10.
आइएसआइ की निगरानी में राशिद के सफर की तैयारी पूरी हो चुकी थी। अपने काम को अंजाम देने के लिए उसे हर तरह से लैस किया जा चुका था। फिर वह पल भी आया जब उसे नेपाल के लिए रवाना कर दिया गया। उसे नेपाल के रास्ते ही भारत की सरहद पार करनी थी। उसे इस तरह से मानसिक तौर पर तैयार किया गया था कि उसके मन में कहीं कोई भी आशंका नहीं थी या किसी प्रकार का कोई डर नहीं था। वह भारत पहुंच कर अपने काम से लग जाना चाहता था। किस्मत ने उसे मज़हब और वतन के लिए काम आने का जो मौका दिया था, उसे वह पूरी तरह और सफलतापूर्वक अंजाम देना चाहता था। वह अपनी आंखों से देखना चाहता था कि भारत में उसके ब्रादरान पर कैसे जुल्म ढाए जा रहे हैं। वह खुद उस दर्द को महसूस करना चाहता था ताकि भारत में तबाही मचाने का उसका इरादा और मजबूत हो और इसके लिए उसे किसी भी तरह का कोई अफसोस न हो। मुश्किल सिर्फ इतनी थी कि उसका काम कुछ तय दिनों में पूरा नहीं होने वाला था। पता नहीं कितना समय लगने वाला था। इतने लंबे समय तक वह भारत में रह रहे अपने मज़हब के लोगों पर होने वाले जुल्मो-सितम को देख कर खुद पर कैसे जज्ब रख पाएगा।
काठमांडू के त्रिभुवन इंटरनैशनल एयरपोर्ट से बाहर निकलने के बाद वह अपने अगले कदम के बारे में सोच ही रहा था कि एक शख्स उसके पास आया और फुसफुसाया – “आप राशिद हैं ना?”
राशिद सकपका गया था, उसने शक की नजरों से उसे घूरते हुए कहा – “कौन हैं आप?” मैं कोई राशिद-वाशिद........।“
उस शख्स ने उसे बीच में रोकते हुए कहा – “परेशान न हों राशिद भाई। मैं मोहम्मद कय्यूम हूं। मुझे आपको भारत की सरहद पार कराने का काम सौंपा गया है। आपकी फ्लाइट, यहां पहुंचने का समय और आपका फोटो हमारे पास पहले ही पहुंचा दिया गया था। जल्दी कीजिए किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए, मुझसे कुछ दूरी बनाते हुए चलते रहिए। आपको सरहद पार कराने की सारी तैयारी पूरी हो चुकी है। मैं आपके साथ सरहद पार कराने तक ही रहूंगा, उसके बाद आपको आगे क्या करना है, आपको पता ही होगा।“
राशिद ने ‘हां’ में गर्दन हिलाई तो वह शख्स पीछे मुड़कर सामान्य कदमों से टैक्सी स्टैंड की तरफ चल दिया और उससे कुछ दूरी बनाते हुए राशिद उसके पीछे-पीछे चलने लगा।
पहले से ही सारी व्यवस्था की जा चुकी थी, इसलिए उन्हें भारत की सीमा में प्रवेश करने में कोई परेशानी नहीं हुई। मोहम्मद कय्यूम उसे सोनौली बस स्टैंड पर छोड़कर और सलाम करके तुरंत चला गया था।
राशिद को दी गई हिदायत के अनुसार वह गोरखपुर जाने वाली सरकारी बस में बैठ गया। कुछ घंटों के सफर के बाद वह गोरखपुर उतरा। उसने बस स्टैंड के पास के एक रेस्त्रां में खाना खाया। बिल का भुगतान करने के बाद वह तुरंत ही उठ गया। अब उसे मुंबई तक की लंबी यात्रा करनी थी। पहले से बने प्लान के मुताबिक उसे लखनऊ तक की यात्रा ट्रेन से और फिर वहां से मुंबई तक की यात्रा हवाई जहाज से करनी थी। किस ट्रेन से उसे जाना था और लखनऊ से कौनसी फ्लाइट उसे पकड़नी थी, यह भी तय था। उससे कहा गया था कि जहां तक संभव हो वह यात्रा में किसी से ज्यादा बातचीत नहीं करे।
उसकी फ्लाइट जब मुंबई पहुंची तब शाम का झुटपुटा उतर आया था। वह एयरपोर्ट से बाहर निकला ही था कि उसे एक शख्स अपनी ओर आता नजर आया। दाढ़ी और स्किल टोपी पहने वह शख्स सीधा उसके पास पहुंचा और उसे आदाब अर्ज करते हुए बोला – “आप राशिद ही हैं ना?” फिर जेब से उसका फोटो निकाल कर उसे दिखाते हुए कहा – “मैं मुश्ताक अहमद हूं।“
“और क्या-क्या जानते हैं आप मेरे बारे में” – राशिद ने पूछा.
