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रामचरितमानस-रत्नावली का मानस

4 रत्नावली का मानस

रामगोपाल भावुक

अस्थि चर्म मय देह मम, तामे ऐसी प्रीति।

जो होती श्रीराम में, होत न तो भवभीति।।

कर गह लाये नाथ तुम, बाजन वहु बजवाय।

पदहु न परसाए तजत, रत्नावलि हि जगाय।।

कटि की छीनी कनक सी, रहत सखिन संग सोय।

और कटे को डर नहिं, अन्त कटे डर हाय ।।

गोस्वामी तुलसी दास’की धर्मपत्नी रत्नावली के दोहों से हमने उनके जीवन में झँकने का प्रयास किया हैे। इन्हें पढ़कर रत्नावली के बारे में कथ्य प्रस्फुटित होने लगता हैं।

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रत्नावली के पिताजी का नाम दीनबन्धु पाठक था। उनके कोई लड़का न था। इनके भाई बिन्देश्वर का देहान्त हो चुका था। उनके लड़के का नाम गंगेश्वर, उसकी पत्नी का नाम शांती था। घर में गंगेश्वर की माँॅं केशरबाई सबसे वयोवृद्ध थीं। वे रत्ना की काकी थीं। .......और राजापुर में हरको उनकी सेवा टहल करती रहती थी।

उस रात के बाद जब पाठक जी घर के अन्दर पहॅंँचे तो उन्होंने तलाश की। घर की कोई चीज गायब भी न हुई थी। वे इसी टोह में रत्ना के कक्ष की तरफ बढ़े। रत्ना दरवाजे पर ही खडी थी। काकी भी उनके पीछे आ गई। उसने प्रश्न किया-‘बिटिया गॉँंव में आज बड़ा खरखसा था। तू अपने कपड़े लत्ते तो देख ले। कहीं कोई चोर उचक्का कुछ उठा तो नहीं ले गया।’

रत्नावली के शरीर में यह सुनने के बाद भी कोई हलचल नहीं हुई तो काकी को सन्देह हुआ, बोली-‘तू चुप क्यों है। तेरा चेहरा उतरा हुआ है। बोल क्या बात है ?’

उसके मुंह से शब्द निकले-‘वे आये थे........ चले गये।’

काकी ने बात को साफ करना चाहा-‘वो कौन तुलसी ? अरे ! तुमने उसे रोका क्यों नहीं ? तो क्या वह रात में चोरी- छिपे आया था ! ऐसा आदमी भी हमने कभी नहीं देखा, और तो किसी का शादी- ब्याह होता नही, दो चार दिन के लिये लड़कियों को दुनियॉँ बुलाती है। ये हैं कि इस तरह.........।’

बात काटते हुए दीनबन्धु पाठक बोले-‘वह आया था उसे रोकना चाहिये था। नरम पौधा है।’

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रत्नावली के पिताजी कबीर की बातों के विरोधी थे। इस बात को लेकर पिता-पुत्री में तर्क-वितर्क हो जाता था। रत्नावली का कहना है, कबीर भी तो घर गृहस्थी बसाकर बैरागी थे। उसे ऐसा ही वैराग्य भाता है। बाकी और बातें उसे ढोंग लगती हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी के एक ही पुत्र था तारापति । पति के बैरागी बनने के बाद रत्नावली ने अपना जीवन उसी के सहारे व्यतीत करना शुरु कर दिया। किन्तु कुछ ही दिनों में गाँव में महामारी फैल गई। तारापति बीमार पड़ गया। उसे बड़ी माता ने आ घेरा। उसी में वह चल बसा। यों रत्नावली का वह सहारा भी राम का प्यारा हो गया।

एक दिन गोस्वामी जी के शिष्य रामा भैया ने आकर बतलाया-‘आज अयोध्या से आने वाले और अयोध्या की ओर प्रस्थान करने वाले दोनों ओर के साधु अपने हनुमान जी के मंदिर पर ठहरे हुये है। कोई सूचना भेजनी हो तो भेज सकते हैं। यह सुनकर रत्नावली आनन्द के सागर में गोते लगाते हुए बोली-‘भैया मैंने एक दोहा लिखकर रखा है, आप और हरको दोनों अनुमति दें तो उसे ही उनके पास संदेश के रूप में भेज देती हॅूंँ।‘

