कंचन दी
’’डायरी....? यह किसकी डायरी है और मेरी किताबों में कहाँ से आई ?’’ उस अनजानी डायरी को देखकर
राधिका ने अपने मन में कहा और अपने दिमाग पर जोर देकर उस डायरी के बारे में सोचने लगी।....जल्दी ही उसे याद आ गया। याद आते ही वह बुदबुदायी, ’’ओह तो अब समझ में आया बच्चू मुझसे क्यों टकराया था ? ......बेटा, तू अपने आपको समझता क्या है ? बेटा, तू अगर खुद को चालाकी का बाप समझता है, तो मैं भी चालाकी में तेरी नानी हूँ। तू ने सोचा कि मेरी किताबों के साथ तेरी डायरी आ जायेगी, तो मैं तुझे फोन करके तेरी डायरी के बारे में बताऊंगी ? इसी बहाने मेरा फोन नम्बर तेरे पास पहुँच जाएगा फिर तू मुझसे फोन पर बात करना शुरू कर देगा और बातों-ही-बातों में मुझसे दोस्ती बढ़ा लेगा और दोस्ती के बाद प्यार पर उतर आएगा ? बेटा, तेरा पाला किसी और से पड़ा होगा ? मैं तेरे झांसे में नहीं आने वाली।’’
‘‘राधिका बेटी क्या हुआ ? अकेले किससे बातें कर रही है ?’’
राधिका की मम्मी ने उसके कमरे में आकर उससे पूछा तो वह खिलखिलाकर हँसते हुए बोली, ‘‘किसी से नहीं मम्मी। काॅलेज से आते वक्त एक मनचला मुझसे अंधा बनकर टकरा गया, जिससे मेरी किताबें गिर गईं तो उसने बड़ी होशियारी से अपनी डायरी मेरी किताबों में रख दी। और वो डायरी मेरे साथ आ गई, तो मैं कह रही थी कि आजकल के लड़के अपने आपको कितने चालाक बनते हैं और उसने तो चालाकी की सारी हदें ही पार कर दीं। और जब मैं उसपर नाराज हुई तो मुझसे दीदी कहने लगा।’’ कहकर राधिका पुनः खिलखिलाकर हँस पड़ी। उसके साथ उसकी मम्मी भी हँसने लगीं।
इस बात को मुश्किल से दस-बारह दिन बीते होंगे। राधिका अपनी मम्मी के साथ आॅटो से घर वापस आ रही थी कि अचानक उसने आॅटो वाले से कहा, ‘‘भईया, जरा एक मिनट के लिए आॅटो रोकना तो।’’
राधिका के कहते ही आॅटो वाले ने आॅटो रोक दिया।
‘‘क्या हुआ राधिका, तू ने आॅटो क्यों रुकवाया ?’’ साथ बैठीं राधिका की मम्मी ने पूछा।
अपनी मम्मी के पूछने पर राधिका ने सामने खड़े बस का इंतजार कर रहे एक लड़के की तरफ ईशारा करके कहा, ‘‘मम्मी, यह वही चालू लड़का है, जो उस दिन मुझसे टकराया था। देखा मम्मी, इसकी आँखों पर आज भी काला चश्मा चढ़ा हुआ है। मुझे लगता है यह अंधेपन का नाटक करके लोगों की आँखों में धूल झोंकता होगा ?
‘‘आप किस लड़के की बात कर रही हैं मैडम ? उस लड़के की, वह जो काला चश्मा लगाए हुए है ?’’आॅटो वाले ने उस लड़के की तरफ ईशारा करके कहा।
‘‘हाँ, तुम उसे जानते हो ?
