व्यंग्य कथा कुत्ते की तेरहवी
रामगोपाल भावुक
हमारे एक रिश्तेदार जब-जब आते हैं। नये-नये किस्से लेकर ही आते हैं। उन्हें किस्से सुनाने का बहुत शौक है। हम चाहे कितने ही महत्वपूर्ण कार्य में व्यस्त हो, वे आ भर जाये हमें उनकी बात सुनने बैठना ही पड़ता है।
आज हम अपनी साहित्यिक संस्था के चुनाव के सम्बन्ध में चर्चा कर रहे थे कि वे आ धमके। उनके आते ही हमें अपनी बातें लइयॅा-पइयॉ समेटकर उनका किस्सा सुनने बैठना पड़ा।
वे आते ही बोले-‘आज इधर से निकला तो सोचा आपसे मिलता चलूँ, इसलिये लौट पड़ा। कल तो मुझे ग्वालियर अपने पुत्र मिन्टू के बीमार कुत्ते को देखने जाना ही पड़ेगा। आज ही उसका एक ठेकेदार मित्र मिल गया था, वह कह रहा था-साहब आप वहाँ नहीं दिखे, आपका चिंकू बहुत बीमार है। सारे शहर के बड़े-बड़े लोग उसे देखने आ रहे हैं। अगर मैं नहीं गया तो बेटा कहेगा- सब तो मेरे चिंकू को देूखने आ रहे हैं पापा ही नहीं आये । पापा को हमारे चिन्कू की चिंन्ता ही नहीं है। भैया कल तो उसे देखने जाना ही है।
मैंने पूछा-‘ये चिंकू कौन?’
वे बोले- ‘’भाई साहब, ये उनके अल्सेसियन कुत्ते का नाम है।’
मैंने अश्चर्य व्यक्त किया-‘अरे!’
उन्होंने प्रसंग आगे बढ़ाया-‘वे चिंकू को बहुत प्यार करते है। बात ये इुई जब इनका काम- धन्धा अच्छा नहीं चल रहा था तो ये अपनी जन्म कुण्डली लेकर किसी ज्योतिषी महोदय के यहाँ पहुँच गये। उन्होंने इन्हें जमा दिया-‘तुम किसी अल्सेसियन कुत्ते को परिवार के सदस्य की तरह पाल लो किन्तु उसके साथ तुम्हारा व्यवहार घर के सदस्य की तरह ही रहे ,नहीं तो आपको कोई लाभ नहीं होगा,फिर बाद में मेरे से न कहना कि इसके पालने से कोई लाभ नहीं हुआ। इन्होंने उसके कहने से पहले एक ऐसा ही कुत्ता पाला था। उसका नाम भी चिंकू ही था। हम अपने बच्चों के जनक होते हुए भी वह स्थान नहीं पा सके जो उसका था। जब हम उसके घर जाते तो हमें बाहर के कमरे में सोना पड़ता था किन्तु वह चिंकू तो उनके ही बैडरूम में उनके बिस्तरे में ही सोता था।
उसका मासिक खर्च दस हजार रुपये था। वह वही खाता जो घर के सभी लोग खाते थे। वह बड़ा उस्ताद हो गया था, उसे घर के लोगों को खुश रखना आता था। कोई घर में उसका अपरिचित आता तो वह उस पर बुरी तरह खोंखिया उठता था। कोई परिचित आ जाता तो वह उसके पैरों में लोटने लगता। आने वाला इससे बहुत खुश हो जाता। उनके चिंकू की प्रशंसा करने लगता।
कुछ दिनों बाद वही चिंकू बीमार पड़ गया। उसका आदमी के इलाज की तरह इलाज कराया जाने लगा। उसकी बीमारी जानने के लिये उसके सारे टेस्ट कराये गये। किन्तु वह ठीक नहीं हो रहा था। मैं उन दिनों गाँव में ही था। मिन्टू के ठेकेदार साथी मुझे बतला ही दिया है। एक दो दिन में समय निकालकर मैं अपनी पत्नी को साथ लेकर उसे देखने चला गया। उस दिन उसका इलाज करने एक डाक्टर साहब आये थे। बच्चों को समझाने की दृष्टि से मैंने कहा-‘ऐसा लगता है इसकी उम्र पूरी हो गई।’