“देखिए राशिद, मुझे जितना बताया गया है, उतना ही मालूम है। आप यहां किसी खास मकसद से आए हैं। किस मकसद से न तो हमें यह बताया गया है और न ही इसकी जरूरत है। मुझे आपको उस मकान तक पहुंचाने का काम सौंपा गया है, जहां आपके किराए पर रहने का इंतजाम किया गया है। वहां आपको अपना नाम राशिद ही बताना है और यह कि आप एक बड़ी कंपनी में इंजीनियर हैं और अहमदाबाद से ट्रांसफर होकर यहां आए हैं। यह भी कि हाजी सुलेमान ने आपको उस घर का पता दिया है। आपकी शादी नहीं हुई है और आप अकेले हो।“
राशिद ने ‘हां’ में सिर हिलाया। केवल अहमदाबाद से ट्रांसफर होकर आने की बात को छोड़कर सारी बातें हकीकत ही तो थीं।
बाहर उनके इंतजार में खड़ी एक टैक्सी उन्हें एक घर तक ले गई। राशिद टैक्सी से उतरा तो उसे वहां तक पहुंचाने वाले आदमी ने उसके हाथ में कागज का एक पुर्जा थमाते हुए कहा – “यह मेरा फोन नं. है। इसका इस्तेमाल तभी करें जब कोई बड़ी इमर्जेंसी हो। अब आगे आपको खुद ही सबकुछ संभालना है।“ यह कह कर वह उसी टैक्सी में बैठकर वहां से चला गया।
उस आदमी के चले जाने के बाद राशिद ने घर का दरवाजा खटखटाया। थोड़े इंतजार के बाद घर का दरवाजा खुला। दरवाजा खोलने वाली एक खूबसूरत लड़की ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और पूछा – “कहिए, क्या काम है? अब्बू से मिलना है आपको? ठहरिए मैं उन्हें बुलाती हूं।“
“रुकिए, रुकिए मोहतरमा। जरा यह पता तो देख लीजिए, मैं सही पते पर ही आया हूं ना?”
लड़की जाते-जाते रुक गई। उसने राशिद के हाथ से पता लिया और बोली – “बिलकुल सही जगह पर आए हैं। पर, कौन हैं आप? पहले तो कभी आपको देखा नहीं। क्या चाहिए आपको?”
“देखिए, मैं राशिद हूं। एक एमएनसी में इंजीनियर हूं। अहमदाबाद से ट्रांस्फर होकर आया हूं। हाजी सुलेमान साहब ने मुझे यह पता दिया है। उन्होंने यहां किराए पर मेरे रहने के लिए आपके अब्बू से बात की थी।“
“हां, हां किसी किराएदार के आने की बात तो थी। ठहरिए, मैं अब्बू को बुलाती हूं। आप यहां अंदर आकर बैठ सकते हैं। उसे बैठा कर वह जाने के लिए मुड़ी ही थी कि भीतर से अधेड़ उम्र का एक शख्स यह कहते हुए वहां आया – “कौन है नुसरत, किससे बातें कर रही हो तुम?”
“अब्बू, ये राशिद आए हैं। कह रहे हैं कि यहां किराए पर इनके रहने के बारे में हाजी सुलेमान साहब ने आपसे बात की थी। आप भी कुछ बता तो रहे थे......।“
“अच्छा, अच्छा मैं बात करता हूं उनसे। तुम अंदर जाओ।“
राशिद उन्हें देख कर खड़ा हो गया। उसने उन्हें सलाम किया और बोला – “जी, वो हाजी साहब ने....।“
“बात तो हुई है। मैंने उनसे ‘हां’ भी कर दी थी। पीछे का एक कमरा खाली पड़ा है। वो तो पेइंग गेस्ट के तौर पर रखने के लिए कह रहे थे। लेकिन, हम सुबह की चाय और नाश्ते के अलावा कुछ नहीं दे सकेंगे। नुसरत की अम्मी तो कई साल पहले हमें छोड़कर अल्लाहताला के पास चली गई हैं। मैं भी गठिया का मरीज हूं। यह बच्ची नुसरत ही घर का सारा काम-काज संभालती है। हाजी साहब ने आपको किराया तो बताया होगा?”