‘‘बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ। मैडम, आप जिसे नाटकबाज कह रही हैं, वह नाटकबाज नहीं सचमुच अन्धा है।’’
‘‘क्या कह रहे हो भईया, यह सचमुच अन्धा है ?’’ राधिका ने चैंक कर कहा।
‘‘और नहीं तो क्या। मैडम, कभी भी किसी की सच्चाई जाने बगैर उसके बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए।’’ आॅटो वाले ने कहा।
आॅटो वाले की बात सुनकर राधिका को अपनी गलती का अहसास हुआ तो उसने आॅटो वाले से कहा,‘‘भईया, थोड़ा अपना आॅटो आगे करो न....मैं उससे अपने किए की माफी माँगना चाहती हूं।’’
राधिका के कहने पर आॅटो वाले ने अपना आॅटो उस लड़के के पास लेजाकर खड़ा कर दिया।
‘‘सुनो भईया।’’ राधिका ने आॅटो में बैठे-बैठे उस अंधे लड़के से कहा।
राधिका की आवाज सुनकर वह एकदम बोला, ‘‘दी ।’’
‘‘अरे कमाल है, तुमने मुझे पहचान लिया ?’’ राधिका ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा।
‘‘पहचानूँगा क्यों नहीं दी । आपकी आवाज बिल्कुल मेरी कंचन दी से मिलती है। आप बोलती हैं तो ऐसा लगता है, जैसे मेरी कंचन दी बोल रही हैं।’’ उस अन्धे लड़के ने भावुक होते हुए कहा।
‘‘अच्छा ।’’
‘‘हाँ दी, उस दिन भी मैं आपको यही बताने वाला था लेकिन आप मेरी बात सुने बिना ही चली गईं। दी, प्लीज, मुझे माफ कर दो। उस दिन मेरी वजह से आपको....।’’
‘‘नहीं-नहीं, माफी तो मुझे तुमसे माँगनी चाहिए, क्योंकि उस दिन बिना सोचे-समझे मैंने तुम्हें न जाने क्या-क्या बक दिया था।’’
‘‘छोड़िए न दी। हमसे तो रोज ही कोई-न-कोई, कुछ-न-कुछ कह कर चला जाता है।’’ दी, अगर आप बुरा न माने तो मैं आपसे कुछ पूछूँ ?’’
‘‘कहीं, तुम अपनी डायरी के बारे में तो नहीं पूछ रहे हो ?’’ राधिका ने अनुमान लगाते हुए कहा।
‘‘तो क्या मेरी डायरी आपके पास है ?’’
‘‘हाँ, उस दिन तुम्हारी डायरी मेरी किताबों के साथ चली गई थी।’’
‘‘थैंक गाॅड, मैं उस डायरी के लिए बहुत परेशान था। दरअसल वो मेरी नहीं, मेरी कंचन दी की डायरी है।’’ उसने ऐसे खुश होते हुए कहा, जैसे उसे उसके मन की मुराद मिल गई हो।
‘‘अच्छा, पर तुम्हारी कंचन दी हैं कहाँ ?’’ राधिका ने पूछा।
‘‘वो सब मैं आपको बाद में बताऊंगा। पहले मेरी डायरी तो दीजिए।’’
‘‘साॅरी इस समय तो तुम्हारी डायरी मेरे पास नहीं है। वो मेरे घर पर रखी है।’’
‘‘तो कल आप इसी जगह पर वह डायरी मुझे दे सकती हैं ?’’
‘‘कल क्यों, तुम्हारी डायरी आज ही तुम्हें मिल जाएगी। आओ, चलो मेरे साथ।’’
‘‘आपके साथ, लेकिन कहाँ ?’’ उसने झिझकते हुए कहा।
‘‘घबराओ नहीं। मेरी मम्मी भी मेरे साथ हैं।
‘‘यह बात नहीं है दी। वो क्या है कि आपके घर से वापस आने में मुझे परेशानी हो जाएगी।’’
‘‘तुम उसकी चिन्ता मत करो। मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक आॅटो से छुड़वा दूंगी। ...आओ, अब तो बैठ जाओ।
राधिका के कहने पर वह उसके साथ आॅटो में बैठ गया।
घर पहुंचने के बाद राधिका ने उसे चाय बनाकर पिलाई। चाये पीने के साथ ही राधिका की मम्मी ने उससे कहा, ‘‘बेटा, क्या नाम है तुम्हारा ?’’
