मृत संवेदनाएं
गुडविन मसीह
दो नौकरों के साथ हरीश ने अपनी दादी जी का रूम खोला और नौकरों को सख्त हिदायत देते हुए कहा,‘‘ दो दिन के अन्दर यह रूम पूरी तरह साफ हो जाना चाहिए, कमरे की एक-एक चीज ऐसी लगनी चाहिए जैसे आज ही बाजार से नयी खरीदकर लायी गयी हो।’’
सफाई का नाम सुनकर ड्राइंगरूम में रखा सोफा, मेज, फूलदान, पेन्टिंग्स, अलमारी और उसमें रखी ढेर सारी किताबें, कागज, पेन सभी के चेहरे खुशी से फूल की तरह खिल उठे।
फूलदान ने सोफे से कहा, ‘‘तीन साल बाद ही सही, कम-से-कम हरीश भईया को हमारी याद तो आयी।’’
‘‘हाँ, जब से दादी जी स्वर्गवासी हुई हैं, तब से इस कमरे में जो ताला पड़ा था, वो आज खुला है।’’ प्रत्युत्तर में सोफे ने कहा।
सोफे की बात का समर्थन करते हुए किताबें बोलीं, ‘‘सचमुच, जब दादी जी जीवित थीं, तब हम सबका कितना खयाल रखती थीं। हर दूसरे दिन कमरे का कोना-कोना साफ करवाती थीं। हमारे ऊपर चढ़ी धूल को कपड़े से साफ करके करीने से हमें रखती थीं। वह जानती थीं कि दीमक हम किताबों की दुश्मन होती है, हमें चैन से बैठने नहीं देती है, हमारे पन्नों को कुतर-कुतर कर खाती है, जिससे हमारे शरीर में न जाने कितने जख्म हो जाते हैं और हम शक्ल से बेशक्ल हो जाते हैं, इसलिए दादी ने दीमक को कभी हमारे पास फटकने नहीं दिया। हमेशा हमें साफ-सुथरा रखने के साथ-साथ हमारे ऊपर दीमक मारने वाली दवा छिड़कती थीं। इसीलिए हम हमेशा नये-के-नये रहे। हमारे पन्ने भी पीले नहीं पड़े। हमारे अलावा वह हर रोज सुबह को अपने हाथों से फूलदान में ताजे फूल लगाती थीं, जिनकी खुशबू से कमरे का कोना-कोना पूरे दिन महकता रहता था और सोफे की मुलायम गद्दियों पर सुन्दर-सुन्दर कुशन चढ़ाती थीं, फिर उन मुलायम गद्दी पर बैठकर वह घंटों हमें पढ़ा करती थीं। उसके बाद वह कहानी और कविताएं भी लिखती थीं।’’
किताबों की बात सुनकर अलमारी में रखे कागज बोले, ‘‘तुम ठीक कह रही हो बहन, सचमुच दादी जी के मर जाने के बाद तो हमें किसी ने छूकर भी नहीं देखा। हम एकदम अनाथ जैसे हो गए। देखो न हमारे ऊपर कितनी धूल और मिट्टी जम गयी है। हमारा रंग भी पीला पड़ गया है।’’
कागज की बात पर पेन्टिंग भी खामोश न रह सकी। वह बोली, ‘‘कागज भाई, तुम अपनी धूल-मिट्टी की बात कर रहे हो, तुम्हें मेरे ऊपर चढ़ी धूल-मिट्टी नहीं दिखायी दे रही है। देखो न धूल से मेरा क्या हाल हो गया है। मेरे शरीर पे अंकित चित्र भी दिखायी नहीं दे रहा है, जबकि दादी जी, मुझे दिल्ली की आर्ट गैलिरी से खरीदकर लायी थीं। मुझे भारत के जाने-माने चित्रकार ने बनाया था। दादी को वह चित्रकार और उसके चित्र बहुत पसंद थे। वह उसकी बनायी प्रत्येक पेंटिंग को बहुत पसंद करती थीं। एक बार दादी अपने किसी परिचित लेखक से कह रही थीं कि मुझे उस चित्रकार की बनायीं पेंटिंग्स बहुत अच्छी लगती हैं। उसका बनाया हुआ एक-एक चित्र जीवंत और बोलता-चालता नजर आता है। उसके चित्रों की प्रदर्शनी जहां भी लगती है, वह वहां जरूर जाती हैं। दादी ने उस चित्रकार की बनायी और भी पंेटिंग्स खरीदी हैं, जो उनके बेड रूम, तथा घर की गैलिरी में लगी हैं, लेकिन दादी को मैं बहुत पसंद थी, इसलिए उन्होंने मुझे अपने ड्राइंग रूम में लगाया था। हर रोज मुझे अपने हाथों से साफ करके घण्टों यहां सोफे पे बैठकर मेरी आकृति को निहारा करती थीं।
