एक दुनिया अजनबी - 8 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एक दुनिया अजनबी - 8

एक दुनिया अजनबी

8-

घुटन का मन में भरा होना आदमी को बड़ा भारी पड़ता है | वह चीख़-चिल्ला ले, एक बार सब-कुछ कहकर छुट्टी कर ले, सहज हो जाता है किन्तु भीतर भरे रहना यानि हर पल ख़ुद से ही जूझते हुए मरते रहना तिल-तिलकर !

अपनी त्रुटियों के लिए पछताने को अब कुछ रह नहीं गया था और जीवन था कि मुह फाड़े खड़ा था |

एक बार तड़का हुआ सूरज और दूसरी बार घुप्प अँधेरा ! कोई बीच का मार्ग नहीं | माना, जीवन ऊँचे-नीचे रास्तों पर ही चलता है, कोई सपाट रास्ता नहीं उसके लिए लेकिन सच तो ये है कि आदमी चाहे गलती कितनी कर ले खोज में तो रहता है, सपाट रास्ते की ही |

नहीं मिलती ज़िंदगी की सपाट डगर यूँ ही जब तक हम स्वयं उस पर श्रम नहीं करते, गड्ढ़ों को नहीं भरते , उसे समतल नहीं बनाते !

जब तक स्वयं नहीं सोचते कि हर मनुष्य एक इकाई है, उसका जीवन उसका अपना है | कोई दूसरा उसके जीवन को क्यों और कब तक 'गाईड'करता रहे ?

प्रखर ने भी जीवन को मज़ाक समझा , मस्तमौला प्रखर जबसे बड़ा हुआ तबसे उसके दिमाग़ में यही अभिमान रहा कि वह सब कुछ कर सकता है, 'नहीं 'शब्द तो उसकी डिक्शनरी में था ही नहीं |एक उम्र में आदमी कैसे हवा के घोड़ों पर सवार रहता है ! कोई कम, कोई ज़्यादा !

नहीं जानता, समझता कि जीवन हमें वही लौटाता है जो हम उसको देते हैं |वह समझना ही नहीं चाहता था कुछ | ज़िंदगी है, बिंदास जीयो ! श्रम करने का उत्साह व ऊर्जा भी खूब थी उसमें सो करता रहा अपने मन की !

शादी भी अपनी पसंद की लड़की से दूसरी जाति में की और कुछ ही दिनों में दोनों खूब लड़ने-मरने लगे | शादी का अर्थ शादी से पहले समझना बहुत ज़रूरी है अन्यथा अर्थ का अनर्थ ही पल्ले पड़ता है | रेशमी ख़्वाबों के परखच्चे उड़ने में कहाँ समय लगता है ? वो अलग बात, है अपनी स्वयं की ग़लती कोई समझना ही नहीं चाहता जैसे वह एक 'सुपर मिट्टी' का बना हो, कुछ इस अंदाज़ में !

ज़िंदगी को एक फूँक में उड़ाने का दिमाग़ रखने वाला प्रखर जैसे सुन्न पड़ गया | अपने आपको सूरमारखाँ समझने में उसने अपनी ज़िंदगी स्वाहा कर दी| एक नशे पर सवार रहता वह ! पत्नी उस पर और वह पत्नी पर संदेह करने में तनिक भी संकोच न करते | ड्रिंक के अधिक सेवन के कारण वह हमेशा हवा-हवाई ही बना रहता |

आज अपने बिखरे जीवन को समेटने का कोई भी रास्ता उसे दिखाई नहीं दे रहा था | आँखों, मन, बुद्धि पर एक ऐसा जाल सा पड़ गया था कि भरपूर प्रयास करने के बावज़ूद भी रोशनी की एक लकीर तक नहीं दिखाई दी थी उसे | अपने ही अँधेरों में वह टटोलता चलता रहा है और उन अंधेरों में ही घुटकर, थककर चकनाचूर होता रहा |

संदीप उसके ऑफ़िस में ही काम करता ;

"सर! क्या आपसे वास्तव में मैडम का अपमान हुआ है ? "