‘‘आॅण्टी, वैसे तो मेरा नाम देवेश शर्मा है। लेकिन मेरी कंचन दी मुझे देव कहा करती थीं।
‘‘कहा करती थीं, मतलब ?’’ राधिका ने चैंकतें हुए कहा।
‘‘मतलब, मेरी कंचन दी अब इस दुनिया में नहीं हैं।’’ कहते हुए एकदम गम्भीर हो गया।
‘‘क्या कह रहे हो देव ?’’ राधिका ऐसे चैंक पड़ी जैसे किसी ने उसके कान पर बम फोड़ दिया हो।
‘‘मैं सच कह रहा हूं दी। मेरी कंचन दी अब इस दुनिया में नहीं हैं।’’
‘‘क्या हुआ था तुम्हारी कंचन दी को ?’’ राधिका की मम्मी ने पूछा।
राधिका की मम्मी के पूछने पर देव की आँखें एकदम छलक पड़ीं और उसका गला भर्रा गया। ऐसा लग रहा था जैसे वह एकदम रो पड़ेगा। लेकिन उसने अपने आप पर काबू पाया और भारी गले से बोला, ‘‘आॅण्टी, कहते हैं इंसान पर जब बुरा वक्त आता है तो उसकी किस्मत भी उससे रूठ जाती है। वही हमारे साथ हुआ। कंचन दी बताती थीं कि हमारा हंसता-खेलता, भरा-पुरा परिवार था। पापा कानुपर में अपना बिजनेस चलाते थे और मम्मी वहीं के एक काॅलेज में टीचर थीं। दी बताती थीं मैं उनसे बहुत छोटा हूँ। काफी प्रार्थनाओं और मन्नतों के बाद मैं पैदा हुआ था इसलिए मम्मी-पापा मुझे बहुत प्यार करते थे। मैं उस समय तीन या चार साल का रहा होऊंगा, और दी आठवीं क्लास में पढ़ती थीं, जब अचानक एक दिन पापा के सीने में दर्द उठा और वह बेहोश हो गए। मम्मी उनको लेकर हाॅस्पिटल गईं। डाॅक्टर ने पापा को देखकर कहा, हार्ट अटैक से इनकी मौत हो चुकी है। उस सदमे को मम्मी बर्दाश्त नहीं कर पायीं और थोड़े दिन बाद वह भी....। कहते-कहते देव फफक कर रो पड़ा। देव को रोते हुए देखकर राधिका और उसकी मम्मी की आँखें भी गीली हो गईं।
रोते-रोते देव ने कहा, ’’मम्मी-पापा के चले जाने के बाद हम अपने चाचा-चाची के साथ रहने लगे। थोड़े दिन के बाद हमारे चाचा ने जालसाझी से पापा की सारी प्राॅपर्टी अपने नाम करवा ली और हमे हमारे घर से बे-दखल कर दिया।
कंचन दी मुझे लेकर कानपुर से लखनऊ आ गईं। हमारे मामा-मामी के घर। दी बताती थीं कि हमने मामा जी के घर में पाँच-छह साल कैसे गुजारे, यह वहीं जानती थीं। जैसे-तैसे उन्होंने इण्टर की परीक्षा पास करके एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी कर ली और मामा-मामी का घर छोड़ दिया, क्योंकि हमारी मामी हमें बहुत परेशान करती थीं। वह हमें भरपेट खाना भी नहीं देती थीं। मामी दी से घर का सारा काम लिया करती थीं। दी को पढ़ने के लिए जरा भी समय नहीं दिया करती थीं। फिर भी दी ने हिम्मत नहीं हारी। वह किसी तरह अपनी पढ़ाई करती रहीं और मुझे भी पढ़ाती रहीं।
‘‘आॅण्टी, मेरी कंचन दी बहुत हिम्मत वाली थीं। इतना सबकुछ होने के बाद भी उन्होंने कभी हालात से हार नहीं मानी। मैंने न तो कभी उन्हें रोते हुए देखा और न ही वह कभी उदास हुईं। विषम-से-विषम परिस्थितियों में भी वह हमेशा फूलों की हँसती रहती थीं।’’
एक दिन मैंने काॅलेज से आकर देखा, दी अपनी डायरी में कुछ लिख रही थीं। मैंने उनसे कहा, ‘‘दी, आप डायरी लिखती हो ? तो उन्होंने कहा, ‘‘हाँ, जब भी मन के किसी कोने से कभी कोई हूक उठती है तो उसे शब्द बनाकर कागज पर उतार लेती हूं।’’
‘‘दी के मुँह से इतनी बड़ी बात सुनकर मैं खुद को रोक नहीं पाया। मैंने उनसे कहा, ‘‘दी, दिखाओ तुम क्या लिखती हो।’’
‘‘उन्होंने कहा, ‘‘नहीं देव, किसी की निजी डायरी नहीं पढ़ते हैं।’’
‘‘मैंने कहा, ‘‘दी, तुम्हारी डायरी इतनी निजी है कि मैं भी, यानि तुम्हारा छोटा भाई, जिसे तुम जान से भी ज्यादा प्यार करती हो, नहीं पढ़ सकता ?’’
