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मिश्री धोबी फागों में

कहानी ,

मिश्री धोबी फागों में

राम गोपाल भावुक

लाठी जाके हाथ में , भेंसें बाकी शान ।

आतंक यों बैठा हुआ ,जन-जीवन में आन।।

ऐसी बातें हमारे जेहन में घर कर र्गईं हैं। प्राचीन काल से आज तक इसकी परिभाषा में परिवर्तन नहीं हुआ है। अब लाठी का स्थान पिस्तौल और बमगोलों ने ले लिया है। बेचारी लाठी कोने में टिकी रह गयी है। अब तो बूढे-ठेढ़े लोग ,चलने-फिरने के लिये उसे मजबूरी में हाथ में लेते हैं। तलवार युग के पहले इसकी जो बकत थी ,वह अब खत्म होगई है ,बेचारी का अवमूल्यन होगया है। लेकिन यारो उसका भी एक समय था जब उसके बिना काम नहीं चलता था। उसकी प्रशंसा में कसीदे काढ़े जाते थे।

मैं यही कुछ ऊटपटांग सोचते हुये अपने गाँव के धोबी मोहल्ले की संकरी गली से गुजरा और सामने पड़ गया मिश्री धोबी का मकान,जो कभी गली के बीच बहते गन्दे नाले के कारण खतरनाक बना रहता था। हरेक शख्स उसमें धंसने से बचने मिश्री धोबी के चबूतरे पर चढ़कर चौराहे पर पहुँच पाता। यह दलदल गाँव के पटेल और सरपंच के मकानों के पिछवाड़े से बहता हुआ गली में आता और आम चौराहे पर पंचायत निधि से बने प्रमुख रास्ते के नाले में गिर जाता। धोबी मोहल्ले के लोगों ने इस बात की शिकायत सरपंच से की तो सरपंच ने बात टालने के लिये कह दिया- ‘वहाँ नाली बनाने की जगह ही नहीं है। पहले अपने घरों को पीछे खिसकाओ फिर नाली बन पायेगी।’

इस तरह मिश्री धोबी मेरी स्मृति में घर करके बैठ जाता है। पता नहीं यह कहानी आज तक मुझ से क्यों फिसलती रही?

बात उन दिनों की है जब इस गाँव में खूब होली मचती थी। हर साल के ताजियों में हिन्दू-मुसलमान सभी को करतब दिखाने का अवसर मिलता था । उसके बाद वे होली के अवसर की प्रतीक्षा करने लगते थे। सभी जातियों के लोग दोनों ही अवसरों पर अपने-अपने अस्त्रों के करतब दिखाने में न चूकते। कुस्तीं जमतीं, नाल उठाये जाते, लाठी और तलवार चलाने के करतब भी दिखाये जाते।

इस वर्ष लाठी घुमाने का खेल आकर्षण का केन्द्र बन गया था। इधर मिश्री धोबी तैयारी में था उधर सरपंच जी, दीना महाते से तैयारी करा रहे थे। दीना महाते लम्बे समय से अरमान पाले घूम रहे थे कि लाठी घुमाने में सारे गाँव के सामने अपना परचम लहरा सकें। किन्तु इसमें मिश्री धोबी बाधक बन रहा था।

मिश्री धोबी पिछले कई सालों से इस मामले में अपना अस्तित्व बनाये हुये था। वह गाँव के बड़े-बड़ों की चिन्ता नहीं करता था। गाँव की पंचायत में उसकी पूछ थी। वह सच कहने में चूकता नहीं था। सरपंच का भी वह अनेक वार विरोध कर चुका था। इसीलिये सरपंच उसे नीचा दिखाना चाहते थे। दिन-रात दीना महाते के घर चक्कर लगा रहे थे। दीना महाते भी अभ्यास करने में लगा रहता था। वह सोचता रहता- पिछली साल जब से उस धुब्वट से लाठी धुमाने में हारा हूँ तब से दिन-रात एक करके उससे जीतने के सपने देखता रहता हूँ।

दोनों एक दूसरे से अपने को कम न समझ रहे थे। दोनों ने महीनों से अनवरत लाठी चलाने का अभ्यास किया था। गाँव-मोहल्ले के लोग दोनों से ही दहशत खाने लगे थे।

