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कतरा भर ज़िन्दगी

कतरा भर ज़िन्दगी

आईटी मास्टर माइंड के नाम से जाना जाने वाला अविनाश इनफाॅरमेशन टेक्नाॅलोजी की हर सीढ़ी पर चढ़ने के लिए आतुर था। इण्टर की परीक्षा पास करने के बाद जब उसने इनफाॅरमेशन टेक्नाॅलोजी की दुनिया में कदम रखा, तब से अब तक वह उस दुनिया से बाहर ही नहीं निकल पाया था। बी-टेक, एम-टेक टाॅपर रहने के बाद अब वह एबरोड से आईटी में ही पीएच-डी करने की तैयारी कर रहा था। वह सुबह-से-लेकर देर रात तक किताबों की दुनिया में खोया रहता था।

ऐसे होनहार लड़के से कौन दोस्ती करना नहीं चाहेगा ? कौन उसके करीब नहीं आना चाहेगा ? उसकी फेसबुक पर दिनभर में सैकड़ों फ्रैण्ड्स रिक्वेस्ट आतीं, मगर वह सबको अनदेखा कर देता। लेकिन बैगलुरू की रहने वाली विभूति की प्रोफाइल देखकर वह बहुत प्रभावित हुआ, क्योंकि विभूति भी उसी की तरह आईटी की पढ़ाई कर रही थी। वह भी पढ़ने में बहुत होशियार थी। उसने भी उसी की तरह हाईस्कूल, इण्टरमीडिएट और बी.टेक. मंे टाॅप किया था और अविनाश की ही तरह वह भी बहुत ही महत्वाकांक्षी और खुली आंखों से सपने देखने वाली लड़की थी। इसलिए अविनाश ने आँख मींचकर उसे अपनी फेसबुक दोस्त बना लिया।

अविनाश की फेसबुक फ्रैण्ड बन जाने की विभूति को भी बेहद खुशी हुई। अब दोनों कई-कई घण्टे फेसबुक पर ही नहीं फोन पर भी अपने सबजेक्ट और कैरियर को लेकर बातें करने लगे थे।

अविनाश ने अपनी मम्मी को भी विभूति के बारे में सबकुछ बता रखा था। वह भी विभूति से बहुत प्रभावित थीं। विभूति ने भी अपने पापा को अविनाश के बारे में सबकुछ बता रखा था।

एक दिन विभूति ने फोन पर अविनाश को बताया कि वह अपनी पढ़ाई के किसी काम से अपने पापा के साथ दिल्ली आ रही है और वह दिल्ली आने के बाद उससे मिलना चाहती है तो अविनाश सहर्ष उससे मिलने को राजी हो गया। विभूति के दिल्ली आने की बात अविनाश ने अपनी मम्मी को बताई तो उसकी मम्मी को भी बेहद खुशी हुई, क्योंकि वह भी विभूति से मिलने की इच्छुक थीं।

राजधानी एक्सप्रेस से विभूति अपने पापा के साथ बैंग्लूरू से दिल्ली पहुंची। दिल्ली रेलवे स्टेशन से अविनाश उन दोनों को अपनी कार में घर ले आया।

गोरी-चिकटी, पतली-दुबली, नाजुक-सी हंसमुख और मिलनसार विभूति से मिलकर अविनाश की मम्मी तो जैसे निहाल ही हो गईं। उससे मिलकर उन्हें ऐसा लगा, मानो अविनाश की पत्नी के रूप में उन्होंने जैसी लड़की की कल्पना अपने दिलो-दिमाग में कर रखी थी, उनकी वो कल्पना विभूति के रूप में साकार हो गई हो।

दो दिन दिल्ली में रहकर विभूति ने अपना काम तो निबटाया ही साथ ही अविनाश और उसकी मम्मी के साथ खूब मस्ती भी की। अविनाश ने पहली बार विभूति के साथ दिल्ली घूमी। इससे पहले अविनाश को दिल्ली घूमने का न तो समय मिला न ही दिल्ली घूमने में उसकी कोई दिलचस्पी रही थी।

