कहानी--
अंगूरी अंग
आर.एन. सुनगरिया
‘’गीता.....गीता.....अरे किधर चली गई। गुडि़या तो यह सो रही है।‘’
‘’अभी सोई है।‘’ कहते हुये गीता अपनी रंगीन धोती से हाथ पोंछती हुई आई, ‘’कहिए, आज तो खुशी से ऐसे चीख रहे हो जैसे आपका क्लास रूम यही हो।‘’
‘’खुशी क्यों ना हो तुम्हारा पत्र जो है मेरे हाथ में।‘’ गीता ने पत्र पर तुरन्त नजरें बिखेर दीं, ‘’झूठ! पते में आपका नाम श्री ओम प्रकाश चौधरी लिखा है।‘’
‘’नाम मेरा है, पर पत्र तुम्हारा।‘’
‘’प्रेषक?’’ उसके चेहरे पर गीता की साश्चर्य नजरें मंडराने लगी।
‘’तुम्हारे भूतपूर्व पति राज।‘’
‘’सच, उनका पत्र है?’’ गीता खुशी से फड़क उठी। उसे तुरन्त पढ़ने के लिए जी चाहा, ‘’लायिए ना!’’ वह उसकी ओर, देखते हुये मुस्कुराने लगी।
ओम ने सर हिला कर इन्कार करते हुये कहा, ‘’इस पत्र में राज प्रगति का समाचार है।‘’
‘’तो फिर जल्दी बतलाईये।‘’ गीता बहुत उतावली हो गई।
ओम सोफे पर बैठ गया और जैसे समय पास करने के लिए कमरे की सजावट को ऐसे देखने लगा, जैसे पहली बार देख रहा हो। सामने टंगी महापुरूषों की तस्वीरों को एक-एक करके गौर से देखने लगा। नीचे टंगे कैलेण्डरों पर नजरें घुमाई, पटिए पर रखी सुन्दर सजीव सी मूर्तियों का नजर निरीक्षण किया। छत पर लटके कागज के फूलों को देख कर, सामने रखी टेबिल पर पड़ी पत्रिकाओं को उलट-पलट करने लगा।
गीता एक हाथ से दूसरे हाथ की काली चूडि़यों को टटोलती हुई उसके समीप आकर पुन: पत्र मांगने लगी, ‘’दीजिए ना।‘’
‘’ऐसे नहीं!’’ ओम उसकी ओर देखकर मुस्कुराने लगा।
‘’मैं समझ गई जब-जब भी उनका कोई समाचार आता है तब-तब आप चुम्बन लिए बगैर नहीं बतलाते।‘’
‘’ठीक समझी।‘’ ओम ने अपनी मुस्कान हंसी में बदल दी ‘’देखो गीता इस घर में रहते हुये तुम्हें दो वर्ष हो गये। तब से, जब-जब भी राज का पत्र आता है, तब-तब तुम्हें इतनी खुश देखकर तुमसे एक प्रश्न पूछने के लिए जी चाहता है।‘’
‘’प्रश्न?’’ वह साश्चवर्य शंकित हो गई, ‘’ऐसा कौन सा प्रश्न है। जिसे पूछने में दो वर्षों तक हिचकते रहे!’’
ओम उठकर खिड़की से बाहर ऋतुराज की बहार को दखने लगा। दूर-दूर तक हरियाली ही हरियाली है। उसी में कुछ दूर पर कॉंच सी चमचमाती नदी बड़े धमे-धीमे वह रही है, जैसे कोई नवयुवती अपने प्रेमी के इंतजार में घॉंस पर टहल रही हो। हरे भरे वृक्ष नई पौषाक पहने हुये मंद समीर में झूम रहे हैं।‘’
कुछ क्षण बाद, ओम ने बामुश्किल अपने होंठ खोले, ‘’जब भी राज का समचार पाते ही, तुम्हें खुशी में देखता हूँ, तो ना जाने क्यों मेरे हृदय में कृपा, क्रोध आदि नाचने लगते हैं और कुछ ग्लानि भी मेहसूस करता हूँ, जिसको तुम्हारी खुशी में खुश होकर लोप करना चाहता हूँ लेकिन...’’
