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हड़ताल

कहानी

हड़ताल

रामगोपाल भावुक

भारत बन्द की घोशणा से वातावरण में गर्मी थी, सरकार और सरकार की पार्टी ने इस आम हड़ताल को विफल बनाने की घोशणा कर दी। दोनों पक्षों के बीच प्रतिश्ठा का प्रश्न खड़ा हो गया। मेरे सामने भी यह प्रश्न कई बार आया और चला गया। मैंने सोचा अब लोग जो करेंगे वैसा हम भी करेंगे।

हड़ताल का समय आ गया। सरकार ने दमननीति से कर्मचारी संगठनों को खरीद लिया, उन्होंने इस हड़ताल में भाग न लेने का फैसला कर डाला। यह सुनकर मन को धक्का लगा। अकेले कुछ किया भी नहीं जा सकता था, यानि कल काम पर जाना ही पड़ेगा। नगर में तनाव की स्थिति हड़ताल के पूर्व संध्या से ही दिखने लगी। हड़ताल विरोधी लोग घर-घर जाकर आम हड़ताल को विफल करने हेतु पर्चे बांट रहे थे।

विरोधी दलों का कार्य गुप्त रूप से चल रहा था। मेरे घर दोनों पक्षों के पर्चे आ गए। सोच-विचार में रात नींद नहीं आई। सुबह ही अपने काम पर जाने के लिए घर से निकल पड़ा। घर से निकलते ही लगने लगा कि मैं यह अच्छा नहीं कर रहा हूं। सारा देश एक है, मैं ही ऐसा स्वार्थी हूं जो काम पर चला जा रहा हूं। मेरे पैर रूक-रूककर आगे बढ़ रहे थे। लोग अपने-अपने झरोखों में से मुझे जाते हुए देखने लगे।

मुझे लगा सभी मुझे कोस रहे हैं, मेरा नाम गद्दारों की लिस्ट में लिख रहे हैं पर मैं था सरकार का सच्चा भक्त, संसद से ग्राम पंचायत तक सिर हिलाऊ, हाथ उठाऊं भक्तों की पंक्ति में आकर खड़ा हो गया था। ठीक समय से दस मिनट पूर्व ही मैं अपने काम पर पहुंच गया था। संगठनों के निर्देश होने पर भी अधिकांश लोग काम पर नहीं आए थे पर मेरी तरह बाल-बच्चों की फिक्र वाले अधिक न थे।

हड़ताल के कारण अपने अनुपस्थित भाइयों का काम भी करना पड़ा। अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक श्रम करने का अवसर मिला। मन बागी था, टाल-मटोल करना जानता था। ऑफिस की बाहर की स्थिति का अंकन झरोखों में से करता रहा। कई बार जुलूस निकला। पुलिस ने लाठियां बरसाईं, धरपकड़ हुई। पुलिस की गाड़ियों में जगह नहीं रही।

जेल भर गईं। पांच बजे का समय हो गया। मैं काम से निवृत होकर घर के लिए निकला। पुलिस अभी भी गश्त कर रही थी। नगर में 144 धारा लगा दी गई थी। मैं भयभीत सा मन-ही-मन पश्चाताप करता हुआ। लड़खड़ाते हुए कदमों से घर पहंुचा। पत्नी रोज दरवाजे पर ही मुस्कराते हुए मिलती थी, वे भी नहीं दिखीं। घर के अन्दर कदम रखते हुए मैंने आवाज दी-‘अजी कहां हो आज दिख नहीं रही हो। अन्दर से कोई नहीं बोला। मुझे शंका हो गई क्या बात है ? मैं अन्दर चौके में पहुंच गया।

चौका बिल्कुल साफ-सुथरा था, इधर-उधर निगाहें दौड़ाईं, वे कहीं नहीं दिखीं। मैं बैडरूम में पहुंच गया। वे तान चद्दर सो रही थीं। मैंने उन्हें झकझोर कर उठाया तो वे बड़े अल्हड़पन से उठीं। झुंझलाते हुए बोली-‘क्या है ? क्यों चिल्ला रहे हो ?‘ मैंने कहा-‘काम पर से आया हूं जरा भूख लगी है।‘

यह सुनकर वे ताने देते हुए बोलीं-‘तो आज के दिन वफादारों को सरकार ही खिला देगी। तुम सरकार के वफादार हो न। औरों के तो बाल-बच्चे हैं नहीं।’

कुछ औरतें यहां आई थीं, अरे एक दिन काम पर न जाते, जो होता देख लेते।‘ पत्नी की यह बात सुनकर मैंने उसे समझाया-‘नौकरी से निकाल दिया जाता यह मालूम है।‘

यह सुनकर वे बात काटते हुए बोली-‘सभी को तो निकालती। अपने क्या हैं दो बच्चे हैं। श्रीवास्तव जी के तो आठ बच्चे हैं। वे हड़ताल पर थे। अब उनके बाल-बच्चे कैसे पलेंगे।‘

मैंने पत्नी से अनुरोध किया-‘अब छोड़ो इन बातों को जोर से भूख लगी है।‘

वे बोलीं-‘लगी होगी। मैं तो आज हड़ताल पर हूं, मैंने खाना नहीं बनाया है, जाकर अपनी सरकार से मेरी शिकायत कर दो और मुझे पकड़वा दो।‘

यह सुनकर मैंने क्रोध को दबाते हुए प्यार से कहा-‘अरे छोड़ा अब इन बातों को।‘

यह सुनकर वे कहने लगीं-‘आज बहुतों के यहां खाना नहीं बना है, जो पकड़े गए हैं बताओ उनके यहां खाना बना होगा।‘ मुझे उत्तर देना पड़ा-‘हां, बना तो नहीं होगा।‘

