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ज़हरीले दाने

कहानी

ज़हरीले दाने

आर.एन. सुनगरिया

राज बार-बार दरवाजे तक जाते ही एक दृष्टि दूर रोड पर फैलाता, जिसे घोर अंधेरा निगल जाता। सिगरेट पर सिगरेट जलाकर फुक-फुक करने के बाद उसे बुरी तरह जूते से मसल देता है। जब उसे कुछ मिनट परेड करते हो जाते, तो वह एक-आधा प्‍याला देशी शराब का भी उपयोग कर लेता। घड़ी के डायल पर देखते हुये गुनगुनाया- उफ! साढ़े ग्‍यारह बज गये, अभी तक नहीं आई, ना जाने क्‍या हो गया कि साढ़े दस बजे अपने वादे पर ना आ पाई। आज पहली बार ही लेट हुई है। ना जाने क्‍यों?....आ ही तो जाये बस....रात के अन्तिम पहर तक रंगरेलियॉं मना कर सूर्य निकलने के पूर्व उसे भी वहीं पहुँचा दूँगा जहॉं उसकी बहनें पहुँचा चुका हूँ, जो लोगों के दिलों पर रात के अंधेरे में बिजलियॉं-गिराती हैं। फिर माल अपनी जेब में होगा।

एक साल से कॉंटा डाल रखा था, जिसे मछली ने मुँह में दबा लिया है, मगर खींचने के समय...धोखा नहीं दे सकती। साल भर उसकी गलियों के चक्‍क्‍र काटे हैं। माल खिलाया है और सच्‍चे प्रेमी की तरह उसके साथ अभिनय किया है।

याद नहीं? अभी परसों की ही तो बात है। कोई नौ साढ़े नौ बजे थे। मैं और वह पार्क में पत्‍थर वाली कुर्सी पर बैठे बतिया रहे थे। मैंने उसके गले में हाथ डालते हुये कहा, ‘’रमा, कभी-कभी सोचता हूँ। तुम ना मिली तो...कैसे जी सकूँगा....’’

वह अपनी गोरी-गोरी, पतली-पतली सोने जैसी अंगुली मेरे हाथ पर फैरने लगी, ‘’यही तो मैं सोचती हूँ। सच्‍ची मोहब्‍बत से मिले दिल कभी जुदा नहीं होते राज!’’

‘’हॉं रमा, हमें कोई जुदा नहीं कर सकता।‘’ मैं उसके इतने निकट खिसक गया था कि उसका वक्ष मेरे सीने से स्‍पर्श करने लगा, ‘’मैंने पिताजी से बात की थी।‘’

‘’अच्‍छा!’’ वह मुस्‍कुराई थी। अब उसके उरोज मेरे सीने से कुछ दूर थे।

‘’ क्‍या कहा उन्‍होंने?’’

‘’किसी लड़की का कह रहे थे।‘’

‘’अच्‍छा है कोई, करोड़पति होगी, मेरे जैसी गरीब तुम्‍हारी लाईन में कहॉं लगेगी।‘’

‘’रमा तुमसे हसीन कोई लड़की है, इस दुनियॉं में?’’ मैंने अपना अभिनय शुरू कर दिया था, ‘’तुम्‍हारे घुंघराले बाल, गदराये गाल, होंठ लाल, सूरत है कमाल, दूसरी में यह सब कहॉं! मैं उसके मस्‍तक को चूम रहा था, तो वह भी अपने आप को ना रोक सकी थी। मुझे कसते हुये अपनी बाहों के सहारे कुछ बल प्रयोग किया, ‘’रमा कितने मजेदार हैं ये क्षण?’’

‘’हॉं राज, शरीर में जैसे आनन्‍द की बिजली दौड़ रही हो।‘’

‘’रमा?’’

‘’हूँ।‘’

‘’क्‍यों ना हम कहीं भाग चलें!’’

‘’ऐं!!!’’

वह चौंकी तो थी, जब वह मुझसे कुछ इंच दूर हो गई, तब मैं बोला, ‘’वहीं कोर्ट में शादी कर लेंगें। कुछ दिन बाद जब मॉं पापा का क्रोध शान्‍त हो जायेगा, तब लौट आयेंगें।‘’

‘’ले‍किन...’’