इस बीच विभूति और उसके पापा को यह मालूम हो गया कि अविनाश के पापा नहीं हैं। वह अविनाश की मम्मी की शादी के दो साल बाद ही एक कार एक्सीडेन्ट में मर गये थे। अविनाश की मम्मी ने अपनी उम्र के पैंतालीस साल एकाकी जीवन जिया। उसके बाद उन्हें एकाकी जीवन अखरने लगा तो उन्होंने अनाथ आश्रम से अविनाश को गोद ले लिया था। लेकिन अविनाश को उन्होंने कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि वह उसकी सगी माँ नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने अविनाश को जन्म देने वाली माँ से भी बढ़कर लाड़-दुलार और प्यार दिया। अविनाश की मम्मी दिल्ली के एक काॅलेज से प्रवक्ता पद से सेवानिवृत हो चुकी थी।

संयोगवश विभूति भी अपने पिता की इकलौती संतान थी। उसकी मम्मी भी उसे जन्म देने के समय ही इस दुनिया से जा चुकी थीं। विभूति के पापा ने ही उसको माँ और बाप दोनों का प्यार दिया था।

दो दिन साथ रहने के बाद अविनाश और विभूति तथा उनके मम्मी-पापा में इतनी आत्मीयता हो गयी थी कि किसी को लग ही नहीं रहा था कि वो लोग पहली बार एक-दूसरे से मिले हों। बातों-ही-बातों में अविनाश की मम्मी ने विभूति के पापा के सामने विभूति को अपनी बहू बनाने का प्रस्ताव रख दिया, जिसपर विभूति के पापा ने बिना सोचे-विचारे हां की मुहर लगा दी।

जल्दी ही अविनाश और विभूति दोस्त से पति-पत्नी बन गए। पत्नी के रूप में विभूति को पाकर अविनाश अपने लक्ष्य के और करीब आ गया, क्योंकि वो दोनों एक ही दिशा में सोचते थे। दोनों के बात करने का एक ही विषय होता था।

भविष्य के लिए खुली आंखों से सपना देखने वाले अविनाश और विभूति को उस दिन अपनी मंजिल और भी करीब लगने लगी, जब एबरोड यूनिवर्सिटी ने अविनाश को शोध करने के लिए अपने यहाँ आमन्त्रित किया। उस दिन तो जैसे दोनों आसमान में उड़ने लगेे थे। दोनों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा था।

जैसे-जैसे अविनाश का आॅस्ट्रेलिया जाने का समय नजदीक आ रहा था, वैसे-वैसे अविनाश की खुशी भी बढ़ती जा रही थी। खुश तो विभूति भी बहुत थी, लेकिन वह अन्दर से थोड़ी दुःखी भी थी, क्योंकि उसे नहीं पता था कि उसका अविनाश उससे कितने दिनों के लिए बिछुड़ने वाला था। लेकिन उसने अपने दुःख को अविनाश पर जाहिर नहीं होने दिया। क्योंकि ऐसा करके वह अविनाश के मनोबल को कम नहीं करना चाहती थी। बल्कि वह उस पर जनम-जनम का प्यार लुटा देना चाहती थी।

जिस दिन अविनाश की दिल्ली से आस्ट्रेलिया जाने के लिए फ्लाईट थी उससे ठीक दो दिन पहले अचानक उसकी तबियत बिगड़ गयी। उसको पेशाब आना बन्द हो गया, जिसकी वजह से उसको बहुत तकलीफ हो रही थी। उसका शरीर बेजान और निष्क्रिय-सा होने लगा था। हाथ-पांव और अपने मुंह पर भी वह कुछ भारीपन महसूस कर रहा था। उसकी ऐसी हालत देखकर घर के सभी लोग चिंतित होने लगे और तुरंत उसे अपने फैमिली डाॅक्टर को दिखाया। उनके फैमिली डाॅक्टर ने उसे फौरन शहर के जाने-माने नैफ्रोलाॅजिस्ट डाॅक्टर कपूर को दिखाने की सलाह दी। घर के लोग अविनाश को फौरन डाॅक्टर कपूर के पास ले गए।

डाॅक्टर कपूर ने बिना विलम्ब किए अविनाश के कुछ टेस्ट करवाये, जिनकी रिपोर्ट्स देखकर डाॅक्टर कपूर का संदेह यकीन में परिवर्तित हो गया। उन्होंने अविनाश की मम्मी और विभूति की तरफ देखा, जो यह जानने के लिए उत्सकुक हो रही थीं कि अविनाश को हुआ क्या है ?’’