“जी हां, दस हजार रुपया महीना बता रहे थे। मुझे बस ठहरने के लिए जगह चाहिए। ज्यादातर समय तो अपनी कंपनी के काम से बाहर ही रहूंगा।“
“हां, हाजी साहब बता रहे थे कि तुम इंजीनियर हो।“
“जी हां, अल्लाह के फज़ल से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की है। एक बड़ी कंपनी में काम करता हूं। अहमदाबाद से ट्रांसफर होकर आया हूं। आपके घर में रहने के लिए जगह मिल जाएगी तो बेहतर रहेगा।“
“कैसी बात कर रहे हो राशिद मियां, जब हाजी साहब ने कहा है तो मेरे लिए तो हुकुम ही हुआ। उन्होंने नुसरत को आवाज लगाई – “बेटा, राशिद मियां को वो पीछे वाला कमरा दिखा दो और उन्हें उसकी एक चाबी भी दे दो।“
नुसरत उसे कमरा दिखा कर और चाबी पकड़ा कर चली गई। कमरा ज्यादा बड़ा नहीं था। पर ठीक-ठाक और साफ-सुथरा था। कमरे की बाहर की तरफ खुलने वाली खिड़की के साथ बिस्तर सहित एक खाट बिछी थी। खिड़की खोलते ही गली दिखाई दे रही थी, जिसमें से इक्का-दुक्का लोग आते-जाते दिखाई दे रहे थे। खिड़की बड़ी थी, पर उसमें से बहुत कम हवा ही भीतर आ पा रही थी क्योंकि गली के दोनों तरफ चार-पांच मंजिला ऊंची बिल्डिंगे थीं या फिर दो-तीन मंजिला मकान बने हुए थे। पर, यह एक मंजिला मकान तो काफी पुराना लग रहा था। इसमें हवा की आवाजाही बहुत कम थी। कमरे में घुसने पर दाईं तरफ की छोटी सी कोठरी में टाइलेट बना था। साथ में नहाने-धोने के लिए एक नल भी था जिसके नीचे एक बिना हैंडिल वाली लोहे की बाल्टी और मग्गा रखा था। दरवाजे के पास ही बांई तरफ दीवार के सहारे एक छोटी सी पुरानी आलमारी रखी थी। कमरे के एक तरफ प्लास्टिक की पुरानी हो चुकी दो कुर्सियां भी पड़ी थीं। राशिद ने अपनी अटैची और बैग वहीं जमीन पर रख दिये और अपने थके हुए शरीर को आराम देने के लिए बिस्तर पर लुढ़क गया।
अभी झपकी लगी ही थी कि दरवाजे पर हो रही खट-खट से उसकी आंख खुल गई। कौन होगा, यह सोचते हुए उसने उठ कर दरवाजा खोल दिया। सामने नुसरत को खड़े देख कर उसने कहा – “आप? कहिए।“
“देख नहीं रहे हैं, मेरे हाथों में चाय नाश्ता है, जरा कप पकड़िए ना।“
“अरे, आप क्यों यह सब तकलीफ.........।“
“अब्बू ने कहा जा बेचारा थका हुआ होगा, भूख भी लग रही होगी। उसे चाय-नाश्ता दे आ।“
“ओह, तो अब्बू के कहने पर आप......।“
“जी हां, अब आप यह चाय नाश्ता ले लीजिए नहीं तो सब ठंडा हो जाएगा।“
“ठीक है” – कहते हुए राशिद ने उसके हाथ से चाय का कप और नाश्ते की प्लेट ली और उसे रखने की जगह ढूंढ़ने लगा।
नुसरत ने उसकी परेशानी समझते हुए कहा – “इस कमरे में मेज नहीं है। अब्बू ने रहमत भाई से कहा तो है कि उन्हें कबाड़ में कोई ठीक-ठाक मेज मिल जाए तो यहां दे जाएं। अभी आप ऐसा कीजिए एक कुर्सी पर यह सब रख लीजिए और दूसरी कुर्सी पर बैठ कर खा-पी लीजिए।“
राशिद के चेहरे पर मुस्कान उभर आई थी। कबाड़ी उस कमरे के लिए मेज लाने वाला था। उसने अपनी हंसी रोकते हुए कहा था – “मेज आएगी तब आएगी, अभी तो आपके मशविरे पर काम करता हूं।“ हाथ का सामान कुर्सी पर रखने के बाद वह दरवाजे की ओर मुड़ा तो देखा नुसरत वहां नहीं थी। वह कुछ क्षण दरवाजे को घूरता रहा और फिर चाय-नाश्ता करने बैठ गया।
चाय-नाश्ता करके उसमें ताजगी आ गई थी। वह सोच रहा था कि सचमुच उसे इसकी बहुत जरूरत थी। उसने खाली बर्तन उठाए, उन्हें धोया और वापस करने के लिए घर में जाने के लिए निकल पड़ा। अभी वह कुछ ही कदम चला होगा कि सामने से नुसरत आती नजर आई। राशिद के हाथ में धुले बर्तन देख कर उसने नाराजगी जताई – “आपसे बर्तन धोने के लिए किसने कहा था?”
