एक दुनिया अजनबी
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पिता के न रहने से प्रखर को जीवन की वास्तविकता आँखें खोलकर देखनी पड़ी |दो युवा होते बच्चों का पिता अहं में पहले ही ज़मीन से बहुत दूर जा चुका था, पत्नी ने जब देखा, अब सिर पर कोई बुज़ुर्ग नहीं, उसकी ज़िद तिल का ताड़ बन गई |
कुछ दिन प्रखर को जीवन का बदलाव समझ नहीं आया, वह अपनी बुलंदियों के घोड़ों पर उड़ान भरता रहा | जब ज़मीन छूने की नौबत आई, तब कुछ समझ में आया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी, प्रखर टूटने लगा |
उसके व्यवहार से माँ कौनसा बहुत संतुष्ट थी ? सबके अपने-अपने खाने, सब अपने खानों में कैद ! खाने भी कोई ऊँचा-नीचा , किसीमें गड्ढे तो कोई ऊपर उछलता सा, कोई वेग भरी नदी !कोई उफ़नते समुद्र सा कोई कड़कती बिजली सा तो कोई सप्तरंगी इंद्रधनुष सा !
माँ विभा अपनी तीसरी पीढ़ी के बच्चों के प्यार में दिन-रात कुछ न देखती | सोचती, यदि वह बच्चों के लिए हर पल एक टाँग पर खड़ी रहती है तो कौनसा पड़ौसियों पर अहसान करती है ?
कितने-कितने अहसासों और संवेदनाओं का पुतला मनुष्य जीवन की किस घड़ी में, कौनसे मोड़ पर आ खड़ा होता है, कहाँ जानता है वो !
जूझती रहती विभा, बहू को पूरा सम्मान, स्नेह देने की कोशिश करती पर बात न बननी थी, नहीं बन सकी | क्या सही था क्या ग़लत, विभा समझ ही नहीं पाई | इस सही गलत के खेल में वह रिश्तों की डोरी को सँभालने की कोशिश में ही जूझती रही |
जब वह काम करते करते थक, टूट जाती और सबको शुष्क पाती, अचानक ही उसके मुख से निकलता ;
"सबके लिए इतना कर रही हूँ फिर भी ----"
" तो मत करिए न ! क्या ज़रुरत है ज़्यादा करने की ? " भिन्नाना प्रखर के व्यवहार का अहं हिस्सा बन चुका था |
जैसे कोई अचानक पहाड़ की चोटी से या फिर खूब ऊँचे ताड़ के पेड़ पर चढ़े इंसान को ऊपर से धक्का दे दिया जाए ऐसी स्थिति में स्वयं को घिरा पाती विभा, पति के बाद !
अब यह उसकी उम्र और ज़िम्मेदारी थी क्या पोते-पोतियों को सँभालने की ? लेकिन 'तू कौन मैं खाँमाखां'! थकान से लस्त-पस्त शरीर से लगी ही तो रहती |
यदि न करे तो जो घर में शांति और मेल-मिलाप से परिवार की इज़्ज़त दिखाई दे रही है न, वो चुटकी में उड़नछू हो जाए ! ये सब अहसास तभी होते हैं जब वास्तविकता सामने आकर सुरसा सा मुँह फाड़कर खड़ी हो जाती है वर्ना तो -- कौन किसीको समझा सकता है ? जो दिखाई देकर भी न दिखने का भ्रम पाले रहे, उसे तो भगवान भी नहीं समझा सकता |
जगे हुए को कौन जगाएगा ? अकड़ के मेहराबों को कौन तोड़ेगा ?
ख़ैर, ये सब बातें तब तक समझ में नहीं आतीं जब तक आदमी खुद काँटों का स्वाद नहीं चख लेता |
अब प्रखर स्वयं को प्रताड़ित करता रहता , यह माँ के लिए और भी पीड़ादाई था |माँ बच्चों का बिलबिलाना कहाँ देख पाती है ? वह एक हारे हुए जुआरी की तरह ख़ुद ही टूटने लगती है जो अपना सब कुछ एक दाँव में ही हार जाता है---पूरा जीवन ही--- !
जीवन में होता वह है जो कल्पना के ओर-छोर को भी नहीं पकड़ता, जैसे बरसते बादलों से अचानक सूरज का गोला आग नहीं बरसाने लगता --या अचानक तड़कती हुई धूप में से बादल गहराकर अपना प्रकोप दिखाने लगते हैं | वो मौसम का अचानक कड़क हो जाना, अचानक नाराज़गी दिखाने लगना | ये मानसिक व शारीरिक या कोई भी अचानक हुआ बदलाव बीमारियों को ही तो जन्म देता है | तन की बीमारियों सी ही तो होती हैं मन की बीमारियाँ भी बल्कि तन से कहीं अधिक, बहुत अधिक ! तोड़ देती हैं ये मन की बीमारियाँ तन और मन दोनों को ही !कुछ ऐसे ही मोड़ों से जूझती रही विभा !
बच्चे कोई प्रॉपर्टी नहीं जिन पर साँप की तरह कुंडली मारकर बैठा जाय। लेकिन यह भी होता है और सामने वाले को चुप्पी लगाकर जागती आँखों कड़वा सच निगलना भी पड़ता है | यूँ तो बच्चे दोनों के थे किन्तु पिता का कोई अधिकार नहीं था अब ! माँ के प्रभाव में डूबे हुए बच्चे पिता के पास आते हुए डरते, दोनों के रिश्ते का असर उन पर था जो स्वाभाविक था |
विभा टूटने की कगार पर खड़े बूढ़े वृक्ष के पीले पत्ते सी होने लगी जो कभी भी झर सकता था | कितनी जल्दी उसकी कमर झुकने लगी है जैसे हर दिन न जाने कितनी बूढ़ी होती जा रही है !