ष किया। ये पात्र विभिन्न जातियों से उनकी क्षमता देखकर चयन किये। ये नट सभी जातियों में मिल जाते हैं। इसीलिये कहा जाता है कि नटों की कोई जाति नहीं होती । मेरे लिये पात्रों का चयन बहुत कठिन कार्य रहा किन्तु मैं इसमें सफल हूँ। मेरी यह बात कुछ तथा कथित ब्राह्मणेंा को अच्छी नहीं लगी । इसीलिये ये लोग मेरा जमकर विरोध करते रहे हैं। मुझे लकीर का फकीर बने रहना अच्छा नहीं लगता। इसी कारण ब्राह्मण वर्ग मेरा विरोधी हो गया है। दूसरा कारण उनके विरोधी होने का यह है कि मैंने परम्परागत पौराणिक आख्यानों के साथ छेड़छाड़ की है। मैं समझ रहा हूँ महाकवि कालीदास का यह ब्राह्मण वर्ग जितना पक्ष लेता है यही वर्ग उतना ही मेरा विरोध कर रहा है। करै, यह उनकी समझ है, जब उन्हें समझ आयेगी तब देखना मेरी यह बातें राष्ट्र हित में सभी को अच्छी लगने लगेंगीं।

अरे! मैं तो अपने बारे में ही भविष्यवाणी करने लगा। काल को सीमा में नहीं बाधा जा सकता।

मैं आप सबसे बातें कर रहा था अवन्तिकापुरी के मन्दिरों की। दूसरे दिन मैं जय, विजय, मकरंद और कलहंस के साथ भ्रमण के लिये निकल पड़ा। सबसे पहले हम संान्दिपनि आश्रम में जा पहुँचे। वहाँ देश भर से आये छात्रों से मिलने का अवसर मिला। सभी के या तो सिर घुटे थे जिनकी चोटी में गाँठ लगी थी अथवा कुछ के सिर पर लम्बे-लम्बे केश सुसज्जित थे। पीले बस्त्रों से सुसज्जित परिधान पहने थे। ऐसा लग रहा था मानों कामदेव का अवतार धर कर धरती पर विचरण के लिये आये हों। उनके गले में जनेऊ शोभायमान था, जो उनके संस्कारित होने का प्रमाण पत्र दे रहा था। यों अवन्तिकापुरी संस्कारों की राजधानी लगी। आश्रम की शोभा, यही रहकर अध्ययन करने के लिये आकर्षित करने लगी किन्तु यहाँ न्यायशास्त्र के अध्ययन की व्यवस्था नहीं थी। फिर मैं घर से पद्मावती नगरी की सोचकर आया था। यहाँ रहकर पूर्व निश्चित लक्ष्य से भटकना नहीं चाहता था। यह सोचते हुये मंगलनाथ के पास अपने डेरे में लौट आया।

दूसरे दिन हम सभी अन्य प्रमुख स्थलों के दर्शन करने निकले। मालती और उसका भाई मेघनाथ हमारे साथ थे। विजय मालती को देखकर अपनी बहन नन्दनी को भी साथ ले आया। हमने नाव से क्षिप्रा नदी पार की और सिद्धवट के दर्शन करने पहुँच गये। निश्चय ही यह वट क्षिप्रा नदी के किनारे साधना का केन्द्र रहा होगा।

इसके बाद हम सब कालभैरव के दर्शन करने पहुँच गये। उसके आसपास के क्षेत्र में तांत्रिको ने साधना के लिये अपनी झोंपड़ियाँ डाल ली थीं। उनमें वे साधना रत थे। मास विक्रय की दुकाने लगीं थी। शराब की गंध चारो ओर फैल रही थी। मन्दिर के आसपास तांत्रिक साधुओं की भीड़भाड़ थी जो अपने-अपने आसनों पर साधना रत थे।

कालभैरव के दर्शन के लिये जाने वाले शराव की बोतलें क्रय करके ले जा रहे थे। पता चला कालभैरव के मुँह से कटोरा लगाने पर वे पी जाते हैं। कटोरा खाली हो जाता है। यह बात जानने के लिये मैंने भी शराब की एक बोतल क्रय की और मित्रों के साथ पहुँच गया कालभैरव के सामने। पुजारी जी ने बोतल में से शराब कटोरी में उड़ेली और कालभैरव के मुँह से लगा दी। कुछ ही क्षण में कटोरी खाली हो गई।

उसी दिन मुझे लगा था। कही कुछ लिखा गया तो इस विषय पर भी लिखने का प्रयास करुँगा। इसी के परिणाम स्वरुप मालती माधवम् कृति में तांत्रिकों के भैरव की कहानी भी कही है। मैंने उसमें तांत्रिकों के गलत दिशा में बढ़ते अस्तित्व का विरोध अपने पात्र माधव से कराया है। माधव पात्र से श्मशान में महामंास विक्रय कराया है। नाटक में दर्शकांे की उत्सुकता बनाये रखने के लिये एवं समाज में फैली ऐसी बातों के विरोध के लिये कभी कुछ लिखा गया तो इस विषय पर कलम अवश्य चलाऊँगा। मेरे मन में यह अवधारणा उसी समय बन गई थी।

इसी सोच में हम गढ़ कालिका के मन्दिर पर पहुँच गये। मकरंद और कलहंस भी सोच में डूबे थे। वहाँ पहुँचते ही कलहंस बोला-‘‘यह मन्दिर तो महाकवि कालीदास की आराध्य देवी का है। सुना है इन्ही की कृपा से आज वे महाकवि कालीदास के नाम से प्रसिद्ध हैं।’’