“हुआ नहीं है, बार-बार किया है |” हो जाने का मतलब, गलती से हो जाना और यहाँ जान-बूझकर बार-बार वही दोहराना, दोनों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है !ज़मीन पर कहाँ था? आसमानों की हवाएँ छूता रहा, अपने आपको फन्नेखाँ समझता रहा|'उसने बार-बार सोचा है, बहुत बार सोचा है लेकिन इस सोच का क्या फ़ायदा जब 'चिड़ियाँ चुग गईं खेत' |

प्रखर की स्थिति उसके ऑफ़िस में किसी से भी छिपी नहीं रह गई थी | संदीप उसके विश्वासी मैनेजरों में से एक था, यह तो बाद में पता चला कि वह उसकी जड़ों की खुदाई करने में लगा रहा है |

संदीप के पूछने पर प्रखर ने बिलकुल भी हील-हुज्जत न की और उसे खुलकर सब कुछ बता दिया ;

"हाँ, एक बार नहीं, बार-बार ---बहुत बार, कई बार --" प्रखर के मुख से दीर्घ श्वाँस निकली | बीते हुए लम्हे यूँ ही सामने से गुज़रने लगते हैं, एक क़तार में सिमटकर जैसे !

"लेकिन --एक बात बहुत ग़लत रही हमारे रिश्ते में, हम दोनों ही एक-दूसरे का मन से सम्मान नहीं कर पाए | आज मानता हूँ, यह मेरा कर्तव्य था, जिसको मैं घर लाया था, उसका सम्मान करना और करवाना | माँ, पापा के समझाने से भी कहाँ समझ पाया मैं --? आज रिश्ते की इस कगार पर खड़ा हूँ |"

"जान बूझकर अपने अहं में --किसी रिश्ते का कोई लिहाज़ नहीं कर पाया मैं ---"प्रखर की सच्चाई उसके व्यवहार से बोलती |
"क्या आपको इस बात का अफ़सोस है ? "

' अफ़सोस न होता तो क्यों इस तरह दर-बदर ठोकरें खाता घूमता ? 'उसने मन में सोचा | लोगों को किसीकी ओर ऊँगली उठाने में बहुत मज़ा आता है, भूल जाते हैं कि तीन ऊँगलियाँ उनकी ओर हैं, मज़ा तो ले ही लें ! इस जाति के लोग बड़े प्रवीण होते हैं दूसरे को अपना बनाकर पीठ में छुरा भौंकने में !

आज उसे लगता है किसी को भी दोष देना ग़लत ही नहीं अपराध है | अपने कर्मों के परिणाम का अंजाम हम खुद ही तो भुगतते हैं | कारण हम स्वयं हैं तो परिणाम के लिए पछताएगा कौन ?

प्रखर की आँखों में आँसू झिलमिला उठे | जिनमें उसके अपने कर्मों का पश्चाताप तो था ही, साथ ही यह अफ़सोस भी घिरा रहता कि पत्नी के मूल दबंग स्वभाव को जानते-समझते हुए भी वह स्वयं ही क्यों न समझदार बन सका ? परिवार बलिदान, एडजस्टमैंट माँगता है, बदला नहीं! कभी समझ में ही न आया था उसे !

उसके व उसके परिवार के लिए माँ-पापा ने कुर्बानी दी जिसका कोई औचित्य नहीं था | उनके अपने बच्चे बड़े हो गए थे, शादी-ब्याह कर दिए गए थे | अब उनके बड़े हो गए बच्चों को अपने कर्तव्य पूरे करने थे, अपना परिवार संभालना था पति-पत्नी को मिलकर लेकिन घुसे रहे उनकी समस्याओं में! देखा जाय तो ख़ुद माँ-बाप ही अपनी बेचारगी के लिए, अपनी दीन स्थिति के लिए स्वयं ही ज़िम्मेदार होते हैं |

आख़िर वृद्ध होते माँ-बाप मोह क्यों नहीं छोड़ पाते ? ताउम्र लिथड़ते ही तो रहते हैं |हमारे समाज में जीवन जीने के लिए जो आश्रम बनाए गए थे उनके कारण न समझकर हम 'सो कॉल्ड मॉर्डनिटी' के दास बन गए हैं | जिन बातों को हम संयम से सोच नहीं सकते, वे अर्थहीन हो जाती हैं |