होली का अवसर आगया तो दोनों और तीव्र वेग से अभ्यास करने लगे। होली के दिन सुबह से ही फाल्गुनी बयार तेज चलने लगी। हुरियारों के दिल होली खेलने के लिये मचलने लगे। दिन के दस बजे तक रंग-गुलाल लेकर लोग हनुमान चौराहे के मन्दिर पर इकत्रित हो गये। गाँव की परिक्रमा देने दानास चल पड़ा। दीना महाते अपने अखाड़े के साथ आगे-आगे चल रहे थे। मिश्री धोबी अपने अखाडे के साथ गायकों की टोली के संग हो गया। नगड़िया बजाने वाले ने नगड़िया से तरह-तरह की ध्वनियाँ निकालना शुरू कर दीं। मिश्री धोबी फाग गाने लगा-

हरि को बारह गज को फेंटा... हरि को बारह गज को फेंटा।

सब सखियन के मन को भातो,

राधा जी के प्राण सुखातो।।

हरि को बारह गज को फेंटा, हरि को.........

,रंग- गुलाल में सराबोर होली का दानास दारुगर मोहल्ले में पीपल के पेड़ की घनी छाया में अन्तिम पड़ाव पर पहुँच गया। पहले कुस्तियाँ जमीं ,फिर नाल उठे। हँसी-खुशी से पाले बदलते गये। कार्यक्रम के अन्त में लाठी का खेल देखने के लिये सभी उत्सुक हो गये। कुछ ही क्षणेंा में दोनों बबर शेर आमने-सामने थे।

दोनों की लाठियाँ एक दूसरे पर बरसने लगीं। दोनों एक दूसरे के वार बचा जाते थे। दोनों की घमासान लाठियाँ चल रहीं थी। इस समय मुझे याद हो आया एक पौराणिक प्रसंग। एकलव्य और बलराम जी के मध्य ऐसा ही घमासान गदा युद्ध हुआ था। दोनों वीर दो दिन तक अनवरत रूप से लड़ते रहे। कोई हार मानने वाला न दिख रहा था। बद्रिका आश्रम से श्रीकृष्ण जी ने लौटकर उस युद्ध को शान्त कराया था। किन्तु यहाँ कोई श्रीकृष्ण नहीं है जो इनके युद्ध को रोक सके।

दर्शक समझ गये, होली के खेल में विध्न पैदा होने वाला है। वे अपनी होली को खराब नहीं करना चाहते थे। इसी बीच मिश्री धोबी की एक लाठी दीनामहाते के बाजू में जा लगी। इस पर लाठी चलाते में दीना महाते मिश्री को माँ-बहन की गालियाँ देने लगा।

हारजीत का फैसला देख सभी तालियाँ बजाने लगे। इस पर महाते का चेहरा तमतमा गया। गुस्से में वह गाँव वालों को भी माँ-बहन की गालियाँ बकने लगा।

मिश्री बोला-‘‘ महाते गालियाँ मत दो। इज्जत सभी के होती है।’’

दोनों में लडाई बढ़ते देख लोगों ने आगे बढ़कर खेल रोक दिया। खेल तो रुक गया किन्तु दीना महाते की ओर से वाकयुद्ध चलता रहा। दीना महाते आपे से बाहर हो चुके थे। अनाप-सनाप जाने क्या- क्या बके जा रहा था! किन्तु मिश्री ने संतुलन नहीं खेाया था!

खेल के मैदान में दो दल बन गये। एक ब्राह्मण, बनियों और ठाकुरों का दल तथा दूसरा गाँव की पिछड़ी जातियों का दल। पहले वाले दल का कहना था कि मिश्री ने जान बूझकर उनके लाठी मारी है। दूसरे दल का कहना था कि महाते खेल की चाल चूक गये। खेल में ऊँच-नीच नहीं होता। अपनी ब्राह्मण जाति की इतनी ही चौधराहट थी तो खेल में उतरना ही नहीं चाहिये था। यदि हमारे मिश्री कक्का की लाठी लग गयी तो बुरा मानने की बात नहीं थी।

प0दीना महाते के आदमियों का कहना था कि धोबीवाला चाहता तो उन्हें बचा भी सकता था। उसने जानबूझकर लाठी मारी है।

जब-जब खेल में मान-सम्मान का प्रश्न खड़ा हो जाता है तब-तब मर्यादायें सिर धुनने लगती हैं। खेल भावना आहत होती है। समाज का संतुलन बिगड़ जाता है। बातों-बातों में दोनों एक बार फिर लड़ पड़े होते। लोगों ने आगे बढ़कर बीच-बचाव कर दिया। मिश्री धोबी ने धोषणा कर दी-‘‘ जिसे बार करना हो पीछे से न करे। सामने आकर करे। मारना ही है तो वीरों की तरह ललकारकर मारो। मैं उसका हृदय से स्वागत करुँगा।’

