कहानी--
कुछ से कुछ
आर. एन. सुनगरया
दरवाजे पर दस्तक सुनकर गौर साहब ने दरवाजा खोला। सामने खड़े आगन्तुक का चेहरा देखते ही उनके ऊपर ना जाने कैसी प्रतिक्रिया हुई कि उनका चेहरा तुरन्त लाल-पीला हो गया। ऐसा लगा जैसे उन्हें वह वस्तु मिल गई, जिसकी उन्हें वर्षों से तलाश थी। इससे पूर्व कि गौर साहब अपने आप पर संयत होते, आगन्तुक ही बोला, ‘’आप हैं श्री गौर, हत्या और जासूसी कहानियों के फैमस लेखक?’’
उन्होंने अपने आपको सम्हाला, ‘’अन्दर आइए।‘’
दोनों एक साथ अन्दर आये, नज़र निरीक्षण किया। कमरा तो वैसा ही था, जैसा उसका स्वयं का था। मगर दोनों कमरों की साज-सज्जा में काफी अन्तर था। आगन्तुक का कमरा पूर्ण दम्पति के कमरे में केवल एक बिस्तर था, टेबल कुर्सी थी, जिन पर दस्ता कागज बिखरे पड़े हैं। पड़ोस में कुछ किताबें और अन्य सामान के साथ उसे चौंकाने वाली चीज शराब की बोतलें थीं.........।
‘’आप बैठिये!’’ श्री गौर ने आगन्तुक को कुर्सी की ओर इशारा करके बैठने को कहा, ‘’मैं अभी आया।‘’
आगन्तुक ‘’धन्यवाद!’’ कहते हुये बैठ गया और गौर साहब अन्दर जाकर पेटियों अलमारियों में कुछ ढूँढ़ने लगे। उन्होंने एक डायरी निकाली। उसके पन्ने पलटे। एक फोटोग्राफ निकालकर उसे ध्यानपूर्वक घूरने लगे। फिर उधर बैठे आगन्तुक को देखा। यही क्रम दो/तीन बार दोहराया, ‘’वही है।‘’ उनके मुँह से तीव्र ध्वनि निकली, ‘’अब नहीं बच सकता जीवन।‘’
‘’जी?’’ आगन्तुक की आवाज आई, ‘’आपने मुझसे कुछ कहा?’’ गौर साहब घबरा गये। उन्हें सन्देह हुआ शायद आगन्तुक ने उनका वाक्य सुन लिया है। मगर वे तुरन्त संयत होकर बोले, ‘’जी कुछ नहीं।‘’ वे उनके करीब आकर बोले, ‘’मेरे दिमाग में हमेशा पात्र बातें करते रहते हैं।‘’ वे मुस्कुराए।
आगन्तुक भी मुस्कुरा दिया, ‘’तभी तो आप इतनी अच्छी कहानियॉं लिख पाते हैं।‘’
उन्होंने मेहसूस किया कि आगन्तुक ठीक से सुन नहीं पाया, सम्भव है सुन भी लिया हो, तो अब अपने को अपना काम पूर्ण सावधानी पूर्वक करना चाहिए। यह सुनिश्चित करके गौर साहब ने अपने आपको पूर्ण खुशहाल करने का प्रयत्न किया। ताकि वह उनके हृदय में चल रहे द्वन्द को चेहरे पर ना देख पाये। उन्होंने यह जानने के लिये कि उसने सुना है या नहीं, कहा, ’’माफ कीजिये मुझे, आपका परिचय प्राप्त नहीं हुआ।‘’
‘’जी माफी की क्या बात है।‘’ आगन्तुक ने अपना परिचय दिया, ‘’मेरा नाम जीवन है, मैं पी.डब्ल्यू.डी. में इन्जीनियर हूँ। क्योंकि मैं दहेज प्रथा का विरोधी हूँ। इसलिये मेरे पिताजी ने मेरे द्वारा लव-मैरिज करने के परिणाम स्वरूप मुझे घर से निकाल दिया है। कुछ ही दिनों पूर्व इस शहर में यह सर्विस मिली तथा इस किराये के मकान के साथ आपसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।‘’
‘’सौभाग्य!’’ गौर जी ने मन ही मन कृत्रिम मुस्कान के साथ सोचा, ‘’दुर्भाग्य कहो दुर्भाग्य!’
‘’जी हॉं सौभाग्य।‘’ जीवन ने कहा, ‘’आप की कहानियॉं मुझे बहुत पसन्द है। मैं आपके नाम के बारे में कई मरतबा सोच चुका हूँ, क्या बतायेंगे कि आप अपने नाम ‘’गु. गुलाब गौर’’ में ‘गु.’ का क्या अर्थ है?’’
