द्वन्‍द्व Ramnarayan Sungariya द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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द्वन्‍द्व

कहानी--

द्वन्‍द्व

आर.एन. सुनगरया,

क्षमता अनुसार दवाब सहन करना तो स्‍वभाविक है, लेकिन दवाब के कारण क्षमता बड़ाना काफी कठिन होता है।

कॉलेज में भर्ती की मोटा-मोटी तैयारी करके मैंने छोटे की राय लेनी चाही, लेकिन घर से कब निकलता व कब लौटता। पता ना था।

मालूम करके मैं उसके कार्यस्‍थल ही पहुँच गया। देखा कुछ लोग अपने-अपने कामों में यंत्रवत भिड़े हुये हैं। सबको एक-एक करके निरीक्षण किया सभी काले-पीले से रंगे हुये दिखे। उन्‍हीं में छोटे का चेहरा भी थका मांदा सा बुझा-बुझा दिखाई दिया। मेरी तरफ देखकर मुझे रूकने का इशारा करके अपना काम जल्‍दी-जल्‍दी निबटाने लगा।

लगता था यही कोई कूलिंग सिस्‍टम की फैक्‍ट्री है। जहॉं वर्फ या आईसक्रीम वगैरह बनती है शायद।

‘’क्‍या है?’’ आते ही उसने लट्ठ सा मारा मेरे सर पर, ‘’ये कॉलेज में भर्ती के फार्म वगैरह हैं, इन्‍हें देखकर हस्‍ताक्षर कर दे।‘’

‘’रहने दे आगे नहीं पढ़ना।‘’

‘’क्‍यों ?’’

‘’सारा खर्चा कहॉं से आयेगा? खाने तक के तो लाले पड़ रहे हैं! वह भी दूसरे शहर में जाकर।‘’

‘’वह मेरे ऊपर छोड़ दो।‘’ मैंने अपनी गर्दन फंसार्इ। ‘’पिताजी का संकल्‍प है। कीचड़ सने समाज से ऊपर उठना है।‘’

‘’अरे हओ उठ गये ऊपर।‘’

‘’क्‍यों नहीं, मेरी तरह तू भी काम और पढ़ाई दोनों साथ-साथ कर।

हालांकि मुझे षड़यन्‍त्र पूर्वक घेरा गया था, मगर मैं, निर्मल हृदय से कोशिश कर रहा था कि अच्‍छा ही है। वह भी पढ़ लिख कर बराबरी का हो जाये, तो हीन भावना से तो निजात पायेगा।

मैंने अपने सारे सुविधा केन्‍द्र, जहॉं मुझे अध्‍ययन में सहायता मिलती थी, वे सब उसके हवाले कर दिये। जैसे छात्रावास में उसे ठहरा दिया। जहॉं लगभग सारी सुविधाऍं थीं। खाने-पीने से लेकर रहने तथा पढ़ने के लिये माहौल। वाचनालय से किताबें भी उपलब्‍ध थीं।

मैंने रोज जाना-आना ही मुनासिब समझा। ताकि उसे मेरे रहने से असुविधा ना हो। रोज-रोज के सफर की भागम-भाग से मुक्ति मिल सके।

मैं पॉंच बजे रात में उठकर स्‍टेशन की और चल पड़ता। चाहे मौसम कोई भी हो। स्‍टेशन पर ही जाकर अपनी दिनचर्या के काम निबटाता, ताकि ट्रेन ना चूक जाये। और फिर वहॉं सम्‍पूर्ण सार्वजनिक सुविधाऍं भी थीं, जैसे-वहॉं पानी भरपूर था। घर में तो हमेशा पानी की किल्‍लत बनी रहती थी। खासकर गर्मी के दिनों में तो पानी बहुत ही श्रमपूर्वक उपलब्‍ध हो पाता था।