“किसी ने नहीं, पर मुझे लगा कि अपने जूठे बर्तन किसी से धुलवाना अच्छा नहीं है।“
“अच्छा आप तो आज ही आए हैं ना, रोजाना कौन धोता है सारे बर्तन? ये काम मेरा है तो मुझे करने दीजिए। आइन्दा से अपनी यह गैर-जरूरी हिमाकत अपने पास ही रखिए, मुझे अपने काम में किसी की भी दखलंदाजी पसंद नहीं हैं। जो काम मर्दों का है वो मर्द करें और औरतों के काम उन्हें करने दें।“
“जी नाराज मत होइये, मैं तो बस....।“
“रहने दीजिए, सच-सच बताइये आपको चाय-नाश्ता पसंद आया या नहीं।“
“कैसी बातें कर रही हैं, चाय बहुत ही रिफ्रेशिंग थी और नाश्ते की तो देखिए मैंने पूरी प्लेट ही साफ कर दी है। सच कहूं तो इस समय मुझे इसकी बहुत जरूरत थी। सफर में ठीक-ठाक खाने को मिलता कहां है?”
“देखिए, मेरी बात आप ध्यान से सुन लीजिए। अब आपको यहीं रहना है। तकल्लुफ करने की कोई जरूरत नहीं है। किराए में आपके चाय-नाश्ते का खर्चा शामिल है। हां कल से आपको सिर्फ सुबह का चाय-नाश्ता ही मिलेगा।“
“मुझे अच्छी तरह पता है। देखता हूं, दोपहर का खाना तो शायद दफ्तर की केंटीन में मिल जाएगा, शाम के खाने के लिए आपसे ही आसपास के किसी अच्छे से ढ़ाबे का पता पूछ लूंगा।“
“हां, इसी गली में आगे चल कर नूर होटल है। किसी से भी पूछ लीजिएगा। उसके खाने की काफी तारीफ होती है।“
“जी, मैं पता लगा लूंगा। अच्छा, आपके अब्बू से कब मिल सकता हूं?”
“लो वो अब्बू तो इधर ही आ रहे हैं, बात कर लो उनसे।“
राशिद ने नुसरत के अब्बू को देखते ही कहा – “सलाम वालेकुम।“
“वालेकुम सलाम। आपको कमरा ठीक-ठाक लगा राशिद मियां?”
“जी जनाब, मेरी जरूरात के लिए काफी है।“
“अहमदाबाद में आप कहां रहते थे?”
राशिद इस सवाल के लिए तैयार नहीं था। एकबार तो वह हड़बड़ा गया, फिर उसने संभलते हुए कहा – “ऑफिस के पास ही एक बैचलर हॉस्टल था।“
“चलो यह तो अच्छा रहा, नहीं तो अकेले शख्स को खाने-पीने की काफी दिक्कत होती है। यहां भी आपको यह दिक्कत तो महसूस होगी ही। पर, क्या करें, हाथ तंगी की मजबूरी है। इसीलिए मैंने हाजी साहब से साफ कह दिया था कि चाय-नाश्ता तो दे देंगे, बाकी इंतजाम किराएदार खुद करे तो बेहतर है।“
“जी आप चिंता न करें। चाय-नाश्ता मिल जाया करेगा, बस बहुत है।“
“नुसरत सारे दिन काम में ही लगी रहती है। चाय-नाश्ता, फिर खाना और झाडू-बुहारी से लेकर घर के सारे काम। चाय-नाश्ता भेजा था आपके लिए, आपने खा-पी लिया?”
“जी हां, मेहरबानी है आपकी। बहुत लजीज़ था।“
नुसरत ने उसकी तरफ देखा था और फिर वह बर्तन लेकर चली गई थी।
उसके जाने के बाद नुसरत के अब्बू ने कहा – “आप हाजी साहब को कैसे जानते हैं?”
