कहानी--
लहरें
--आर. एन. सुनगरया
किसी भी जवान लड़की के लिये सुहागरात का इन्तजार कितना सुखद और मधुर होता है। इससे भी अधिक तीव्र रोमान्चकारी एवं तरंगित कर देने वाला वह इन्तजार होता है, जो सुहागरात को ही किया जाता है। यानि अपने साजन का इन्तजार।
सुशीला भी इसी इन्तजार में लहरा रही है। ऑंखें मींचे भी वह ऐसे-ऐसे रमणीक दृश्यों को निहार रही है। जहॉं के सजीव सौन्दर्य को देखकर अन्य कुछ भी देखना अच्छा नहीं लगता।
क्षणभर में उसके सामने अतीत के अनेक सुख-दु:ख पूर्ण वाक्यात कौंध जाते हैं। कभी मॉं –बाप, भाई-बहन, सखी-सहेलियों को छोड़ने का दु:ख सताने लगता है। मगर तुरन्त ही पिया की बाहों में खो जाने की कल्पना आनन्दित कर देती है। जैसे चमकती चंचल नदियॉं समुद्र में समा जाती हैं। उसी प्रकार वह कल्पना में अपने पति की बाहों में अपने आपको भुला देने का अभ्यास सा कर रही है।
वह कदम गिनती हुई खिड़की के पास गई, कितनी शांत शीतल समीर बह रही है। उसने खिड़की बन्द की, फिर एक नज़र दरवाजे की तरफ देखा और ताजा फूलों से महकती सेज को देखती हुई, आराम कुर्सी पर बैठ गई। आँखें मींच कर सपनों के संसार में लीन हो गई।
‘’कौन?’’ सुशीला एक सरसराहट सी पैदा कर देने वाले किसी के प्रवेश से चौंक उठी, ‘’आप!’’ वह मुस्कुराई।
सुशीला का इस प्रकार चौंकना आगन्तुक को ना जाने क्यों बहुत बुरा लगा। वह सोचने लगा कि कहीं इसका कोई प्रेमी तो नहीं है, जिसकी यादों में खोई हुई मुझे देखकर चौंक गई हो.....नहीं-नहीं ऐसा नहीं हो सकता।
वह आगे बढ़ता है, उसकी अन्तर्रात्मा विद्रोह कर उठती है, ‘’नहीं-नहीं राजेन्द्र तेरी यह गलती प्रगति में बाधक है।‘’ वह इसी सोच-विचार में पलंग तक पहुँचा।
राजेन्द्र के दिल की धड़कनें इतनी तेज नहीं थीं, जितना तेज सुशीला का दिल धड़क रहा था।
‘’सुशीला, मुझे अफसोस है।‘’ यह कहते हुये राजेन्द्र के होंठ कॉंप रहे हैं। ‘’मेरी नामर्जी और अपने मॉं-बाप की जिद के कारण हुई शादी को मैं अपनी उन्नति में बाधक मानता हूँ। इसलिये तुम्हें वह प्यार नहीं मिल सकता, जो मिलना चाहिए।‘’
‘’जी!’’ सुशीला को जैसे किसी सॉंप ने डस लिया हो या उस पर आसमान टूट पड़ा हो। वह चीख उठी।
‘’हॉं!’’ राजेन्द्र खिड़की की ओर जाते हुये बोला, ‘’औरत आग होती है चाहे वह कोई भी हो।‘’
सुशीला ने उसे घूँघट उठाकर एक नज़र देखा, ‘’यदि औरत को प्यार की फुहार मिल जाये, तो वह शीतल सागर भी हो सकती है।‘’ उसने कोशिश की कि राजेन्द्र अपना विचार बदल दे।
‘’तुम इस फुहार के लिए हमेशा तरसती रहोगी।‘’ राजेन्द्र के चेहरे पर कुछ घृणा सी झलक आई।
‘’पत्नी का अधिकार होता है, पति का प्यार प्राप्त करना।‘’ सुशीला की आवाज कुछ कठोर हो गई, ‘’इसे प्राप्त करने हेतु मैं भी अपने कर्त्तव्यों को घ्यान में रखकर हर सम्भव प्रयत्न करूँगी।‘’
यहॉं तक आते-जाते सुशीला को प्रतीत हुआ कि राजेन्द्र को उसे लेशमात्र भी प्यार नहीं है। इस विचार की पुष्टि भी राजेन्द्र के इन वाक्यों से हो गई, ‘’तुम क्या जानो कर्त्तव्य और अधिकार अनपढ़, गँवार।‘’