डाॅक्टर कपूर की समझ में नहीं आ रहा था कि वह उन दोनों को कैसे बताएं कि अविनाश की दोनों किडनियाँ अस्सी प्रतिशत खराब हो चुकी है और वह कुछ ही दिनों का मेहमान है। लेकिन बताना भी जरूरी था, क्योंकि बिना बताए कुछ हो भी नहीं सकता था। डाॅक्टर कपूर की खामोशी तथा उनके चेहरे पर उभर आयीं असमंजसता की लक्कीरों को पड़कर अविनाश की मम्मी ने कहा, ‘‘क्या हुआ डाॅक्टर साहब, आप इस तरह खामोश क्यों है ? क्या हुआ है अविनाश को ?’’

डाॅक्टर कपूर ने अफसोस व्यक्त करते हुए उन्हें बताया कि अविनाश की जांच रिपोर्ट्स अच्छी नहीं है। उसके लिए जल्दी-से-जल्दी एक किडनी की व्यवस्था करनी पड़ेगी, क्योंकि अविनाश की एक किडनी पूरी तथा दूसरी किडनी अस्सी परसेन्ट खराब हो चुकी है।

किडनी खराब हो जाने की बात पता चलते ही विभूति तो वहीं चक्कर खाकर गिर पड़ी और बेहोश हो गई। बड़ी मुकिश्कल से उसे सम्हाला और अविनाश की मम्मी की भी हालत बिगड़ने लगी। उनकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया। उनकी आँखें फटी-की-फटी रह गईं और मुँह से निकलने वाले शब्द हलक में ही अटक कर रह गए। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हो गया ? जिस अविनाश को उन्होंने इतने लाड़-दुलार और अरमानों से पाला उसे भगवान उनसे ऐसे छीनना चाहता है ? भगवान इतना निर्दयी और निष्ठुर कैसे हो सकता है ? वह उनकी खुशियों को ऐसे कैसे छीन सकता है ? जवानी में उनका पति चला गया और अब बुढ़ापे का सहारा उनका बेटा उनके हाथों से छिन रहा है ? ....नहीं मैं ऐसा नहीं होने दूंगी। मैं हर हालत में अपने बेटे को बचा लूंगी। उन्होंने डाॅक्टर कपूर से कहा कि वह उनकी किडनी ले लें पर अविनाश को बचा लें। तो डाॅक्टर कपूर ने अफसोस व्यक्त करते हुए उनसे कहा कि उनकी किडनी उनके बेटे को नहीं दी जा सकती है, क्योंकि उनकी उम्र पैंसठ साल से ऊपर हो चुकी है और मेडिकल साइंस के मुताबिक इस उम्र में उनकी किडनी अविनाश के शरीर में सरवाइव नहीं करेगी।

विभूति और अविनाश की उम्र लगभग बराबर थी। वह देखने में स्वस्थ भी थी। इसलिए उनसे डाॅक्टर कपूर से अपनी एक किडनी अविनाश को देने की इच्छा जाहिर की। डाॅक्टर कपूर ने विभूति की इच्छानुसार उसके कुछ टैस्ट करवाये लेकिन उससे भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी, क्योंकि जांच रिपोटर््स के मुताबिक विभूति शुगर पेसेंट साबित हुई, जिसकी वजह से उसकी किडनी अविनाश को नहीं दी जा सकती थी।

अचानक शुगर पेसेंट होने की बात पता चलते ही विभूति की हालत देखने लायक थी। वह ऐसा महसूस कर रही थी, जैसे उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक रही हो। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा है ? भगवान उसकी कौन-सी परीक्षा ले रहा है ? सभी तरफ से निराशा हाथ लगने के बाद विभूति खुद को रोक नहीं पायी और अपने पापा से लिपट कर रोने लगी और कहने लगी, अगर उसके अविनाश को कुछ हो गया तो उसका क्या होगा। वह अविनाश के बिना जिन्दा नहीं रह पाएगी.......।’’

घर के और भी लोग अविनाश की खुशियां वापस लाने का भरसक प्रयास कर रहे थे। सभी अविनाश को नई जिन्दगी देने के लिए अपनी-अपनी किडनी देने को तैयार थे, मगर दुर्भाग्यवश यह एक ऐसा इत्तेफाक था कि सबके अन्दर कोई-न-कोई ऐसी शारीरिक कमी पायी गयी, जिसकी वजह से उनकी किडनी अविनाश को नहीं दी जा सकती थी।

किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि किस्मत ने अविनाश के साथ कौन-सा खेल खेला है, जो पहले उसे इतनी सारी खुशियां दे दीं फिर वो सारी खुशियां उससे एक साथ छीन लीं। विभूति का तो रो-रोकर बुरा हाल था। वह तो भगवान की मूर्ति के सामने बैठी रो-रोकर भगवान से यही प्रार्थना कर रही थी कि वह अविनाश को जिन्दगी दे दें, चाहे तो बदले में उसकी जिन्दगी ले लें।

विभूति और अपनी मम्मी के मुर्झाये हुए चेहरों को देखकर अविनाश भी अन्दर से टूट चुका था। मन तो उसका भी कर रहा था कि वह भी दहाड़े मारकर रोये, क्योंकि सपने तो उसके भी टूट रहे थे लेकिन वह चाहकर भी ऐसा नहीं कर पा रहा था, क्योंकि वह ऐसा करके अपनी मम्मी और विभूति को और दुःखी नहीं करना चाहता था।

जैसे-जैसे समय बीत रहा था, वैसे-वैसे अविनाश की तबियत बिगडती जा़ रही थी। फिर भी वह विभूति को यही समझा रहा था कि उसे हिम्मत से काम लेना है अगर वह हिम्मत हार जाएगी, तो उसक क्या होगा ? क्योंकि वही तो उसके जीने का मकसद है। वैसे भी भगवान की मर्जी क्या है, कोई नहीं जानता है। होना वही है, जो वह चाहेगा। इसलिए भगवान ने अगर उसे जीने के लिए कतरा भर जिन्दगी भी दी है, तो उसे भी वह हँसकर जीना चाहेगा और यह तब ही सम्भव हो पायेगा, जब उसके चेहरे पर मुस्कुराहट होगी। इसलिए उसे उदासियों के अंधेरों से निकलकर हंसती-खेलती दुनिया में आना होगा। कहने का मतलब वह जब तक जीवित है, वह उसे हँसता हुआ देखना चाहता है रोता हुआ नहीं।

अविनाश की बातों ने विभूति को और अधिक भावुक कर दिया। उसके मन में हूक-सी उठने लगी। उसे एकदम रोना आ गया, और वह जोर-जोर से रोना चाहती थीे लेकिन उसने खुद को सम्हाल लिया और न चाहते हुए भी बेमन से उसे देखकर मुस्कुराने लगी।

अविनाश के लिए किडनी की कहीं से कोई व्यवस्था नहीं हो पा रहा थी। घर के सभी लोग इस बात से बहुत परेशान थे। न किसी को खाना अच्छा लग रहा था न कुछ और। घर में बिल्कुल मातम जैसा माहौल हो गया था। उम्मीद की सारी कोशिशें नाकाम होते देख विभूति ने शहर के सभी मुख्य अखबारों में इश्तेहार निकलवाया और उसमें अपने दर्द को बयां करते हुए लोगों से अविनाश के लिए एक किडनी देने की गुजारिश की। बदले में उसने अपना सबकुछ किडनी देने वाले को देने की बात भी कही लेकिन उससे भी कोई फायदा नहीं हुआ। कहीं से कोई अविनाश के लिए किडनी देने नहीं आया, जिससे विभूति की आखिरी उम्मीद भी टूट गई।

डाॅक्टर कपूर के मुताबिक अविनाश के पास मुश्किल से चार-पाँच दिन ही बचे थे, अगर इन चार-पाँच दिनों में उसके लिए किडनी का इन्तजाम हो गया तो ठीक है वरना.....।’’

जैसे-जैसे उम्मीद का दामन विभूति के हाथों से सूखी रेत की तरह फिसल रहा था। वैसे-वैसे विभूति भी अन्दर-ही-अन्दर टूट कर बिखर रही थी। उसे इस बात अफसोस का हो रहा था कि वह अविनाश के लिए कुछ नहीं कर पा रही थी। उसके सामने उसका अविनाश तिल-तिल करके मर रहा था, लेकिन वह उसे बचा नहीं पा रही थी। यह कैसी मजबूरी है कि विभूति के पास पैसा है, उसकी अपनी किडनियां हैं, मगर सब बेकार। विभूति ने अपनी तरफ से हर सम्भव प्रयास करके देख लिये। वह लोगों के आगे रो ली, भगवान के आगे गिड़गिड़ा ली, मगर उसकी किस्मत ने उसका साथ नहीं दिया। अपनी कोशिशों में पूरी तरह नाकाम हो जाने के बाद उसे इस बात का यकीन होने लगा कि अब कुछ नहीं हो पायेगा। डाॅक्टर कपूर के मुताबिक सबकुछ जल्दी ही खत्म होने वाला है।