‘’हॉं शुरू में कुछ कठिनाई होगी, पैसे भी चाहिए, वह सब मैं कर लूँगा।‘’

‘’लेकिन राज...’’

‘’तुम हॉं कह दो बस!...’’

‘’!...’’

‘’बाकी सब मैं सम्‍हाल लूँगा।‘’

‘’हॉं तो परसों रात साढ़े दस बजे मैं दुर्गा मन्दिर के कुछ दूर नर्वदा निवास में तुम्‍हारा इंतजार करूँगा।‘’

‘’लेकिन...’’

‘’बिलकुल सूना कमरा है, वहॉं कोई नहीं रहता।‘’

‘’.....’’

‘’अपन रात की ट्रेन से ही चलेंगें।‘’

....टन....यह ध्‍वनि सुनते ही राज का ध्‍यान घड़ी पर गया। दस-बारह नम्‍बर पर दोनों सुईयॉं मिलाप कर रही हैं। तभी दरवाजे तक आया अंधेरा और घोर हो गया है। पानी की बूंदा-बांदी शुरू हो गई है। मैंढक टर्र-टर्र कर रहे हैं। वह पुन: पलंग पर लौट आया। बोतल उठाई और उसका मुँह गिलास में कर दिया। भल्ल-भल्ल करती हुई शराब ने गिलास को आधा कर दिया। वह उसे झट उठाकर एक ही घूँट में गटक कर गया, फिर सिगरेट सुलगा ही रहा था कि खुल्‍ल–खुल्‍ल...खॉंसी ने उसे नानी याद करा दी। जब वह खांसी से शान्‍त हुआ तभी उसे सॉंसों की सरगम और पदाहट सुनाई दी, तुरन्‍त जैसे नव स्‍फूर्ति का संचार हो गया हो। मुण्‍डी उठाई, देखा- एक सुन्‍दर भयभीत चेहरा सामने है, ‘’रमा...बड़ा इन्‍तजार करवाया...’’ उसने सिगरेट सुलगाई, ‘’आओ बैठो ना।‘’ राज ने उसकी सूरत निहारी, ‘’अरे चेहरे पर पसीना, इतनी ठण्‍डाई में भी...?’’

‘’.......’’

धुँये का गुबार उड़ा कर राज ने उसकी खामोशी तोड़ने का प्रयास किया, ‘’आहा खामोशी में भी कितनी अच्‍छी लगती हो तुम’’ रमा के होठों ने मंद मुस्‍कान धारण कर ली, मगर कृत्रिम सी मुस्‍कान है। वह एक कश खींच कर बोला, ‘’ग्यारह की ट्रेन तो तुमने निकलवा दी, अब चार बजे तक एक इंतजार करना पड़ेगा।‘’

‘’मैंने बहुत कोशिश की।‘’ रमा ने साड़ी के छोर से पसीना पोंछते हुये अपनी खामोशी, इज़हार में बदल दी, ‘’मगर पिताजी ग्‍यारह बजे तक खुल्‍ल-खुल्‍ल करते रहे, जब वे सो गये, तभी भाग सकी।‘’

‘’चलो अच्‍छा हुआ।‘’ राज सिगरेट बुझाकर उसके निकट खिसकते हुये बोला, ‘’दूसरी गाड़ी के आने तक अपने आपको भुला दें कि हम जमीन पर हैं या आसमान पर।‘’ राज उठ खड़ा हुआ और सामने अलमारी की ओर बढ़ा।

‘’कैसी बातें करते हो, मेरा तो दिल धड़क रहा है। पसीना रूकता ही नहीं। इस सन्‍नाटे में जैसे दम घुटा जा रहा है।‘’ रमा ने पुन: पसीना पोंछा।

‘’आज पहली बार इतनी रात में मिली हो न अभी तक हम दिन में मिलते रही। सिर्फ एक बार पार्क में भी नौ बजे रात में मिले थे।‘’ राज बोतल और गिलास थामे उसकी ओर बढ़ा।

‘’अरे तुम और शराब पियोगे...?’’ रमा ने खाली बोतल की तरफ इशारा करके कहा, ‘’एक बोतल तो गटक चुके, शायद!’’

