कहानी--
प्रेम की बहार
आर.एन. सुनगरया
गर्मी की छुट्टियों में, जब किशन वर्षों बाद अपने गॉंव लौटा, तो वह फूला नहीं समा रहा था। उसका हृदय खुशी से उछल रहा था। मगर उसे क्या मालूम था कि उसके अपने घर में और दूसरे नहीं अपने सगे ही, उसके कोमल हृदय को छलनी कर देंगे।
शायद उदासी से मुक्ति पाने के लिए वह, पैर घसीटता उस मनोरम स्थान पर आ पहुँचा है, जहॉं लोग कड़कती धूप और खेतों के डीमोर से संग्राम करने के बाद आकर स्वर्ग सा आनन्द मेहसूस करते हैं।
उसने कुँऐ में झाँका, पानी स्वच्छ और शॉंत है। जैसे वह भी उदास हो। उसने मुस्कुराता, खिलता और महकता हुआ गुलाब तोड़कर, उसे गौर से देखा। वह आम की छाया में आकर ऐसा मेहसूस कर रहा है, जैसे उस पर बर्फ की फुहार बरस रही हो, इसलिये वह कह उठा, ‘’आह हा पचमढी़ का सा आनन्द आ रहा है। ‘’ उसने हरी और कोमल दूब पर पसरकर ऑंखे मींच लीं।
मगर वह तुरन्त किसी अप्रत्यक्ष शक्ति से चौंक उठा, ऑंखें खोली और झट उठ बैठा, ’’क्या इसी तरह पड़े-पड़े अपनी मॉं को दिया वचन निभा सकोगे किशन।‘’ अन्तर्रात्मा के इस वाक्य ने उसे सुदूर अतीत में ढकेल दिया........
.....घर के कौने-कौने में एक शोक सरगम छाई हुयी है। इसी सरगम में सिसकती और मुरझाई एक ध्वनि रूक-रूक कर कॉंनों के परदों पर टकरा रही है, ‘’बेटे......बेटे किशन, मैं शायद अंतिम घडि़यॉं गिन रही हूँ। मेरे पास आओ ।‘’
‘’मॉं में तुम्हारे पास हूँ, तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में है। तुम ठीक हो जाओगी मॉं।‘’
‘’अरे पगले तू अभी बच्चा है... नहीं समझता कि एक पल ऐसा भी आता है..... जब मॉं-बेटे हमेशा-हमेशा के लिये जुदा हो जाते हैं।‘’
‘’लेकिन’’।
‘’मैं यहीं हूँ कान्ता।’’ ‘’पिताजी ने कहा, मुझे माफ करना मैं तुम्हें कुछ सुख न दे सका।‘’
‘’अरे यह क्या किशन के बापू आपकी ऑंखो में ऑंसू, मैं कितनी भाग्यवान हूँ कि मेरी लाश को ले जाने में एक कन्धा आपका भी होगा।’’
‘’कान्ता....।‘’
‘’घबराइये नहीं किशन के बापू, मैं मरकर भी जी जाऊँगी, तुम कहा करते थे ना कि अपने बेटे को बड़ा अफसर बनायेंगे। मेरी अन्तिम अभिलाषा है कि बेटे किशन को डॉक्टर बनाओ, ताकि इस गॉंव में मेरी तरह बेइलाज, बे मौत...।‘’
‘’कान्ता......तुम्हारी अन्तिम अभिलाषा पूरी होगी।‘’
‘’हॉं माँ!’’
दूसरे दिन माँ अपनी अन्तिम यात्रा पर चली गई।
........किसी ने कुँए पर लगी मोटर का स्वीच ऑन किया.....कट्ट मोटर सनन्.....करती हुर्इ, पाइप के सिरे से पानी निकलने लगा.... भलल्.....भलल्....उसने ऑंसू पोंछे और अपने आपको सम्हाला, मगर एक अर्न्तद्वन्द में उलझ गया....क्या मैं उन पैसों से डॉक्टर बनॅूंगा, जो उन लोगो पर अत्याचार कर या उनका खून चूसकर कमाये जा रहे हैं, जिनके लिये मैं डॉक्टर बन रहा हूँ..... नहीं-नहीं यह गलत है-जिन निर्बलों पर बाप कोड़े बरसायें और बेटा उन्हीं की मरहम-पट्टी करे.....क्या ऐसा करने से मॉं की आत्मा को शान्ति मिलेगी शायद कभी नहीं......