डॉक्टर मेरी बात काटते हुये बोले-‘ अंकल आपको ऐसे नहीं कहना चाहिये। इनकी उम्र बारह वर्ष रहती है। अभी तो यह कुल आठ वर्ष का ही है। इसके मैं कुछ और टेस्ट लिख रहा हूँ।
उन्हें और करा लें। इसकी बीमारी पता चल जायेगी। आप चिन्ता नहीं करें यह ठीक हो जायेगा।’
ऐसी चुपड़ी-चुपड़ी बातें करके अपनी पाँच सौ रुपये फीस लेकर चला गया। मैंने मिन्टू को समझाना चाहा-‘ देखो , आदमी की तरह सभी की उम्र बराबर नहीं होती। मुझे तो लगता है इसकी उम्र पूरी हो गई। इस पर वह मुझे बुरा भला कहने लगा।-‘ आपसे इस मामले मैं हम सलाह तो नहीं ले रहे हैं। फिर आप क्यों फटे मैं अपनी टाँग अड़ा रहे है। अरे! आप से अच्छा नहीं बोला जा रहा ह,ै तो बुरा भी मत बोलिये।’ उसकी बात सुन कर मैं चुप रह गया था। चार -छह दिन वहाँ रहने की सोच कर गया था। दूसरे दिन ही वहाँ से गाँव लौट आया।
आठ-दस दिन बाद खबर मिली कि चिंकू की डेथ हो गई है। इससे बच्चे बहुत दुःखी हैं। मुझे उन्हें समझाने के लिये दोबारा शहर जाना पड़ा। वहाँ पहुँच कर पता चला- उसकी मृत्यु के बाद बैन्ड बजवाकर उसका जनाज़ा निकाला गया। उसे ससम्मान दफनाया गया। शोक व्यक्त करने के लिये आने वालों का उसके यहाँ ताँता लगा था। घर के सभी लोग मुँह लटकाये बैठे थे। आने वाले घर्म उपदेश दे रहे थे। भैया शोक मत करो ,संसार में आना-जाना लगा ही रहता है। दुःख व्यक्त करके आप उसकी आत्मा को कष्ट दे रहे हैं। उस दिन मैंने देखा हमारी बहू रानी का रो रोकर बुरा हाल था। सभी उसे समझाने का प्रयास कर रहे थे।
उस दिन एक पन्डित जी को बुलवा लिया। वे बोले इसकी आत्मा की शान्ति के लिये गरुण पुराण बचवा देना उचित होगा। मैंने धीरे से बात का विरोध किया पर मेरी कौन सुनता! उसी दिन से गरुण पुराण का पाठ शुरू हो गया। मुझे भी मन मार कर उसे सुनने बैठना पड़ा। सोचा, मैंने इनकी बातों का विरोध किया तो मुझे गाँव लौटना पड़ेगा। इस समय मुझे लौटना अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिये यही सोच कर मैं चुपचाप वहीं डला रहा।
हाँ तो साहब उस चिंकू की तेरहवी की जोर शोर से तैयारियाँ की जाने लेगी। जो आता जोरदार तेरहवी करने की सलाह देकर चला जाता। मैं उनकी बातें सुन सुनकर हैरान था। आजकल लोग आदमियों की तेरहवी करने का विरोध कर रहे हैं। यहाँ तो यह उल्टा ही हो रहा है। अब तो भैया जानवरों की भी तेरहवी की जाने लगीं । मेरे पास चुप रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।
उसके मरने के ठीक तेरहवे दिन एक विशाल भोज का आयोजन किया गया। नगर भर से ढूढ़-ढूड़कर उसी जाति के कुत्तों का विधिवत नौता किया गया। सभी ने अपने नौेकरों के द्वारा उन्हें भेज दिये। सभी कुत्तों के पहले तिलक चन्दन लगाया गया। विधिवत उन्हें भोजन करने के लिये बैठाया गया। भोजन करते समय वे बातें करने लगे।
नगर के प्रसिद्ध समाज सेवी के कुत्ते मोनू ने अपना मौन त्यागा ‘मुझे मानव समाज की ये परम्परायें अच्छे नहीं लगतीं। मुझे यहाँ आना ही नहीं चाहिये था।’