ट्रेन पकड़कर सीधे कॉलेज पहुँचता था। दिन भर भूख-प्‍यास की फिक्र किये बगैर दिन काट देता था। फिर शाम को ट्रेन पकड़कर देर रात तक घर पहुँच जाता था। अपने लिये यह व्‍यवस्‍था मैंने स्‍वयं स्‍वीकार की थी; ताकि पत्‍नी को भी कुछ समय अपने लिये साथ होने का अधिकार मिल सके। घर के खर्च में उनका हाथ बटाता। लेकिन छोटे को जैसे पंख लग गये हों, वह पूर्णतया मौज-मस्‍ती के रंग में रंग गया। कुछ जरूरत होती, तो ऑंखें दिखा कर हासिल कर लेता घर-परिवार के भूख-प्‍यास, दु:ख-तकलीफ से बिलकुल उन्‍मुक्‍त हो गया। अपनी जड़ों से पूरी तरह कट गया।

कोई कुछ टोंका-टांकी करे तो, लाल-लाल ऑंखें बनाकर दिखा दो, एवं कुछ बर्तन-भांडे, इधर-उधर, फेंक-फाँक कर क्रोध प्रदर्शित करके मनोवैज्ञानिक दवाबयुक्‍त भय व्‍याप्‍त कर दो माहौल में। फिर क्‍या सब चुप्‍प हो जायेंगे। जैसे सबको सॉंप सूंघ गया हो। ठप्‍पे से स्‍वछन्‍द रहो।

कहा है ना आ बैल मुझे मार, वाला काम। मेरी स्थिति और दयनीय हो गई। चारों और से घिर गया, उलझनों के मकड़जाल में विरूद्ध होकर फूट पड़ा, ‘’पिताजी, आप डॉंट-डपटकर समझाओ छोटे को!’’ पिताजी की तरफ ऑंखें तरेर कर देखा, तो वे बड़े निस्‍सहाय लगे। एकदम शक्तिहीन। फिर भी मैं बोलता गया, ‘’घर-परिवार की समस्‍याऍं और उलझा रहा है। सुविधा के एवज में।‘’

‘’छोटा है, बचपना है, आ जायेगा समझ में।‘’ पिताजी की निराशाजनक हालत पर मैं खामोश रह गया।

मैं बिलकुल शुद्ध भावना से, निर्मल हृदय से अपना दायित्‍व निभाने के प्रयास में लगा था। पारम्‍परिक रिश्‍तों की बाध्‍यता, मर्यादा का लवादा मैंने अनायास ओड़ लिया था। उसके दुष्‍परिणाम मुझे चुभने लगे थे। मेरे साथ मेरी अर्धांगिनी भी, ऐसे दु:खों को झेल रही थी, जिसमें उसकी गलती सिर्फ यह थी कि वह मेरी पत्‍नी है। हमारी संस्‍कृति तो यही रही है कि परिस्थितिवश आई विपत्ति, समस्‍या, कष्‍ट आदि आने से सारे परिवार को उसका सामना करके, उससे निकलने का सामूहिक प्रयास करना चाहिए।

परिस्थितियों के पंजों में जकड़ा मैं; कराह तो सकता था, मगर हिल-डुल नहीं कर सकता था, पलायन तो बहुत दूर की बात थी। आवश्‍यकताओं की पूर्ती वफादार गुलाम की तरह पूरी करते रहना मेरी नियति बन गई थी। इसके लिये मुझे क्‍या-क्‍या नहीं करना पड़ता था? यह सोचने का समय किस के पास था। सब कुछ मिल रहा था। उड़ाओ गुलछर्रे मौज ही मौज।

मैं चारों और से पड़ रहे दवाबों में इस कदर पिस रहा था कि लैस मात्र भी ना-नुकर करने की गुंजाईश मुश्किल थी। कोल्‍हू के बैल की तरह जुते रहो।

ऐसी तपिश की झुलसन से राहत के लिए मैं राज के पास चला जाता। और घण्‍टों बैठकर हम अपनी-अपनी आप बीती पर बतियाते रहते।