मकरंद बोला-‘ मित्र ,उज्जैयनी महाकवि कालीदास की कर्मभूमि भी रही है। यही रह कर उन्होंने अपने काव्य का सृजन किया है।’’ उसकी बात सुनकर तो मुझ में स्फूर्ति सी आ गई। सोचने लगा-काश ! महाकवि कालीदास की तरह मैं कुछ कर पाऊँ! हे माँ काली देवी उनकी तरह मेरे पर भी कृपा करें जिससे में अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकूँ। यह कह कर उनके सामने मेरे भी हाथ जुड़ गये। विचार प्रस्फृटित होने लगे-हे माँ काली महाकवि कालीदास की तरह मुझ अकिंचन पर कृपा करें जिससे संस्कृत साहित्य के लिये कुछ कर सकूँ। उसी समय मुझे लगा- माँ कह रही है, तूँ लिखना शुरु तो कर मेरी कृपा तेरे साथ है।

इन बातों को मैंने आत्मसात कर लिया किन्तु पता नहीं कैसे उसी समय मकरंद ने घोषणा करदी-‘‘हमारे मित्र श्रीकण्ठ यहाँ से प्रेरणा लेकर जा रहे हैं। निश्चय ही ये महाकवि कालीदास की तरह कोई नया सृजन अवश्य ही करेंगे।’’

हम गढ ़कालिका के दर्शन करने के पश्चात क्षिप्रा नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़ने लगे। लगभग आधे कोस की दूरी चलने के बाद जा पहुँचे सिला खण्ड़ों से बनी योगियो की गुॅफा पर । वहाँ कुछ योगी योग साधना में रत थे। उन्हें देखकर याद आने लगी-योगी पातंाज्ली की। भगवान कृष्ण योगीराज हैं। बद्रीनाथ धाम में बद्री विशाल योग साधना में लीन हैं। भगवान शंकर तो योगनिष्ठ हैं ही। सृष्टि के प्रारम्भ से जब मानव संस्कृति अस्तित्व में आई है तभी से योग साधना अस्तित्व में है।

निश्चय ही योग में बड़ी शक्ति है। वर्तमान में तो योग साधना बहुत विकसित हो गई है। सुना है ये योगी लोग जल के ऊपर चल सकते हैं। आकाश में विचरण कर सकते हैं। दूसरे के मन की बात जान सकते हैं। ऐसे शक्तिशाली योग को मुझे भी सीखने का प्रयास करना चाहिये। मैंने यह भी सुन रखा है कि पद्मावती नगरी में योग विद्या वहुत विकसित हो चुकी है। निश्चय ही वहाँ पहुँच कर योग सीखने का अवसर अवश्य ही मिलेगा। यह सोचते हुये हम वहाँ से लौट आये थे।

मकरंद बोला-‘‘ इस समय मुझे एक कथा याद आ रही है। आप कहें तो मैं सुनाऊँ।’’

मैंने कहा-‘‘ सुनाइये ना!’’

मकरंद ने वह कथा कहना शुरु करदी- ‘‘मेरे पिताजी अक्सर इस कथा को सुनाते रहते हैं-हमारे कस्वे के रामपूजन के बाबाशिव पूजन सहाय की पड़िण्ताई चरम सीमा पर थी। उनके मुँह से किसी के लिये जो आशीष निकलता वह फलित हो जाता। क्षेत्र भर में उनकी साख योगी के रूप में फैल गई थी।

उनके गाँव भर में अनेक शिष्य थे। एक दिन की बात है़, उनके तीन शिष्यों के यहाँ शादियाँ थीं। सभी यह चाहते थे गुरु जी ही हमारे यहाँ विवाह पढ़ें। सभी जिद पर अड़ गये तो पण्ड़ितशिव पूजन सहाय ने सभी से कह दिया कि ठीक समय पर वे वहाँ पहुँच जायेंगे। इसी भरोसे पर तीनों अपनी-अपनी बारात लेकर चले गये। सभी बारातें विपरीत दिशा में गई थीं। पण्ड़ित जी धर्म संकट में पड़ गये। पण्ड़ित जी ने योग विद्या से पहुँच कर तीनों विवाह सम्पन्न करा दिये। सभी बरातें गाँव लौट आयीं। पण्ड़ित जी उन्हें ही अधिक चाहते हैं यह बात गाँव आते ही एक दूसरे को जताने के लिये सभी फड़फड़ाने लगे। निश्चित समय पर पड़ित जी के उनके यहाँ पहुँचने का दावा करने लगे।

यह बात गाँव भर में फैल गई। उस दिन से पण्डित जी ने अपने को घर में ही कैद कर लिया था। फिर वे किसी के यहाँ न जाते थे। उस दिन से पण्ड़िताई का काम उनके लड़को ने सँभाल लिया था। यह बात गुनते हुये हम अपने डेरों पर लौट आये थे। मित्रों, उसी दिन से मेरा चित्त योग साधना में सरावोर हो गया।

अगले दिन तो काशीनाथ का आदेश पदमावती नगरी के लिये शीघ्र प्रस्थान करने का हो गया।

मित्रो,अगले पाँचवे दिन हम काशीनाथ बंजारे के साथ पदमावती नगरी में पहुँच कर,सिन्ध नदी में दो धाराओं के मध्य बने माझा नामक स्थान पर, जहाँ अक्सर काशीनाथ जाकर ठहरा करतर था वहीं जाकर उसके साथ हम भी ठहर गये थे। 00000000

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED