टूटते भ्रम Goodwin Masih द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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टूटते भ्रम

टूटते भ्रम

मैं सुबह को उस गली से गुजरता, तो वह अपनी छत पर या छत पे बने कमरे की खिड़की पे खड़ी नजर आती। उसे देखकर अनायास ही मेरी दृष्टि उस पर चली जाती। एक दिन वह मुझे देखकर मुस्करायी तो मैं एकदम ऐसे चैंक गया, जैसे किसी ने ठहरे हुए पानी में कंकड़ फेंककर उसमें हलचल पैदा कर दी हो। दिल-ओ-दिमाग में एक कम्पन-सा महसूस करने लगा, जैसे मुझे अचानक बिजली का करंट लग गया हो, और मेरा शरीर एकदम झनझना उठा हो। मैंने एकदम उसकी तरफ से नजरें हटा लीं और अपने रास्ते चला गया। दूसरे दिन सुबह को फिर उस गली से गुजरते वक्त अनायास ही मेरी नजरें उसकी तरफ चली गयीं, वह मुझे देखकर फिर मुस्कुरायी। मैं असमंजस्य की स्थिति में पड़ गया, और सोचने लगा कि वह मुझे देखकर क्यों मुस्कुराती है...? कहीं ऐसा तो नहीं, कि यह मेरा मात्र भ्रम हो, वह किसी और को देखकर मुस्कुराती हो, और मुझे ऐसा लगता हो कि वह मुझे देखकर मुस्कुराती हो...? लेकिन ऐसा भी नहीं था, क्योंकि मेरे आस-पास दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आता।

उसे इस प्रक्रिया को दोहराते हुए, लगभग महीना भर हो गया, तो मैं स्वयंमेव ही उसकी तरफ आकर्षित होने लगा, और गम्भीरता से उसके बारे में सोचने लगा। अब मैं नित्यकर्म की भाँति रोज सुबह को निर्धारित समय पर उस गली से गुजरने लगा। वह भी वक्त की बड़ी पाबंद निकली, जो मेरी प्रतीक्षा में हमेशा रत रहती। उसने मुझे कभी भी निराश नहीं किया। मुझे कभी भी छत पे शून्यता दिखायी नहीं दी। संयोगवश एक दिन मैं अपने निर्धारित समय से कुछ लेट हो गया, तो वह मुझे छत पर दिखायी नहीं दी, जिससे मुझे गहरा आघात पहुंचा। मैं पूरे दिन अपने आपको कोसता रहा और मन में कहता रहा। बेचारी मेरी प्रतीक्षा करते-करते ऊब गयी होगी। तभी नाराज होकर नीचे चली गयी। अब वह कल भी छत पर नहीं आयेगी ? कल क्या, शायद कभी नहीं आयेगी ? सुना है लड़कियां जिद् की बड़ी पक्की होती हैं, एक बार मन में जो ठान लें, उस पर अटल रहती हैं।

अरे हो जाये, नाराज, तो हो जाये, मुझे क्या लेना-देना ....कौन-सा वह मेरी सगी है, उसको लेकर मैं क्यों परेशान हो रहा हूं। कहकर मैंने अपने आपको समझा लिया।

अगले दिन जब मैं उस गली से गुजरा, तो खुशी के मारे मेरी बांछे खिल उठीं। मेरे सारे भ्रम टूटकर चकनाचूर हो गये, क्योंकि वह हमेशा की तरह छत पर खड़ी मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। उसे देखते ही मेरा मुरझाया हुआ चेहरा फूल की तरह खिल उठा। मैं जैसे ही उसकी छत के करीब पहुंचा, उसने मेरी तरफ धीरे से ऐसे हाथ हिलाया, जैसे वह हाथ के इस छोटे से ईशारे से पूछ रही हो कि कल मैं कहां रह गया था ? प्रत्युत्तर में मैंने भी कुछ इस तरह हाथ हिलाया, जैसे कल मुलाकात न हो पाने के लिए मैं उससे माफी मांग रहा होऊं। मेरे हाथ का संकेत पाकर उसके चेहरे पर आश्वस्तता की मुस्कान बिखर गयी।

उस दिन मेरी खुशी की कोई सीमा नहीं थी। एक दिन पहले मेरे मन-मस्तिष्क में जो उलझन और तनाव बना हुआ था, स्वतः ही सामान्य हो गया और मैं खुद को पूर्णतः आश्वस्त और हल्का-फुल्का अनुभव करने लगा। मैंने निश्चय कर लिया, कि आइन्दा कभी भी लेट नहीं होऊंगा।

अब हम दोनों के मध्य खूब ईशारेबाजी होने लगी थी। उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते हर वक्त, हर पल मैं उसी के खयालों में खोया रहता। मन में सवाल उठता कि वह भी मेरे खयालों में खोयी रहती होगी... मुझे ख्वाबों में देखती होगी। तभी मेरी अन्तर्रात्मा मुझे झझकोरती और कहती, अगर वह तुझे इस कदर चाहने लगी है, तो तेेरे करीब आकर तुझसे बात क्यों नहीं करती...? बात न सही तो कम-से-कम तुझे अपना नाम तो बता सकती है और तुझसे तेरे बारे में पूछ सकती है...? अन्तरात्मा के इस द्वंद्व को मैं अपने मन से निकालता और पुनः अपने आपको समझाता कि मैं भी कितना पागल हूं। मुझे ये तो समझना चाहिए, कि सभ्य-सुशील और पढ़ी-लिखी लड़कियां सामाजिक और पारिवारिक मर्यादाओं, दायरों और सीमाओं में बंधकर रहती हैं। वह चाहकर भी वैसा नहीं कर सकतीं, जैसा मैं उससे करने की उम्मीद कर रहा हूं।

कभी-कभी मन में खयाल आता....चलो मुंह से कुछ कहने में लाज आती है, तो मन की बात लिखकर तो कह सकती है। फिर सोचता कि वह पत्र लिखे भी तो किसे ? मेरा नाम और पता तो वह जानती नहीं है। नहीं मालूम, तो इसमें गलती किसकी है, मेरी या उसकी ? क्यों नहीं पूछा उसने मुझसे कभी मेरा नाम और पता? चलो यह भी छोड़ो अगर उसे मुझसे प्यार हो ही गया है, तो वह अपने मन की बात कागज पे लिखकर छत से नीचे तो गिरा ही सकती है? उसी से हम दोनों एक-दूसरे से परिचित हो जायेंगे।

मन फिर उसकी तरफदारी करता और कहता, मैं जिस काम को जितना आसान समझ रहा हूं, वो काम उतना आसान है नहीं। वह भी एक जवान लड़की के लिए। उसे अपनी और अपने परिवार की मान-मर्यादा का खयाल तो रखना ही है। मैं भी अपने मन के समर्थन में आ जाता और कहता, मैं भी उसकी मान-मर्यादा को यूं ही भंग नहीं होने दूंगा। सरे बाजार उसकी इज्जत का ढिढोंरा पीटकर, सबके सामने उसे बदनाम नहीं होने दूंगा। अगर वह मुझे चाहने लगी है, तो इसका मतलब वह बदचलन और चरित्रहीन थोड़े ही है, प्रेम तो एक भावनात्मक पहलू है, जिसका अंकुर किसी के भी मन में कभी भी फूट सकता है।

खैर! जब बात यहां तक आ पहुंची है, तो मुझे ही कुछ करना होगा। मगर मेरे समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है कि मैं उस तक कैसे पहुंचू ? और यह चुनौती मेरे समक्ष शोध का विषय बनकर खड़ी हो गयी। कभी-कभी मुझे उस पर बड़ी खीज होती कि कैसी लड़की है, न तो खुद मिलती है और न ही मिलने का अवसर देती है। एक-दो बार मन में आया कि सबके सामने आवाज देकर उसे छत से नीचे बुला लूं, जो होगा, देखा जायेगा, मगर मैं ऐसा नहीं कर सका और यह सोचकर अपना इरादा बदल दिया, कि सबके सामने उसने बेइज्जत और अपमानित होने के डर से साफ इंकार कर दिया कि वह मुझे नहीं जानती है, तो मेरा क्या होगा ? उसके घर वाले मारते-मारते मेरी शक्ल बिगाड़ देंगे। बस यही सोचकर मैं खामोश हो गया और मन-ही-मन फैसला कर लिया कि आइन्दा उसकी तरफ नजर उठाकर भी नहीं देखूंगा और न ही उस रास्ते से कभी निकलूंगा। लेकिन मेरे अन्दर का प्रेमी बहुत ही बुजदिल निकला, जो अपनी बात पर कायम न रह सका।