पेंटिंग की व्यथा सुनकर ड्राइंगरूम भी भावुक होकर बोला, ‘‘वाकई दादी जी के जीते-जी मेरी रौनक और खूबसूरती देखते ही बनती थी। साल में दो बार वह मेरी दीवारों पर रंग-रोगन करवा कर मुझे चमका देती थीं। उन्हें साफ-सफाई और रंग-रोगन करवाने का बहुत शौक था। वह मुझे बिल्कुल मंदिर की तरह पाक और पवित्र रखती थीं। उनके हर काम में कलात्मकता झलकती थी। उनके विचार भी कितने सुंदर थे। उन्होंने कभी किसी का दिल नहीं दुःखाया, छोटे-बड़े सभी को आदर और सम्मान देती थीं। सण्डे के दिन तो सुबह-से-शाम तक दादी जी के साथी लेखक और कवि यहां आते थे। कवि गोष्ठियाँ होती थीं, कहानियों पर चर्चा होती थी। दिन-दिन भर चाय-नाश्ता चलता था। हँसी-मजाक के ठहाके गूंजते थे, बिल्कुल जश्न जैसा माहौल होता था। कितना अच्छा लगता था तब। लेकिन उनके गुजर जाने के बाद हमें कोई पूछने वाला नहीं रहा। हमारे अन्दर गूंजने वाले हँसी के ठहाके अब मातम में बदल गये, चारों तरफ एकदम मौनता छा गयी। धूल और मिट्टी के आवरण में हम सब रंग-से-बदरंग हो गए।’’
ड्राइंगरूम की बात पर फूलदान ने कहा, ‘‘निराश मत होओ, समझ लो हमारे फिर वही दिन आ गए। अभी खुद हरीश भईया नौकरों से कहकर गए हैं कि हम सबको धो-मांजकर ऐसे चमका दो, जैसे हमें अभी बाजार से नया खरीदकर लाया गया हो। देख लेना भईया, यह ड्राइंगरूम मेरे तरो-ताजा फूलों की खुशबू से फिर महकने लगेगा। यहां फिर वही रौनक और चहल-पहल होगी, जो दादी जी के समय में होती थी।
‘‘मुझे भी ऐसा ही लगता है, जैसे हमारे दिन बदलने वाले हैं।’’ दीवार पर टंगे एक शो-पीस ने फूलदान की हाँ-में-हाँ मिलाते हुए कहा।
सबकी बातें सुनने के बाद चुप खड़ी अलमारी ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘चलो, तीन साल बाद ही सही, कम-से-कम हमारे दिन तो बदल रहे हैं।’’
‘‘छोटा मुँह बड़ी बात। तुम लोगों के बीच में बोलने के लिए माफी चाहता हूं, लेकिन मुझे कुछ गड़बड़ लग रही है।’’
दरवाजे के सामने रखे जूट के पावदान ने दबी हुई आवाज में कहा तो सोफे ने उसे एकदम झिड़कते हुए कहा, ‘‘तुम तो चुप ही रहो तो अच्छा होगा। तुम्हें धूल-मिट्टी चाटने की आदत है। जो भी बाहर से आता है, वह अपने जूते-चप्पल की धूल-मिट्टी तुम्हारे ही मुँह पे झाड़कर जाता है। इसलिए तुम्हें गलत सोचने की आदत है। मुझसे पूछो, इन तीन सालों में दीमक ने मुझे नोच-नोचकर मेरे जिस्म में कितने जख्म कर दिए हैं, ये मैं ही जानता हूं और उन घावों में कितनी पीड़ा होती है, वो भी मैं कैसे बर्दाश्त करता हूं, मुझे ही पता है। इसलिए हमारी साफ-सफाई हो जाने से हमें कीड़े-मकोड़ों से तो निजात मिल जाएगी।’’
ड्राइंगरूम और उसमें रखी सभी चीजें अपनी बातों में मशगूल थीं कि दोनों नौकरों ने एक-एक करके ड्राइंगरूम में रखे शो-पीस, पेंटिंग, किताबें, सोफे आदि को निकाल कर बाहर धूप में रख दिया। गुनगुनी धूप का अहसास होते ही सब चीजों में जैसे जान आ गयी लेकिन सोफों और मेज में रहने वाली दीमकों के शरीर धूप में ऐसे जलने लगे, जैसे उन्हें किसी ने आग की भट्टी में झोंक दिया हो और वह धूप की उस पीड़ा से तिलमिला कर बाहर भागने लगीं। जितनी दीमक इधर-उधर भागकर अपनी जान बचा पाईं, उन्होंने अपनी जान बचा ली, लेकिन जितनी दीमक भागने से रह गयीं, उन पर हरीश के नौकरों ने जहरीली दवाई छिड़क कर उन्हें मौत के हवाले कर दिया।