हरको और रामा भेैया संयुक्त स्वर में बोले-‘हॉंँ-हाँॅं भेज ही देना चाहिये।‘

रत्नावली ने एक कागज का टुकडा एक हस्तलिखित पुस्तक में से निकाल कर उन दोनों की ओर बढ़ाते हुए कहा-‘आप इसे पढ़कर देख लें।‘

कागज का पर्चा रामा भैया ने हाथ में ले लिया और उसे खोलकर जोर-जोर से पढा-


‘‘कटि की छीनी कनक सी, रहति सखिन्ह संग सोय।

और कटे को डर नहीं, अंत कटे डर होय।’’

रत्नावली की सहेली हरको समझ गई यह दोहा मैंने जो श्वेत बालों का संकेत दिया था, उसी का परिणाम है। यही सोचकर बोली-‘वाह-वाह! भौजी अपने इस एक दोहे में क्या नहीं लिख दिया। युवा अवस्था में पतली कमर वाली सुन्दरी अपनी सखियों के साथ रहकर समय व्यतीत कर लेती है। भौजी ,आपको गुरूजी के चले जाने के बाद कोई चिन्ता, भय अथवा पीड़ा नहीं रही है। किन्तु अब जीवन वृद्धावस्था में केैसे कटेगा मात्र यही डर सता रहा है।‘


रामा भैया बोले-‘गुरूजी को आपके इस प्रश्न का उत्तर देना ही पड़े़गा। आज ही इसे उन साधुओं के साथ अयोध्या रवाना करता हॅूंँ। अच्छा चलता हॅूंँ।़़’’

रामा भैया पत्र लेकर चले गये। उस दिन से रत्नावली का चित्त पत्र के साथ रहने लगा- इस पत्र का क्या प्रभाव पड़ेगा उनके चित्त पर? वे इसका क्या उत्तर दे सकते हैं ? मैं उन्हें अच्छी तरह जानती हँॅंू। वे विद्वान है कोई न कोई ऐसा हल निकालकर लिख भेजेंगे और मुझे उनके उत्तर से सहज में ही संतुष्ट हो जाना पड़े़गा।

इसी उधेड़बुन में लम्बा समय गुजर गया। आज अचानक एक साधुओं का झुण्ड दरवाजे पर आ गया। उनमें से एक साधु ने प्रश्न किया-‘आप रत्ना मैया हैं ना ?‘

अपना नाम सुनकर रत्नावली के मन में शंका उत्पन्न हो गई-‘हॉंँ कहिये मैं ही हॅूँ।‘

उत्तर सुनकर दूसरे साधु ने अपनी झोली में से एक कागज का छोटा सा पर्चा निकाला और रत्ना मैया की ओर बढ़ाते हुए कहा-‘हम अयोध्या से आ रहे हैं गोस्वामी तुलसीदास जी ने आपके लिये पत्र भेजा है।‘

यह सुनकर रत्नावली परमानंद के परमपद सा आनन्द प्राप्त करते हुए बोली-‘अरे मुझ पर इतनी कृपा!‘ पत्र हाथ में ले लिया। उसे उसी क्षण अति उत्सुकता मंे उसे खोला। उसमें भी एक दोहा लिखा था-


कटे एक रघुनाथ संग, बांँध जटा सिर केस।

हम तो चाखे प्रेम रस, पत्नी के उपदेश।।


पाती पढ़कर हृदय से चिपका ली। इतने लंबे समय बाद उन्हें मेरा स्मरण तो हुआ! यही सोचकर बोलीं-‘मुझे उत्तर मिल गया है। रघुनाथ श्री राम के साथ अपना शेष जीवन व्यतीत करने के लिये मुझे आदेशित किया है।‘

हम नारियों के हिस्से में तो सुपथ की कामना ही रही है। उनका जो लक्ष्य प्रताड़ना से बना है, कहीं वह प्यार की भावना से बना होता तो, यही सोचकर वह गुनगुनाने लगी-


बन गया है लक्ष्य जो प्रताड़ना से।

नहीं बन सके थे प्यार की भावना से।।

मैं जी रहीं हॅूंँ प्यार के पद गुनगुनाकर,

मुड़ गये हैं पथ तुम्हारे वासना से।। नहीं......