सुशीला का रोम-रोम कॉंप उठा, ‘’जरूरी नहीं कि ये सब पढ़ी-लिखी ही जाने।‘’ उसकी आवाज थर्रा गई।
हालांकि वह पढ़ी-लिखी अवश्य थी, लेकिन उसने अपने आप से बताना उचित नहीं समझा।
-- 2 –
महिने पर महिने गुजर गये, लेकिन सुशीला को चैन नहीं मिला। हालांकि पहनने-ओढ़ने, खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। छोटी ननंद भी जैसा वह कहती है, करती है। हॉं छोटे देवरजी जरूर कुछ गुस्सा करते हैं, लेकिन कभी-कभी जिस दिन देवरजी गुस्से में होते हैं, बर्तन-भाड़े फेंकने लगते हैं। मगर थोड़ी देर में फिर सुध में हो जाते हैं। हर व्यक्ति की एक निश्चित आाशा होती है। इसी आाशा के आधार पर वह जीता है। हर प्रकार के दु:ख-दर्द सहन करता है।
लेकिन सुशीला दिन भर परिश्रम करने के बाद भी वह नहीं पा सकती, जिसकी उसे आशा थी। पति का प्यार, उसके लिये तारे तोड़ने जैसा लगने लगा।
उसका रोम-रोम थककर चूर-चूर हो चुका था। मगर फिर भी वह बर्तन मॉंजने में लगी हुई थी। बड़ी उदास और बुझी-बुझी सी, वह अनेक निराशाजनक वाक्यों को अपने मन में दोहरा रही थी, तभी किसी गरजसम आवाज से चौंक पड़ी। राजेन्द्र चीख रहा था, ‘’मॉं......मॉं!!’’
सुशीला तुरन्त दौड़कर आ गई।
‘’मॉं जी पड़ोस में गईं हैं।‘’ सुशीला ने बहुत दबी आवाज में बताया।
’’मेरा बिस्तर किसने किया है?’’
‘’जी मैंने!’’
सुशीला जमीन ताकती हुई, अपराधियों की तरह खड़ी थी।
वह उसे लाल ऑंखों से घूरते हुये कह रहा था, ‘’तुझे मालूम नहीं है कि रोज मौटा चादर बिछता है और पतला ओड़ने के लिये रहता है।‘’ वह चादर को हाथ में लेकर ललकारने लगा, ‘’ये मोटा ओढ़ने को क्यों रखा और पतला क्यों बिछाया?’’
वह मौन खड़ी थी। उसके ऑंसू निकले पड़ रहे थे। वह कहना चाह रही थी कि आज ठण्ड है। इसलिये मौटा चादर ओढ़ने के लिये रखा है। मगर वह कुछ नहीं कह पाई। राजेन्द्र ही बोला, ‘’ये तूने इसलिये किया है, ताकि मुझसे बात करने का मौका मिलेगा। बेवकूफ कहीं की, तुझे मेरा प्यार कभी नहीं मिल सकता और सुनो आज के बाद तू मेरा कोई काम नहीं करेगी।‘’
वह सिसकती हुई घर में भाग गई।
--3 –
रोना सिसकना सुशीला की जैसे आदत सी बन गई। वह सोच रही थी-पत्थर में से पानी नहीं निकाला जा सकता। उसकी आशा टूट चुकी थी। मगर वह हारी नहीं, वह पूर्ववत्त पति के कमरे में अपने बिस्तर पर ही सोती, लेकिन राजेन्द्र के सामने उसका कोई काम नहीं करती।
राजेन्द्र उसे अपने कमरे से इसलिये नहीं भगा सकता था, क्योंकि उसे ना जाने कितने प्रश्नों के उत्तर देने पड़ते सबको, केवल उसे भगाने ही पर।
राजेन्द्र को अपनी नियमताओं में जरा भी असुविधा नहीं होती कभी शिकायत का मौका नहीं मिलता।
इस बीच मॉं द्वारा सुशीला की तारीफ भी सुनने को मिलती। राजेन्द्र इन सब बातों को सुनी-अन-सुनी कर देता।
लेकिन जब उसे अपनी बहन और भाई से यह पता चला कि सुशीला पढ़ी-लिखी है। तो अनायास ही उसका दिमाग सुशीला के विषय में सोचे बगैर ना रहा।
जब यह बात बिलकुल पक्की हो गई कि वाकई सुशीला पढ़ी-लिखी है, तो उसके दिमाग में एक प्रश्न कौंधने लगा----सुशीला ने उससे यह बात छुपाई क्यों?
