Mission Sefer - 16 books and stories free download online pdf in Hindi

मिशन सिफर - 16

16.

इस्लामी कैलेंडर का नवां महीना शुरू हो रहा था। यह महीना पवित्र रमजान का महीना था। अगले दिन से एक माह के रोजे शुरू होने वाले थे। राशिद ऑफिस से घर आ चुका था। उसका इंतजार कर रही नुसरत रोजाना की तरह गर्म चाय लेकर उसके कमरे में आ गई थी। उसकी तरफ चाय का कप बढ़ाते हुए उसने पूछा था – “क्या बात है, आज बहुत थके लग रहे हो?”

“हां, काम कुछ ज्यादा था।“

“तभी देर हो गई। मैं काफी देर से इंतजार कर रही थी। मेरा तो खाना भी बन गया है। भूख लग रही हो तो खाना भी लगा देती हूं। आप चाय पी कर वहां आ जाइये।“

“अभी बहुत भूख नहीं है। आधा-एक घंटा बाद आता हूं।“

“देख लो, कल से तो रोजे शुरू हो रहे हैं। आप रोजे रखते हैं ना?”

“यह तो हर सच्चे मुसलमान का फर्ज बनता है। इस माह की 27वीं रात शब-ए-क़द्र को कुरान शरीफ का नुज़ूल हुआ था। फिर ना तो मैं बीमार हूं, ना यात्रा पर हूं और ना ही बुजुर्ग जो रोजा ना रखूं।“

“बस, बस रहने दो, मुझे पता है आप तो अल्लाह वाले हैं। मैंने तो बस यूं ही पूछ लिया था।“

“अच्छा आप अल्लाह वाली नहीं हैं?”

“क्यों नहीं हूं? यह कायनात उसी ने बनाई है। उसी के इशारे पर सबकुछ चल रहा है। कुरान में उसने जो-जो बातें ईमानवाले के लिए तय की हैं, वह मानना हर मुसलमान पर वाजिब है।“

“अरे वाह, अच्छा रमजान के बारे में तुम्हें कितना मालूम है?”

“बचपन से ही अब्बूजान से सबकुछ सुनती आई हूं। रमजान का पाक महीना नेकियों और इबादत का महीना है। जो शख्स नमाज के रोजे ईमान और एतिसाम के साथ रखे तो उसके पिछले सब गुनाह माफ कर दिए जाते हैं। रोजा हमें जब्ते नफ्स (खुद पर काबू रखना) की तरबियत देता है। हममें परहेजगारी पैदा करता है।“

“क्या बात है, आपकी मालूमात तो बहुत अच्छी है।“

“मुझ कम पढ़ी-लिखी को जितना पता था, उतना मैंने बता दिया। आप तो बहुत इल्म रखते हैं। मेरी मालूमात में कुछ और इजाफा करना चाहेंगे?”

“यह महीना मुस्तहिक लोगों की मदद करने का महीना है। इस महीने में हमें गरीब, मोहताज और नादार लोगों की खुलकर और अपनी हैसियत के मुताबिक मदद करनी चाहिए। ज़कात, सदक़ा, फित्रा, खैर-खैरात, गरीबों की मदद, दोस्त अहबाब में जो जरूरतमंद हैं, उनकी मदद करनी चाहिए।“

“हां, अब्बू भी कहते हैं कि जब अल्लाह की राह में देने की बात आती है तो हमें कंजूसी नहीं करनी चाहिए, अपनी हैसियत के मुताबिक जो कुछ कर सकते हैं, वह जरूर करना चाहिए। गरीब चाहे वे दूसरे मजहब के क्यों न हों, उनकी भी मदद करने में पीछे नहीं हटना चाहिए। अब्बू ने यह भी बताया है कि अपनी जरूरियात को कम करना और दूसरों की जरूरियात को पूरा करना अपने गुनाहों को कम और नेकियों को ज्यादा कर देता है।“

“अब्बू ठीक कहते हैं। इस महीने में रोजादार को इफ्तार कराने वालों के गुनाह माफ हो जाते हैं। हजरत मोहम्मद सल्ल. से उनके किसी साथी ने पूछा था – अगर हममें से किसी के पास इतनी गुंजाइश न हो तो क्या करें? इस पर हजरत मोम्मद ने जवाब दिया था – एक खजूर या पानी से भी इफ्तार कराया जा सकता है।“