पुलिस अधिकारी का कुत्ता टोनी सोचने लगा-‘इसकी तो बुद्धि ही भृष्ट हो गई है। खुशामद किसे बुरी लगती है। यह है कि अपने को समाज सेवी के घर का होने से बहुत ऊँचा मान रहा है। अरे!कुत्ता है कुत्ता ही रहेगा । चाहे किसी के घर का हो। ’
पण्डित जी के यहाँ का कुत्ता दीपू सोचने लगा-‘खाने पीने में इस तरह की बातें उसे अच्छी नहीं लगतीं। यह भोजन इतना स्वादिष्ट बना है कि खाते ही चले जाओ। यह नहीं लग रहा कि ये तेरहवी का भोजन है।’
एक नेताजी के यहाँ से आये टोमी ने अपनी नेतागिरी यहाँ भी चलाई ,बोला-‘मैं तो मृत्युभोज का खुलकर बिरोध करता रहा हूँ। यहाँ का एक ग्रास भी गले से नीचे नहीं उतरने वाला। हम मानव समाज की इस परम्परा को अच्छा नहीं मानते है। मैं इस का पुर जोर विरोध प्रगट करता हूँ। ’यह कहकर वह वहाँ से उठकर चला गया और बाहर के कुत्तों के साथ जाकर मिल गया।
इसके वाद नगर के प्रसिद्ध व्यंग्य कवि काका डबरी जी का कुत्ता बोला-
हम यहाँ तेरहवी के ब्राह्मण बनकर आये हैं।
अपनी सारी संवेदनाओं को गिरवी रख आये हैं।
देश के बड़े-बड़े लोग मिटटी-पत्थर-सरिया तक खा जाते हैं,
कुर्सी की खातिर आँखें मूँद कर सबके चरण छू आते हैं।
यहाँ तो श्रद्धा से परोसा गया भोजन है।
आत्मा के नाम पर पोषण है।
इसमें मरा मराया प्राणी कहाँ से घुस गया।
लगता है-
बिरोध करने बालों के दिमाग का स्क्रू डीला पड ़गया।
लोग कैसे हैं! जो भोजन का सम्बन्ध प्राणी से जोड़ रहे है।
विज्ञान से नाता तोड़ रहे है।
भोजन की सुगन्ध से बाहर कुत्तों की भीड़ बढ़ने लगी। वे भूंक-भूंक कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगे। यह बात अन्दर बैठे कुत्तों को अपमान जनक लगी। उन सब ने घोषणा कर दी-‘यदि बाहर वालों को न खदेड़ा गया तो हम अन्न ग्रहण नहीं करेंगे। ऐसा अन्न क्या अंग लगेगा। इस बात पर बाहर का गेट बन्द कर दिया गया। इससे बाहर के कुत्ते निराश होकर लौट गये।
इसके बाद उन्हें प्यार से भोजन कराया गया। बाद मैं मैंने देखा मिन्टू ने उन सब के चरण छूकर दक्षिणा भी दी।
उसके बाद फिर इष्ट मित्रों का भोजन शुरू हुआ। बाहर बिन बुलाये कुत्ते भी झिमिट आये। उन्हें तो डन्डे मार कर भगा दिया। उसके वाद तो नगर भर के मित्रों का आना शुरू हो गया। रात ग्यारह बजे तक तेरहवी का भोजन चलता रहा।
जब सब कुछ निपट गया। इस शानदार भोज के कसीदे कहे जाने लगे। ऐसा भोज किसी कुत्ता पालने वाले ने नहीं दिया होगा। इस शान में सभी मिन्टू के इस कार्य की प्रशंसा कर रहे थे। मुझे उनकी बातों पर भयंकर क्रोध आ रहा था। किन्तु असमय का क्रोध घातक हो सकता था, इसलिये चुपचाप उन सब की बातें सुनता रहा। मैं जानता था, मिन्टू कहेगा पापा को हमारा अन्य लोगों से हटकर जीना पसन्द नहीं आता।
यही सोचते हुये मैं शहर से गाँव लौट आया था।भैया,लगता है आदमी के दिमाग देवाला निकल गया है। बिना सोचे समझे परम्पराओं को ढोना विवेकहीन निर्णय है।
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