‘’मैं आपकी पत्नि हूँ, इसलिए ऐसा होना स्वभाविक है।‘’ गीता ने एक नजर उसे देखा, फिर कुछ दूरी पर चमकती नदी को देखने लगी, ‘’इसको मुझे बतलाने में हिचक कैसी।‘’
‘’डरता था, इसे सुनकर तुम मुझे शक्की समझोगी। कहीं हमारी प्रेम की दीवार में दरार न पड़ जाए।‘’
‘’इससे पूर्व कि हमारे प्रेम पर्वत में दरार पड़े, मैं आपको इस खुशी का कारण स्पष्ट विस्तारपूर्वक बतलाये देती हूँ।‘’ गीता जैसे कोई दृढ़ निश्चय कर रही हो, ‘’आईये ना इधर बैठें।‘’
ओम ने आश्चर्य मिश्रित दृष्टि से उसे देखा और सोफे पर बैठ गया। गीता भी उसी के सामने सोफे पर बैठ गई, कुछ समय खामोशी का पहरा रहा, फिर अचानक दोनों की नज़रें इस तरह से टकराई जैसे वे एक दूसरे को मुद्धतों बाद पहली बार देख रहे हों सामने रखी चायके बरतनों से भरी ट्रे को देखते हुये गीता ने कहा, ‘’सारे दृश्य फिल्म के समान उभर आये हैं—जिन्हें मैं ज्यों के त्यों सुना रही हूँ।’’
‘’जब मैं सैकडों सुनहरे सपने संजोये दुल्हन के रूप में ससुराल पहुँची, तो सास द्वारा मुझे बहुत स्नेह प्राप्त हुआ, लेकिन कुछ दिन बाद, दिन प्रतिदिन उनकी स्नेह भरी जुबॉं नफ़रत और ज़हर उगलने लगी। क्योंकि उन्हें अपने ऑंगन का चिराग चाहिए था, जो मैं नहीं दे पाई थी। इसी कारण मुझ पर रोज ऐसे तीव्र वाक्य बौछार होती कि मेरा कलेजा छलनी हो जाता। मैं चुपचाप सहती गई...सहती गई.....।‘
‘’फिर?’’ ओम और उत्सुक हो गया, ‘’हॉं फिर क्या हुआ?’’
जब मेरे पति बीमार हुये, तो मेरा उनके पास जाना तक बन्द कर दिया गया।‘’
‘’क्या राज तुमसे प्यार नहीं करता था? क्या उसके हृदय में तुम्हारे प्रति नफरत थी?’’
‘’नफरत तो कभी जाहिर नहीं हुयी, लेकिन प्यार एक दिन कुछ उभरा था।‘’
‘’ऐं?’’
‘’मैं एक दिन श्रृंगार करके बैठी उन्हीं का इन्तजार कर रही थी। वे आये तो मेरे रोम-रोम से खुशी छलक उठी। ज्यों-ज्यों वे करीब आते, मेरे दिल की धड़कनें ऊफनती जातीं, कुछ पल में उनका हाथ मुझसे लिपटा हुआ था और वे मुझे पलंग की और आहिस्ते-आहिस्ते खींचे ला रहे थे। जैसे ही पलंग के पास गये तो उनके कांपते होंठ मेरे गालों को स्पर्श कर रहे थे। यह आनंद मेरे लिए अद्वितीय है। एक दूसरे की बाहों में समाये हुये हम पलंग पर लेट गये। बत्ती बुझा दी। वह अंधेरा मुझे आनन्द दायक और सुहागरात का धुंधला अंधेरा मेहसूसा हुआ...।‘’
‘’फिर क्या हुआ?’’ ओम की आवाज कुछ कठोर हो गई।
‘’फिर?....प्रकाश!’’
‘’ऐं?’’
‘’हॉं, सारा कमरा प्रकाश से भर गया और वे अपने पढ़ाई के कमरे की ओर चल दिये।‘’
ओम कुछ सोच में पड़ गया।
वह पुन: बोली, ‘’उस दिन मुझे ऐसा लगा कि मेरी सांसों के तार टूट गये हैं, मैं बुरी तरह तड़प रही हूँ।‘’
‘’तुमने फिर क्या किया?’’