‘’किशन बाबू बोरियत तो नहीं हो रही गाँव में ‘’ यह कहते हुये किसी ने उसका ध्यानाकर्षित किया।
नजरें ऊँचीकर किशन झट बोल पड़ा,’’ अरे जन्मस्थान पर कभी बोरियत होती है।‘’ फिर पूछा, ‘’कहॉं गये थे छोटू धूप में‘’
‘’अरे वह अपनी बहन लाजो है ना।‘’ छोटू धूप में ही खड़ा हो गया।
‘’हॉं.. हॉं क्यों क्या हुआ उसे’’ किशन के चेहरे पर शंका की लालिमा छा गई।
‘’सबेरे से चल-चलनी मचा रखी थी उसने।‘’
‘’कैसी चल-चलनी ‘’ किशन की शंका कुछ तीव्र हो गई।
‘’अचानक उस पर जबलपुर जाने का भूत सवार हो गया।‘’
छोटू ने बताया, ’’वह जिद की पक्की है। उसकी जिद के आगे किसी की एक नहीं चलती। उसे गाड़ी में बैठा कर आ रहा हूँ।‘'
‘’लेकिन अचानक क्यों चली गई’’ किशन ने जानना चाहा, ’’कोई कारण तो होगा?’’
‘’घरभर पूछ-पूछकर थक गया।‘’ छोटू माथे का पसीना पोंछते हुये बताने लगा,’’ मगर उसने बताया नहीं कि वह क्यों जा रही है। वहॉं उसका मामा रहता है।‘’
‘’क्या कुछ भी नहीं कहा उसने?’’ आश्चर्य मिश्रित स्वर किशन ने पूछा।
उसने अपनी आस्तीन से चेहरे का पसीना पोंछते हुये उत्तर दिया, ‘’कह रही थी कि अब वह एक पल भी इस गॉंव में नहीं रूक सकेगी, मगर कारण कुछ नहीं बताया।‘’
किशन पूर्ववत हो गया। ऑंखें खुलीं रह गई। उसे गत रात्रि का ध्यान आ गया। मन ही मन उसका स्मरण करने लगा.... जब मैं किताब लेने कोठी गया, जिसे दिन में भूल आया था, तो कोठरी में रोशनी व दरवाजे पर ताला लटका होने के कारण मेरी नजरें दरवाजे के छेदों से होती हुई, कोठरी के टिमटिमाते दीपक की धुँधली रोशनी में जा मिलीं देखा, बेवश हिरणी की तरह एक सुन्दर नवयुवती पड़ी छटपटा रही है। बड़ी-बड़ी ऑंखों से रक्तमयी नजरें दीपक की रोशनी से गुजरकर दीवाल से संघर्ष करती नष्ट हो रही हैं।
यह देखते हुये मुझे किसी की पदाहट सुनाई दी, मैं झटपट दीवाल की ओट में हो गया था, ओह बापू और ज्ञानू जिनके चेहरों पर विजेयता की भॉंति चमक है।
चमचे ज्ञानू ने ताला खोलकर दरवाजा खोला।
...ज्योंही जकड़ी हुई सिंहनी को शक्ति मिली त्योंही वह गरजी ‘’मुझे इस वक्त जबरदस्ती बॉंधकर क्यों लाये?’’
‘’ओ..हो..हो बड़ी कड़क आवाज है।’’ ज्ञानू बोला, ‘’ सुना मन्त्री जी, इस तरह लाने का मतलब भी नहीं समझती, बड़ी भोली है ना।‘’
‘’व्याभिचारियों’’ वह पुन: गरजी, ‘’क्या इसलिये लाये हो कि तुम अपनी वासना तृप्त कर, चलते बनो और फिर मैं मौत ढूँढती फिरूँ या जिन्दगी का बोझ लिये दर-दर भटकती रहूँ।‘’
‘’घबराओ नहीं लाजो, भटकने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी।‘’ ज्ञानू के शब्द थे।
‘’हमने तुम्हारी शादी के लिए एक लाजबाब लड़का तलाश कर लिया है, क्योंकि तुम्हारे बाप में तो सामर्थ नहीं।‘’
‘’ज्ञानू....।‘’ चीखते हुये शायद वह दॉंत किटकिटाने लगी थी, पुन: उसकी आवाज सुनाई दी, ‘’मंत्री जी मैं आपके हाथ जोड़ती हूँ, पैर पड़ती हूँ, मुझे जाने दो...।‘’ उसके स्वर में पीड़ा, क्रोध, घृणा और आशा थी।
‘’कैसी नादान लड़की है, कह तो रहे हैं कि कल ही श्याम से तुम्हारी शादी करवा देंगे।‘’
मैं बाहर खड़ा अपने आप को ना रोक सका, ‘’श्याम से ही क्यों अपने बेटे से...।‘’
‘’किशन।‘’ तिलमिला उठे थे बापू, ज्यों ही मुझे उन्होंने देखा, त्यों ही मैं थरथराने लगा था, क्योंकि उनका क्रोध मेरे होश हवा कर देता है। मेरी जीभ पर ताला लग गया। उनकी जीभ भी आग उगलती रही, ‘’तेरी हिम्मत कैसे हुई यहॉं आने की! नालायक कहीं के, शर्म नहीं आती बाप से ऐसा कहते, जा यहॉं से बेवकूफ...।‘’
जब तक बापू ज्ञानू से कह रहे थे, ‘’ज्ञानू जाओ लाजो को उसके घर छोड़ आओ।‘’ तब तक मैं दबे पॉंव कमरे से बाहर हो चुका था।...