‘‘मेरे इतना कहते ही दी ने मुझे अपने आपसे ऐसे चिपटा लिया, जैसे एक छोटे बच्चे को उसकी माँ चिपटा लेती है। और फिर फूट-फूट कर रोने लगीं। उस दिन मैंने पहली बार दी को इस तरह रोते हुए देखा था। रोते-रोते उन्होंने डायरी मेरे हाथ में थमा दी और मेरे पास से चली गईं। शायद इसलिए ताकि मैं उस डायरी में लिखी बातों को पढ़कर उनसे कोई सवाल-जवाब न करूं ?
मैंने उनकी डायरी को पढ़ा, तो महसूस हुआ कि दी ने अपना सारा दर्द, अपनी सारी टूटन और मन की चुभन को तो शब्द बनाकर कागज पर उकेर रखा था, तो फिर उनके दुःख-दर्द उनकी आँखों से कैसे बाहर आते ?
दी ने अपनी डायरी में एक जगह लिखा था कि दुनिया बहुत खूबसूरत है लेकिन दुनिया में रहने वाले कुछ लोग अपनी दूषित मानसिकता से इसे दूषित करने पर तुले हुए हैं। और एक जगह दी ने लिखा था कि जिन्दगी से ज्यादा हसीन और खूबसूरत क्या हो सकता है ? शायद कुछ भी नहीं। इसीलिए मैं जीना चाहती हूं। मैं कभी मरना नहीं चाहती और अगर कभी मर भी गई तो दूसरों की आँखों से इस दुनिया की खूबसूरती को देखना चाहती हूँ। इसीलिए मैंने आई बैंक को अपनी आँखें दान कर दी हैं ताकि मैं मरने के बाद भी किसी की आँखों में जीवित रहूं।
दी ने अपनी दोनों आँखें शहर के आई बैंक को दान कर दीं और मुझे दी ने बताया तक नहीं ? यह बात मैंने दी से कही, तो दी ने कहा, ‘‘देव, दान का मतलब यही होता है कि तुम्हारा दान गुप्त रहे। इसीलिए मैंने तुम्हें इस बारे में कभी कुछ बताना उचित नहीं समझा।
दी की बातों को सुनकर मैं सोचने लगा, दी इतनी समझदार हैं ? वह इतनी गहराई में हैं। उन्हें जिन्दगी का मतलब भी मालूम है ?