‘’करती क्या, पैर घसीटती उनके पास गई। वे जमीन में नजरें गड़ाये हुये पत्थर बने बैठे थे। मैंने चाहा उन पर इतना प्यार बरसाऊँ, इतना...इतना कि वे उसमें डूब जाऍं और दुनियॉं को भूलकर मेरी ऑंखों में खो जायें। लेकिन मैं असफल रही।‘’
वहॉं से लौटने के बाद पार्क पहुँची-निर्मल और शीतल चॉंदनी जून की कड़ी धूप सी लगी। फूलों की मस्त महक सड़ान में बदल गई। हंसते, मुस्कुराते किलोल करते पुष्प उदास और मुरझाये से लगे। अमृत रूपी स्वच्छ जल से सुन्दर फुहारें, ऐसे मेहसूस हुये जैसे नागिन क्रोधित होकर ज़हर की पिचकारी छोड़ रही हो। सारा वातावरण घर ओर बगीचा मुझे खंडहर सा लगा। ऐसा मेहसूस हुआ जैसे वीरान जंगल में आ पहुँची हूँ। तड़पती रही मगर तृप्ती नहीं मिली।
‘’राज ने कुछ नहीं कहा। कुछ नहीं किया?’’
‘’वे उसी दिन से बीमार पड़ गये और मॉं जी उन्हें मेरी परछाईयॉं तो दूर रहीं, नज़र से भी बचाने लगीं।
‘’क्या राज ने तुम्हें कभी याद नहीं किया?’’
‘’बहुत याद किया।‘’
‘’लेकिन?’’
‘’लेकिन मुझे उन तक नहीं जाने दिया!’’
‘’तुम जाती तो?’’
‘’जब मैं जबरजस्ती उनके कमरे में घुसने लगी तो, मॉं जी दूध का गिलास हाथ में लिये हुये ही मेरे पीछे भागीं और मुझसे टकराते ही उनके हाथ से गिलास छूट गया। तो उनकी ऑंखों में खून उतर आया और जबान में ज़हर, ‘’है भगवान! हमने कौन से पाप किये हैं, जो ये डायन हमारे पल्ले पड़ी, मायके में सिर्फ बाप छोड़ा है। यहॉं मेरा लाडला मौत के मुँह में रखा है। सच है जहॉं-जहॉं इसका पैर पड़ेगा, वहॉं-वहॉं सर्वनाश हो जायेगा...अरे परमेशवरी टल यहॉं से बॉंझ कहीं की....।‘’
‘’माँ जी!!!’’ इस चीख में विद्रोह था। मन चाहा, मॉं जी का मुँह नोंच लूँ। दॉंत बाहर कर दूँ। और साबित कर दूँ कि आप की वाणी कितनी असत्य है। और सारे शरीर में ज़हर की तरह क्रोध फैल गया। मेरा माता महाकाली का भयंकर रूप देख, मॉं जी कांप गर्इ्रं, लेकिन मैंने अपने आप पर काबू किया। होंठों पर आये कटु शब्दों को पी गई और वह घर छोड़ने का निश्चय कर लिया।
‘’तो तुम अकेली भाग कर मायके आईं थीं?’’ ओम की ऑंखों में क्रोध चमक उठा।
‘’नहीं।‘’
‘’तो?’’
‘’जब मॉं जी दूसरा दूध लेने गईं तो मैं उनके कमरे में पहुँची। मैंने देखा उनकी सुन्दर सूरत बेरूप सी होकर काली पड़ गई है। वे सचमुच मौत की झोली में सो रहे हैं। मेरे कदम दरवाजे पर ही जड़ हो गये और मैंने वह घर छोड़ने का निश्चय बदल दिया....।‘’
‘’लेकिन तुम तो वह घर छोड़ आईं?’’
‘’हॉं कुछ समय बाद मैंने देखा-वे तड़पते घसटाते एक ऐसी छोटी अलमारी के पास गये, जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखी थी, उन्होंने उसमें से एक छोटी शीशी निकाली। इतना सब करने के बाद वे निर्जीव-समान वहीं लुढ़क गये।‘’
‘’फिर भी तुम द्वार पर ही खड़ी रहीं?’’
‘’नहीं मैंने जाकर उन्हें उठाया। तब तक उनमें कुछ चेतना आ गई थी। मैंने एक नज़र अलमारी में घुमाई। उसमें शायद कुछ प्रायवेट दवाऍं थीं। उसे बन्द करके मैंने अपनी बाहों का सहारा देते हुऐ कहा, ‘’आयिए पलंग पर लेटिये ना।‘’
उनकी करूणामयी आवाज निकली, ‘’गीता तुम ये अपमान कब तक सहती रहोगी। मैं हूँ तुम्हारे अपमान का जिम्मेदार, मेरी खामोशी और मेरा स्वार्थ, तुम्हें सर उठाकर नहीं जीने देगा।‘’
‘’स्वार्थ? खामोशी?’’