होली का वातावरण इतना दूषित हो गया कि धीरे-धीरे सभी अपने-अपने घर चले गये। जब लोग दीना महाते को लेकर चले गये तो मिश्री धोबी भी अपने घर चला गया।

घर-घर में यह चर्चा का विषय बन गया। दलित वर्ग पता नहीं कितने युगों बाद आज स्वाभिमान की साँस ले रहा था। दूसरी ओर वे वर्दास्त नहीं कर पा रहे थे कि दवे-कुचले लोग सिर चढ़ें । अब तो यह लगने लगा कि योजना बनाकर कभी भी मिश्री धोबी की हत्या की जा सकती है।

मिश्री सोच रहा था कि कोई उस पर बार करे तो सामने आकर करे । कहीं किसी ने धोके से बार कर दिया तो वह क्या कर पायेगा?

दूसरे दिन से जब भी मिश्री घर से निकलता तो चौकन्ना होकर निकलता। वह सोचने लगा-ऐसे इस गाँव में कैसे जिया जा सकता है ?फिर जायें तो कहाँ जायें ?

उसकी पत्नी सुक्लो उसे बार-बार समझाने लगी-‘‘जल में रहकर मगर से बैर नहीं लिया जा सकता है। अरे ! जाके गाँव में रहनों परै बाकी हाँजू करनों ही परैगी।’’

पत्नी की बातें सुनकर वह समझ गया- यह गाँव छोड़ने में ही भलाई है। यह सोचकर पत्नी सुक्लो से बोला-‘‘यहाँ के पास का गाँव चिटौली भी तो अपनी पट्टी का ही है। गूर्जर ़ठाकुरों के कपड़े धोने वहाँ जाना ही पड़ता है। इन लोगों से बचाव तो उसी गाँव में जाकर हो सकता है। वहाँ इनकी पहुँच नहीं हो सकती। वे यहाँ की स्थिति से परिचित है ही। उन्होंने अपने गाँव में बसने के लिये बुलावा भी भेज रखा है।

पति-पत्नी के मध्य हुई यह बात क्षेत्र भर में फैल गई। मिश्री धोबी एक नजीर बन गया। लोग उससे मिलने की इच्छा रखने लगे। आसपास के गाँवों के लोग उसे देखने-मिलने आने लगे। ऐसे में हालचाल लेने के बहाने उसके मनकी जानने उसके गाँव का भी कोई आदमी आ जाता तो वह उससे भी बड़ी आत्मीयता से मिलता। बिना गिला-शिकवा उसका पूरा सम्मान करता।

एक दिन वह पत्नी से बोला-‘‘ सुक्लो रानी ,समझ नहीं आता कि क्या मैं चीलरन कै मारे कथूला ही छोड़ दऊँ।’’

सुक्लो बोली-‘‘ यदि पूरो कथूला ही खराब होजाये तो बाय फेंकनोंई परैगो कै नहीं। बोलो.....?’’

वह बोला-‘‘ तेरी बातों से मैं कभहूँ नहीं जीत पाओ। चलो बाँधो अपनों सामान, कल ही चलतैयें चिटौली गाँव ।’’

........और दूसरे दिन गधे पर सामान लाद कर दोनों चिटौली गाँव पहुँच गये। सारे गाँव ने उनका खूब स्वागत किया। उसके लिये मडैया बनाने में गाँव के सभी लोग लग गये। दो-तीन दिन में तो उसकी मडैया मुलुआ प्रजापति के बगल में बन कर तैयार भी हो गई। वह उस में रहने लगा। वह समझ गया यहाँ के लोग उसकी कला के पारखी हैं। आदमी की कद्र करना जानते हैं।

उसे यह गाँव पैत्रिक सम्पति के रूप में प्राप्त हुआ है। इसकी सेवा करना उसका धर्म है।

कुछ ही दिनों में चिटौली गाँव में अखाड़ा सज गया। उस गाँव के लड़के मिश्री धोबी के चेले बन गये और उससे उसकी कलायें सीखने लगे। यह खबर वेतार के तार की तरह सालवई गाँव में पहुँच गई। लोग समझ गये धोबीवाला उस गाँव में जाकर द्रोणाचार्य बन बैठा है। वह बदला लेने के लिये अपने चेले तैयार कर रहा है। वहाँ के लोगों को हमारे विरुद्ध भड़का रहा है।