‘’इस रात तुम भी पियो जानेमन! वह बोतल का ढक्‍कन खोलने लगा। रमा कुछ सोच में पड़ गई।

जानेमन! जैसे शब्‍द का मेरे लिये सम्‍बोधन! क्‍या बड़ी बुआ सच कह रही थी कि अपने शहर में कुछ ऐसे लोग हैं, जो भोली-भाली जवान हसीन गरीब लड़कियों को अपने प्रेम जाल में फंसा कर कलंकित कर या भगाकर कोठों पर बेच देते हैं। कहीं राज भी...शायद! इसीलिये अभी कह रहा था, दूसरी गाड़ी के आने तक अपने आपको भुला दें कि....।

‘’रमा, क्‍या सोच रही हो...? लो!’’ राज ने शराब का भरा गिलास उसकी ओर बढ़ाया।

गिलास की ओर देखते समय उसके मन में ये वाक्‍य उभरे, ‘’बड़ी बुआ का अनुमान राज पर फिट बैठता है। यह सच है तो पूर्ववत् व्‍यवहार करके इसके चंगुल से छुटकारा...!‘’

‘’लो पियो ना!’’ राज ने उसे अपनी गोद में पटक लिया और जबरदस्‍ती पिलाने की चेष्‍टा करने लगा।

‘’पी तो रही हूँ!’’ रमा ने उसके हाथों से गिलास झटक लिया, जिससे कुछ शराब तो झलक ही गई, शेष को उसने कण्‍ठ में उतारा, जैसे जहर के घूंट ले रही हो, ‘’लो!’’ रमा ने खाली गिलास उसकी ओर बढ़ाया।

‘’वाह! शराब की शक्ति से कितनी कड़क आवाज हो गई।‘’ वह अपने मुँह से बोतल का मुँह लगाकर दो तीन गिलास शराब गट-गट कर पी गया। बोतल को नीचे रखते हुये बोला, ‘’अब मजा आयेगा!’’

‘’मजा...?’’ मेरा तो दम घुटा जा रहा है ये भयानक वातावरण में, अन्‍दर टिम-टिमाता दीपक और बाहर अंधेरा घुप्‍प!’’ रमा अन्‍दर से बन्‍द दरवाजे की ओर देखने लगी। अन्‍दर ही अन्‍दर कॉंप भी रही थी।

‘’अभी तो तुम्‍हें अंधेरे में टिमटिमाता दीपक भी दिखाई देता है, फिर तुम्‍हें ऐसी जगह रहना है, जहॉं चमकती रंग-बिरंगी लाईटों की उपस्थिति में भी सब तरफ अंधेरा ही अंधेरा प्रतीत होगा।‘’ राज ने कोठे के वातावरण की तरफ संक्षिप्‍त और अप्रत्‍यक्ष संकेत किया।

‘’क्‍या मतलब?’’ रमा ने कुछ सोचकर पूछा।

‘’मतलब को रखो ताख पे और आ जाओ उस लकीर पर, जहॉं से जवानी का उपयोग होता है।‘’ राज उसे अपनी बॉंहों में जकड़कर पलंग पर लेट गया।

‘’राज!’’ रमा चीखी, उसने उससे छूटने की, चेष्‍टा की, ‘’क्‍या करते हो, छोड़ो न....!’’

‘’जाल में फंसी हिरनी को कौन शिकारी छोड़ेगा रमा!’’ राज ने अपनी बॉंहों की जकड़न और सख्‍़त की अपने होंठ उसके गाल पर रखना चाहा पर रमा ने उसे असफल कर दिया, परन्‍तु अपनी गर्दन बायीं और घुमा दी, ‘’छोड़ते हो या चीख़ पुकार शुरू करूँ?’’