‘’हॉं खामोशी! अगर ये खामोशी, खामेशी ही रही, तो तुम जीवन भर घुट-घुट कर ही जीती रहोगी। और यदि खोमोशी टूट गई तो मैं समाज में जीना तो दूर है, मुँह भी दिखलाने का साहस नहीं कर सकूँगा।‘’
‘’आप कहना क्या चाहते हैं?’’ मैंने स्पष्ट सामझना चाहा, जबकि मुझे मालूम सब था, ‘’साफ-साफ खोलकर कहिए ना।‘’
‘’यही मेरे साथ रहकर तुम्हारी गोद हमेशा सूनी ही रहेगी....।‘’
‘’मैं मूर्तीवत्त रह गई!’’
‘’तुमने फिर कुछ नहीं कहा?’’ उसे खामोश देख ओम ने पूछ ही लिया, ‘’कुछ तो कहा होगा तुमने?’’
‘’मैंने कुछ नहीं कहा, उन्होंने ही पसीना पोंछते हुये मुझे आदेश दिया, इसलिये कहता हूँ कि ये घर छोड़ दो। मैं चिल्ला-चिल्लाकर कहूँगा कि तुम वह नहीं हो जिस नाम से लोग तुम्हें अपमानित करते हैं। कमी मुझमें है। इतना सब कहने के बाद मैं जहर खा लूँगा, ताकि तुम सुखी जिन्दगी जी सको और मैं अपमानित जीवन से मुक्त हो सकूँ...!’’
‘’नहीं-नहीं आप किसी से कुछ नहीं कहेंगें।‘’ मेरी आत्मा कॉंप उठी, ‘’आप ज़हर भी नहीं खायेंगे।‘’
‘’तो जीकर भी क्या करूँगा। औलाद बगैर दुनिया में अपना नाम भी तो मिट जायेगा।‘’
‘’गलत, कोई जरूरी नहीं कि नाम औलाद से ही चलेगा, अपने सुकर्म भी तो अपने को अमर बनाते हैं।‘’
‘’ठीक है, लेकिन मैं सुकर्मों में तभी हाथ डालूँगा, जब तुम मेरे साथ ना रहकर कहीं भी खुशहाल जीवन गुजार रही होंगी।‘’
‘’उसकी वह शर्त मैंने यह कहते हुये स्वीकार कर ली कि आपकी यह बात किसी के कान तक नहीं जायेगी।‘’
‘’क्या तुम उसे बीमार ही छोड़ कर चलीं आईं?’’
‘’नहीं, जब वे पूर्ण स्वस्थ हो गये, तो मेरी बनाई योजनानुसार मेरा उनसे तलाक हो गया।‘’ गीता ने नीची नज़रें कर लीं।
‘’वहॉं तुम्हें किसी ने पनाह नहीं दी?’’ ओम ने उसके लटके हुये चेहरे पर अपनी नज़रें बिखेर दीं।
‘’किसी के यहॉं पनाह लेने की जरूरत भी क्या थी।‘’ अब गीता की सरसरी नज़रें ओम के चेहरे पर मंडराने लगीं, ‘’तुरन्त ट्रेन पकड़कर निरन्तर तीन दिन की यात्रा करके आ पहुँची और पिताजी को तलाक की बात बतला दी।‘’
‘’उन्होंने कुछ नहीं कहा क्या?’’ ओम ने उसके मोहक वक्षस्थल पर लटकी मोतियों की माला देखी।
‘’कहा क्यों नहीं, सुनते ही आग बबूला हो गये आरैर ऑंखें लाल करके पूछने लगे, ये कलंक का टीका लगाकर अब क्या मेरी छाती पर ही बैठी रहेगी?’’
‘’नहीं पिताजी, मैं नौकरी करूँगी और आगे पढ़ूंगी, मेरा उत्तर था।‘’
‘’तुमने पढ़ा?’’ ओम की मुस्कान मन्द हंसी में बदल गई।
‘’पढ़ा क्या, आपके पास इस सिलसिले में बातें करने आई, तो दिमाग अचानक मोड़ दिया गया।‘’ दोनों की हंसी उत्तरोत्तर बढ़ती गई, जिससे गहरी नींद में सोर्इ हुई गुडि़या जाग गई और बड़ी तेजी से रोने लगी। गीता उसे समझाने चल दी। ओम गुजरे क्षणों की याद में खो गया....