गौर साहब कुछ असमंजस में पड़ गये। क्या बता दूँ कि गुलाब मेरी प्यारी बेटी का नाम था, जिसे मैं प्यार से गुड्डी कहता था, जो ट्रेन एक्सीडेन्ट में तड़पती हुई मर गई। उसी के व्योग ने मुझे लेखक बनाया। यह उसी का नाम है गु.= गुलाब....
‘’आप किस सोच में पड़ गये?’’ जीवन ने उन्हें वर्तमान् में खींचते हुये कहा।
‘’जी! कुछ नहीं!’’ उन्होंने जीवन के प्रश्न का उत्तर दिया, ‘’बचपन में मेरे मित्र गुलाम मोहम्मद की ट्रेन दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी, उनकी याद में अपने नाम के आगे उनके नाम का पहला अक्षर ‘गु.’ लगता है।‘’
‘’ओह!’’ जीवन ने कहा, ‘’आपको इतने कथानक कहॉं से मिल जाते हैं। जो आप हत्या ही हत्या पर निरन्तर इतनी अच्छी कहानियॉं लिखते रहते हैं।?’’
‘’कथानक तो हर जगह बिखरे पड़े हैं। मैं तो मात्र उन्हें समेटने का काम करता हूँ।‘’
‘’यानी!’’ जीवन ने कुर्सी का हत्था ठोंकते हुये पूछा, ‘’आपको कुछ तो सोचना पड़ता होगा?’’
‘’बहुत कम सोचना पड़ता है’’ उन्होंने बताया, ‘’जो व्यक्ति दूसरों की अभिलाषाओं, सपनों को चूर-चूर करते हैं, जो समाज में ऐसे कर्म करते हैं, जिन से परस्पर घृणा, इन्तकाम और विनाश का प्रसार होता है। मैं उनके प्रति ऐसे कथानकों का निर्माण करता हूँ, जिनमें उन्हें कुत्तों की मौत मारा जा सके, ताकि समाज में ऐसे कुकर्म ना पनपें।‘’
‘’ओह, आपका बहुत अच्छा उद्धेश्य है।‘’ जीवन उठते हुये बोला, ‘’अच्छा अभी चलूँ फिर मुलाकात होगी।‘’
‘’अरे अभी कैसे जा सकते हो।‘’ गौर जी ने उसे रोकने की कोशिश की, ‘’बातों ही बातों में, मैं आपको चाय भी ना पिला सका। बैठिये चाय पीकर जाइएगा।‘’
‘’जी मैं चाय नहीं पीता।‘’ जीवन चल दिया, ‘’नमस्ते!’’ गौर साहब के देखते-देखते जीवन उनकी नज़रों से ओझल हो गया/मगर वे फिर भी पूर्ववत्त उधर ही देखते हुये, सोच विचार और विगत वर्षों की यादों में खो गये---------
....कितना खुश था मैं, इसलिये नहीं कि उस दिन दिवाली थी, बल्कि इसलिये कि गुडि़या की शादी के लिये दहेज का इन्तजाम हो गया था। शाम को घर पहुँचते ही गुडि़या को अध्ययनरत देखकर कहा, ‘’अरे कभी हवा में घूमने भी तो जाया करो।‘’ मैंने उसके हाथ से किताब छीन ली थी।
‘’कुछ दिनों से आपको उदास चिंतित और मुर्झाया देख कर मुझे भी बड़ा ग़म सा रहता था।‘’ वह खड़ी हो गई थी, ‘’पर आज आपको खुशी से झूमते हुये देखकर मुझे बहुत खुशी हो रही है। सच बाबू, बहुत खुशी......’’
कहते-कहते वह मुझसे लिपट गई थी।
‘’खुशी क्यों ना हो गुड्डी। तू अब एक नये संसार, अपने संसार में जो जा रही है।‘’ कितना दर्द था इन शब्दों में ।
‘’नये संसार।‘’ वह चौंक कर मुझसे अलग हो गई, ‘’यानी आपने मेरी शादी के लिये कर्ज लिया है या कुछ बेच दिया है। इसलिये खुश हैं आप?’’