“वाकई रमजान का यह पाक महीना हमें शरीर और मन दोनों से पाक-साफ होने में मदद करता है।“

“सही कह रही हैं आप। तरावीह की नमाज़ में पूरे महीने कुरान का पाठ किया जाता है, जिससे कुरान पढ़ना न आने वालों को भी कुरान सुनने का मौका मिलता है और वे कुरान के उसूलों को समझने और उन पर चलने के लिए खुद को तैयार करते हैं।“

“आपसे आज काफी-कुछ बातें जानने-समझने को मिली हैं। अब हम पूरी अकीदत से रमजान के महीने में रोजा रख सकते हैं और दूसरों की मदद कर सकते हैं। अच्छा तो कल सुबह आपको सहरी के लिए उठा दूं?”

“हां, बिलकुल।“

“ठीक है, पर आज तो खाना खाने के लिए आ जाइये। वक्त हो रहा है, अब्बू इंतजार कर रहे होंगे।“

“आप चलिए, बस मैं आपके पीछे-पीछे आता हूं।“

अगले दिन से रोजे शुरू हो गए थे। अलसुबह तय समय पर सहरी करने के बाद उन्हें दिनभर कुछ भी नहीं खाना था। शाम को इफ्तार के तय समय के मुताबिक उन्हें रोजा खोलना होता था। इफ्तार के समय राशिद ऑफिस में ही होता, इसलिए रोजा खोलने के लिए नुसरत उसे कुछ खजूर दे देती थी।

उस दिन जब राशिद ऑफिस में काम कर रहा था तब उसका एक साथी सुनील उसके पास आया और बोला – “राशिद भाई, आप रोजे से हैं। आज शाम को इफ्तार आपके दोस्तो की तरफ से है।“

“मैं समझा नहीं।“

“इसमें समझने की क्या बात है? इस ऑफिस में आपको मिलाकर कुल सात मुसलमान भाई हैं। हमने आप सभी के रोजा खोलने के लिए इफ्तार पार्टी रखी है।“

“इफ्तार पार्टी, इसकी क्या जरूरत है? हमारे पास रोजा खोलने के लिए खजूर हैं और हमारा काम उनसे चल जाता है। फिर ऑफिस में यह सब......।“ – राशिद ने कहा था।

“आप इस ऑफिस में नए आए हैं राशिद, इसलिए आपको यह सब ठीक नहीं लग रहा है। हर साल हम सभी हिंदू भाई अपने मुसलमान भाइयों के लिए इफ्तार पार्टी रखते हैं। आप चाहें तो सादिक, कासिम, नवाज, शफी, जहीर और अशरफ से पूछ सकते हैं, जो कितने ही सालों से यहां काम कर रहे हैं और हर साल हमारी इफ्तार पार्टी में हिस्सा लेते हैं। फिर उसने हंस कर कहा था – “अरे राशिद भाईजान कुछ सवाब हमें भी तो लेने दो।“

राशिद को जब यह पता लगा कि पूरे मुल्क में जगह-जगह हिंदू और दूसरे मज़हब के लोग अपने मुसलमान भाइयों के लिए इफ्तार पार्टी का आयोजन करते हैं और उन पार्टियों में मुसलमान रोजेदार पूरी अकीदत के साथ हिस्सा लेते हैं तो राशिद का मुंह खुला रह गया था। काफिर (विधर्मी) लोग ईमानवालों के लिए इफ्तार का इंतजाम करते हैं, यह बात उसके लिए हैरत भरी थी। दोनों मज़हब के लोगों के बीच की कलह और एक-दूसरे से जानी दुश्मनी का अमल तो यह किसी भी सूरत में नजर नहीं आता था। यह तो उनके बीच के आपसी प्रेम और विश्वास को ही नुमायां करता था। मुल्क की हिंदू सरकार के हिंदू मंत्री और सियासतदां और दीगर सियासी पार्टियां भी पूरे रमजान महीने में इफ्तार पार्टियों का आयोजन करती रहती हैं, यह बात उसके गले नहीं उतर रही थी। अपने खुद के मुल्क में उसने मुसलमानों के अलग-अलग फिरकों के बीच भी इतना भाईचारा नहीं देखा था। उसकी सोच और उसके विश्वास को यह एक और बड़ा झटका था। हालांकि उसने इसे जाहिर नहीं किया था क्योंकि अगर वह इस बात को जाहिर करता तो लोगों को उस पर शक करने का मौका मिल सकता था। वह यह जोखिम कतई नहीं उठा सकता था।