उस दिन शाम का समय था मैं इवनिंग वाॅक के लिए गांधी उद्यान की तरफ से गुजर रहा था। उसी समय मेरी दृष्टि पार्क में बैठे कई प्रेमी युगलों पर पड़ी, जो हर तरफ से बेखबर एक-दूसरे में खोये हुए प्रेमालाप में मस्त थे। उन्हें देखकर मैंने स्वयं से कहा, कि कितने खुश नसीब हैं ये प्रेमी जो एक-दूसरे की बाहों में समाये अपने प्रेम का इजहार कर रहे हैं, एक-दूसरे से अपने मन की बात कह रहे हैं। इन्हें दुनिया की किसी बात से कोई मतलब नहीं है। वैसे दो प्रेम करने वालों को किसी से कोई मतलब होना भी नहीं चाहिए, जैसे मुझे किसी से कोई मतलब नहीं है, जब से उससे चक्कर चला है, मेरी दुनिया उसी तक सिमट कर रह गयी है। हर वक्त उसी के बारे में सोचता रहता हूं। तभी मैंने खुद से प्रश्न किया कि मैं उसके बारे में जितना सोचता हूं, क्या वह भी मेरे बारे में उतना ही सोचती होगी ? शायद नहीं। अगर सोचती, तो मुझसे आकर जरूर मिलती। आखिर यह भी तो पे्रमिकाएं हैं, जो सरेआम अपने प्रेमियों से आकर मिलती हैं। क्या ये सब-की-सब निर्लज्ज, बेहया और चरित्रहीन हैं ? इन्हें अपनी और अपने परिवार की इज्जत और मान-मर्यादा का जरा भी ख्याल नहीं है? होगा, जरूर होगा। सबको अपनी इज्जत प्यारी होती है। लेकिन प्यार की तड़प इन्हें इस कदर बेचैन कर देती है कि ये सारी लोक-लाज को ताक पर रखकर, सारे बंधनों और सीमाओं को तोड़कर अपने प्रेमी की बाहों में आकर समा जाती हैं।

अरे, यह क्या ? मैं फिर गलत-सलत सोचने लगा...? मुझे उसके बारे में ऐसा नहीं सोचना चाहिए। वह इन लड़कियों की तरह नहीं है। वह इन सबसे अलग है। वह पढ़ी-लिखी और सीधी-सादी लड़की है, वह जो भी करना चाहती है, दायरे में रहकर करना चाहती है। एक-दो बार जब हम दोनों खुलकर मिलेंगे, एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ लेंगे, तो उसकी सारी झिझक और शर्मिन्दगी खुद-व-खुद खत्म हो जायेगी। फिर उससे इस तरह शिकायत का अवसर भी नहीं मिलेगा। मगर पहल मुझे ही करनी होगी। पर समस्या तो यही है कि पहल करुं-तो-करुं कैसे ? वह कभी मुलाकात का अवसर ही नहीं देती।

यह सब सोचकर कभी-कभी तो बड़ी झंुझलाहट होती है, कि वह हर वक्त छत पर ही क्यों मूर्ति की तरह खड़ी रहती है, नीचे भी तो उतर कर आ सकती है। क्या कभी बाजार या घूमने-फिरने भी नहीं जाती है ? जाती होगी, अगर बाजार बगैरह नहीं जाती होगी, तो कालेज तो जरूर जाती होगी ?

‘‘बदतमीज कहीं के, देखकर नहीं चलते।’’

एक तीखी और घृणा भरी आवाज ने मेरी विचार शृंखला को भंग कर दिया। मेरा ध्यान पार्क में बैठे प्रेमी युगलों से हटकर उस आवाज की तरफ केन्द्रित हो गया, जिससे चलते-चलते मैं टकरा गया था। और जैसे ही मैंने उसे देखा, तो बस देखता रह गया। अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया, ‘‘अरे आप..और यहां...?