‘’हॉं बेटी शादी में दहेज के लिये थोड़ा बहुत कर्ज या कुछ बेंचकर तो रूपया इकट्ठा करना ही पड़ता है।‘’ मैं यूँ ही मुस्कुरा दिया था।
‘’नहीं बाबूजी!’’ वह जैसे कुछ आवेश में आ गई हो, ‘’दहेज के लिये कुछ बेचने या कुछ उधार लेने का अर्थ है-अपने आपको परतंत्र कर लिया। अब आप अपनी जिन्दगी के शेष अमूल्य वर्ष कर्ज अदा करने में, अनेक अभावों में, सिसकती जिन्दगी व्यतीत करोगे।‘’
‘’नहीं बिट्टो!’’ मैं पुन: कृत्रिमता से मुस्कुराया, ‘’मैं ही कुछ दिनों में रात-दिन मेहनत करके ये कर्ज अदा कर दूँगा।‘’
‘’इसके लिये भले-भले लोगों का शोषण करोगे।‘’ वह एक सच्चे देश भक्त की भॉंति बतरा रही थी, ‘’यदि आपने कर्ज ना लिया होता तो सम्भव है आप देश में कुछ रचनात्मक कार्य कर सकते।‘’
‘’लेकिन बेटी दुनियॉं के रस्मों–रिवाजों को तो निभाना ही पड़ता है।‘’ जैसे मैं उसकी बातों से सहमत हो गया होऊँ।
‘’ऐसी रस्मों-रिवाजों को, जान होम कर भी तिलांजलि देनी चाहिए। जो समाज और देश के लिये जहर बन गये, जिन्होंने अनेक परिवारों को बरबाद कर दिया, जो रचनात्मक कार्यों के स्थान पर शोषण और परतन्त्रता की ओर प्रेरित करते हैं।‘’
‘’हर बाप का कर्त्तव्य होता है बेटी कि वह अपनी औलाद के हाथ पीले करे।‘’ मेरी आवाज भी कुछ सख्त और गम्भीर हो गई।
‘’लेकिन बाबूजी!’’ वह मेरी ओर घूरते हुये बोली, ‘’इससे भी बड़कर प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह देश की शक्ति क्षीर्ण करने वाली और विद्यवन्सात्मक प्रत्येक प्रथाओं या रीति-रिवाजों आदि को खत्म करने में अपना पूर्ण सहयोग दे।‘’
‘’जाओ तुम्हें जो अच्छा लगे वह करो।‘’ ना जाने क्यों मैं पागल जैसा हो गया, ‘’दूर हो जाओ मेरी निगाहों के सामने से।‘’
अनायास ही मेरा यह गुस्सा, जो बहुत समय से दबा रखा था, उभर आया और उसे इतना चुभा कि वह मेरे नाम एक पत्र छोड़कर मुझसे हमेशा-हमेशा के लिये दूर हो गई, मैंने पत्र पढ़ा.........
....बाबूजी,
आप पहले भी मेरी दो बहनों की शादी के कर्ज और मॉं की मौत पर हुये कर्ज के बोझ में दबे हुये थे। लेकिन मेरे यह कहने कि मैं ऐसे लड़के से शादी नहीं करूँगी, जो दहेज और फिजूलखर्ची, धूम-धाम को महत्व देगा। बावजूद आपने पुन: और कर्ज लिया। मैं आपको कर्ज के बोझ में नहीं मरने दूँगी। आप कर्ज लौटा दीजियेगा। मैं कल ही अपने प्रेमी, जिसका फोटो आपके सामने है, से शादी करके आपका आशीर्वाद लेने आऊँगी।
आपकी लाड़ली बेटी
गुलाब---
......’’लेकिन मेरे दिल को मुझसे बहला फुसलाकर मुझसे दूर करने वाले ‘जीवन’ मेरी प्रतीक्षा पूरी हुई। मेरी प्रतिज्ञा है—तुझे खत्म करके ही रहूँगा। नामोनिशान मिटा दूँगा इस जमीं से तेरा।....’’
गौर साहब की ध्वनि पूरे कमरे में गूँज गई, उन्होंने देखा जीवन ना जाने कब का जा चुका है। दरवाजा खुला पड़ा है। उन्होंने गालों पर लुड़के ऑंसुओं को पोंछा।
गौर साहब को समझ नहीं आ रहा था कि जीवन का कत्ल किस प्रकार किया जाय। जो कहानियों में अनेक कुकर्मियों व्यभिचारियों। समाज के घातक धोखेबाज पात्रों की बड़ी आसानी से हत्याऍं करवा देते थे, लेकिन कई दिनों के प्रयत्नों के बाद भी आज तक वे जीवन की हत्या ना कर सके।
उन्हें बार-बार अपने ऊपर ग्लानि हो रही थी और यही ख्याल आ रहा था कि लेखक को वही काम अपने पात्रों से करवाना चाहिए जिसे वह खुद करने में सक्षम हो।
उन्होंने निश्चित किया कि वे अपनी प्रतिज्ञा, आज अवश्य पूरी करेंगे।
रात का दूसरा पहर शुरू हो गया था, मगर गर्मी अब भी थी। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। इस धुँधले अँधेरे में वे अपने दरवाजे के सामने बनी सीडि़यों से उतरे और जीवन के घर की ओर मुड़ गये।
उन्होंने देखा रोज की तरह बाहर के कमरे में मूनलाईट नहीं जल रही है। सारा कमरा अंधेरे से भरा हुआ है।
रोज जीवन मूनलाईट की मंद रोशनी में बाहर सोता था और उसकी बीबी अन्दर सोती थी, लेकिन आज अन्धेरे में नज़रें भेद कर देखने पर उन्हें ज्ञात हुआ शायद जीवन अकेला सो रहा है। वह पूर्णत: चादरों से ढका हुआ था।
यह उनके लिये चाकू सम्हाला और बाऊँड्री पर चढ़े, मगर घबराहट में कॉंपते हुये धम्म से लुड़क पड़े। साथ ही एक भयभरी आवाज आई, ‘’कौन है?’’