सच तो यह था कि वह काफिरों की इफ्तार पार्टी में शामिल होकर अपना ईमान नहीं बिगाड़ना चाहता था। पर, जब उसने देखा कि वहां काम कर रहे अन्य मुसलमान भाई उस पार्टी को लेकर बहुत उत्साहित थे, तब अलग-थलग पड़ने के डर से उसने उसमें शामिल होने का मन बनाया था। वह जानता था कि अगर वह अलग-थलग पड़ गया तो अपने असली मकसद में कामयाब होने में उसे बड़ी कठनाई आ सकती थी।

वह शाम को इफ्तार पार्टी में शामिल हुआ था। ऑफिस में उनके साथ काम करने वाले हिंदुओं और अन्य मजहब के लोगों ने अपने मुसलमान रोजेदार साथियों के लिए इफ्तार का अच्छा इंतजाम किया था। बहुत अच्छी क्वालिटी के खजूर उनके रोजा खोलने के लिए मंगवाए गए थे। इसके अलावा खाने-पीने का बहुत सा सामान भी था। उन्होंने विधिवत रोजा खोला था। राशिद ने देखा कि पार्टी आयोजित करने वाले लोगों में उत्साह था और वे उनके साथ बड़ी इज्जत से पेश आ रहे थे। उसने इस तरह का माहौल पहले कभी नहीं देखा था जिसमें अन्य मज़हब के लोग रोजेदारों का रोजा खुलवा कर खुशी महसूस कर रहे हों। वे बड़े आग्रह के साथ उन्हें खाने-पीने के लिए मना रहे थे।

पार्टी के बाद जब वह घर पहुंचा तो उसके मस्तिष्क में आज की इफ्तार पार्टी और उसका खुशनुमा माहौल घूमता रहा। उसे ऑफिस से लौटा देखकर नुसरत वहां आ गई थी। उसने पूछा था – “मैंने आपको खजूर दिए थे, आपका इफ्तार हुआ?”

“तुम्हारे दिए खजूर से ही रोजाना मेरा रोजा खुलता है, शुक्रिया। पर, आज हमारे ऑफिस के कुछ हिंदू और दूसरे मज़हब के लोगों ने मिलकर इफ्तार पार्टी का आयोजन किया था। मेरा मन उसमें शामिल होने का बिलकुल भी नहीं कर रहा था, पर ऑफिस का मामला था, इसलिए मन मारकर उसमें शामिल होना पड़ा।“

“यह तो अच्छी बात हुई। इसमें बुरा क्या है?”

“पता नहीं। पर, काफिर (विधर्मी) इफ्तार पार्टी करें और उसमें शामिल होकर रोजेदार अपना रोजा खोलें, यह सब अल्लाहताला के नजदीक मंजूर होगा या नहीं? तुम्हें नहीं लगता कि कहीं ना कहीं यह सही नहीं है। इस पाक महीने में काफिरों से इफ्तार .......।“

“आप भी राशिद, क्या-क्या सोचते हैं। कभी इससे पहले किसी ऐसी इफ्तार पार्टी में शामिल नहीं हुए क्या?”

“नहीं, वो मैं.......।“

“आपके अहमदाबाद का तो पता नहीं, क्योंकि मैं कभी मुंबई से बाहर नहीं गई, पर यहां तो रमजान के दिनों में हमारे हिंदू भाई और दूसरे मजहब के लोग अपने रोजादार मुसलमान भाइयों के लिए बड़ी मोहब्बत के साथ ऐसी पार्टियां करते ही रहते हैं और उसमें शामिल होकर सभी मुसलमान भाई फख्र महसूस करते हैं।“

“अच्छा?”