मुझे इस तरह उत्सुक और उतावले होते देख उसके चेहरे पर उभर आयीं क्रोध की समस्त रेखाएं स्वतः ही गायब हो गयीं और मुझे ऐसे देखने लगी, जैसे वह मुझे पहचानने की कोशिश कर रही हो।

‘‘लगता है, आपने मुझे पहचाना नहीं ?’’ मैंने उससे आत्मीयता दिखाते हुए कहा।

‘‘नहीं।’’

उसने न में गर्दन हिलायी तो मैंने उससे कहा, ‘‘प्लीज, ऐसा मजाक मत कीजिए, मेरी स्थिति पर कुछ तो तरस खाइए। मैं जबसे आपके सम्पर्क में आया हूं, तब से आपके ही बारे में सोचता रहता हूं। अभी भी मैं आप ही के बारे में सोच रहा था।’’

‘‘मेरे बारे मंे...?

‘‘हां, आपके बारे में .....प्लीज समझने की कोशिश कीजिए। क्योंकि आप नहीं जानती कि आपसे मिलने और बात करने के लिये मैं कितना बेचैन रहता हूं।’’

‘‘लगता है, आप किसी गलत फहमी का शिकार हैं, क्योंकि मैं तो आपको जानती भी नहीं हूं।’’

‘‘प्लीज, ऐसा कह कर मेरा दिल मत तोड़िए।’’

‘‘अरे, आप तो खांमखां मेरे गले पड़ रहे हैं। जब मैं कह रही हूं कि मैं आपको नहीं जानती, तो आप समझते क्यों नहीं।’’ इस बार उसका स्वर काफी कड़क था।

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है। खैर ! छोड़िए इन सब बातों को और ये बताइये कि आप इन्दिरा काॅलोनी के मकान नम्बर एक सौ सोलह में रहती हैं ?’’

‘‘हाँ, मैं वहीं रहती हूं।’’

‘‘अब भी आपने मुझे नहीं पहचाना?’’

‘‘नहीं।’’

उसके स्पष्ट इंकार करने से मैंने सोचा, हो सकता है इसने मुझे कभी करीब से नहीं देखा होगा, इसलिए पहचानने में दिक्कत आ रही होगी या फिर सड़क के किनारे खड़े होकर बात करने में सकुचा रही हो। इसलिए मैंने उससे आग्रह करते हुए कहा, ‘‘अगर आपको कोई ऐतराज न हो तो हम सामने रेस्टोरेंट में चलें। वहां बैठकर एक-एक कप चाय भी हो जायेगी और आराम से हमारी बात भी हो जायेगी।’’

मेरे इस अप्रत्याशित प्रस्ताव पर वह एकदम सकपका़ गयी और पता नहीं क्या सोचने लगी। उसके चेहरे पर उभर आयीं इन्कार की रेखाओं को मैंने पढ़ लिया, और इससे पहले कि वह मेरे प्रस्ताव को ठुकराती, मैंने पुनः उससे आग्रह किया ‘‘प्लीज, मना मत कीजिएगा, नहीं तो.....।’’

शायद उसे मेरे ऊपर कुछ तरस आ गया। उसने चेहरे पर संक्षिप्त मुस्कान बिखेरी और कहा, ‘‘ठीक है, चलिए...।’’

उसकी तरफ से हां का ग्रीन सिगनल मिलते ही मेरा मन प्रसन्नता से बल्लियों उछलने लगा। मैं मन-ही-मन कहने लगा कि अब जरूर मैं उसे अपने और अपने प्यार की बात समझाने में कामयाब हो जाऊंगा। दो कप चाय के आॅर्डर के साथ ही हम रेस्टोरेंट की सीट पर बैठ गये। मैंने ध्यान से उसको देखा। वह भी मुझे कनखियों से देख रही थी। नजर-से-नजर मिलते ही उसने शरमाकर अपनी नजर नीचे कर लीं और चाय पीने लगी। मुझे उसका इस तरह लजाना और शरमाना अच्छा लगा।