‘’आ..हा..हा..हा.....’’ वह खिलखिलाकर बोला, ‘’इस सन्‍नाटे में तुम्‍हारा चिल्‍लाना बेकार है।‘’

‘’कैसी बातें कर रहे हो तुम..?’’ वह घबराई, ‘’होश में तो हो?’’

‘’होश!’’ राज ने जकड़न कुछ ढीली करके कहा, ‘’प्‍यार में होश किसे रहता है? रमा!’’ उसने पुन: जकड़न पर जोर दिया।

‘’राज!’’ रमा तड़पी, ‘’क्‍यों प्‍यार जैसी पवित्र भावना को कलंकित करते हो।‘’

‘’प्‍यार!’’ राज ठहाका मारकर हंसने लगा, ‘’आ..हा..हा..हा..’’ पर वह अधिक नहीं हँस सका, उसे तुरन्‍त खॉंसी ने दबोच लिया। ‘’खुल्‍ल-खुल्‍ल...’’ उसने अपने एक हाथ से अपना सीना सहलाया। अब रमा उसके एक ही हाथ के कब्‍जे में है। उसी समय वेग-वृद्धि की तरह खॉंसी ने अपनी गति तीव्र की राज का खुल्‍ल-खुल्‍ल से जैसे दम बाहर निकला जा रहा हो, उसने दूसरा हाथ गले से चिपका लिया, यद्यपि रमा स्‍वतन्‍त्र हो गई है, तथापि कुछ अंग उसे चपेटे हुये हैं। तभी राज, गड़ाक-गड़ाक...करने लगता है जिससे उसे करवट बदलनीपड़ती है। वह बेहाल जैसा लुन्‍ज हो जाता है। रमा को ज्‍यों ही मुक्ति मिली त्‍योंही दरवाजे की ओर लपकी झटपट सांकुल खोली। हल्‍की सी चरचराहट से द्वार खुला। वह तुरन्‍त बाहर।

जब्कि घनघोर अंधेरे के कारण रास्‍ता बिलकुल नहीं दिख रहा है, फिर भी वह आड़े-तिरछे पॉंव पटकती हुई, जान छोड़कर भागती जा रही है।

उसकी सूती साड़ी का आँचल सरसराती हवा में लहरा तो क्‍या रहा है, समझो फड़फड़ा रहा है। बालों को भी हवा जैसे नोंच रही हो। दोनों हाथों में लाख की दो-दो, तीन-तीन चूड़ी खनखना रही है। गले का नकली मोतियों का हार भी उरोजों के साथ ऊपर-नीचे उछल-कूद कर रहा है। कभी-कभी वह ठुड्डी को भी चूम लेता है।

मैंढक टर्र-टरा रहे हैं। बिजली पल-पल में चम-चमाकर कड़क उठती है। मेघों का गरजना और पानी की रिमझिम तो जारी ही है। मगर इतने ठण्‍डे मौसम में भी रमा पसीने में तर है। और ऊपर से पानी भी खूब तेज बरसने लगा। उसके पॉंव रूक गये उलझन में पड़ गई कि अब किधर जाये?

वह तुरन्‍त ही बायें और मुड़ गई। सामने उसने देखा- एक छोटी सी लौ हवा के झोंकों से लड़खड़ा रही है। ऊपर शायद कलश चमक रहा है। कुछ पल में वह उस झूमते दीपक के पास जा बैठी, जहॉं पत्‍थर की एक बड़ी मूर्ति विराजमान है, उसने हॉंफते-हॉंफते मूर्ति को निहारा... ‘’दुर्गे मॉं अब तू ही बता मैं कहॉं जाऊँ? क्‍या करूँ, मेरे प्‍यार ने मुझे धोखा दे दिया। मॉं! वह प्‍यार वासना मात्र था...वापस घर जाऊँ? नहीं मॉं वहॉं मैं प्रतिपल घुटती रहती हूँ। वहॉं का वातावरण मुझे चैन की सॉंस नहीं लेने देता। जब मेरी पड़ोसी सहेलियॉं, जो मुझ से बहुत कम हसीन हैं, क्रीम पाउडर चिपड़कर और अच्‍छे-अच्‍छे कपड़े, गहने, पहनकर मुस्‍कुराती, खिलखिलाती आपस में हंसी-मजाक करती स्‍कूल कॉलेज या सिनेमा जाती हैं। तब मेरी अभिलाषाएँ तड़प उठती हैं। मैं बेचैन हो जाती हूँ। सोचती हूँ, काश! मैं भी इनकी तरह सजधजकर घूमने निकलती, लोग मुझे भी ललचाई ऑंखों से देखते।‘’