जी उठती हैं यौवन की घडियॉँं

तुम्हारे प्यार की संकल्पना से।। नहीं........


आँॅंसुओं से सींचती हॅंँूं पथ तुम्हारे,

पल्लवित हो सकेंगे वे अर्चना से।। नहीं........


भावुक सी बन गई थी मैं तो

लोक सौन्दर्य की परिकल्पना से।। नहीं........

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बसंत पंचमी का पर्व आ गया था। रत्नावली ने इस पर्व को अपने शिष्यों के साथ मनाने का निश्चय किया। शिष्यगण अपनी-अपनी चटाईयों पर बैठ गये। इसी समय अन्दर से निकल कर रत्नावली पौर मंे आ गई। उनके समक्ष काठ की पट्टियॉँ थीं। बररू रखी थी। खड़िया के घोल की दवात थी। वे शान्त मुद्रा में बैठे थे। इस कार्यक्रम को देखने गॉँव के कुछ लोग भी आ गये। इसी अवसर पर उन्होंने बोलना शुरू किया-‘उपस्थित सज्जनों और प्यारे शिष्यांे, आज इस अवसर पर मन आपसे कुछ कहने को हो रहा है। मैंने जो कदम उठाया है, लग रहा है आप सबने उसका स्वागत किया है। मैंने समाज को जो कुछ अर्पण करने का विचार किया है, उसे गृहीता तक पहुॅँचाने में आप मदद कर रहे हैं। हमारे देश में चार वेद, अठारह पुराण, एक सौ आठ उपनिषद तथा वाल्मिीकि रामायण जैसे ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं। मैं इन बालकों को हिन्दी भाषा सिखाना चाहती हूॅँ। किसी विषय के ज्ञान की शुरूआत तो है अन्त नहीं।

एक निवेदन यह है कि यहॉँ छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सभी के बच्चों को एक साथ बैठकर पढ़ना-लिखना पड़े़गा। पुराने समय में आश्रम प्रणाली थी। उसमें कृष्ण और सुदामा साथ-साथ अध्ययन करते थे। उज्जैन तो आज तक शिक्षा का केन्द्र बना हुआ है और बना रहेगा।

इस अवसर पर मैं इतिहास की गलती को दोहराना नहीं चाहती। आप लोगों को ज्ञात होगा, कौरव-पाण्डवों के गुरू कौन थे ?’

उत्तर मिलेगा-‘द्रोणाचार्य।’

‘हॉं! गुरूदेव ने एकलव्य को राजकुमारों के साथ शिक्षा देने से इन्कार कर दिया था। गुरु को इस तरह का भेदभाव करना शोभा नहीं देता। एकलव्य में निष्ठा थी। अभ्यास था। वह अर्जुन से अच्छा धनुर्धर भी था। उसने शब्द भेदी वाणांे से पाण्डवों के कुत्ते का मुॅँह बन्द कर दिया। अर्जुन से यह सहन नहीं हुआ। गुरु जी को बाचा में लेकर एकलव्य का अॅंगुष्ठ दान करा लिया। जानते हैं, बाद में क्या हुआ ? भील जाति ने एक सभा की और उसने अपने राजकुमार की पीड़ा को अपने अॅंगुष्ठ का प्रयोग न करने की प्रतिज्ञा लेकर उस पीड़ा को आत्मसात कर लिया। आपको ज्ञात होगा, आज भी भील लोग धनुष वाण का उपयोग करने में अगुष्ठ का उपयोग नहीं करते। वे इस प्रतिज्ञा के माध्यम से युगों-युगों तक, अत्याचार की इस कहानी का जनजीवन को बोध कराते रहेंगे।

आप समझ गये हांेगे मैं क्या कहना चाहती हँॅू ? मैं नहीं चाहती कि प्रतिभा मेरे कारण केाई नई गाँॅठ बाँॅधे। गुरु में एक दृष्टि होना चाहिए। युग बदल रहा है। मॉँ अपने पुत्रों को समान रूप से स्नेह करती है। चाहे वह पण्डित हो। चाहेे वीर हो। चाहे व्यापारी हो। चाहे सेवक हो।