‘’बापू!’’ किशन सहसा चीख उठा है, ‘’आपके दुश्चरित्र से एक मासूम की रूह कॉंप गई। उसने इस गॉंव को मौत के अड्डे जैसा समझा और आप...। खैर! अब देखता हूँ कैसे चलती है आपकी मनमानी।‘’
उसके मस्तक पर पसीने की बूँदे झिलमिला रही हैं।
‘’अरे यह क्या? छाया किधर खिसक गई, मैं तो धूप में हूँ। छोटू का भी पता नहीं।‘’ वह मन्द आवाज में गुनगुनाया।
कुछ मिनिटों की पद यात्रा समाप्त कर, जब वह सन्नाटे पूर्ण अपने कमरे में प्रवेश कर रहा है। तब उसकी नजरें दीवाल पर टंगी तस्वीर पर टिक गई। जैसे उस तस्वीर में कुछ आकर्षण हो। वह सीधा उसी की ओर बढ़ा.... ‘’माँ! तुम्हीं बताओ मॉं, मैं क्या करूँ? तुम्हारी तस्वीर मुझे अन्तिम अभिलाषा और आत्मशान्ति की याद दिलाकर विचलित सा कर देती है। अपने उद्धेश्य के लिए मैंने रात-दिन एक कर दिया, मगर अब... मैं उदासीन सा हो गया हूँ। हर रोज बाप का नया चरित्र विशेषकर घिनौना और भ्रष्टचरित्र देखकर मुझे उनके प्रति घृणा ग्लानी भर आती है। कभी-कभी तो बहुत क्रोघ भी आता है। मगर क्या बताऊँ मॉं, उनका एक-एक कृत्य मेरे हृदय में अमिट छेद कर देता है।‘’
......उन्होंने तो बस जाने माने कुछ लोगों का ग्रुप बना रखा है, उन्हीं की हॉं-हॉं, हूँ-हूँ में, जिसको चाहा फॉंसा मनमाने पैसे ऐंठे और उस पर जैसे भी चाहा अत्याचार किया......
...मुझे यह बिलकुल बरदास्त नहीं होता, मॉं....जब मैं उन्हें देखता हूँ, तो अर्न्तात्मा में ना जाने कितने भयंकर तूफान उठते हैं.....चाहता हूँ उनकी सारी पोल समाज के समक्ष रख दूँ, मगर ना जाने कौन-सी अप्रत्यक्ष शक्ति मुझे रोक लेती है.... मैं उन्हें कुकृत्यों से अलग करने की योजना बनाऊँगा मॉं, तुम्हारी आत्मा सब देखेगी..... वह मुड़कर पलंग पर बैठा और कैलेण्डर देखने लगा, ‘’ओह! आज सोलह जुलाई है।‘’
इस वाक्य से सोचने लगा....यदि बापू आकर कहेंगे, ‘’किशन सुबह अपना सामान बॉंध लेना। तुम्हारे लिये जीप आयोगी। कॉलेज खुल गये ना?’’
तो मैं कहूँगा, मगर जमीन ताकते हुये बड़े साहस से कहना पड़ेगा, ’’सोचता हूँ बापू, अब कॉलेज खुलने की चिन्ता ना ही करें तो अच्छा है।‘’
‘’मतलब?’’ उन्हें क्रोध आ जायेगा।
‘’......’’ उस समय अच्छा होगा कि मैं चुप ही रहूँ।
‘’यानि...यानि तुम आगे पढ़ना नहीं चाहते?’’