अपनी बहन द्वारा उपरोक्त प्रश्न का उत्तर पुछवाने पर राजेन्द्र को मालूम हुआ कि उसने, उससे इसलिये बात छुपाई, क्योंकि वह खुदबाखुद नहीं कह सकती कि मैं पढ़ी-लिखी हूँ।
निम्न वर्ग में यही तो त्रुटि है। लड़की के विषय में पूरी-पूरी जानकारी लिये बगैर ही शादी कर देते हैं। शादी से पहले लड़के-लड़कियों को मिलने का तो रिवाज ही नहीं है और लड़की के बारे में या लड़की, लड़के के बारे में कुछ नहीं पूछ सकती। हालांकि अब ऐसी स्थिति नहीं है।
--4—
‘’आज सब्जी कुछ अच्छी बनी है।‘’ कहता हुआ राजेन्द्र अपने स्टेडीरूम में घुसा ही था कि किचन रूम में थाली फेंकने की आवाज आई। वह तुरन्त वहॉं पहुँचा। दृश्य देखकर ही समझ गया कि छोटे भाई महेन्द्र ने सुशीला के ऊपर थाली फेंकी थी।
राजेन्द्र गुस्से में महेन्द्र को डॉंटने लगा, ‘’ये तुम से बड़ी है। उसके साथ ये सुलूक ? माफी मॉंगों अभी! इसी वक्त!’’
महेन्द्र बहुत डर गया। राजेन्द्र की दहाड़ती सी आवाज से उसने अपनी भाभी से माफी मॉंगी और अपने रूम में चला गया।
राजेन्द्र की सहानुभूति अपने तरफ देख सुशीला का अंग-अंग खिल गया, क्योंकि ये घटना सुशीला द्वारा ही सुनियोजित थी।
राजेन्द्र के जाने के बाद सुशीला महेन्द्र के कमरे में गई और उससे माफी मॉंगने लगी, ‘’माफ करना देवरजी मैंने मजाक-मजाक में तुम्हारी थाली में नमक डाल दिया था। इसलिये तुम्हें थाली फेंकने के कारण डॉंट खानी पड़ी।‘’
महेन्द्र ने तिरछी नजर से सुशीला का चेहरा देखा। उस भोले और मुजरिम चेहरे को देखकर शायद उसे दया आ गई। बोला, ‘’अच्छा माफ करता हूँ, मगर एक शर्त है, तुम भैया से मुझे फिल्म देखने के लिये पैसे ला दो।‘’
‘’अभी लाती हूँ।‘’ वह खुश हो गई।
--5—
राजेन्द्र कुछ लिख रहा था। तभी सुशीला ने नीचे नज़रें करके कहा, ‘’आपने महेन्द्र को यूँ ही डॉंटा। वास्तव में मेरी ही गलती थी....
‘’लेकिन सब्जी मैंने भी तो खाई है, मुझे तो अच्छी लगी।‘’ यह आवाज सुशीला को बहुत मीठी लगी, ‘’हो सकता है उन्हें अच्छी ना लगी हो।‘’
‘’यह कैसे हो सकता है।‘’ राजेन्द्र ने कुछ आश्चर्य किया।
‘’सब कुछ हो सकता है।‘’ सुशीला ने उसकी और देखा, ‘’अब आप प्रायश्चित स्वरूप उन्हें फिल्म देखने के लिये पैसे दे दीजिये।‘’
राजेन्द्र को आज सुशीला कितनी अच्छी लग रही थी। उसने फोरन पैसे दे दिये। वह महेन्द्र को पैसे देने चली गई।
राजेन्द्र सोचने लगा, मैं भी कितना मूर्ख हूँ। हीरे को पत्थर समझ कर ठुकराता रहा। खुद तो तरसता ही रहा, मगर उसे भी अपने अधिकारों से वंचित कर दी। उसमें कितना त्याग करने की शक्ति है। वह महान है। मैं उसे अपनी उन्नति में बाधक समझता रहा, मगर वह पारिवारिक संगठन में कितनी सहयोगी है।
वह तिरछी निगाह से देखती हुई घर में जा रही थी। तभी राजेन्द्र ने उसे टोंक दिया। ‘’सुशीला’’।
वह तुरन्त उसके सामने आ खड़ी हुई, जैसे उसे उसकी प्रतीक्षा हो। वह बहुत खुश नज़र आ रही थी।
दोनों एक दूसरे को मदहोश नजरों से देखते रहे। कुछ ही समय बाद उनके हृदय में ऐसा तूफान उठा कि राजेन्द्र की बाहें फैल गईं और सुशीला उनमें ऐसे चिपटा गई जैसे वालपिनों में बाल।
‘’मैंने तुम्हें बहुत दु:ख दिया है सुशीला।‘’ राजेन्द्र का प्यार भरा स्वर गूँज गया।
‘’आज सब दु:ख, सुख में बदल गया।‘’ दिल में उठती लहरों को किनारा मिल गया।
♥♥इति♥♥
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय-
समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं
स्वतंत्र लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)
मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
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