ओफ्फो! क्या ग़जब की अग्नि वर्षा थी। पंखा क्या खराब हो गया, बस जान नहीं निकली, सभी गत हुई। कभी हाथ पंखा हिलाता तो कभी लस्सी मंगवाता, मगर फिर भी पसीना पोंछना पड़ता। हवा तो ऐसी हो गई थी। जैसे भट्टी से निकली हो। मैदान में नज़रें दौड़ाना दुर्लभ था। सारे धरातल पर धूप झिलमिला रही थी। सूर्य क्रोधित होकर अग्नि कर्ण उड़ेल रहा था।
गर्मी के कारण जी बहुत घबरा रहा था, लेकिन द्वार पर नज़रें गई तो जैसे गर्मी छूमन्तर हो गई हो, सारा वातावरण एक दम बदल सा गया। नज़रें द्वार पर खड़ी चॉंदी की सजीव स्वप्न सुन्दरी का निरीक्षण करने लगीं-पैर ऐसे जमाये हुये हैं, जैसे श्रीकृष्ण भगवान बॉंसुरी बजाते समय जमाते हैं। दॉंया हाथ ऊपर कुन्दे को पकडे हुये हैं। बांया हाथ चौखट से सटा हुआ है। जगमगाते जिस्म का कुछ भार पृथ्वी पर है। और शेष भाग कुन्दे से लटका हुआ है। इस कारण लुभावने उरोज कुछ और उभरकर चित चुरा रहे हैं, जो रेशमी काले ब्लाऊज से ढके हुये स्वरक्षित हैं। जिन पर सोने की जंजीर पड़ी झूल रही है। गर्म हवा द्वारा लम्बे कोमल सघन केश लहरा हे हैं। जिससे मलाई का मुख और शोभायमान हो रहा है। होंठ तरबूज के भीतरी भाग से निर्मित मुस्कान लुटा रहे हैं। पलकों के काले किनारे के बीच निर्मल नेत्र ऐसी हृदय स्पर्शिय कोमल किरणें बिखेर रहे हैं, जैसे कमल के पत्ते पर स्वच्छ जल की बूँदें सूर्य की किरणें परावर्तित करती हैं, कवि इसे ही सौन्दर्य समुद्र की सुन्दरी कहते हैं।
‘’गीता तुम? इस वक्त? यहॉं? किसलिये? मैंने उसके सामने प्रश्नों का ढेर रख दिया।‘’
वह मौन आगे बढ़ी और बिलकुल मेरे निकट आकर रूक गई। मेरे सीने में कुछ विशेष प्रकार की प्रतिक्रियाऍं होने लगीं।
‘’ओम प्रकाश जी मेरा उनसे तलाक हो गया, इसलिये मुझे यहॉं इस वक्त आना पड़ा।‘’ उसकी आवाज कुछ कठोर थी।
‘’तलाक!’’ मेरी नज़रों से शिकायत उत्सार्जित होने लगी, ‘’तुमने इसे सहर्ष स्वीकार नहीं करती तो क्या करती। गीता ने अलंकारिक भाषा में अपनी पूर्व हालत व्यक्त की, उपजाऊ होते हुये भी वह खेती बंजर और बदनाम होती रही है, जिसका मालिक उसमें कुछ ना बो सकने की न्यूनता रखता हो। समझ गये ना?’’