“आपको पता है, हमारे मोहल्ले के हिंदू भाई भी रमजान के महीने में एक-दो बार ऐसी पार्टियां रखते हैं। अब्बू भी उसमें शामिल होते हैं। अगर किसी छुट्टी के दिन इफ्तार पार्टी हुई तो शायद अब्बू आपको भी अपने साथ ले जाएं।“

राशिद ने कोई जवाब नहीं दिया था। नुसरत कुछ देर रुकने के बाद वहां से चली गई थी। उसने भी सहरी के बाद पूरे दिन कुछ भी खाया-पिया नहीं था और सिर्फ कुछ खजूरों से अपना रोजा खोला था।

राशिद ऑफिस के कपड़े खोले बिना बहुत देर तक वहीं बैठा रहा। उसके दिमाग में सबकुछ गड्डमड्ड हो रहा था। नुसरत की कही बातें भी बहुत देर तक उसके मस्तिष्क में घूमती रहीं। काश, वह उसे बता सकता कि यह सब उसके लिए बिलकुल नया तजुर्बा था। पाकिस्तान में रमजान के दिनों में मुसलमान इस्लाम के उसूलों पर और भी कड़ाई से चलते थे। इस दौरान वे काफिरों से दूरी बना कर रखते थे। वहां तो किसी हिंदू या ईसाई की यह हिम्मत भी नहीं हो सकती थी कि वह किसी रोजेदार का रोजा खोलने के लिए उन्हें अपनी तरफ से एक खजूर भी पेश कर सके। कैसा मुल्क है यह हिंदुस्तान जहां मुसलमान अपना रोजा काफिरों की दी हुई चीजों से खोलने में खुशी और फख्र महसूस करते हैं। क्या अल्लाहताला को उनका रोजा मंजूर होता होगा? जो भी था, हिंदुस्तान ऐसा मुल्क तो जरूर था जहां एक-दूसरे के मजहब को इज्जत दी जाती थी। फिर, विदेशों तक में ये चर्चे आम क्यों थे कि हिंदुस्तान में हिंदू और मुसलमान आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं। वे एक-दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहाते। हिंदुओं के मुल्क में अकलियत वाले मुसलमानों को हर तरह की तकलीफें भुगतनी पड़ती हैं और वे दांतों के बीच जीभ की तरह यहां रहने को मजबूर हैं।

रमजान का पाक महीना खत्म हो गया था। शव्वाल के महीने का वह दिन आ गया था, जब मुसलमानों को रोजा रखने की इजाजत नहीं होती और उस दिन महीने भर से चले आ रहे उनके रोजे समाप्त हो जाते हैं। रमजान के 29वें दिन ईद का चांद दिखने के बाद अगले दिन ईद का त्योहार मनाया जाता है। यदि किसी कारणवश रमजान के 29वें दिन चांद नजर नहीं आता तो ईद उल-फित्र का त्योहार उसके अगले दिन मनाया जाता है। यह दिन खुशियों भरा होता है क्योंकि पूरे माह रोजे रखने और इस्लामी उसूलों का कड़ाई से पालन करने के बाद लोग अल्लाह से अपने गुनाहों के लिए माफी मांगते हैं और अपने करीबी लोगों के लिए भी अल्लाह से दुआ करते हैं। ईद के दिन गरीब लोगों को अपनी हैसियत के मुताबिक दान दिया जाता है। इस दिन लोग विशेष नमाज़ अदा करते हैं और इसके लिए ईदगाह में एकत्रित होते हैं।

मुंबई में ईद से काफी पहले से ही मस्जिदें रंगीन बल्वों की रोशनी से नहाने लगी थीं। बाजार भी रोशनी से जगमगा रहे थे। दुकानें सजी थीं। नए कपड़े खरीदे जा रहे थे और मिठाइयों की दुकानों पर भीड़ लगी थी। हिंदुस्तान में ईद की इतनी रौनक देखकर राशिद हैरान था। उसकी आंखों के सामने अपने मुल्क में मनाई जाने वाली ईद घूम गई थी। उसके इस्लामी मुल्क में मनाई जाने वाली ईद से हिंदुस्तान में मनाई जाने वाली यह ईद किसी भी मायने में कम नहीं थी, बल्कि यहां तो ईद की खुशियों में दूसरे मजहब के लोग भी उतनी ही शिद्दत से शामिल थे। हिंदू और दूसरे मजहब के लोग मस्जिदों और बाजारों को सजाने में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। मुसलमान लोग हिंदुओं की दुकानों से भी ईद के लिए नए कपड़े और मिठाइयां खरीद रहे थे। ईद का त्योहार सामाजिक भाईचारा बढ़ाता है, इस बात को यहां बखूबी देखा और महसूस किया जा सकता था।