“जी कोई सीधी जानकारी नहीं है, अहमदाबाद के मेरे एक दोस्त उन्हें जानते हैं। उन्होंने ही हाजी साहब से फोन पर मेरे लिए कोई कमरा ठीक करने की गुजारिश की थी।“
“अच्छा-अच्छा। आपके वालिदेन, रिश्तेदार वगैरह?
“जी, मेरा कोई नहीं है। अहमदाबाद के एक यतीमखाने में ही बचपन से परवरिश हुई है। पढ़ने में ठीक-ठाक था, इसलिए मज़हबी इदारों की मदद से पढ़ाई होती रही।“
“ओह, सुनकर अच्छा नहीं लग रहा है। अल्लाहताला भी पता नहीं, अपने बंदों का कैसा-कैसा इम्तहान लेते हैं। अब देखो, नुसरत की अम्मी को ही इतनी जल्दी उठा लिया। उसे तो ठीक से अपनी अम्मी की सूरत भी याद नहीं है। मैंने लोगों के लाख कहने पर भी दूसरी बीबी नहीं की। डरता रहा वो नुसरत को ठीक तरह रखेगी या नहीं। उसके खुद के बच्चे हो गए तो पता नहीं मेरी नुसरत के साथ कैसा सुलूक करे। बस, मैं ही उसकी अम्मी भी बना रहा। उसके लिए मैं और मेरे लिए वो ही सबकुछ है।“ कहते-कहते उन्होंने गले में पड़े अरबी रूमाल से अपनी आंखें पौंछ ली थीं और कहा था – “मैं भी आपके सामने अपना रोना लेकर बैठ गया।“
“जी कोई बात नहीं, कहते हैं इससे जी हल्का हो जाता है।“
“ठीक कहते हो। अच्छा मैं जिस मकसद से यहां आया था, वो तो बातों ही बातों में पीछे छूट गया।“
“बताइये ना?”
“आप एक महीने का एडवांस दे देते तो ठीक रहता। अब मुझसे ज्यादा काम होता नहीं है, इसलिए घर का खर्चा खींच-खांच कर ही चल पाता है। घर में किराएदार रखने के लिए भी मैं इसीलिए राजी हुआ कि थोड़ा हाथ खुल जाएगा, फिर हाजी साहब का कहा भी पूरा करना था।“
राशिद ने अपना बैग खोला और उसमें से रुपये निकाल कर उनके हाथ पर रखते हुए बोला – “आप खातिर जमा रखें, जब तक मैं यहां हूं, महीने की पहली तारीख को बिला नागा आपको किराया मिल जाया करेगा।“
“आप शरीफ आदमी लगते हो राशिद। मेरी बात का बुरा मत मानना। वो तो........।“
राशिद ने उन्हें बीच में ही रोकते हुए कहा – “नहीं, नहीं किराया मांगना आपका हक है और किराया समय पर अदा करना मेरा फर्ज।“
अब्बू ने रुपये अपने कुर्ते की जेब में रखते हुए कहा – “यहां आराम से रहिए राशिद। हाजी साहब से कहूंगा कि आपने बहुत नेक और फरमाबरदार शख्स को किराए पर रखवाया है। पहली बार किसी को किराए पर कमरा दिया है, नए आदमी को समझने-बरतने में कुछ समय तो लगता है। है ना?”
“बिलकुल ठीक फरमाया आपने। अभी तो मुझे आए चंद घंटे ही हुए हैं। मैं पूरी कोशिश करूंगा कि आपकी उम्मीदों पर खरा उतरूं और मेरी वजह से आपको कभी कोई परेशानी न हो।“
“जीते रहो। अल्लाह उम्रदराज करे। अपना घर समझ कर रहो।“
“मैं आपको अब्बू कह सकता हूं। अभी तक किसी को अब्बू कहने का मौका ही नहीं मिला। बहुत मन करता है किसी को अब्बू कह कर पुकारूं।“
“इसमें सोचने, कहने की क्या बात है। तुम मेरे बेटे जैसे ही हो। नुसरत से शायद दो-तीन वर्ष ही बड़े होगे?”