अपने शरीर से दीमकों के निकल जाने के बाद सोफे और मेज ने चैन की सांस ली, क्योंकि दीमकों ने काट-काट कर उनका बुरा हाल कर दिया था। दवा डालने के बाद नौकरों ने सोफों और मेज को रेगमाल से रगड़कर पुट्टी से दरार व गड्ढे रूपी उनके जख्मों को भर दिया और उन पर बार्निश करके उन्हें एकदम चमका कर नया जैसा कर दिया। इसी तरह पीतल के फूलदानों को पीतल पाॅलिश करके नया बना दिया। पेंटिंग्स पर चढ़ी धूल को भी अच्छी तरह साफ करके नया जैसा बना दिया। अब बारी आयी किताबों की, जिन्हें एक-एक करके उन दोनों नौकरों ने ऐसे साफ किया, जैसे दादी किया करती थीं।
दादी की याद आते ही किताबें दादी के बारे में सोचने लगीं। उन्हें दादी के नरम-नरम हाथों का अहसास होने लगा। हर रोज सुबह को दादी पांच बजने से पहले यानि पास की मस्जिद में सुबह की पहली अजान होने से पहले अपना बिस्तर छोड़ देती थीं और घर के सामने बने लाॅन में जाकर तेज-तेज चलकर पूरे लाॅन के कई चक्कर लगाती थीं। उसके बाद कुछ देर हल्की कसरत करके योगा और अनुलोम-विलोम करतीं। फिर नहाकर पूजा करके ड्राइंग रूम की सारी खिड़कियां खोलकर, उनके सामने लटके पर्दों को हटातीं, जिससे बाहर की ताजी हवा अन्दर आकर पूरे ड्राइंग रूम को तरो-ताजा कर देती। फिर दादी अपने हाथों से ड्राइंगरूम की एक-एक चीज को साफ करके करीने से लगातीं। सोफा साफ करके उसके कुशन बदलतीं और मेज को साफ करके मेज पर रखे फूलदानों में ताजे फूल लगातीं।
सब कुछ हो जाने के बाद दादी अलमारी में करीने से रखीं किताबों में से उस एक किताब को उठातीं, जिसे पढ़ने का उनका मन होता। किताब उठाकर वह सोफे पर बैठ जातीं और इत्मीनान से उस किताब को पढ़तीं। दादी की सबसे अच्छी आदत यह थी कि वह कभी भी सोफे पर बैठकर अपने पैर मेज पर नहीं रखती थीं, और न ही घर के किसी सदस्य को ऐसा करने देती थीं। पढ़ते-पढ़ते उन्हें किताब में कोई मतलब की बात मिल जाती तो उसे अपनी डायरी में लिख लेतीं और फिर पढ़ना शुरू कर देतीं। दादी को साहित्य के अलावा इतिहास और भूगोल पढ़ने का भी बहुत शौक था। उनकी अलमारी में उनकी रूचि की सभी किताबें मौजूद थीं। साल भर में वह कई नई किताबें खरीद लेती थीं, उनके साथी लेखक भी अपनी नई-नई किताबें उनके पास भेजते रहते थे। धीरे-धीरे दादी के पास इतनी किताबें हो गयीं, कि उन्हें ड्राइंगरूम को मिनी लाइब्रेरी का रूप देना पड़ा।
ठीक सुबह के दस बजे दादी का ना ता ड्राइंगरूम में आ जाता। दादी का नाश्ता बहुत ही संतुलित होता था, क्योंकि उन्हें अपनी सेहत का बहुत खयाल था। यही वजह थी कि दादी जब तक जीवित रहीं, उन्हें कभी किसी बीमारी ने नहीं पकड़ा उम्र के इस पड़ाव पर आ जाने के बाद भी दादी जवान लोगों की तरह खूब चलती-फिरती थीं। न उन्हें बोलने में परेशानी होती थी, न खाने-पीने में और न चलने-फिरने में।
दोपहर के भोजन के बाद दादी दो घण्टे आराम करती थीं। इन दो घण्टों में न वह किसी से कोई बात करती थीं और न ही इस बीच कोई उनके ड्राइंगरूम में आ सकता था। दादी से मिलने शहर के बाहर से भी कोई लेखक आता था, तो भी दादी से मिलने के लिए उसे इंतजार करना पड़ता था।