वे बोलीं-‘तो समझ लो आज अपने यहां भी यही हालत है, आप पकड़े गए हैं, नहीं-नहीं अफसोस है, आप तो सरकार भक्त हैं ना इसलिये।‘

सरकार भक्त, सरकार भक्त कहकर मुझे जो गालियाँ दी जा रही थीं, उन्हें मैं अच्छी तरह समझ रहा था। तमाम तरह से समझाने के बाद भी पत्नी नहीं मानी। वह बार-बार कहती रही-‘तुम्हारे यहां ही नहीं, आज कई घरों में चूल्हे नहीं जले हैं। अधिक नहीं तो कम-से-कम आज अपने घर भी खाना नहीं बनना चाहिए।‘

भूख जोर मार रही थी, मेरे दोनों बच्चे राजू और बबली भूख से व्याकुल थे। तब मुझे आज चौके का काम संभालना पड़ा। खाना बनाकर पत्नी के लिए भी भेजा पर उन्होंने अन्न ग्रहण न किया।

पत्नी की हड़ताल तोड़ने का दूसरा प्रयास भी असफल रहा। अब मन में और अधिक ग्लानि होने लगी। मन-ही-मन पश्चाताप करते हुए पत्नी के पास पहुंच गया। डरते हुए पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। पिछले दिनों की तरह उन्होंने कोई सम्मान का भाव नहीं दिखाया। बोलीं-‘यह हड़ताल कब तक चलेगी। भारत बन्द कार्यक्रम तो एक ही दिन का है।‘

यह सुनकर मैंने उनसे प्रश्न किया-‘अब तो मेरे मन में एक ही बात आ रही है, कहो तो कहूं।‘

वे बोलीं-‘कहो, कहो कहने में नहीं चूकना चाहिए।‘

मैंने कहा-‘मेरे मन में यह आ रहा है कि मैं नौकरी से अपना त्यागपत्र प्रेशित कर दूं और फिर राजनीति में कूद पड़ूं।‘

यह सुनकर उन्होंने उत्तर दिया-‘चलो रहने दीजिए, ये बातें आपके बस की नहीं हैं।‘

पत्नी की यह बात सुनकर त्यागपत्र का मजमून बनाने बैठ गया।

‘हड़ताल में सरकार का सहयोग देने से मन में बेहद आत्मग्लानि हुई। यही सोचकर मैं अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे रहा हूं। नौकरी छोड़ने के कारण में यह बात लिखना चाहता था, यह सुनकर पत्नी उठी और मेरे हाथ से वह कागज खींच लिया।

बोलीं-‘पहले यह तो सोच लो, कल से क्या काम करोगे।‘

मैंने उत्तर दिया-‘सभी लोग जो काम करेंगे, वही मैं करने लगूंगा।‘ य

यह सुनकर वे बोलीं-‘तुममें और उनमें बहुत अन्तर है। बोलो है कि नहीं।‘

मुझे उत्तर देना पड़ा-‘हां, यह तो है।‘

वे सहज बनते हुए बोलीं-‘तो हुजूर उनसे आपकी क्या समानता।‘

मुझे अपना इरादा बतलाना पड़ा-‘वे कुछ भी करें मैं तो सड़क किनारे चाय का होटल खोल लूंगा।‘

वे यह सुनकर बोलीं-‘फिर से पैंट शूट।‘

मैंने आत्मविश्वास के साथ उत्तर दिया-‘सूट पहने मैं पैदा भी नहीं हुआ।‘

यह सुनकर वे बोलीं-‘लेकिन इसका प्रायश्चित नौकरी छोड़ने में नहीं है, करने में है।

कल जब हड़ताल पर रहने वाले कर्मचारियों को सरकार काम पर ना ले तो उनका आपको साथ देना चाहिए।‘

उनकी बात सुनकर मुझे आत्मबोध हो गया। मैंने कह दिया-‘यह तो मेरा कर्तव्य है।‘

यह सुनकर उनका चेहरा खिल गया। दूसरे दिन मैं काम पर पहुंच गया। सभी कर्मचारी काम पर आए थे। सरकार ने कोई एक्शन नहीं लिया। शायद सरकार समस्या को उलझाना नहीं चाहती थी, क्योंकि श्रमिकों से उलझकर ना कोई सरकार प्रगति कर सकी है ना ये सरकार कर पाएगी। यही सोचते हुए काम में लग गया। मध्यान्तर का समय हो गया। सभी लोग कैन्टीन की ओर जाने लगे। चाय पीने मैं भी कैन्टीन में पहुंच गया। मेरे पहुंचते ही मन्टू गुरू बोले-‘आइए वफादार जी।‘ उत्तर में, मैं चुप ही रहा और आगे बढ़ गया।

अगली बैंच पर श्रीवास्तव बैठा था, बोला-‘कहिए आपकी सरकार के क्या हाल हैं ?‘

यह सुनकर मैं पीछे मुड़ गया, एक खाली बैंच पर बैठ गया। बैरा चाय ले आया। तभी सारस्वत आ गया मुझे देखकर बोला-‘यार तुम चमचागिरी अच्छी तरह कर लेते हो, तुमसे भी कुछ सीखना ही पड़ेगा।‘

यह बात सुनकर मैं चुप ही रहा। मैंने चाय के गर्म-गर्म घूंट जल्दी-जल्दी गले के नीचे उतारे और कैन्टीन से बाहर चला आया।

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