इस भेदभाव के कारण आज देश विदेशियों से आक्रान्त है। इस ओर सोचने की जरूरत आ पड़ी है। शास्त्री जी होते तो मुझे यों आपके सामने खुल कर न आना पड़ता। वे अपने लक्ष्य की ओर चले गये हैं। मैं अपना लक्ष्य तलाश रही हॅूँँ।यह परिर्वतन युग की पुकार है।

मेरी तो यही पूजा है। यही लक्ष्य है। जय-जय सीताराम।’

उपस्थित जन मानस के मुँॅह से निकला-‘जय-जय सीताराम।’ और उसके बाद चुपचाप वे अपने-अपने घर चले गये।

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गोस्वामी जी की कृपा से रत्नावली को मानस की प्रति प्राप्त हो गई थी। उसी दिन से वे दिन-रात मानस की सेवा में लग गईं।

रात खा पीकर जब रत्नावली बिस्तर पर लेटीं, उन्होंने जोर से यह चौपाई दोहराई-‘रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी।

तुलसीदास हित हिय हुलसी सी।।’


लम्बे अन्तराल के बाद आज सासुजी का नाम जुबान पर आया था। हुलसी के नाम की सुमिरणी चल पड़ी। कैसी होंगी वह ? कैसे तुलसी से पुत्र का त्याग कर पाई होंगी ? श्वसुर का नाम याद हो आया, पं. आत्माराम दुबे। दोनों पुत्र के त्याग के दुःख से दुःखी होकर चल बसे थे। आज के इस सुख का उन्हें उस समय अन्दाजा भी न हुआ होगा।

मानस का पाठ करना प्रतिदिन का नियम बन गया। जो प्रसंग पढतीं, उसमें से एकाध बात जो ध्यान में बनी रहती, सोने से पहले उसे पकड लेती और उसी बात को सोचते-सोचते सो जातींः


‘सती हृदय अनुमान किय, सब जानेऊ सर्वग्य।

कीन्ह कपट मैं संभु सन, नारि सहज जड़ अग्य।।


सती ने शंकर जी से कपट किया। वे सब जान गये। उन्हांेंने सती माता को क्षमा नहीं किया था। लेकिन स्वामी आपने तो मेरे इतने बडे़ अपराध को क्षमा कर दिया। नहीं, इतनी कृपा सहज में ही सम्भव नहीं थी। मैं भी कैसी हॅंूँ ? जो जाने किन-किन प्रसंगों में अपने आपको ढँॅूंढने का प्रयास कर रही हॅंूँ।

उमडती हुई सरिता को पार करने की शक्ति, प्रेम के अंधत्व में ही सम्भव है। नारद मोह में नारद जी की जिन मनोभावनाओं का चित्रण किया है वह मुझे और कुछ नहीं, उनकी उस दिन की व्यवस्था कथा ही लगती है।

मैं भी कैसी हॅूंँ ? जो जाने कैसी-कैसी उल्टी-सीधी बातें सोचने में लग जाती हॅूंँ।

जब-जब मानस का पाठ समाप्त करके रत्ना मैया आराम करने लेटतीं। मानस के प्रसंगों में पति के जीवन की घटनाओं से तुलना करने लगतीं। रत्नावली मन की बात हरको से छिपाती नहीं थी जो मन में होता कह देतीं। एक दिन हरको से बोली-‘मातेश्वरी हुलसी के द्वारा इनका परित्याग और कैकेयी के द्वारा राम का बनोवास, इन प्रसंगों में तुम्हें समानता नहीं लगती।‘

हरको ने सोचते हुए उत्तर दिया-‘आप ठीक कह रही हैं। माँॅं अनुसुइया के प्रसंगों में तो लगा- गुरूजी ने यह प्रसंग तो बस आपके लिये ही लिखा है।‘

प्रसंग को मन ही मन गुनते हुये वे बोलीं, ‘पाठ करते समय मुझे भी यही लगा है। अब मानस के इस प्रसंग को एक बार और पढ़कर देखती हॅंूँ-

‘अनुसुइया के पद गहि सीता।

मिली बहोरि सुसील बिनीता।।

रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई।

आसिष देय निकट बैठाई।।

और उसी प्रसंग में.....