मुझे खामोश देखकर दी ने मुझसे कहा, ‘‘देव, मैं जब भी मरूं तो तुम सबसे पहले आई बैंक को मेरे मरने की सूचना दे देना।’’
‘‘दी के मुँह से मरने की बात सुनकर मैं खुद को रोक नहीं पाया और मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। मैं दहाड़ मारकर ऐसे रो पड़ा, जैसे किसी ने मेरा सबकुछ छीन लिया हो। मैं रो-रोकर कहने लगा, ’’दी तुम कभी नहीं मरोगी....कभी नहीं मरोगी दी। मुझे रोते-बिलखते देख दी भी अपने आपको रोक नहीं पाईं और वह भी मुझसे लिपट कर रोने लगीं और सिसक-सिसक कर कहने लगीं, ‘‘देव, जिन्दगी का सबसे बड़ा सत्य तो यही है कि जिस इन्सान ने इस धरती पर जन्म लिया है उसकी आत्मा को निश्चित समय पर इस नश्वर शरीर को त्याग कर परमात्मा में विलीन हो जाना पड़ता है। फिर भी इंसान सांसरिक मोह-माया में फंसा रहता है। जैसे वह इस संसार को छोड़कर जाना नहीं चाहता हो।’’
दी की बातें सुनकर मैं और भी ज्यादा रोने लगा और कहने लगा, ‘‘दी आज तुम्हें क्या हो गया है ? कैसी बातें कर रही हो तुम ? दी, अगर तुम्हें कुछ हो भी गया तो मेरा क्या होगा ? कैसे रह पाऊँगा मैं तुम्हारे बगैर ? तुम्हारे बिना तो मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाएगा ?’’
‘‘मुझे इस तरह निराश होते देख दी ने मुझे पकड़कर झकझोर दिया और हँसते हुए कहने लगीं, ‘‘पगला कहीं का, तू तो ऐसे कर रहा है, जैसे तेरी दी आज ही मरने जा रही हो। नहीं देव, तेरी दी इतनी जल्दी मरने वाली नहीं है। अभी तो तेरी दी को तेरे लिए बहुत कुछ करना है। अपने सपनों को सजाना है।’’
लोग कहते हैं कभी-कभी मुँह से निकली बात आगे-पीछे पूरी हो जाती है और ऐसा ही हुआ भी। उसी दिन शाम को मैं और दी आॅटो से बाजार जा रहे थे कि सामने से आती बस हमारे आॅटो से टकरा गई, और उसी दिन मेरी दुनिया अँधेरी हो गयी।
‘‘हाॅस्पिटल में डाॅक्टर ने जब मुझसे कहा कि एक्सीडेंट में मेरी दोनों आँखें हमेशा-हमेशा के लिए चली गईं और मैं अब इस दुनिया को नहीं देख पाऊँगा, तो मेरी चीख निकल पड़ी। मैं रो-रोकर अपनी दी को बुलाने लगा। आई बैंक के डाॅक्टर त्रिपाठी भी वहां मौजूद थे। उन्होंने मुझे तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘मिस्टर देवेश, तुम्हें निराश होने की जरूरत नहीं है। एक्सीडेंट में तुम्हारी आँखें चली गईं तो क्या हुआ ? हम तुम्हें तुम्हारी कंचन दी की आँखें दे देंगे, जिनसे तुम फिर इस दुनिया को देख सकोगे।’’
‘‘डाॅक्टर त्रिपाठी की बात सुनकर मैं एकदम सकते में आ गया। मैं समझ गया कि एक्सीडेंट में मेरी दी मुझे छोड़कर चली गई। मैंने बदहवासी में डाॅक्टर त्रिपाठी से कहा, ‘‘....तो क्या मेरी दी.....?’’
डाॅक्टर त्रिपाठी ने अफसोस व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘ हाँ मिस्टर देवेश, तुम्हारी कंचन दी अब इस दुनिया में नहीं हैं।’’
अचानक दी के चले जाने के बाद मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा सबकुछ खत्म हो गया हो। मैं भी मरना चाहता था कि अचानक मुझे दी की डायरी में लिखी बात याद आ गई। दी ने अपनी डायरी में लिखा था, ‘‘जिन्दगी एक संघर्ष है और इस संघर्ष से इंसान को कभी हार नहीं मानना चाहिए। देव तुम्हारी दी कभी मर भी जाएं तो तुम निराश मत होना। तुम्हें जीना होगा अपनी दी के लिए......अपनी दी के सपनों को पूरा करने के लिए।’’
डाॅक्टर त्रिपाठी ने कहा, ‘‘मिस्टर देवेश हमें तुम्हारे इन कागजों पर हस्ताक्षर चाहिए।’’
‘‘हस्ताक्षर, किस लिए ?’’