मैंने उसका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करते हुए कहा,‘‘ देखिए, मुझे मालूम है कि आप मुझे परेशान करने के इरादे से जान-बूझकर अनजान बन रही हैं। वैसे मैंने सुना है प्रेमी को परेशान करना प्रेमिका की एक अदा होती है, और मुझे आपकी यह अदा पसन्द आयी।’’

मेरी बात पर वह खिल-खिलाकर हंस पड़ी। उसके हंसने का अन्दाज कुछ ऐसा था, जैसे वह मुझे बेबकूफ समझ रही हो। शायद उसे मेरी दीवानगी पर तरस आ गया। वह मुझसे सहानुभूति जताते हुए बोली,‘‘आप तो एकदम गम्भीर होते जा रहे हैं। इसलिए अब तो मैं यकीन के साथ कह सकती हूं कि वास्तव में मुझे लेकर आपको कोई बहुत बड़ी गलत फहमी हुई है।’’

उसकी इस बात पर मैं एकदम खीजकर रह गया। ...जी में तो आया कि उसका मुँह पकड़कर मसल दूं, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पाया और अपने आप पर काबू पाते हुए बोला, ‘‘देखिए, गलतफहमी तो तब होती, जब हमारे प्यार की पहल मैं करता। लेकिन हमारे प्यार की पहल तो आपने की। चलिए एक-दो बार ऐसा होता, तो उसको नजरअंदाज किया जा सकता था, लेकिन हमारे प्यार को चलते हुए तो पूरे चार माह हो गये। ...मुझे देखकर हँसना, ....ईशारे करना ....और बड़ी उत्सुकता से छत पर खड़े होकर मेरी प्रतीक्षा करना, ...क्या इसको भी आप गलतफहमी कहेंगी ?’’

मेरी बात पर उसकी भवें प्रश्नवाचक मुद्रा में घूम गयीं। वह तपाक से बोली, ‘‘व्हाट डू यू मीन ? व्हट आर यू सेइंग ...मैं कब आपको देखकर हँसी, ....कब मैंने आपको ईशारा किया...?’’ इस समय उसके स्वर में तीखापन, कड़वाहट और बगावत के मिले-जुले भाव थे।

‘‘क्यों, मैं रोज सुबह नौ बजे आपके घर के सामने से निकलता हूं तो आप अपनी छत पर खड़ी होकर मेरी प्रतीक्षा नहीं करती हैं...? ....मुझे देखकर आप हँसती नहीं हैं...? हाथ हिलाकर मुझे ईशारे नहीं करती हैं...? वो सब क्या होता है, कोई नाटक या फिर.....?’’

मेरी बात सुनकर वह एकबार पुनः खिल-खिलाकर हँस पड़ी और हँसते हुए बोली, ‘‘मैंने ठीक ही कहा था। वास्तव में आप बहुत बड़ी गलतफहमी के शिकार हैं। दरअसल आप बहुत भोले हैं। अब मैं आपकी मनःस्थिति को अच्छी तरह समझ सकती हूं कि अभी तक आपने मुझसे मेरे लिए जो कुछ भी कहा, वो गलत नहीं, सही कहा है।

‘‘यह सच है कि मैं रोज सुबह को छत पर खड़ी होकर प्रतीक्षा करती हूं.... हँसती हूं और ईशारा करती हूं। लेकिन वो सब मैं आपको देखकर नहीं, किसी और को देखकर करती हूं।’’

‘‘किसी और को देखकर...? ...इसका मतलब, आप किसी और से प्यार करती हैं...?’’

‘‘जिससे प्यार किया था, उससे शादी भी कर ली।’’

‘‘....तो क्या आप शादीशुदा हैं ?’’ मैं एकदम चैंका।

‘‘सिर्फ शादीशुदा ही नहीं, मैं एक बच्चे की माँ भी हूं।’’

‘‘आप शादीशुदा हैं और एक बच्चे की माँ भी हैं, तो फिर छत पर खड़े होकर किसकी प्रतीक्षा करती हैं ? ...किसको देखकर हँसती और ईशारा करती हैं...?’’