‘’जी बापू!’’
‘’कारण?’’
‘’जी कोई कारण नहीं।‘’ कहते हुये भय तो लगेगा उस वक्त शायद वे याद दिलायें, ‘’जानते हो सामने टंगी तस्वीर कौन से वचन की याद दिलाती है और क्या प्रेरणा देती है?’’
‘’काश! जो प्रेरणा मॉं की तस्वीर से मिलती है, वह आप से मिल सकती।‘’
यह सुनते ही शायद वे विनम्र हो जायें, ‘’बेटे किशन, सब बातें भूलकर, तुम्हारी मॉं की अन्तिम अभिलाषा को पूरा करो, ताकि उनकी आत्मा को शान्ति मिले।‘’
ऐसे में उन पर ये वाक्य अच्छे प्रभावशाली हो सकते हैं, ‘’पिताजी मैं एक मृतात्मा की शान्ति के लिए, कई जीवित आत्माओं को अशान्ति में जीते नहीं देख सकता।‘’ यह कहते हुये हाथ-पैर अवश्य कॉंपेंगें।
‘’किशन...!’’ इससे पूर्व कि वे आगे बोलेंगें मैं कमरे से बाहर हो चुकुँगा।
मेरे इन्कार से शायद उनके दिल में अपने प्रति ग्लानि उभरे और तस्वीर के सामने जाकर कहें, ‘’कान्ता, किशन सच कहता है। तुम्हारे स्वर्गवास के बाद मुझे तुम्हारे वियोग ने ऐसा पागल किया कि तुम्हारी अंतिम अभिलनाषा और आत्मशान्ति की धुन में ना जाने क्या-क्या अन्याय, अत्याचार और शोषण कर पैसा कमाया, ताकि किशन को किसी चीज का अभाव ना रहे और पैसे कमाया ताकि किशन को और पैसे की भूख ना हो और वह तुम्हारे कहे अनुसार लोगों की सेवा नि:स्वार्थ करे। मुझे जरा मंत्री नाम क्या मिल गया, जबकि चुनाव में हार गया हूँ, फिर भी ना जाने अपने आप, में क्या समझ बैठा। दूसरों की बातों में अपना असली रूप ही भूल गया।‘’
वह तस्वीर की ओर देखते हुए पलंग से उठा और उसके समीप खड़ा हो कर मंद स्वर में कहने लगा, ‘’क्यों मॉं कैसी स्कीम है?’’ खट्-खट्...इस ध्वनी के सुनते ही किशन चौंक पड़ा, ‘’कौन?’’
‘’मैं हूँ छोटू!’’
‘’क्या काम है? दरवाजा खुला है अन्दर चले आओ’’ छोटू ने अन्दर प्रवेश कर लिया, ‘’मंत्रीजी किसी काम से बाहर गये हैं, महिने डेढ़ महिने में लौटेंगे। यह परचा तुम्हारे लिये दिया है।‘’ उसने किशन की और एक छोटा सा कागज बढ़ाया। ज्योंही कागज किशन के हाथ में पहुँचा, ‘’अच्छा मैं चलूँ!’’ कह कर छोटू चल दिया।
किशन ने कागज झट से खोला, ‘’बेटे किशन, एक डेढ़ महिने में लौटूँगा। तुम अपनी पढ़ाई तीव्र गति से जारी रखना। देखो बिलकुल ढील मत करना अंतिम वर्ष है। मैंने तुम्हारे शहर जाने और पढ़ाई के खर्च की पूर्ण व्यवस्था कर दी है।‘’
उसने पत्र अपनी मुट्ठी में मसल दिया, ‘’ओफ्फो! सारी स्कीम फैल हो गई। उनके आने तक पढ़ाई छोढ़ना तो मूर्खता होगी।‘’
‘’खैर! जब भी अवसर मिलेगा, जैसे भी होगा, मैं अपनी स्कीम पास करूँगा, ताकि हमारे बीच जो ग्लानि की दीवार खाई बन गई है, वह नष्ट हो सके और हम जो एक दूसरे से घृणा सी करने लगे हैं पुन: पूर्ववत् प्रेम की बहार लूट सकें।‘’
--इति--
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय-
समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं
स्वतंत्र लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)
मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
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