काफी इंतजार के बाद आखिर ईद का चांद दिख गया था। लोग ईद अल-फित्र की खुशियां मनाने में डूब चुके थे। नुसरत मीठी सिवइयां बनाने में लगी थी। अब्बू और नुसरत ने भी नए कपड़े पहने थे। अब्बू उसके कमरे में आए थे और उसे नया कुर्ता-पाजामा और नई कढ़ाईदार टोपी पकड़ाते हुए उन्होंने कहा था – “राशिद, ये कपड़े आपके लिए हैं। आज आप यही नए कपड़े पहनें, हमें खुशी मिलेगी।“

राशिद ने हिचकिचाते हुए कहा था – “लेकिन अब्बू यह सब करने की क्या जरूरत थी? मेरे पास नए कपड़ों का एक जोड़ा रखा है।“

“कोई बात नहीं, आप भी हमारे बेटे जैसे हैं। अपने और नुसरत के लिए नए कपड़े लेने गए थे, सोचा आपके लिए भी ले लें।“

“अब्बू, मेरी अब तक की जिंदगी में किसी अपने ने मेरे लिए ईद पर कभी नए कपड़े नहीं खरीदे। अपना कहने को कोई था ही नहीं मेरा। ईद के दिन यतीमखाने के बच्चों के लिए कुछ लोग नए कपड़े खरीद कर जरूर दे जाते थे। पर, उसमें अपनापन कम दया की भावना ज्यादा होती थी और सवाब कमाने का इरादा भी। आपने तो मेरी झोली अपनेपन की खुशियों से भर दी है। यह ईद मेरे लिए अजीम है जो ज़िंदगी भर मेरे ज़हन में ताजा रहेगी।“

“कोई बात नहीं राशिद, आज ईद है हर किसी की झोली आज खुशी से भरने के लिए बेताब है। अगर आपको अपनेपन की खुशी मिली है तो यह हमारे लिए भी खुशी का सबब है। आप भी हमें यह खुशी दे रहे हैं। ईद का तो मतलब ही खुशी है। आप जल्दी से तैयार हो जाएं ईद की नमाज पढ़ने के लिए हम साथ ही ईदगाह चलेंगे।“

अब्बू चले गए तो वह बहुत देर तक उन कपड़ों को देखता रहा जो अभी भी उसके हाथ में थे और जिनमें सचमुच प्यार भरा था। ईद की ऐसी खुशी तो उसे कभी नहीं मिली थी। यह उसके लिए नायाब चीज थी। उसकी आंखों में नमी तैर आई थी और उसने तहे दिल से अल्लाहताला का शुक्रिया अदा किया था।

वह फटाफट तैयार हो गया था ताकि ईदगाह समय पर पहुंचा जा सके। अब्बू और नुसरत उसे उन कपड़ों में देखकर बेहद खुश हुए थे और वे नमाज के लिए निकल गए थे।

ईदगाह में भारी भीड़ थी, नमाज के लिए लोग सड़कों तक फैले हुए थे। ईद अल-फित्र का त्योहार रमजान के पाक महीने की तपस्या, त्याग और सब्र के बाद आता है, इसलिए चारों तरफ खुशियां और उल्लास छाये हुए थे। वैसे तो मुसलमान रोजाना ही नमाजें पढ़ते हैं, लेकिन ईद की नमाज़ विशेष नमाज़ होती है। सच कहा जाए तो ईद के मुबारक मौके पर सभी लोगों के चेहरे पर एक नई चमक दिखाई दे रही थी।

बड़ी अकीदत के साथ ईद की नमाज़ अदा की गई और उसके बाद सभी एक-दूसरे से गले मिलने लगे। यहां अपने ही नहीं अजनबियों से भी लोग गले मिल रहे थे और उन्हें ईद की मुबारकबाद दे रहे थे।

घर पहुंचने तक राशिद यह देखता रहा था कि बच्चों से लेकर बूढ़े तक ईद की खुशियों में मशगूल थे। रास्तों में लोग एक-दूसरे को बधाइयां दे रहे थे और मोहब्बत के साथ गले मिल रहे थे। इनमें मुसलमानों के अलावा हिंदू और अन्य मज़हब के लोग भी बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। वे जब अपने मोहल्ले में पहुंचे तो गली मोहल्ले के सभी धर्म के लोग अब्बू को और उसे ईद की मुबारकबाद दे रहे थे। वे उस अजनबी को भी गले लगा रहे थे, कोई नहीं पूछ रहा था कि यह कौन है। बस सब चाहते थे कि ईद की खुशियां बांटें।