वे उठ कर कुछ हट कर खड़े हो गये। उन्होंने देखा एक युवती अपने कपड़े हड़बड़ाते हुये ठीक कर रही है। ‘’कट्ट’’ की आवाज के साथ तुरन्त लाईट जल उठी।
‘’कौन है।‘’ पुन: वही आवाज गूँजी।
गौर साहब पसीना-पसीना हो गये थे। उनकी घबराहट के कारण जुबान और पैर नहीं हिल सके। तब तक गेट तक जीवन आ चुका था।
‘’ओह गौर साहब आप!’’
‘’जी, वो....’’ वे सकपका गये।
इससे पूर्व कि गौर साहब आगे कुछ कहते, जीवन बोल पड़ा, ‘’अच्छा आपके पात्र परेशान कर रहे होंगे या गर्मी ज्यादा है।‘’ जीवन मुस्कुराते हुये बोला, ‘’अन्दर आइए।‘’
उन्होंने एक कदम अन्दर ही रखा था कि उनकी चीखती आवाज गूँज गई, ‘’गुडि़या!!!’’
‘’बाबू जी!’’ कहती हुई गुडि़या तुरन्त उनसे लिपट गई। दोनों के ऑंसू बहने लगे।
आवेशित आवाज में उन्होंने उसे गले लगाये हुये ही कहा, ‘’कहॉं खो गई थी गुडि़या तू!’’
गुडि़या ने कुछ देर बाद सामान्य हो कर बताया, ‘’मैं इनसे साधारण शादी करके आपसे आशीर्वाद लेने आ रही थी कि मुझे पता चला। आप उस लड़के का खून कर देंगे, जिसने बहला-फुसला कर मुझसे शादी की है। आपकी जिद मुझे मालूम थी। मैं इनकी रक्षार्थ वहॉं से रात की ट्रेन द्वारा इनके साथ, जिस ट्रेन से जा रही थी, उसका रास्ते में एक्सीडेन्ट हो गया। मैंने वहॉं आपको देखा, तो मैं फिर आपकी नज़रों से बचकर चुपके से इनके साथ दूर चली गई।‘’
‘’लेकिन।‘’ गौर साहब बोले, ‘’एक तुम्हारी उम्र की लड़की, जिसका चेहरा बिलकुल पिस चुका था। वहीं मर गई थी। उसके पास तुम्हारा बेग था। सभी ने मरने वाली का नाम गुलाब गौर बताया।‘’
‘’लेकिन पिताजी वह बेग एक्सीडेन्ट में उसके पास गिर गया था।‘’
‘’लेकिन मैं तो उसकी लाश पर पुन: प्रतिज्ञा कर चुका था कि अब जीवन मेरे हाथों से नहीं बच सकता। गौर सहब आवेश में आ गये!’’
‘’आज भी मैं इसी इरादे से आया था, बेटी मैं पापी हूँ, पापी!’’ वे सिर धुनने लगे।
जीवन और गुलाब उन्हें पश्चाताप करते देखकर संयुक्त स्वर में बोले, ‘’नहीं बाबूजी, आप तो पवित्र आत्मा हैं।‘’ उनके चरणों में झुककर बोले, ‘’हमें आशीर्वाद दीजिए।‘’
‘’मेरे जिगर के टुकड़ों।‘’ दोनों को सीने से लगा कर बोले, ‘’हे भगवान! तूने महापाप से बचा लिया। मैं कुछ और करने निकला था। तूने कुछ और कर दिया। तेरा करना कितना आनन्दमय है और मेरा करना...’’ गौर जी दोनों को बार-बार चूमने लगे।
♥♥-इति-♥♥
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय-
समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं
स्वतंत्र लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)
मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
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