कितना गौरव मेहसूस करती, मगर मेरे नीरस जीवन में वे बहारें नहीं हैं। मॉं और पिताजी दिन भर अनमोल पसीना बेंच कर, पेट की आग बुझा पाने के लिए कमा पाते हैं। दूसरी चीजों को या शादी-विवाह के लिए सोच भी नहीं सकते। तन के कपड़े जब तक चिथड़े ना हो जायें, नये नहीं बन पाते। जब नये कपड़े या दूसरी चीज खरीदते हैं तब खरीदते हैं तब कभी-कभी मेरे छोटे चार भाई-बहन रोटी के लिए मुझे नोंच-नोंच खाते हैं। तब मैं उन्‍हें कहॉं से रोटी दे सकती हँ मॉं। बड़ी मुश्किल से समझा पाती हूँ कि उन्‍हें आज अमुक देवता का उपवास रखना होगा।‘’

कितने भोले हैं मेरे भाई-बहन और मॉं-बाप भी...और मैं।छि...छि... कितनी स्‍वार्थी कि उन्‍हें छोड़कर उनका सर नीचा करने और स्‍वयं नरक में रहने चली थी। अब चाहे पिताजी काट ही डालें, पर मुझे घर ही जाना चाहिए।

वह उठी अब पानी सिर्फ फुहार के रूप में बरस रहा है। दरवाजे के दोनों तरफ झांका कोई नहीं है। वह झिझकते-झिझकते चली अपने घर की और।

मेघ कुछ साफ हो गये हैं। हवा भी मंद गति से बह रही है। अंधेरा तारे अब भी है पर उतना नहीं, जितना पहले था कि रास्‍ता धुधला भी नहीं दिखाई दे रहा था। मैंढकों की टर्र-टर्र भी बहुत कम है। कुछ समय वह सोच-विचार में अंधेरे और सन्‍नाटे को चीरती रही। एकाएक उसके पैर रूक गये, ‘’अरे..यह क्‍या पीछे का दरवाजा खुला हुआ दरवाजे पर शायद पिताजी हैं। अरे अरे उन्‍होंने, तो बड़े गुस्‍से से टूटे हुये किवाड़ को अन्‍दर से बन्‍द कर लिया, शायद मुझे ही ढूँढ़ कर आ रहे हैं...वह दबे पॉंव झेंपते और कॉंपते हुये आगे बड़ी दरवाजे के निकट पहुँचकर बांये और मुड़ी, जहॉं दीवार में एक छेद था। कच्‍ची दीवार होने के कारण शायद बरतसात में उसकी मिट्टी गिर गई थी, उस छेद में से वह झॉंकने लगी, चारों भाई-बहन बेख़बर नींद की गोद में पड़े हैं। मगर उन्‍हीं के पास मॉं फटी साड़ी को लपेटे हुये ठुठरी सी बैठी है। पिता गीले कपड़े को ही पहने हुये बूढ़ी खाट पर करम से हाथ लगाये हुये ना जाने क्‍या सोच रहे हैं। मेरे अचानक गायब होने से उनके दिल पर ना जाने क्‍या गुजर रही होगी, ऐसे में मेरी भी जाने की हिम्‍मत नहीं हो रही है। पिताजी और मॉं नोंच-नोंच खायेंगें। शायद मॉं तो मारे भी। हो सकता है, पिताजी का हाथ छूट जाये...

‘’रमा के पिता!’’ उसकी मॉं की आवाज सुनकर वह तुरन्‍त दरवाजे के समीप आ खड़ी हुई। वह पुन: बोली, ‘’अन्‍जू के यहॉं देख आये?’’

