कुंठित मानसिकता रामानुज दरिया द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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कुंठित मानसिकता

मेरी सोंच उस आधुनिकता की भेंट नहीं चढ़ना चाहती थी जिसमें एक लड़की के बहुत से बॉयफ्रेंड हुआ करते हैं और ओ जब जिससे चाहे उससे बात करे , जहां जिसके साथ चाहे घूमे टहले , ओ आधी रात को आये या दोपहर को , मैं आशिक हूँ तो आशिक की तरह रहूं, उसे रोकने टोकने का मुझे कोई अधिकार न रहे। अगर इसे आधुनिकता और आधुनिकता में छुपी अय्यासी को ही आज़ादी कहते हैं तो मुझे सख़्त नफ़रत है उस आज़ादी से और उसका अनुसरण करने वाले आज़ाद पंछी से।
इतने दिन बाद भी कोई दिन नहीं बीतता जो उसकी यादों के बगैर गुजर जाये क्योंकि मैंने उसे चाहा है दिल की अटूट गहराई से , जिस्म की आंच से भी उसे बचा के रखा है।नफ़रतों के साये तक न पड़ने दिया है उस पर। जिंदगी की इक अनमोल धरोहर की तरह मैन उसे छुपा के रख है अपने दिल के किसी कोने में जहाँ सिर्फ औऱ सिर्फ ओ रहती है उसके सिवा कोई नहीं। अपने रिस्ते के धागे और उसकी अदाओ की मोती की जो प्रेम रूपी माला बनाई है उसकी एकलौती वारिस तथा मालिकाना हक भी सिर्फ वही रखती है।
निरंतर बहते नदी की धारा की तरह एक प्रेम का प्रवाह दूंगा उसे मैं। भले इसके लिए मुझे कितना भी कुंठित क्यों न होना पड़े। हां हां मैंने प्यार किया है उससे और ऐसे ही करता रहूंगा । मुझे यह करने से कोई रोक नहीं सकता न ही समाज और न ही ओ ख़ुद। उसके हाथ में सिर्फ इतना है कि ओ बात नही कर सकती मुझसे और इससे ज्यादा की ओ मुझसे मिलेगी नही कभी। लेकिन कोई बात नही हम इन दोनों के बगैर भी जिंदगी काट लेंगे। हम जियेंगे तो उसके लिए और मरेंगे भी तो सिर्फ उसके लिये। कोई दूसरा न आया है ना ही आयेगा।
लेकिन मैं कभी नहीं चाहता कि ओ किसी और से बात करे या किसी और से मिले यहाँ तक कि उसकी फेसबुक फ्रेंड लिस्ट में भी सिर्फ़ फैमिली हो या फिर मैं। लेकिन प्रेम को इस प्रकाष्ठा तक पहुचाने की सपथ इस कलयुगी दुनिया में ले भी तो कौन, इसलिए आज प्रेम अमरत्व को प्राप्त करने के बजाय हवस का शिकार हो जाते है।
आशु के अंदर यही अन्तर्द्वन्द चल रहा था कि अचानक से ड्राइवर ने ब्रेक लगा दी और ओ सीट पर आगे की तरफ झुक गया तथा बगल में अगली दूसरी सीट पर बैठी महिला आगे की तरफ झुक गयी और उसके नो एंट्री वाले पार्ट्स बाहर के तरफ झांकने लगे, जिसे काफी देर से उसका तथाकथित देवर सम्भालने की कोशिश कर रहा था जैसा कि रात के अंधेरे में बल्ब के सहारे दिख रहा था। मौसम की बेजोड़ ठंढ ने रिस्ते की दूरियों को काफी कम करने का प्रयास किया था लेकिन उतना नही कर पाया जिससे कि ओ चरम सुख की तरफ अग्रसित हो पाते फिर भी एक बेहतर प्रयास था जिसे बस के एक तिहाई लोग देख रहे थे बाकी तो सो गए थे क्योंकि समय दो बजे के आसपास हो रहा था। बस एक ढाबे पर आके रुक गयी और आशु का ध्यान भी वहीं पर भंग हो गया।