एक दुनिया अजनबी
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एक झौंका जीवन की दिशा पलट देता है, पता ही नहीं चलता इंसान किस बहाव में बह रहा है| आज जिस पीने-पिलाने को एक फ़ैशन समझा जाता है, वह कितने घर बर्बाद करता है, लोग समझ नहीं पाते या फिर अपने अहं में समझना नहीं चाहते |अमीर और बड़े दिखने का यह एक अजीब सा ही कॉन्सेप्ट है, इससे कभी किसीका भला होते तो देखा नहीं |
बहाने होते हैं इसके, कभी बिज़नेस पार्टीज़, कभी अफ़सरों को खुश करना और कभी स्टेट्स ! ज़िंदगी क्या इसके बिना ख़त्म हो जाती है ? यह खुद से पूछना होता है आदमी को |
प्रखर ज़िंदगी के युद्ध में हार चुका था, यूँ तो बहुत बार हारा था किन्तु ईश्वर ने हर बार उसे इतनी ऊर्जा दी कि किसी भी परिस्थिति में उसे कोई न कोई सँभाल ही लेता हाथ पकड़कर ! वह फिर अपनी उड़ान ऊँची कर देता |
एक भयंकर दुर्घटना में से उसका जीवित बचना भी इस बात का प्रमाण था कि उसे अभी जूझना था जीवन से | अब उसे लगता, अपने कर्मों के हिसाब पूरे करने हैं | ऊपरी अदालत किसीको नहीं छोड़ती |
दुर्धटना ग्रस्त हुए प्रखर की जीवन-लीला ईश्वर ने तो बचाई ही किन्तु उसका एक माँ की तरह-ध्यान रखा उसकी बहन ने | बहन के खून की पुकार का सहज अपनापन व बहनोई की मानवीय संवेदना ने प्रखर को सँभाला| उस कठिन समय में उसकी पूरी तिमारदारी एक बच्चे की भाँति की गई और अद्भुत ! बच्चा ऐसे उठकर खड़ा हो गया जैसे कभी गिरा ही न हो |
पति के अचानक न रहने से विभा टूट गई, वह मौन रह अपने जीवन में होते हुए करिश्मे देख रही थी | एक आस-विश्वास था अपने परिवार पर | ज़िंदगी भर सबके किस्से, कहानियाँ सुनती आई थी लेकिन अपने परिवार को श्रेष्ठ मानने में उसे सदा गर्व महसूस हुआ था | कुछ था भी ऐसा ही। सबकी मुहब्बत की डोर जैसे एक दूसरे से जुड़ी हुई लगती थी | यह कल्पना कभी नहीं कर पाई कि जीवन की कोई ऎसी करवट भी होती है जिधर घूमो, उधर ही साँस अटकने लगे |
प्रखर के भयंकर एक्सीडेंट ने उसकी माँ विभा व बहन आर्वी को भीतर से खोखला कर दिया था |पत्नी ने उस समय भी अपना कोई लगाव नहीं दिखाया , परवाह करने की कोई उत्सुकता नहीं दिखाई |प्रखर को कभी-कभी लगता इतनी बड़ी दुर्घटना से वह कैसे और क्यों बचा होगा ? फिर मुस्कुराने लगता और अपने जीवन की फिल्म को घुमाकर पीछे देखने लगता | कभी आँखों में आँसू भर आते तो कभी चिंतन के लिए बाध्य हो जाता | पत्नी के साथ अपने अक्षम्य व्यवहार के कारण वह उसे दोषी न ठहराता किन्तु जब युवा बेटियों पर पिता के साथ न बैठने, बात करने का सेंसर लग गया तब उसे पता लगा कि उसका तो कोई परिवार ही नहीं, परिवार के नाम पर कितने भ्रम में जी रहा था वह !
आज का सो कॉल्ड 'मार्डन' के लिए परिवार है अथवा नहीं, क्या फ़र्क पड़ता है ? लेकिन जब कुछ ऐसे लम्हे आते हैं जिनमें जीवन की सच्चाई का बोध ज़रूरी होता है, तब सही निर्णय वही व्यक्ति ले पाता है जो गंभीरता से स्थितियों को समझ सकने की क्षमता रखता हो | परिवार में सही मार्ग-दर्शन वाले प्रौढ़ और बुज़ुर्ग होते हैं जो किसी कठिन समय में सही व गंभीर सलाह दे सकते हैं यदि मुद्दा उनके सामने रखा जाए ! परिवार के सामने पारदर्शी होने से रिश्तों के बचने की अधिक संभावना रहती है |
सबकी ज़िंदगी में कभी न कभी चने चबाने की नौबत आती है, किसी के जीवन में प्रथम चरण में, किसी के बीच की अवस्था में और किसी के अंतिम चरण में | एक ओर जीवन के सूर्य के डूबने की तैयारी और दूसरी ओर शरीर की सहनशक्ति का दुर्बल होते जाना, यह स्थिति ज़रा ज़्यादा ही कष्टपूर्ण हो जाती है |
मुश्किल होता है यदि उम्र के अंतिम पड़ाव पर चने चबाने पड़ें तो, दाँत भी कमज़ोर नहीं पड़ जाते क्या ?
