एक दुनिया अजनबी
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ये बच्चे बड़े ही शैतान ! रात में आधी रात तक जागने पर भी सुबह की सैर के लिए मुँह-अँधेरे उठकर थोड़ी दूर बने बगीचे में भाग-दौड़ करके आ जाते और जब कोई ऐसी शैतानी करते तब तो ज़रूर ही उसका परिणाम देखने सारे एकत्रित हो जाते |
कल की रात का परिणाम तो सुबह ही देखना होता था न सो उस दिन चारों की टोली सैर से भी जल्दी भाग आई और उसी अधबनी दीवार पर चढ़कर साइकिल पर एक चप्पल पहने, बोझिल से पैडल मारकर वसराम को आते देखकर सब ऐसे चेहरा बनाकर बैठ गए मानो बड़े भोले, अनजान हों | एक तरफ़ वसराम की साइकिल के हैंडल पर दूध से भरी थैलियाँ लटकी हुईं थीं जो कुछ कम लग रही थीं यानि बाँटकर बोझ कुछ कम हो चुका था वसराम का |
विभा को तो पहले ही पूरी कथा सुना देते थे बच्चे, वह गुस्सा भी होती | पर एक कान से सुन दूसरे से उड़ा देते सारे | अब वसराम उनके पास आकर अपनी रात्रि-गाथा सुना रहा था और सारे दीवार पर बैठकर, अपने पैर हिलाते हुए ऐसे मुह बनाकर बैठे थे जैसे वसराम से उनको न जाने कितनी सहानुभूति हो |
"च-च-ये तो बहुत खराब बात है वसराम भाई---कहीं भूत-प्रेत तो नहीं ----? " और पँक्ति डरने का एक्शन करने से भी न चूकी |
"अरे ! और डंडा ---वो भी तो खोजना पड़ेगा ---"शुजा कहाँ चुप रहने वालों में से थी |
"वसराम भाई ---वो देखो तो --उस वाले पेड़ पर --आपका ही डंडा है न ? और चप्पल भी तो है|"
वसराम साइकिल स्टैंड पर खड़ी करके पेड़ की ओर तेज़ी से भागा और इन लोगों का दबा ठहाका --! इन सारे बच्चों की हँसी फिस्स से शुरू होकर दाँत फाड़ लोटपोट की हद पार न कर जाए, ऐसा हो ही नहीं सकता था ---सो बड़ी मुश्किल से कंट्रोल किए बैठे रहे |
जैसे ही वह अपना डंडा और चप्पल लेकर आया, उसके चेहरे की उग्रता समाप्त हो चुकी थी और एक मीठी मुस्कान चेहरे पर खिल आई थी |
"तमारू आभार पकर भाई ----"(आपका धन्यवाद प्रखर भाई )बेचारा वसराम धन्यवाद देते हुए , साइकिल में डंडा फँसाए आगे बढ़ गया |
साइकिल लेकर वह दूसरी गली में दूध देने के लिए मुड़ गया, तब जो शैतानों की टोली मुह फाड़कर चिल्लाई है कि सड़क से गुज़रते लोग भी मुड़कर इनकी ओर देखने लगे |
ऐसा था इनका किशोरावस्था का सफ़र ---!
क्रमश: सब अपनी पढ़ाई में फिर कामों में व्यस्त होते चले गए |
ब्याह-शादियाँ भी हो गईं, सब लोग बीच में मिलते भी रहे किन्तु इन मुलाक़ातों के फ़ासले काफ़ी लंबे हो जाते थे -- और अब प्रखर के बारे में जो पता चला था उससे दोस्तों को पीड़ा होना स्वाभाविक ही थी |