शाम होते ही दादी के पास स्थानीय लेखक, कवि और साहित्यकार आना शुरू हो जाते थे। उनके साथ दादी की कभी साहित्य पर चर्चा होती, कभी शहर में हो रहे बदलाव पर, तो कभी किसी होने वाले कार्यक्रम पर। महीने के दो रविवार को काव्य गोष्ठी और दो रविवार को कहानी पाठ होता था, जिसमें शहर के लगभग सभी कवि और साहित्यकार उपस्थित होते थे और अपनी-अपनी कविता-कहानी कहते थे। दादी स्वयं कहानी और कविता दोनों
विधाओं में पारंगत थीं। उनके कई कहानी संग्रह, कविता संग्रह तथा उपन्यास काफी चर्चित हुए और उन्हें साहित्य अकादमी से पुरस्कृत भी किया गया।
इस तरह सुबह से लेकर रात को सोने के समय तक दादी का ड्रांइगरूम गुलजार रहता था। दादी सफाई पसंद थीं, यह बात उनके साथी लेखक और कवि भी बहुत अच्छी तरह जानते थे। दादी ने अपने जीते-जी ड्राइंगरूम की किसी भी चीज को कभी जरा-सा भी गंदा नहीं होने दिया। दादी को पान, तम्बाकू तथा बीड़ी-सिगरेट पीने व खाने वाले लोगों से सख्त नफरत थी। उन्होंने कभी ऐसे लेखक और कवि को अपने ड्राइंगरूम में नहीं आने दिया, जो
धूम्रपान का सेवन करते थे, क्योंकि वह अच्छी तरह जानती थीं कि पान या तम्बाकू खाने वाला इंसान न चाहते हुए भी कहीं भी थूक सकता है, जिसकी गंदगी साफ करना मुश्किल हो जाती है। अगर कभी कोई ऐसा लेखक या कवि उनसे मिलने आ भी जाता था तो वह उससे अपने लाॅन में बड़ी शालीनता और इज्जत से मिलती थीं और बातों-ही-बातों में उसे समझाती थीं कि लेखक, जो समाज का आइना होता है, उसे ऐसी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए, जिससे शारीरिक और आर्थिक नुकसान होता हो। कई लेखकों ने दादी की बात पर अमल भी किया और अपनी इस गंदी आदत को छोड़ दिया।
दादी का कहना था कि इंसान का शरीर ईश्वर ने बनाया है, जिसे ईश्वर ने मंदिर की संज्ञा दी है और जिस हृदय रूपी मंदिर में ईश्वर निवास करते हैं, उसे खराब करने का मनुष्य को कोई अधिकार नहीं है। दादी के पास आने वाले लेखकों से वह एक बात और कहती थीं कि लेखक को लेखक होने से पहले एक अच्छा इंसान होना जरूरी होता है। लेखक को सुधारवादी प्रवृत्ति का होना चाहिए न कि स्वार्थी, लोभी, अहंकारी, छल-कपट, करने वाला और झूठ बोलने वाला।
दादी खुद ही सिद्धांतवादी नहीं थीं। उनके घर में जितने भी सदस्य रहते थे, सब पर दादी ने सफाई और समय की पाबंदी का शिकंजा कस रखा था। जब तक दादी जीवित रहीं, तब तक उनके घर का कोई भी सदस्य सुबह के छह बजे के बाद कभी सो नहीं पाया। सबको वह सुबह ही उठाकर बैठा दिया करती थीं। सात बजे अगर घर का कोई सदस्य पूजा में शामिल नहीं हुआ, तो समझ लो उसकी शामत आ गयी। इसलिए दादी के डर के मारे घर के सारे लोग समय के पाबंद हो गये थे। समय पर सोना, समय पर उठना, समय पर खाना और समय पर अपने सारे जरूरी काम निबटाना। यही थी दादी की दिनचर्या। शायद इसीलिए दादी और उनके घर का कोई सदस्य असाध्य व्याधि से ग्रस्त नहीं हुआ। पूरी अस्सी साल की उम्र पार करने के बाद एक दिन दादी सबको अलसायी और अनमनी-सी दिखायी दीं। उस दिन उन्होंने न तो कोई कसरत की और ही न योगा किया। बस नहाने के बाद पूजा की और ड्राइंगरूम में आकर चुपचाप बैठ गयीं। न फूलदानों के फूल बदले, न ही