‘’अरे उसके यहॉं क्‍या होगी इतनी दूर’’

‘’उसकी सहेली है, उसकी तबियत ठीक नहीं है, शायद मिलने गई हो।‘’

‘’इतनी रात गये?’’

‘’हॉं ये तो है, लगता है- वह तो राज के साथ...’’

‘’राज?’’

‘’हॉं राज अच्‍छा आदमी नहीं, उसकी बातें तो बनावटी सी लगती थीं मैं कहती थी उसे ज्‍यादा मत आने दिया करो, मगर...’’

‘’अरे उससे क्‍या, अपने दाम खोटे तो...परसों रमा को देखने लोग आ रहे हैं। सेठजी से भी कर्जों का कह दिया है, उन्‍हें क्‍या, सभी को क्‍या मुँह दिखलाऊँगा। ऐसी औलाद होते ही मर जाती।‘’

‘’जी छोटा करने से कुछ नहीं होगा, तुम जरा अंजु के यहॉं तो देख आओ।‘’

‘’अरे उसके यहाँ क्‍या होगी।‘’ वह उठते हुए बोला, ‘’तसल्‍ली के लिये उसके यहाँ भी हो ही आता हूँ।‘’

रमा दरवाजे के करीब खड़ी अंजु के बारे में सोच रही थी कि चरमराहट करते हुये दरावाजा खुला-

‘’कौन? रमा!’’

‘’जी! रमा को फुरेरी आ गई, कॉंपते हुये, नजरें जमीन में गड़ा ली।

‘’कटवा आई नाक!’’ उसकी आँखें लाल हो गईं यह आवाज सुनी तो उसकी (रमा की) माँ भी झट दरवाजे पर आ धमकी और उसका जूड़ा पकड़कर अन्‍दर खींचती हुई बड़बड़ाई, ‘’बदजात कहीं की मर ही क्‍यों नहीं गर्इ। यह काला मुँह हमें दिखाया ही क्‍यों’’ वह लात और घूंसों की बरसात करने लगी। दना..दन...

‘’माँ! रमा चीख उठी।

‘’अरे माँ को तो जीते जी मार डाली कलमुँहीं!’’ वह उसे पीटती ही गई, दे लात दे घूँसा और बड़बड़ाई, ‘’बोल कहॉं गई थी।‘’ पीटना रोककर, ‘’बोल...बोल कहॉं थी रात भर?’’

‘’अंजु के यहॉं दवा देने...’’ रमा बुरी तरह हॉंफ रही है।

दोनों का क्रोध और शंकायें पल भर में सहानुभूति में परिवर्तित हो गई। उसके पिताजी ने तुरन्‍त रमा को उठा कर गले से लगा लिया, ‘’इतनी रात गये, मैं चला जाता बेटी, तेरा जाना ठीक नहीं, कह कर जाना था बेटी।‘’ रमा कुछ सोच में पड़ गई। झूठ तो बोलो, जो परिणाम होगा देखेंगें।

‘’कह नहीं पाई पिताजी, तुम जाते तो तुम्‍हारी तबियत और खराब हो जाती। मैं दिन में उससे मिलने गई थी। तभी मुझसे उसने बाजार से दबा मंगाई थी। मगर मैं भूल गई। रात नौ बजे याद आया कि उसे दवा देनी है, तो जल्‍दी ही चली गई, रात अधिक हो जाने के कारण उन्‍होंने वहीं सुला ली, भुन्‍सारा हुआ तो आ गई।‘’

‘’खै़र कोई बात नहीं बेटी, जाओ कपड़े सुखा लो-तुम्‍हारी माँ की जल्‍दबाजी के कारण तुम्‍हें फिरी में मार लगी। अब अकेली कहीं मत जाना, हॉं।‘’

रमा कपड़ों की उठाधरी करते सोच रही है-धोके बाज राज ने मुर्गी को फांसने के लिये दाने तो डाले थे मगर असफल हो गया। इससे पूर्व कि उसके ज़हरीले दाने मेरे हलक से उतरते मेरी ऑंखें खुल गई।

-इति-

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

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