ऐसी बातें उस गाँव में चर्चा का विषय बन गयीं।

गाँव के बड़े-बड़ों ने मिलकर हनुमान जी के मन्दिर पर इसी समस्या को लेकर बैठक की। कुछ का कहना था- ‘उससे डरने की जरूरत नहीं है । हमारे हाथ पीछे तो लगे नहीं है , हम भी दीना महाते के निर्देशन में पूरी तैयारी करलें। जब मोका आये तो दो-दो हाथ हो ही जायें। ’

पर इन बातों से कुछ लोगों को अपने गाँव का भविष्य ही खतरे में दिखाई देने लगा। तय किया गया कि किसी भी स्थिति में मिश्री को इस गाँव में वापस लाया जाये।

अगले दिन ही सरपंच ने उसे बुलाना भेज दिया-‘धोबी कक्का अपने गाँव में लौट आयंे।’

मिश्री का वहाँ मन लग गया था। वह वापस लौटने को टालने लगा। एक दिन सालवई गाँव के लोग दीना महाते को लेकर वहाँ जा पहुँचे । उन्हें आया हुआ देखकर वहाँ लोग इकत्रित हो गये।

मुलुआ प्रजापति के द्वार पर चारपाइयाँ डाल दी गयीं। सभी लोग बैठ गये। सरपंच ने प्रस्ताव रखा-‘ मिश्री कक्का हम सब तुम्हें लैवे आये हैं। चलो ।’

पटेल ने बात का समर्थन किया-‘अब वहाँ तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा। मैं इसकी जुम्मेदारी लेता हूँ।’

दीना महाते ने कहा-‘ तुम्हारे बिना गाँव में सूनों-सूनों लगतो। सब गाँव मोय टोकें-टोकें खातो। चल भज्जा वहीं चल, सारा गाँव तो तेरे साथ है। अब तोसे कोऊ कछू कहे तब कहिये।’

पंचायत में चिटौली के पांच पंचों को भी बुलाया गया था। सालवई के लोगों की बात सुन ठाकुर तेजसिंह ने कहा-‘इसका जाना न जाना मिश्री की इच्छा पर निर्भर है। हम इन्हें रोकते नहीं। पर वहाँ इस बार इनका अपमान हुआ तो हम यह सहन नहीं करेंगे।’

चिटौली गाँव के लेागों का प्यार देख मिश्री का मन भर आया। पर सालवई के लोगों का मोह उसे खीच रहा था। आखिर उनकी बात मिश्री टाल नहीं पाया और फिर सालवई लौट आया तथा अपने घर को साफसूफ कर उसमें रहने लगा। तव चिटौली की देखा-देखी इस गाँव में भी अखाड़ा सज गया और इस गाँव के लड़के भी उससे लाठी चलाने की कला सीखने आने लगे।

किन्तु आज इतने समय बाद भी उसके घर के सामने नाला बदस्तूर बह रहा था।

एक दिन मिश्री ने अपने सागिर्दों को बुलाया और कहा-‘ मैं ये बाहर बहते नाले को बन्द करने जा रहा हँू । तुम लोग चाहें तो साथ चलो।’

यह कह कर उसने फंावड़ा उठाया और वहाँ जा पहुँचे ,जहाँ से नाला इस गली में मुड़ता था। उसके सभी साथी उसके पीछे आगये थे। मिश्री ने नाले के मुहाने को बन्द कर दिया।

खबर मिलते ही सरपंच और पटेल अपनी-अपनी बन्दूकें लेकर वहाँ आ गये।

मिश्री डरा नहीं। लाठी लेकर खड़ा रह गया। सरपंच स्थिति को समझकर बोला-‘मैं समझ गया अब ये नाला बनवाना ही पड़ेगा। मिश्री कक्का आप चिन्ता नहीं करैं, कल से ये नाला बनवाना शुरू कर दूँगा। आज पानी खोल दें।’

मिश्री बोला-‘कल से नहीं , चार दिन का समय और देता हूँ नाला बनवा दें। ’ यह कह कर उसने नाला खोल दिया और अपने सागिर्दों को लेकर घर लौट आया।

इस बात को अर्द्धसदी व्यतीत होने को है, नाला बन कर कबका पट चुका है औरउस पर पक्की गली की बन चुकी है। पर आज भी लोग होली उस दिन की लठियायी को अपनी फागों में गाते नहीं फकते।

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