राशिद की आंखों में पानी तैर आया था। उसे छुपाने के लिए वह जल्दी से कमरे के अंदर चला गया। उधर अब्बू कह रहे थे – “राशिद बेटा, आज रात का खाना हमारे साथ ले लेना। कल से अपना देख लेना, ठीक है।“
राशिद ने वहीं कमरे से ही ऊंची आवाज में कहा – “जैसा आप ठीक समझें अब्बू।“
रात का साया हर सिम्त दिखाई देने लगा था। नुसरत उसका खाना कमरे में ही दे गई थी। इतना लजीज़ खाना उसने शायद ही कभी खाया था। खाना खत्म करके वह बर्तन धोने ही लगा था कि उसे नुसरत की नसीहत याद आ गई। उसके कहने के बाद यह हिमाकत ही होती और उसकी नाराजगी का वायस बन जाती। उसने बर्तन वापस कुर्सी पर रखे ही थे कि नुसरत वहां आ गई और हंस कर बोली – “बर्तन साफ करने की हिम्मत नहीं हुई ना?”
“सही फरमा रही हें आप। अब तक यतीमखाने के मैस मैं या फिर हॉस्टलों के मैसों का खाना ही नसीब हुआ है। घर का खाना मुझे कभी नसीब होगा यह बात तो मेरे ख्वाबों में भी कभी नहीं आई। सोचता हूं किस तरह आपका शुक्रिया अदा करूं।“
“कोई शुक्रिया अदा करने की जरूरत नहीं है। कोई स्पेशल डिश नहीं बनाई है मैंने, घर में रोजमर्रा जो खाना बनता है, बस वही तो है।“
“जाने दीजिए आप मेरी बात नहीं समझेंगी। इसकी कीमत सिर्फ और सिर्फ वही समझ सकता है, जिसने मेरी जैसी जिंदगी गुजारी हो।“
उसकी बात सुनकर नुसरत संजीदा हो गई थी – “आपकी बात समझने की कोशिश कर रही हूं। मैं सोचती हूं, अपने और अब्बू के लिए तो दोनों वक्त का खाना बनाती ही हूं, दो रोटियां ज्यादा बना लिया करूंगी, आप भी यहीं खा लिया करना।“
“नहीं, नहीं। हाजी साहब से जो बात हुई है, उसके मुताबिक किराए में सिर्फ चाय-नाश्ता ही शामिल है। मेरी तो आदत है, बाहर का खाना खाने की। आपने ही तो बताया था नूर होटल का खाना बहुत अच्छा होता है। फिर अब्बू क्यों मानने लगे”?
“जब मैं आपको खाना देने आ रही थी तब अब्बू खुद ही कह रहे थे कि बड़ा अच्छा लड़का है। मुंबई में नया आया है, पता नहीं खाने-पीने के लिए कहां-कहां भटकता फिरेगा। देखिए, हम तो जो भी मिल जाता है, बना कर खा-पी लेते हैं। अब्बू का कहना था कि अगर किसी और के लिए भी खाना बनाना होगा तो इतना सादा खाना थोड़े ही होगा। रोजाना दो चीजें बनाने के लिए भी अलग से पैसा चाहिए या नहीं? एक बात कहूं आपसे, बाजार में खाने-पीने पर जो खर्चा करेंगे उतना किराए के साथ और दे दिया करें। उसके बाद तो अब्बू को कोई ऐतराज नहीं होगा। आपको कोई ऐतराज है?”
“मुझे क्यों ऐतराज होने लगा। बाहर इतना पैसा खर्च करके भी मुझे घर जैसा खाना तो मिलने से रहा। फिर खाने-पीने के लिए नूर होटल या फिर कोई अन्य जगह ढूंढ़ने की मेरी मशक्कत और चिंता भी खत्म हो जाएगी।“
“तो ठीक है, खाने का पैसा मिलने लगेगा तो अब्बू मान ही जाएंगे। मैं उन्हें मना लूंगी।“
“मैं महीने में तकरीबन डेढ़ हजार रुपये इसके लिए खर्च होने का अंदाजा लगा रहा था। अभी दे दूं आपको?”
“आराम से दे दीजिएगा और अच्छा-बुरा जो भी बनाती हूं, कल से यहीं खा लीजिएगा।“
नुसरत चली गई थी। वह सोच रहा था, अल्लाहताला उस पर कितना मेहरबान है, उसके सोचने से पहले ही उसकी चिंताओं और परेशानियों का हल ढूंढ़ देता है। वास्तव में, उसकी एक बड़ी चिंता दूर हो गई थी।
थकान उस पर हावी हो रही थी, वह इस समय कुछ भी सोचना नहीं चाहता था, बस सो जाना चाहता था। कपड़े बदल कर वह खाट पर पड़ा तो जल्दी ही उसे नींद ने आ घेरा।