धीरजु धरम मित्र अरू नारी।

आपदकाल परखिअहिं चारी।।

वृद्ध रोगबस जड़ धनहीना।

अंध बधिर क्रोधी अति दीना।।

ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना।

नारि पाव जमपुर दुख नाना।।

अनुसुइया जैसी तपस्वनी से सीता जैसी स़्त्री को सतीत्व का उपदेश दिलाना,मुझे तो लगता है वह उपदेश उस माध्यम से आपने मुझे दिया है। यह सब उस दिन के आक्रेाश का ही परिणाम है।

रत्नावली अपने आपको मानस में खोजने लगी रही। वे समझ गई इतना बड़ा शब्द कोष ,उसमें भी ‘‘रत्नावली’’ शब्द का अभाव। यही अभाव मुझे मेरे अस्तित्व का बोध करा रहा है। 00000

वृद्धावस्था आने पर ज्ञानी लोग महसूस करने लगते हैं कि वे मृत्यु के निकट पहँॅुंच रहे हैं। इससे वे दुःखी नही होते। आखिर जर्जर शरीर से मुक्ति का अंतिम उपाय मृत्यु ही है। इस चिर सत्य को जानकर वे खिन्न नहीं होते बल्कि इससे उनका उत्साहवर्धन ही होता है।


कुछ और समय गुजर गया। बरसात का मौसम आ गया। कस्बे भर में खबर फैल गई कि रत्ना मैया गड़बड़ा रही हैं। कस्बे के सभी स्त्री-पुरूष उनके दर्शन के लिए आने लगे। बुखार काफी तेज चढ़ा था। बेहोशी में वे बड़बड़ा रही थीं-‘हे-राम जी...अब तो उन्हें बुला लो। ’’

इसी समय चेतना सी हो आई। ऑंँखें खुलीं। पूरा का पूरा कक्ष लोगों से भरा हुआ था। खुली हुईं आँॅंखें देखकर कुछ उनके सामने ही बोले-‘अरे! यों ही अभी मैया को कुछ नहीं होना, बिल्कुल ठीक हैं। वे समझ गईं, लोग उन्हें साँॅंत्वना देने के लिए ऐसा कह रहे हैं। क्या मैं मृत्यु से डरती हँॅूं ? वह चिर निद्रा है। चिर सत्य, जगत की मर्यादाओं की मूल। मृत्यु का आनन्द कोई लेकर तो देखे। जाने क्यों लोग मृत्यु से डरते हैं।‘ उन्हें फिर अर्धचेतना ने आ घेरा।

‘आपने जिस कर्तव्य-बोध की ओर पहले मिलन में प्रेरित किया था, उस दिन मैंने उसी का निर्वाह करना चाहा तो आप बुरा मान गये। कर्तव्य-बोध कराने की यह सजा मिली कि मैं मर रही हॅूंँ, आप पास भी नहीं हैं।‘ यह बात आते ही वह फिर चेतना में आ गईं। इसी समय उन्हें सुन पड़ा-‘बाबा आ गये। बाबा आ गये।‘

उनकी ऑंँखें उन्हें देखने मटकने लगीं। लगने लगा- अब प्राण निकल जायें। उन्होंने जो वायदा किया था। उसे पूरा कर दिया, तभी उन्हें लगा कि कोई उनसे सटकर बैठ गया है। उस चिरपरिचित स्पर्श को वे तुरंत पहचान गईं। आँॅंखें खुलीं। स्वामी आँॅंखों के सामने थे। यह देखकर प्रेमाश्रु बहने लगे। कमरे में शान्ति छा गई थी। सभी पौर से बाहर निकल आये। गोस्वामी जी ने उनके मस्तक पर हाथ फेरा और बोले-

‘रत्ने! सीताराम कहो सीताराम......।‘

रत्नावली के मँह से निकला-‘सी......ता.......रा.......म।‘

और धड़कन बन्द हो गई। आँॅंखें खुली रह गईं। बडी देर तक तुलसीदास जी पत्नी के पास बैठे रहे। कुछ सोचते रहे। उन्होंने उसके चेहरे से उन ऑंँसुओं को पोंछा। उन्हें लगा-‘उसके दुःखों को पोंछ रहे हैं। ऑंँखें बन्द कर दीं। चुनरी से शरीर ढक दिया। उठे। ‘श्रीराम.........श्रीराम‘ कहते हुए पौर में से बाहर निकल आये।


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