मैं खामोशी पूर्वक सोचता ही रहा था। वह मेरी पढ़ाई की टेबल की और बढ़ी कुछ क्षण बाद उसका आश्चर्य पूर्ण स्वर गूँजने लगा, ‘’अरे! यह क्या किसी महापुरूष की तस्वीर की तरह ये फूल जड़वाकर किस लिये रखें हैं?’’ मैंने मौन नज़रों से पीछे देखा, तब तक वह उसे लेकर मुझ तक आ गई, ‘’बतलाईये ना इनके जड़वाने के पीछे कया राज है।‘’
‘’सच बताऊँ या झूठ?’’ मैं उसे निहार रहा था।
‘’झूठ जितना ही महत्वहीन होता है, सच उतना ही महत्वपूर्ण।‘’
‘’तो सुनो सच ही बतलाता हूँ- ‘’तीन साल पहले एक जवॉं हसीन बिलकुल तुम्हारी तरह ट्रू कॉपी मेरे यहॉं सवाल वगैरहा पूछने अक्सर आया करती थी, जिससे मुझे बहुत प्यार हो गया था, लेकिन वह इससे अनभिज्ञ थी, कयोंकि मैं कभी उसके समक्ष अपने प्यार का इज़हार नहीं कर सका था। जब मैं उसकी शादी में गया, तो उसने मुझे बहुत उदास और मुरझाया हुआ देखकर अपने हाथ के फूलों को मुझे देकर कहा, ‘’इन फूलों की महक आपके उदास और मुरझाये जीवन को खिला देंगे। बस तभी से मैंने किसी से प्यार या शादी नहीं की और इन्हीं फूलों की पूजा करके जीता रहा.....।‘’
‘’क्या सोच में पड़ गये हो?’’ गुडि़या को सुलाकर गीता ने उसका ध्यान अतीत से वर्तमान में खींच लिया।
‘’आगे तो आपको मालूम ही है।‘’ फिर भी गीता ने बहुत संक्षेप में बतलाया, ‘’मैंने अप्रत्यक्ष रूप से बतलाया कि मैं यज्ञ की अग्नि की तरह पवित्र हूँ। मेरी शादी में मेरे द्वारा दिये गये फूलों ने यह बतलाया कि आपके दिल में मेरे प्रति कितना गहरा और पवित्र प्रेम है। मैंने अपने पिताजी के समक्ष आपसे शादी करने का प्रस्ताव रखा जिसे आपने भी स्वीकार कर लिया और हमारी राहें एक हो गईं।‘’
‘’कितनी अच्छी किस्मत है मेरी।‘’ ओम मुस्कुराया।
‘’हॉं, यह तो है ही....अब पत्र पढ़ने दीजिए ना।‘’ गीता ने हाथ बढ़ाया।
‘’उँ..हूँ!’’ मुण्डी हिलाई।
‘’तो?’’ गीता कुछ शंकित हो गई।
‘’मैं स्वयं पढ़ूँगा।‘’ इतना कहकर ओम गीता की ओर देखकर मुस्कुराया। गीता ने अपना चेहरा कुछ अजीब सा बना लिया। उसे पढ़ने की स्वीकृति दे दी। वह बड़े इठलाकर पढ़ने लगा, ‘’गीता, मेरी बीमार अवस्था में मुझे परिस्थितियों ने ऐसा जकड़ा और इतनी ग्लानि उभरी कि इनसे तंग आकर मैंने अपनी प्रायवेट दवाईयों की अलमारी से ज़हर निकाला, मगर खाने से पूर्व तुम वहॉं आ गईं। तुम्हारे अमृत रूपी शब्दों ने मुझे जीवन दान दिया है।‘’ ओम ने गीता की ओर देखा, ‘’अब समझा तुमने राज की जान बचाई, इसलिये उसके प्रगति पूर्ण समाचार सुनकर तुम्हें खुशी होती है।‘’
‘’हॉं, आप ठीक ही समझे।‘’ गीता कुछ शर्मा सी गई, ‘’मेरे द्वारा थेड़ा अपमान और कठिनाई सहने से आज देश का एक जज नहीं घट पाया। हॉं आगे पढि़ए ना।‘’
‘’आगे लिखा है-तुमने मुझे समाज की ऑंखों में एक सम्मानित व्यक्ति ही रहने दिया, लेकिन मन में अब भी ग्लानि सी भरी है। तुमने अपने सर पर लगा झूठा कलंक, जिसे अब तुम्हारी गुडि़या ने धो दिया। सिर्फ इसलिए स्वीकार किया कि में सर उठा कर जी सकूँ। यह लिखते हुये मुझे खुशी हो रही है कि तुम्हारे उपदेशों को घ्यान में रखते हुये मैं वकील, जज ओर अब हाईकोर्ट में जज नियुक्त होने जा रहा हूँ।‘’
‘’वेरी गुड!’’ गीता का अंग-अंग खिल उठा, ‘’काश! राज में वह न्यूनता ना होती।‘’
गीता को कुछ गम्भीर देखते हुये ओम ने बाहें फैला दीं, ‘’उसमें न्यूनता ना होती तो मेरी यह बात ग़लत साबित नहीं हो जाती कि तुम्हारा मलाई सा शरीर सिर्फ मेरे लिए ही बना है।‘’ उसने उसे अपनी बाहों में जकड़ ली। वह भी जैसे उसकी बाहों में खो जाना चाहती हो, बेल की तरह लिपट गई। ओम का मन्द स्वर लहरा गया,
‘’यह अंगूरी अंग मेरा था, मेरा है और मेरा रहेगा।‘’
♥♥इति♥♥