प्रखर को पिता याद आते हैं जो कहा करते थे ;
"देखो बेटा ! इतना तो मैं कर जाऊँगा कि रोटी खा सको लेकिन अपने ऐशोआराम के लिए तुम्हें ही मेहनत करनी होगी --" फिर खिलखिलाकर हँस पड़ते |
वही तो किया था प्रखर ने ऐशोआराम व दिखावे की ज़िंदगी में रोटी कमाने की कोई जद्दोज़हद न करने के कारण उसने रोटी की कीमत ही नहीं जानी थी |विभा को लगता है बच्चे को पहले यह समझाना ज़रूरी है कि रोटी कमाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं !
कभी-कभी पिता के मित्रों की महफ़िल जमी होती, दूसरे कमरे से निकलते हुए प्रखर के कान आवाज़ों को खींच लेते जिनमें अधिकतर चर्चा होती, बुढ़ापे में अपनी सारी दौलत बच्चों के नाम न करके अपने लिए पैसा बचाना बहुत ज़रूरी है, इस विषय पर !
'ये लोग इतने अनसेफ़ क्यों रहते हैं ? 'उसके मन में आता और वह अपना सिर झटककर वहाँ से चला जाता |
"भई ! मैं तो इस बॉक्स में पैसे रखकर बजाता रहूँगा ---खन-खन की आवाज़ से रोटी तो मिलती रहेगी --"वह एक पुराना चॉकलेट्स का टीन का बड़ा सा डिब्बा अपने पास रखते थे, उसीको दिखाते और ठठाकर हँस पड़ते प्रखर के पिता |
उनके जाने के बाद कैसे याद आती हैं ये सब बातें प्रखर को ! अफ़सोस उसे इस बात का भी बहुत है कि उसके पिता उसके दोस्त क्यों नहीं बन सके ? क्यों ज़िंदगी के पाठ अपने अनुभवों से नहीं पढ़ाए उन्होंने उसे ?
बहुत आसान होता है दूसरों को दोषी ठहरा देना लेकिन यह भी उतना ही तो सच था कि वह पिता के पास कभी बैठा ही नहीं | अपनी मन-मर्ज़ियाँ ---जब जिस चीज़ की ज़रुरत पड़ी, माँ के पास पहुँच गए और माँ तो माँ ठहरी , पूरी कोशिश होती विभा की कि उसके बेटे को वह मिल जाए जो उसे चाहिए |
आज प्रखर खुद यही सोचता है कि यदि उस पर माँ ने ही कुछ अंकुश लगाए होते तो शायद वह इतना मस्तमौला न होता | ज़िम्मेदारी का कभी कोई अहसास न होने का प्रमुख कारण यह भी है कि माता-पिता की छत्रछाया में किसी तड़कती धूप को महसूस ही नहीं कराया गया | यह ग़लती अक़्सर सभी माता-पिता कर बैठते हैं |
अधिकतर पिताओं में एक बात देखी गई है, वे स्वयं बच्चों से विशेषकर बेटों से कुछ न कहकर माँओं पर सारा दायित्व डाल देते हैं | माँ अपने अनुसार कोशिश करती है बेटे को समझाने की किन्तु माँ का भय बेटे को नहीं रोक पाता, एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देने में ये बेटे बड़े एक्सपर्ट होते हैं |
शुजा व पँक्ति को जब उसके एक्सीडेंट के बारे में पता चला वो दोनों ही उससे मिलने आईं | शुजा ने उसका हाथ सहलाते हुए गंभीर स्वर में कहा था ;
"आपके परिवार में तो ऎसी अनहोनी घटना की कल्पना भी नहीं की जा सकती | ख़ैर लकीर पीटने से कभी कुछ हासिल कहाँ होता है? "
"ओह ! हम सचमुच बड़े हो गए हैं ---" ऐसे में भी प्रखर हँस सकता था |
"काश! बड़े हो पाते ---" पँक्ति की आँखों में आँसू भरे थे |
सच ही तो था यदि वास्तव में बड़े होते तो गंभीरता से व्यवहार करते, गंभीरता से सोचते , एक तटस्थ ज़िंदगी जीने का प्रयास करते | इतने अच्छे दिन साथ बिताने के बाद परिवार टूटने की स्थिति बचकानी ही तो थी |