यही सब सोचकर विभूति के अन्दर हताशा का भयंकर तूफान उठने लगा, जो अपने साथ उसकी सारी खुशियों को उड़ा कर ले जा रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि निराशाओं के इस भंवर जाल से वह खुद को कैसे बाहर निकाले। उसे दूर-दूर तक हताशा के तपते रेगिस्तान और उनकी बीरानियों के सिवा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। वह कभी अविनाश के बारे में सोच रही थी तो कभी यह सोच रही थी कि अगर अविनाश को कुछ हो गया, तो वह इस पहाड़-सी जिन्दगी को तनहा कैसे गुजारेगी ?

यही सब सोचते-सोचते वह निराशाओं की इतनी गहरी खाई में उतरती चली गई, जहां से ऊपर आना उसके लिए मुश्किल हो रहा था। उसके अन्दर इतनी हिम्मत बाकी नहीं बची थी कि वह अविनाश को अपनी आँखों के सामने मरते हुए देख सके.......नहीं देख सकती थी वह उसको अपनी आँखों के सामने मरता हुआ। इसलिए उसने खुद में फैसला कर लिया कि वह अविनाश से पहले ही इस दुनिया से चली जाएगी, क्योंकि अविनाश ही तो उसके जीने का मकसद है। एक औरत के सारे सपने और अरमान उसके पति से ही होते हैं, जब वह ही नहीं होगा, तो किसके सपने, कैसे सपने ? अविनाश के बिना उसके लिए यह दुनिया सूनी और अंधेरी लगने लगेगी। इसलिए जिन्दगी की इन

अंधेरी और भयावाह गलियों में भटकने से उसके लिए मर जाना ही बेहतर होगा।

विभूति ने आखिरी बार अविनाश को ध्यान से देखा, वह अपनी आँखें बन्द किए पता नहीं कौन-सी नींद में सो रहा था। बिना किसी से कुछ कहे विभूति चुपचाप अस्पताल से बाहर निकल गयी।

विभूति की आँखों से आँसुओं का सैलाब बह रहा था। कदम लड़खड़ा रहे थे और वह खुद को मौत के हवाले करने अनजानी राहों की तरफ बढ़ी जा रही थी। अपनी किस्तम को लेकर उसके दिमाग में सवालों के तूफान उथल-पुथल मचा रहे थे और वह चलते-चलते पुरानी दिल्ली के जमुना ब्रिज पर आकर खड़ी हो गयी। वह मन में सोच रही थी कि इनसान को वर्तमान में जीना चाहिए। उसे सपने नहीं देखने चाहिए, क्योंकि सपने कभी पूरे नहीं होते हैं। उसने अपनी आँखों को बन्द करके फिर मन में कहा, ‘‘मुझे माफ कर देना अविनाश, क्योंकि तुमसे मिलने का मेरे पास यही एक रास्ता था। तुम्हारा साथ पाने के लिए मैंने भगवान से बहुत प्रार्थनाएं कीं लेकिन उसने मेरी प्रार्थनाओं को नहीं सुना, फिर भी मैं भगवान से यही प्रार्थना करूंगी कि जीते-जी तो हम ज्यादा दिनों तक साथ नहीं रह पाये, लेकिन मरने के बाद तो हम दोनों एक हो जाएं।

विभूति पानी में छलांग लगाने ही वाली थी कि अचानक उसके मोबाइल फोन की घण्टी बज उठी। फोन की घण्टी की आवाज सुनकर उसका दिल किसी अनजाने भय से जोर-जोर धड़कने लगा। अनजाने नम्बर से आती काॅल को देखकर उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं और धड़कते दिल से कहा, ’’हेलो....।’’

‘‘हेलो, आप दिल्ली से विभूति बोल रही हैं ?’’ दूसरी तरफ से किसी महिला की आवाज आई।

‘‘जी हां, मैं विभूति बोल रही हूं....आप कौन....?’’ विभूति ने धड़कते दिल पर काबू पाते हुए कहा।

‘‘विभूति जी, मैं आनन्द विहार से नूरीन बोल रही हूं। मैं अभी इसी वक्त आपसे मिलना चाहती हूँ।’’

मिलने की बात पर विभूति एकदम खामोश होकर कुछ सोचने लगी तो नूरीन ने जोर देकर कहा, ‘‘विभूति जी, आप खामोश क्यों हो गईं ? देखिए मेरे पास वक्त कम है। प्लीज आप बताइए आप मुझे कहाँ मिलेंगी ?’’