‘‘तुम्हारी आँखों का आॅपरेशन करके, तुम्हें, तुम्हारी दी की आँखें लगानी हैं।’’
‘‘डाॅक्टर, जब मेरी दी ही इस दुनिया में नहीं हैं, तो उन आँखों से मैं किसको देखूँगा ? नहीं डाॅक्टर, मुझे अब आँखों की कोई जरूरत नहीं हैं। वैसे भी मेरी दी की इच्छा थी कि उनकी आँखें किसी लड़की को दे दी जाएं, तो आप दी की आँखें उनकी इच्छानुसार किसी लड़की को ही दे दीजिएगा।’’
देव की बात सुनते ही राधिका एकदम बोल पड़ी, ‘‘देव, तुम्हारी दी की आँखें आई बैंक वालों ने कब और किसे दीं, तुम्हें कुछ याद है ?’’
‘‘बिल्कुल याद है दी। उस दिन और तारीख को मैं कैसे भूल सकता हूं दी ? मुझे आज भी अच्छी तरह याद है। उस दिन दीपावली का त्यौहार था और तारीख थी दस नवम्बर लेकिन....।’’
‘‘फिर तो तुम्हें उस लड़की का नाम भी मालूम होगा ?’’ राधिका ने पूछा।
‘‘हाँ मालूम है न, उसका नाम राधिका है, लेकिन....?’’
‘‘ ....लेकिन क्या देव ?’’ राधिका ने उत्सुकता से पूछा।
‘‘यही कि जो लड़की आज मेरी कंचन दी की आँखों से इस खूबसूरत दुनिया को देख रही है, वह कितनी खुदगर्ज और एहसान फरामोश होगी। बीते तीन सालों में उसने एक बार भी यह नहीं सोचा, कि जिन आँखों से वह आज इस खूबसूरत दुनिया को देख रही है, उन आँखों के दानदाता के परिवार वालों को शुक्रिया बोल आऊँ ? उसने एक बार भी आकर मुझसे दी की आँखों के लिए शुक्रिया नहीं बोला। भले ही आज मेरी दी इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन मैं तो हूँ। मुझसे आकर दी के लिए शुक्रिया बोलना चाहिए.....।
‘‘..... अच्छा दी आप ही बताइए, उसको मुझसे शुक्रिया बोलना चाहिए था या नहीं ? दी मैं डाॅक्टर त्रिपाठी से उसका पता लेकर उसके घर जरूर जाऊँगा और उससे पूछँूगा कि मेरी कंचन दी की आँखों से उसे यह दुनिया कैसी दिखती है ?
‘‘बहुत खूबसूरत दिखती है .......हाँ देव, तुम्हारी कंचन दी की आँखों से यह दुनिया बहुत खूबसूरत दिखती है।’’ इतना कहकर राधिका एकदम सिसक कर रो पड़ी।
’’क्या हुआ दी ? तुम क्यों रोने लगीं ?’’
‘‘रोऊँ नहीं तो और क्या करूं ? देव, जिस एहसान फरामोश और खुदगर्ज लड़की की तुम बात कर रहे हो, वह लड़की और कोई नहीं, मैं ही हंू ।’’
‘‘क्या...?’’