अपने ड्राइंगरूम की सफाई करी और न ही उन्होंने कोई किताब पढ़ी, यहां तक कि उन्होंने न सुबह का नाश्ता किया और न ही दोपहर का भोजन किया। उस दिन वह किसी लेखक और कवि से भी नहीं मिलीं। बस पूरे दिन वह चुपचाप बैठी रहीं। उन्हें इस तरह चुपचाप बैठे देखकर घर के सभी सदस्य चिंतित होने लगे, लेकिन दादी ने कहा, घबराने की कोई बात नहीं है। इंसान की जिन्दगी में एक दिन ऐसा जरूर आता है, जब वह खुद को कमजोर महसूस करता है। रात के नौ बजे उनके पोतेे हरीश ने उनसे सो जाने के लिए कहा, तो उन्होंने कहा कि ‘‘आज मैं अपने रूम में न सोकर, ड्राइंगरूम में ही सोऊंगी।’’
सुबह को घर के सारे लोग नहा-धोकर पूजाघर में पहुंच गये, लेकिन दादी वहां नहीं पहुंची, तो सबको चिंता होने लगी। उनके पोते हरीश ने घर के सभी लोगों से कहा, ‘‘तुम लोग यहीं रूको मैं दादी को ड्राइंगरूम में देखकर आता हूं।’’
हरीश ने ड्राइंगरूम का दरवाजा खोला, तो दादी सोफे पर सीधी लेटी थीं। उनके सीने पर गीता रखी हुई थी, जो बीच में से इस तरह खुली हुई थी, जिससे यह साफ जाहिर हो रहा था कि दादी गीता पढ़ते-पढ़ते सो गयी हों।
‘‘दादी.......। हरीश ने आवाज लगायी, मगर दादी के अन्दर कोई हरकत नहीं हुई। हरीश ने पुनः जोर देकर कहा, ‘‘दादी.....।’’ फिर भी दादी के अन्दर कोई हरकत नहीं हुई। हरीश को कुछ संदेह हुआ। उसने दादी को हिलाया, तो उसके मुंह से चीख निकल पड़ी और वह जोर से दादी.........करके चीखा।
हरीश की चीख सुनकर घर के सारे लोग ड्राइंगरूम में आ गये। हरीश ने सबको रोते हुए बताया कि उनकी दादी, स्वर्ग सिधार गयीं।’’
इतना सुनते ही घर में कोहराम मच गया। ड्राइंगरूम की सभी चीजों को दादी से बेहद लगाव था, इसलिए दादी जी के अचानक इस दुनिया से चले जाने की खबर सुनकर रोने लगीं। तभी दीवार पर लटकी घड़ी ने ड्राइंगरूम की सभी चीजों को रोते हुए बताया कि रात को करीब बारह बजे दादी की बेचैनी बढ़ने लगी तो उन्होंने किताबों की अलमारी खोलकर उसमें से गीता निकाली और सोफे पर बैठकर पढ़ने लगीं। पढ़ते-पढ़ते वह सोफे पर ही लेट गयीं और गीता को उन्होंने अपने सीने पर रख लिया। मैं समझी कि शायद दादी को नींद आ गई और वह सो गयीं। सुबह को पाँच बजे मैंने जोर-जोर से अपने घण्टे बजाकर दादी को जगाने की कोशिश की, लेकिन दादी की आंख नहीं खुली, तो मुझे संदेह हुआ कि दादी....., यह बात मैं तुम सबको भी बताने वाली थी, लेकिन मैंने डर के मारे नहीं बताया। मैंने सोचा कि अगर मेरा अनुमान गलत निकला तो मैं तुम सबकी बुरी बन जाऊंगी।’’
दादी को याद करके किताबें सुबक कर रोने लगीं। उन्हें सांत्वना देते हुए सोफे ने कहा, ‘‘मत रोओ बहन, भले ही दादी हमारे बीच न रहीं, लेकिन उनकी आत्मा हमारे आस-पास ही है।’’
‘‘सोफा ठीक कह रहा है। आज के दिन तो तुम्हें नहीं रोना चाहिए, आज तो दादी की आत्मा बेहद प्रसन्न होगी, क्योंकि आज उनके ड्राइंगरूम की सफाई हुई है। अब हम सबको करीने से लगा दिया तो उनकी आत्मा को और प्रसन्नता होगी। हो सकता है हरीश भईया को दादी की याद आई हो तो उन्होंने सोचा हो कि दादी का ड्राइंगरूम साफ करवा दिया जाए और उनके साथी कवि और लेखकों के लिए बुलाया करें ताकि उनकी कवि गोष्ठियों और कहानी पाठों से ड्राइंगरूम की रौनक बढ़ जाए ?’’