‘‘वक्त तो मेरे पास भी बहुत कम है नूरीन, फिर भी तुम मुझसे मिलना चाहती होे, तो मैं तुम्हें पुरानी दिल्ली के जमुना ब्रिज पर मिलूंगी। प्लीज नूरीन देर मत करना, अगर तुम्हें देर हो गई तो मैं तुम्हें फिर कभी नहीं मिल पाऊँगी।’’

‘‘ठीक है, मैं जल्दी-से-जल्दी आपके पास पहुँचने की कोशिश कर रही हूं।’’

लगभग चालीस मिनिट के अन्दर नूरीन विभूति के पास पहुंच गई और उससे कहा कि वह उसके पति को अपनी अपनी किडनी देना चाहती है। साथ ही उसने यह भी बताया कि वह और उसकी दोनों किडनियाँ एकदम स्वस्थ हैं। उसे कोई बीमारी भी नहीं है। उसेे उसकी किडनी लेने के लिए जो भी औपचारिकताएँ करानी हैं, फटाफट करवा ले, क्योंकि उसके पास वक्त बहुत कम है।’’

विभूति ने नूरीन को अपने आपसे ऐसे चिपटा लिया, जैसे उसे नूरीन नहीं भगवान मिल गया हो। वह काफी देर तक नूरीन को अपने आपसे ऐसे ही चिपटाए रही। उसकी सूनी आंखों में चमक आ गई। फिर उसने नूरीन को अपने आपसे अलग करते हुए कहा, कि वह उसके लिए फरिश्ता बनकर आई है। इसलिए उसकी एक-एक सांस, खून का एक-एक कतरा, जिन्दगी की आखिरी सांस तक उसका ऐहसानमंद रहेगा।

लेकिन नूरनी ने कहा कि वह उसके पति को अपनी किडनी देकर उसके ऊपर कोई एहसान नहीं कर रही है। वह तो खुद को मिटा देने के लिए अपने घर से निकली थी। रास्ते में अचानक हवा के एक झोंके के साथ अखबार का एक टुकड़ा उसके पैरों में आकर उलझ गया, जिसकी वजह से उसे रुकना पड़ा। अखबार के उस टुकड़े को हटाने के लिए जब वह नीचे झुकी तो उसकी नजर उसके विज्ञापन पर पड़ी, जिसे पढ़ने के बाद उसने सोचा कि मरने से पहले अगर उसके शरीर के किसी अंग से किसी को नई जिन्दगी मिल जाए, तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है ? बस यही सोचकर उसनंे उसे फोन किया था।

नूरीन की उदारता और महानता को देखकर विभूति समझ नहीं पा रही थी कि उसके साथ हो क्या रहा है ? कहां तो भगवान ने उसे एकदम निराशाओं की दलदल में धकेल दिया और अब जब वह स्वयं जीने की उम्मीद छोड़ चुकी है, तो उसने नूरीन को फरिश्ता बनाकर मेरे पास भेज दिया ?

विभूति को खामोश देखकर नूरीन ने उससे कहा कि वह खामोश क्यों है ? कहीं उसके मन में यह सवाल तो नहीं उठ रहा है कि मैं मुसलमान हूं, इसलिए मेरी किडनी लेनी चाहिए या नहीं ? लेकिन विभूति ने कहा उसके लिए हिन्दू और मुसलमान होना कोई मायने नहीं रखता। वह तो यही सोच रही थी कि तुम अच्छी-भली हो फिर मरना क्यों चाहती हो ?