‘‘हाँ देव, मैं ही वह राधिका हूँ, जो आज तुम्हारी कंचन दी की आँखों से इस खूबसूरत दुनिया को देख रही हूं। देव तुम्हे जो कहना है मुझसे कहकर अपनी शिकायत दूर कर लो।’’
‘‘यह तुम क्या कह रही हो दी ?’’ देव एकदम चैंक कर बोला।
‘‘मैं ठीक कह रही हूं देव। सच पूछो देव, मैं तो तुम्हारी भी अहसानमंद हूं, क्योंकि जिन आँखों से आज मैं इस दुनिया को देख पा रही हूं, उन आँखों की जरूरत मुझसे ज्यादा तुम्हें थी। क्योंकि मेरी देखभाल करने के लिए तो मेरी मम्मी भी हैं, लेकिन तुम्हारी देखभाल करने वाला तो कोई भी नहीं है ? मैं सच कह रही हूं देव, अगर मुझे उस समय मालूम हो जाता कि तुम्हें आँखों की जरूरत होते हुए भी तुम अपनी कंचन दी की इच्छा पूरी करने की गरज से उनकी आँखें मुझे दे रहे हो, तो मैं हरगिज यह आँखें नहीं लेेती।’’
‘‘ऐसा मत कहो दी, नहीं तो कंचन दी की आत्मा को दुःख पहुँचेगा। दी मैं तो पहली बार आपकी आवाज सुनकर ही समझ गया था, कि कुछ-न-कुछ तो है, जो आपकी आवाज में कंचन दी की आवाज सुनाई दे रही थी। लेकिन मुझे यह बात बताने का आपने मौका नहीं दिया था। दी, मुझे आपसे यह बात पूछनी तो नहीं चाहिए, फिर भी पूछ रहा हूँ। आपकी आँखें.....?’’
देव के पूछने पर राधिका कुछ पलों के लिए शान्त रहकर बोली, ‘‘लगभग चार साल पहले अचानक मेरी आँखों की रोशनी चली गई थी। डाॅक्टरों का कहना था कि अब मेरी आँखों की रोशनी कभी वापस नहीं आएगी। लेकिन उन्होंने यह भी कहा था कि अगर मुझे किसी की आँखें मिल जाएं तो मैं पुनः देख सकूंगी। बस उसी दिन मेरी मम्मी ने शहर के आई बैंक में मेरी आँखों के लिए एप्लीकेशन लगा दी थी। और फिर अचानक एक दिन आई बैंक से डाॅक्टर त्रिपाठी का फोन आया कि एक लड़की ने अपनी आँखें हमें डोनेट की हैं अगर आप चाहें तो वो आँखें हमें मिल सकती हैं।
आँखें मिल जाने की खबर सुनकर मुझे और मम्मी को कितनी खुशी हुई होगी, इसका अन्दाजा तुम अच्छी तरह लगा सकते हो। हम फौरन हाॅस्पिटल चले गए और मुझे तुम्हारी दी की आँखें मिल गईं। मेरा यकीन करो देव, जिस दिन मेरी आँखों का आॅपरेशन हो रहा था और मुझे तुम्हारी कंचन दी की आँखें दी जा रही थीं, मैं उस समय बिस्तर पर लेटी-लेटी मन में यही सोच रही थी कि जब मेरी आँखों की पट्टियाँ खुलेंगी और मैं देखने लगूंगी, तो मैं डाॅक्टर त्रिपाठी से यह जरूर पूछूंगी की मैं जिन आँखों से देख रही हूं, वो किसकी आँखें हैं, ताकि मैं उसके घर जाकर उसके परिवार वालों का शुक्रिया अदा कर सकूं। लेकिन मैं आँखें पाने की खुशी में सबकुछ भूल गई....सबकुछ....भूल गई।’’
‘‘अच्छा दी, अब मैं चलता हूं।’’ कहकर देव जाने के लिए खड़ा हो गया।
‘‘नहीं देव, अब तुम अपनी कंचन दी को छोड़कर कहीं नहीं जाओगे।’’
‘‘मेरी कंचन दी ?’’
‘‘हाँ देव, तुम्हारी कंचन दी यही तो चाहती थीं कि वह हमेशा किसी की भी आँखों में जिन्दा रहें, तो वह मरी नहीं हैं। वह आज भी जिन्दा हैं मेरी आँखों में। इसलिए तुम्हारी देखभाल करने की जिम्मेदारी आज से मैं लेती हूं।’’
‘‘नहीं दी, मैं किसी पर बोझ नहीं बनना चाहता हूं।’’
‘‘देव, क्या छोटा भाई बड़ी बहन पर बोझ होता है ? इतना कहकर राधिका ने देव को अपने आपसे चिपटा लिया। राधिका से लिपटकर देव को ऐसा महसूस करने लगा, जैसे उसकी कंचन दी स्वर्ग से नीचे उतर आईं हों। वही
गंध, वही सांसों की खुशबू।
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