मेरी बात पर वह हंसकर बोली,’’अपने बड़े भाई को देखकर।’’

‘‘अपने बड़े भाई को देखकर...? ...मैं कुछ समझा नहीं...?’’

मेरे प्रश्न पर वह थोड़ी सीरियस होकर बोली,’’ दरअसल मैंने अपने पड़ोस के एक लड़के से अपने मम्मी-पापा की मर्जी के खिलाफ प्रेम विवाह कर लिया, जिसकी वजह से मेरे मम्मी-पापा मुझसे नाराज रहने लगे। उन्हें मेरी शक्ल से भी नफरत हो गयी। अब वह मुझे देखना भी पसंद नहीं करते हैं। मगर मेरा बड़ा भाई मुझे बहुत प्यार करता है, लेकिन मम्मी-पापा के डर से वह मुझसे न तो खुलकर मिल पाता है, और न ही मुझसे हँस-बोल पाता है। इसलिए जब सुबह को मम्मी-पापा अपने-अपने आॅफिस चले जाते हैं, तो वह घर के आंगन में खड़े होकर मुझे देख लेता है, और हम दोनों एक-दूसरे से ईशारों में बात कर लेते हैं।’’

‘‘पर, मैंने तो कई बार नोट किया, मुझे तो वहां दूर-दूर तक कभी कोई नजर नहीं आया ?’’

‘‘यही तो सीक्रेट हैै। भईया ऐसी जगह खड़े होते हैं कि उनको मेरे अलावा और कोई नहीं देख पाता है।’’उसने मुस्कुराकर कहा।

‘‘ओह, तो यह बात है। फिर तो वाकई मैं बहुत बड़ी गलतफहमी का शिकार हूं।’’

‘‘जी हां, और वो एक इत्तेफाक होता होगा, कि जिस समय मैं और भईया आपस में हँस-बोल रहे होते होंगे, एक-दूसरे को ईशारा कर रहे होते होंगे, उसी समय आप भी उधर से गुजरते होंगे, तो आपको ऐसा लगता होगा, जैसे वो सब मैं आपके लिए कर रही हूं, जबकि सत्यता यही है कि जब मैं भईया के सामने होती हूं तो मुझे यह भी मालूम नहीं रहता है कि गली में से कौन-जा रहा है, और कौन आ रहा है। इसीलिए आपको देखने का तो कभी कोई सवाल ही नहीं उठता।’’

उसकी बात सुनने के बाद मेरे प्यार का भ्रम टूट कर खण्डित हो गया। मेरे सारे सपने, जो मैंने उसको लेकर देखे थे, साकार होने से पहले ही टूटकर बिखर गये।

‘‘क्या सोचने लगे ?’’ मुझे खामोश देखकर उसने कहा।

‘‘कुछ नहीं।’’ मैंने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।

‘‘कुछ तो जरूर सोच रहे हैं, ...बताइये न क्या सोच रहे हैं ?’’ उसने मुझसे अपनापन जताते हुए कहा, तो मैं अपराधबोध से दबकर बोला, ’’प्लीज, मुझे क्षमा कर दीजिए ....अनजाने में मैंने आपके बारे में न जाने क्या-क्या सोच लिया था।’’

‘‘इसमें माफी की क्या बात है। ऐसी गलतफहमी तो किसी को भी हो सकती है। ....अच्छा अब मैं चलूं ? उसने वहां से उठते हुए कहा।

‘‘हाँ, ठीक है।’’

हम दोनों रेस्टोरेंट से बाहर आ गये। बाहर आकर उसने कहा, ‘‘भले ही आपके चक्कर में मुझे थोड़ी देर हो गयी, लेकिन मुझे खुशी इस बात की है, कि आपके मन से एक बहुत बड़ी गलतफहमी दूर हो गयी।’’ कहकर उसने रिक्शा बुलाया और उसमें बैठकर अपने गन्तव्य की ओर चल गयी। जाते-जाते उसने पीछे मुड़कर मुझे देखा और चिर-परिचित मुस्कान बिखेरकर हँसी फिर हाथ के ईशारे से मुझसे बाय कहा और अपना चेहरा घुमा लिया। मैं चुपचाप उसे जाता हुआ देखता रह गया।

गुडविन मसीह