एक दुनिया अजनबी - 7 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एक दुनिया अजनबी - 7

एक दुनिया अजनबी

7-

उसकी बुद्धि उसे कुछ सोचने का अवसर ही न देती | ब्लैंक हो गया था वह ! गलतियाँ करके बार-बार माफ़ी माँगने पर भी जब उसे मन की अँधेरी गलियों में सीलन की जगह एक भी किरण न मिली तब उसने संदीप की बात मान लेना ही उचित समझा | वही तो लाया था उसे यहाँ |

कैसी मदहोशी चढ़ती है न आदमी को ! न जाने किस नशे में वह अपना आपा खो बैठता है | यह सच है हर बात के पीछे कुछ कारण होते हैं पर भुगतना भी तो उसीको ही पड़ता है जो कर्म करता है, जीवन किसीको नहीं बख़्शता |

आख़िर बबूल बोकर आम का स्वाद तो नहीं मिलेगा न !

और जब हम बबूल बोते हैं तब पता ही नहीं चलता कौनसे बीज बो रहे हैं ? नहीं तो पहले ही आम न रोपा जाए ?

"चलें? संदीप ने कहा तो वह टूटे पैरों से उठकर खड़ा हो गया |जैसे पैरों में जान ही नहीं थी | उसे यह भी बुरा लग रहा था कि उसके कारण वहाँ सबकी आँखें नम हो गईं थीं |

"इधर आओ बेटा ---" वृद्धा ने उसके लौटते हुए कदमों को रोक लिया, वे अपने पास खड़ी युवती से धीमे से कुछ कह रही थीं | उनको घेरकर खड़े लोग भी गहन चुप्पी में खोए थे, मृदुला की याद ने सबके दिलों में हलचल भर दी थी |

प्रखर के उठे हुए पैर थम गए, युवती सामने के कमरे में से एक पर्सनुमा बैग लेकर आ गई थी जो उसने वृद्धा को दे दिया |वृद्धा ने बैग खोलकर उसमें से एक छोटा सा बटुआ निकाला और एक सौ का नोट प्रखर के हाथ में थमा दिया | उसकी आँखों में भरे हुए सवाल देखकर उन्होंने कहा,

"आशीर्वाद है, सदा अपने पास रखना ---सब ठीक होगा --" उसने नोट को आँखों से लगाकर उसका सम्मान किया और एक बार फिर से उनके पैर छूकर संदीप के साथ गाड़ी की ओर बढ़ गया |

बिल्लौरी आँखों के आश्वासन से उसका दिल धड़कने लगा था जैसे अब सब कुछ ठीक हो जाएगा, सब कुछ बढ़िया --ज़िंदगी एकदम टकाटक ----जैसे पहले खिलखिलाती थी, वैसे ही खिलखिलाती हुई !