वह भी मध्‍यम वर्गीय परिवार से सम्‍बंध था। पूरे परिवार का दारोमदार एक मात्र सदस्‍य की कमाई पर था। लेकिन परिवार में सब लोग एक दूसरे की भावनाओं को समझकर परस्‍पर सहयोगी वातावरण में प्रफुल्‍लता पूर्वक उज्‍जवल भविष्‍य को संवारने में लगे थे। उनके घर का वातावरण हंसी खुशी भरा, शांति-शुकून से भरपूर, सदाचार-संस्‍कार से ओतप्रोत, हर्षोलास का पर्याय जैसा लगा। इन्‍हीं सब अदृश्‍य बन्‍धनों ने मुझे आकर्षित करके बॉंधे रखा। अपने क्‍लेष-कवलित जबड़ों में फंसे मन मस्तिष्‍क को मुक्‍त करने के लिये लम्‍बे-लम्‍बे समय तक एक दूसरे से विचार-विमर्श करते रहते। तथा भविष्‍य के सुनहरे संकल्‍प लेकर नई ऊर्जा के साथ विदा होते थे। और घनिष्‍ठ होकर।

· * *

मैं भयग्रस्‍त मनोस्थिति के दौर से गुजर रहा था। अर्धविक्षुब्‍ध सा। हर व्‍यक्ति मुझे अपनी ऊँगलियों के इशारों पर नचा रहा था। एवं अपना स्‍वार्थपूर्ण मनोरथ सिद्ध कर रहा था। मुझे कुछ भी सोच पाना दुर्लभ लग रहा था। मुझे स्‍वयं पता नहीं चल पा रहा था कि मैं क्‍या कर रहा हूँ।

क्‍या जवाब दे रहा हूँ। कहीं कोई तालमेल नहीं था। जिसके दुष्‍परिणाम स्‍वरूप अकारण ही मैं ऐसे घोर अपमान का शिकार हो गया। जिसकी धधक आज भी मेहसूस करता हूँ।

क्रोधाग्नि में झुलसता हुआ, अन्‍जान पगडण्‍डी पर चलता गया-चलता गया। और ना जाने कब; गहरी मगर स्निग्‍ध, गम्‍भीर सोच में लीन हो गया। नाममात्र चेतना की निर्दयिता पूर्वक मानवीय संवेदनाओं, भावनाओं, मान-सम्‍मान आदि-आदि सब कुछ रोंदता हुआ अनायास एक बिन्‍दु पर रूक जाता हूँ। मेरे स्‍नायु शिथिल पड़ जाते हैं; मैं निर्जीव सा प्रतीत करता हूँ। परन्‍तु अगले ही क्षण, एक अज्ञात आन्‍तरिक शक्ति ने मुझे सहारा देकर विनाश के रास्‍ते से रचनात्मिक राहों पर ला खड़ा किया।

मैंने सोचा जिन रिश्‍तों को विकासोन्‍मुख करने के प्रयास में ही मुझे अपमानित होना पड़ा है, इस घटना को ज्ञात करके वे मेरे कृतज्ञ हो जायेंगे। मगर ऐसा काफी लम्‍बे समय तक लगा नहीं कि कोई मेरे इस अपमान के जहर को सहन करने पर एहसानमन्‍द दिखा हो!

· * *

कहने को तो सब रिश्‍ते अटूट हैं- भाई, बहन, माता-पिता, इत्‍यादि लेकिन अपनेपन का दूर-दूर तक नामो-निशान नहीं। सभी तिकड़मबाजी, पैंतरेबाजी में माहिर। जरा सी भी सम्‍बन्‍ध के नाते गफलत में हुये कि तुरन्‍त घात लगा कर दबोच लिया, अपने शिकार को, सम्‍हलने से पूर्व ही अपना स्‍वार्थ सिद्ध किया और चुपके से खिसक लिये। जब तक आप उनकी चालबाजी समझ पाते हैं, तब तक तो काफी देर हो चुकी होती है। और अपने पास ठगे रहने, व हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं बचता। अब आप कुड़मुड़ाते रहिए। कहीं किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।

♥♥♥ इति ♥♥♥

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

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