विभूति ने नूरीन की दुःखती रग पर हाथ रखा तो वह खुद को रोक नहीं पाई। उसका गला भर्रा गया और उसकी आंखों से आंसू बहने लगेे। उसने रोते हुए विभूति को बताया, ’’उसके पति की भी दोनों किडनी पूरी तरह खराब हो चुकी थीं। डाॅक्टर का कहना था कि अगर उसके पति की खराब किडनी निकालकर दूसरी किडनी नहीं लगाई गई तो उसके पति जिन्दा नहीं रह पाएंगे। लेकिन अफसोस वह अपने पति को नहीं बचा पायी।’’

‘‘क्यों, तुम तो अच्छी भली हो, और तुम्हारी दोनों किडनियाँ भी अच्छी-भली हैं। फिर तुमने अपने पति को अपनी किडनी क्यों नहीं दी ?’’

विभूति की बात पर नूरीन की आँखों से फिर आँसू बहने लगे। उसने सिसकते हुए विभूति को बताया कि वह तो अपनी किडनी अपने पति को देने के लिए तैयार थी लेकिन उसकी गरीबी उसके आड़े आ गई, क्योंकि किडनी बदलने के लिए डाॅक्टर ने जितने रुपये उससे माँगे थे, वो उसके पास नहीं थे। उसकी ससुराल वालों और मायके वालों ने भी उसका साथ नहीं दिया। उसने अपने नाते-रिश्तेदारों से भी मदद के लिए गुहार लगाई। सबके हाथ जोड़े, पांव छुए लेकिन किसी ने उसकी मदद नहीं की। नतीजा यह हुआ कि उसके पति उसे और उसके बेटे को छोड़कर इस दुनिया से चले गए।

कहते-कहते नूरीन खुद को रोक नहीं पायी और फफक कर रो पड़ी। उसे रोते हुए देखकर विभूति का अन्तरमन भी रो पड़ा। नूरीन ने रोते-रोते विभूति से कहा.....विभूति जी, आज के दौर में अगर औरत को इज्जत की जिन्दगी जीनी है तो उसके साथ उसके पति का होना बहुत जरूरी है। बिना पति के तो औरत की जिन्दगी नरक से भी बदतर हो जाती है। क्योंकि वह उस नरक को दो साल से भोग रही है लेकिन अब, जब सबकुछ उसकी सहनशक्ति से बाहर हो गया, तो उसने अपने बेटे को अपनी ससुराल में छोड़कर खुद मरने का फैसला करके घर से निकल पड़ी। बस उसके बाद उसने उसका विज्ञापन देखा और उसको फोन कर दिया।

नूरीन की दुःख भरी कहानी सुनकर दर्द से विभूति का कलेजा मुँह को आ गया। वह नूरीन की मनोदशा को अच्छी तरह समझ सकती थी, क्योंकि वह भी तो उसी दौर से गुजर रही थी।

विभूति ने बड़ी मुश्किल से नूरीन को चुप कराया। अपने हाथों से उसके आसुंओं को पोछा। और उसे तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘नूरीन, तुम मेरे पति के लिए फरिश्ता बनकर आई हो। मैं तुम्हारे लिए फरिश्ता तो नहीं बन सकती। लेकिन तुम्हें मरने भी नहीं दूंगी।’’

विभूति की बातों से नूरीन को बहुत तसल्ली मिली। उसने नूरीन से कहा, ‘‘नूरीन, तुम बिना स्वार्थ, बिना लालच के सच्चे मन से किसी की जान बचाना चाहती हो। और जो किसी के लिए सच्चे मन से समर्पित हो जाता है, उसकी भगवान भी सुन लेता है। नूरीन अब तुम अकेली नहीं हो, मैं तुम्हारे साथ हूँ अब हम दोनों मिलकर तुम्हारे बेटे को पालेंगे और तुम्हारे सपनों को साकार करेंगे।

विभूति की बातों से नूरीन को बड़ी तसल्ली मिली, जैसे किसी डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो। उसने अपनी आंखों को ऊपर उठाया और खुदा का शुक्रिया अदा करते हुए कहा, सचमुच तू अपने बन्दों पर रहम फरमाता है। सच्चे मन से याद करने वालों की तू जरूर सुनता है।’’

नूरीन हाॅस्पिटल के बिस्तर पर लेटी थी और पास ही अविनाश दूसरे बिस्तर पर लेटा था। दोनों का आॅपरेशन हो चुका था। नूरीन की एक किडनी निकालकर अविनाश को लगाई जा चुकी थी। विभूति बड़े ध्यान से नूरीन को देख रही थी। नूरीन शक्ल में उसे भगवान दिखाई दे रहे थे।

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