वे घर पहुंचे तो आस-पड़ोस के लोग उन्हें ईद की बधाइयां देने के लिए मौजूद थे। नुसरत की बनाई मीठी सिवइयां सभी लोग बड़े शौक से खा रहे थे, जिनमें कई हिंदू भी शामिल थे। यह सब देखकर राशिद की हैरत और बढ़ती जा रहा थी।

कुछ ही देर में सभी लोग चले गए। नुसरत ने उसे और अब्बू को भी सिवइयां देते हुए पूछा था – “बताइये, कैसी बनी हैं सिवइयां?“

सिवइयां वाकई बहुत लजीज़ बनी थीं। दोनों के मुंह से एकसाथ ‘वाह’ निकला था। नुसरत के चेहरे पर संतोष की स्मित रेखा फैल गई थी। उसने कहा था – “और लेंगे?”

राशिद ने अपनी कटोरी आगे बढ़ा दी थी, पर अब्बू ने मना करते हुए कहा था – “बस, अब मुझे मत देना। मैं भी आसपास के दो-चार घरों में होकर आता हूं, वहां भी सिवइयां खानी पड़ेंगी, उनके लिए पेट में थोड़ी जगह होनी चाहिए। आप चलेंगे मेरे साथ राशिद?”

“नहीं, मैं किसी को जानता नहीं हूं, फिर गली-मुहल्ले के काफी लोगों से आपके साथ मिल लिया हूं। थोड़ा थक भी गया हूं। मैं मुआफी चाहूंगा।“

“अरे भाई इसमें मुआफी की क्या बात है। आपका मन नहीं है तो रहने दीजिए, मुझे तो कुछ लोगों के साथ मुहल्लेदारी और रिश्तेदारी निभाने के लिए जाना ही होगा। बस एक ईद-बकरीद का ही दिन होता है, जब इन लोगों के यहां आना-जाना हो जाता है, बाकी तो आप देख ही रहे हैं, मेरा घर से निकलना बहुत कम हो पाता है। एक तो बीमारी बाहर निकलने नहीं देती, फिर नुसरत को घर में अकेला छोड़ कर जाने का भी मन नहीं होता।”

“आप फिक्र न करें। नुसरत हिफाजत से है घर में।“

“हां मैं जानता हूं। तो फिर मैं चलूं?”

“हां अब्बू आप आराम से जाइये और यहां की कोई फिक्र मत कीजिए” – नुसरत ने कहा था।

अब्बू के साथ ही राशिद भी वहां से निकल कर अपने कमरे में आ गया। थोड़ा थक गया था तो कपड़े पहने ही बिस्तर पर लेट गया।

कमरे का दरवाजा खुला हुआ ही था। उसे किसी के कदमों की आवाज आ रही थी। उसका अंदाजा सही निकला सामने से नुसरत चली आ रही थी।

वह उठकर बैठ गया। नुसरत जब दरवाजे के बिलकुल पास आ गई तो उसने उसे ध्यान से देखा। ऐसा लगा, जैसे वह उसे पहली बार देख रहा हो। नए कपड़ों में वह बहुत खूबसूरत लग रही थी।

जैसे ही उनकी नजरें मिलीं नुसरत ने कहा – “ऐसे क्या देख रहे हो मुझे, पहले कभी देखा नहीं?”

“बहुत बार देखा है, पर इन नए कपड़ों में आप और भी हसीन लग रही हैं। बिलकुल हूर जैसी।“

नुसरत शर्मा गई थी उसने बात बदलते हुए कहा था – “ईद मुबारक हो आपको राशिद।“

“आपको भी ईद बहुत-बहुत मुबारक हो नुसरत। अल्लाहताला आपकी सारी मुरादें पूरी करें।

“इंशाअल्लाह, आपको भी हर काम में कामयाबी मिले।“

“आपकी दुआएं साथ हैं, यह बात मेरे लिए बहुत अहमियत रखती है।“

“मेरे लिए भी, पर आप एक बात भूल रहे हैं।

“क्या? क्या भूल रहा हूं मैं?”