अलमारी की बात सुनकर फूलदान ने कहा, ‘‘मुझे भी ऐसा ही लगता है, जैसे हरीश भईया की संवेदनाएं जाग उठीं हों और दादी की आत्मा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से उन्होंने ड्राइंगरूम को फिर से खोल दिया हो ताकि शहर के कवि और लेखक आएं और समय-समय पर दादी के लेखन पर चर्चा करें। हो सकता है दादी की स्मृति में हरीश भईया कोई निजी तौर पर पुरस्कार की भी घोषणा करें, जैसे और बड़े लेखकों व कवियों के नाम पर ट्रस्ट बने हुए हैं।’’
‘‘अगर ऐसा हो गया तो बहुत अच्छा होगा। कम-से-कम साल में एक बार तो दादी के नाम पर कार्यक्रम हुआ करेगा, जिसमें दादी की चर्चा की जाया करेगी। इसी बहाने दादी को लोग हमेशा तक याद रखेंगे।’’ घड़ी ने सबकी हां-में-हां मिलाते हुए कहा।
ड्राइंगरूम की एक-एक चीज साफ हो चुकी थी। सबकुछ ऐसे चमचमा रहा था, जैसे अभी उन्हें बाजार से खरीद कर लाया गया हो। सब चीजें बहुत खुश थीं। अब उन्हें इंतजार था तो बस ड्राइंगरूम में करीने से सजने का।
दोपहर के ठीक तीन बजे हरीश भईया आए और ध्यान से उन सब चीजों को देखकर मुस्कुराने लगे। थोड़ी देर में एक खाली छोटा ट्रक भी आया। ट्रक में से तीन-चार आदमी उतरे। उनके उतरते ही हरीश भईया ने कहा, ‘‘हां बताओ कितना दोगे इन सब चीजों का ?’’
‘‘हरीश भईया, इस सामान में सोफे और अलमारी के सिवा और है ही क्या ?’’
‘‘क्यों, इन किताबों को तुम क्या समझ रहे हो ? यह वो दुर्लभ किताबें हैं, जो अब हजारों रुपए खर्च करने के बाद भी बाजार में उपलब्ध नहीं होंगी।’’
‘‘हरीश भईया, हम अनपढ़ होने के साथ-साथ कबाड़ी हैं। हमारे लिए तो यह किताबें रद्दी के सिवा कुछ भी नहीं हैं। रही बात सोफे और अलमारी की तो यह भी पुराने जमाने की हो चली है। मैं तो सोच रहा हूं इस सौदे में मुझे घाटा भी हो सकता है। फिर भी मैं इस पूरे सामान के दो हजार रुपए दे सकता हूं।’’
‘‘ठीक है, जो देना है, दो वैसे भी मैं इस कूड़े को अपने यहां रखकर क्या करूंगा, जितनी जल्दी यह साफ हो जाएगा, उतनी जल्दी मैं इस रूम को अपना बार रूम बना दूंगा।’’
हरीश भईया और कबाड़ी की बात सुनकर ड्राइंगरूम का सारा सामान स्तब्ध रह गया। उनके फूल से खिले चेहरे मुरझा गए। उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि मंदिर की तरह पवित्र माना जाने वाला दादी का ड्राइंगरूम शराबखाने में बदल जाएगा और लोगों को ज्ञान बांटने वाली किताबें, रद्दी के भाव और हमें सबको कबाड़ के भाव बेच दिया जाएगा। क्या हो गया है इंसान को, उसकी मानसिकता को ? इंसान इतना भी खुदगर्ज और स्वार्थी हो सकता है ? उसकी संवेदनाएं और भावनाएं इस तरह मृत हो सकती हैं ? उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था।
00000000000000000