“आप मुझे ईदी देना भूल गए हैं।“

राशिद ने अपना सिर खुजाते हुए कहा – “हां, कह तो सही रही हैं। अब्बू से मिली ईदी?”

“अब्बू कभी नहीं भूलते। इस उम्र में बीमारी के कारण वो उतना नहीं कमा पाते जितना पहले कमाते थे। तब उनसे ईदी भी मनमाफिक मिलती थी। अब भी वे मुझे छोटी बच्ची समझ कर ही ईदी देते हैं और अपनी मोहब्बत से मुझे तरबतर कर देते हैं।

“आप नुसरत अब्बू-अम्मी के प्यार को समझ सकती हैं। मैंने तो अपने अब्बू-अम्मी को कभी देखा ही नहीं।“

“आज ईद के दिन दिल को दु:खी करने वाली बातें मत सोचिए। अब्बू आपको भी अपना बेटा जैसा समझते हैं। उन्हें अब्बू कहते हैं ना आप? उनका प्यार मिलता है ना आपको? फिर यह सब क्यों सोचते हैं। सच कहूं, अगर आप नौकरी से नहीं लगे होते और कमा नहीं रहे होते तो आपको भी अब्बू से ईदी मिलती।“

“काश ऐसा होता। मेरे लिए इससे बढ़कर खुशी की क्या बात होती।“

“आपने तो मेरी ईदी वाली बात ही बदल दी। इंजीनियर हैं, अच्छा-खासा कमाते हैं, फिर आपने आज मुझे ईदी क्यों नहीं दी? देने की बात तो छोड़ो, इस बारे में सोचा तक नहीं।“

“बजा फरमा रही हैं आप। मैं अपना फर्ज निभाना भूल गया। गुनाहगार हूं आपका। माफ कर दीजिए और बताइये क्या ईदी लेंगी आप? – उसने कुर्ते की जेब में हाथ डालते हुए कहा।“

“मुझे रुपये-पैसे नहीं चाहिए राशिद।“

“तो फिर?”

“मांग लूं, मना तो नहीं करोगे?”

“मैं क्यों भला मना करने लगा? फरमाइश तो कीजिए। बताइये क्या चाहिए आपको?”

नुसरत नीची निगाह किए कुछ क्षण सोचती रही फिर उसने यकायक कहा – “मुझे आपका साथ चाहिए, जिंदगी भर का।“

“क्या कह रही हैं आप” – राशिद इस अचानक सामने आई बात से सकपका कर रह गया था।

“मैंने आपकी निगाहें पढ़ी हैं राशिद। मैंने बहुत इंतजार किया, शायद यह सब आप कहेंगे मुझसे। पर, अब और इंतजार नहीं होता। मैं खुलकर कह रही हूं, मुझे शरीके-हयात बनाएंगे आप? मेरे लिए इससे बढ़कर ईदी और कुछ नहीं हो सकती। अब्बू से मेरा हाथ मांग लीजिए, राशिद।“

“नहीं, नहीं यह नहीं हो सकता, मुझे अपना मकसद पूरा करना है।“

“कौनसा मकसद, कैसा मकसद?”

राशिद ने खुद को कोसा था, यह क्या कह गया था वह। फिर उसने बात संभालते हुए कहा था – “अभी तो मैंने ज़िंदगी की शुरूआत ही की है। मेरा मकसद सोसायटी में ऊंचा रुतबा हासिल करना है। मैं जिंदगी में कुछ बनना चाहता हूं, वो मुकाम हासिल करना चाहता हूं जो सोसायटी की ही नजर में नहीं, अल्लाहताला की नजर में भी सबसे ऊंचा हो।“

“इसके लिए रोक कौन रहा है आपको? इंजीनियर की रुतबे वाली नौकरी है आपकी। ऐसी नौकरी के लिए तरसते हैं लोग, यह तो कुछ ही नसीब वालों को हासिल होती है। फिर आप काबिल, ईमानदार और मेहनती हैं तो तरक्की भी होती रहेगी। पांचों वक्त की नमाज के पाबंद हैं तो अल्लाहताला की मेहरबानी भी तो होगी आप पर। निकाह इसमें कहां रुकावट बन सकता है?”

“आप नहीं समझेंगी नुसरत और ना ही मैं आपको समझा पाऊंगा। मैं निकाह नहीं कर सकता।“

“किसी और को चाहते हैं आप?”

“नहीं, वैसी बात नहीं है?”

“तो फिर क्या मैं आपके काबिल नहीं हूं? कम पढ़ी-लिखी हूं इसलिए?”

“कैसी बात कर रही हैं आप? आपको शरीके-हयात बना कर कोई भी बंदा खुद को खुशनसीब समझेगा। बस, मैं निकाह नहीं कर सकता। मुझे इसमें कोई बहस नहीं चाहिए।“

नुसरत के चेहरे पर मायूसी छा गई थी। वह सिर्फ इतना ही कह पाई थी – “ईदी उधार रही राशिद। जब तक आप खुद को निकाह के लिए तैयार नहीं कर लेते, मैं आपका इंतजार करूंगी।“

यह कहकर नुसरत तो चली गई थी, पर राशिद को एक ऐसे अजाब में छोड़ गई थी, जिसमें से वह चाहकर भी बाहर नहीं निकल पा रहा था।

वह जानता था नुसरत से बेहतर शरीके-हयात उसे नहीं मिल सकती थी। पर, वह उसे कैसे बताता कि उसका मकसद क्या है। वह सिर्फ और सिर्फ उसका इंतजार ही करती रह जाएगी, पर वह उसे कभी भी अपनी जिंदगी में शामिल नहीं कर पाएगा। उसके दिल से ऐसी आह निकल पड़ी जिसने उसके पूरे वजूद को हिला कर रख दिया। उसके लिए उसका वतन, उसका मज़हब और उसका मकसद ही सबकुछ था। जिस दिन वह अपना मिशन पूरा कर लेगा, वह दिन उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा दिन होगा। वह पहले भी इस बात पर बहुत सोच चुका था कि जैसे-जैसे उसके कदम अपने मिशन के नजदीक बढ़ते जा रहे थे, वैसे-वैसे उसकी जिंदगी को खतरा भी बढ़ता जा रहा था। वह चाहता था नुसरत के लिए उसके मन में जो जगह बन गई है, वह उसके मिशन के रास्ते की रुकावट न बन जाए। उसके आकाओं को इसकी भनक भी लग गई तो फिर उसकी ही नहीं, नुसरत की जान को भी खतरा हो सकता है। उसे हकीकत को समझना होगा। अपने वतन और अल्लाह की राह में वह तो अपने सिर पर कफन बांध कर निकला था, पर वह इस सबका नुसरत की जिंदगी पर कोई असर कभी नहीं होने देगा। वह बहुत ही अच्छी लड़की है, उसे किसी अच्छे लड़के से निकाह कर लेना चाहिए। अगर जरूरत पड़ी तो वह उसे इसके लिए तैयार भी करेगा।

वह जो कुछ सोच रहा था, क्या वह सब इतना आसान था। नुसरत को नहीं पता था कि उसकी यह जिद उसे कहां ले जाकर छोड़ेगी। राशिद उसे कभी नहीं मिल पाएगा। इस विचार के साथ ही उसके दिल में नुसरत के लिए चिंता का ऐसा सैलाब उठने लगा जिसमें वह खुद ही डूबने-उतराने लगा।

आज ईद का मुबारक दिन था। काश, वह नुसरत को उसकी ईदी दे पाता। उसके दोनों हाथ दुआ के लिए उठ गए - “ए मेरे मालिक, मैं तो तेरी राह में खुद को खाक करने के लिए निकला हूं। पर तू नुसरत को खाक मत होने देना। उसे सही राह दिखा मेरे मालिक। उसके दिल में किसी और के लिए जगह बना। किसी ऐसे के लिए जिसे पाकर वह मुझे भूल जाए और जिसके साथ ज़िंदगी भर खुश रहे।

उसने सोचा था, नुसरत उससे नाराज हो जाएगी और शायद अब उससे कभी बात नहीं करेगी, पर ठीक समय पर वह उसके लिए चाय-नाश्ता लेकर आ गई थी। उसने सामान्य तरीके से उससे बात की और खाना खाने के लिए ठीक समय पर घर में आने और अब्बू को बहुत इंतजार न कराने के लिए कहा तो उसके दिल से एक बड़ा बोझ हट गया। उसके दिल में नुसरत के लिए इज्जत और भी बढ़ गई थी।

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