एपीसोड ---47
एम .डी. मैडम से बड़ी मुश्किल से समय मिलता है लेकिन वह उनके ऑफ़िस में इंतज़ार करती रह जाती है। एक के बाद एक मीटिंग में वह व्यस्त हैं।
अभय घर आ चुके हैं, “कहाँ गईं थीं?”
वह झूठी शान से कहती है, “देखो, इस समीकरण में मेरी तरफ़ कोई औरत नहीं थी इसलिए समस्या हल नहीं हो रही थी। अब उस गुँडी से कहो अपना सामान बाँध ले। मैडम अब उसे ठीक करेंगी।”
अब अभय को कुछ दिन घेरने का प्रयास नहीं होगा।
महिला समिति की सभी सदस्याएं पशोपेश में हैं। अब इस समिति का अध्यक्ष कौन बनेगा? अब तक तो यही नियम रहा है कि पुरुष एम.डी.की पत्नी महिला समिति की अध्यक्ष बनती है। इस पद को सम्भालना इतना आसान नहीं होता क्योंकि इस समिति का मुम्बई अपनी ज़ोन की अध्यक्ष से सम्पर्क बनाये रखना होता है उनसे फ़ंड लेना होता है। होशियार बच्चों को पुरस्कार देना, उनके लिए छुट्टीयों में हॉबी क्लासेज आयोजित करना, उनके व स्त्रियों के लिए प्रतियोगिताएं आयोजित करना,क्लब में हर मुख्य त्यौहार का, फ़नफ़ेअर व मनोरंजन के कार्यक्रम का आयोजन करना, इन सबकी एक स्मारिका निकालना। हाँ, ये बात और है कि यदि सर्वे किया जाये तो ऐसे केम्पस के संगठन श्रेष्ठ तरीके से चलते हैं, क्योंकि अध्यक्ष का इशारा करने की देर है, कोई अधिकारी, कोई भी सदस्या सौंपा हुआ काम पूरा कर देती है।
एम. डी. की पत्नी को इसके अलावा मंत्रियों व उच्चाधिकारियों के दौरे पर आने पर उनकी बीबियों का शॉपिंग करवानी होती है। वे चाहें बोर हो या बददिमाग़ हों, उन्हें दो-तीन दिन तो मुस्करा, मुस्करा कर झेलना पड़ता है। इस बीच में घर में उनके लिए डिनर या नाश्ते के आयोजनों की व्यस्तता अलग से रहती है।
सबके मन की सुगबुगाहट शांत करते हुए गोरी, लम्बी, स्मार्ट एम.डी. सुहासिनी कुमार बतौर अध्यक्ष क्लब के हॉल में महिला समिति की सदस्याओं के बीच अपना “ वैलकम केक” काटती हैं। उस पर लगी एक मोमबत्ती अपनी फूँक से बुझाती हैं।
एक महिला ‘फ़र्स्ट मैन ऑफ़ द केम्पस’ की जगह ले चुकी है तो उनके लिए ‘वैलकम केक’ भी होना चाहिये। ये इस समय की सचिव व महासचिव के दिमाग़ की नई उपज है।
“कांग्रेट्स मैम ।”
“काँग्रेचुलेशन्स मैडम।”
“मैडम ! बधाई हो।”
तालियों की गड़गड़ाहट में ये शब्द गूंज रहे हैं।
वह समिति की हर महीने होने वाली एक मीटिंग में हाऊसी , गेम्स में सब महिलाओं के साथ, उनके बीच खड़े होकर अपना ‘फ़र्स्ट मैन ऑफ़ द केम्पस’ वाला रुतबा महसूस नहीं होने देतीं। अब तक केम्पस में इक्का दुक्का तलाकशुदा विभागीय मैनेजर महिलायें आती रही हैं जिनका उच्च पद व पैसा सम्भालते, सम्भालते पति का साथ छूट गया था लेकिन ये एम.डी.अपवाद है। एक बेटी व एक बेटे की माँ हैं ,पति के साथ रहती है। पद, पैसा, परिवार सम्भालने वाली दस भुजाओं वाली दुर्गा एक हाथ में महिला समिति भी सम्भालने के लिए तत्पर है। इनका फ़िल्मी गॉड मदर जैसा अंदाज़ नहीं है कि सत्ता हाथ में आते ही अपनी साथिनों के साथ झूमें, ‘राजा की कहानी पुरानी हो गई....।’ ये है संतुलित कर्मठ, अनुशासित महिला केम्पस की गृहणियों के बीच एक आम महिला बनी, राजा की कहानी बदल दी गई है, इस दम्भ से दूर। उनके विशाल बंगले में उनकी व उनके आई एस पति की रैड आइकन वाली कारें चमकती रहती हैं।
X XXX
झिलमिलाते लहँगों, सिल्क, ज़री की साड़ियों व उनसे मेचिंग ज्वैलरी , सफेद, पीले गजरों वाला रंगारंग तीज प्रोग्राम है। ऊपर से नीचे तक किसी अच्छे ब्यूटी पार्लर से संवरकर आई, सचिव उप सचिव व बहुत ही महिलायें। सचिव कार्यक्रम से पहले माइक पर मेहमानों का स्वागत कर रही है। स्त्री के बारे में वह कहती है, “रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा थाः
`वूमन ! व्हेन यू मूव एबाउट
इन योर हाऊस होल्ड सर्विस
योर लिम्बस सिंग लाइक
ए हिल स्ट्रीम एमंग इट्स पेबल्स।”`
समिधा का परिवार जब भी इकट्ठा होता है इस धुन की रुनझुन में डूब जाता है।
समिधा का दिल कराह उठता है,“छोटे-छोटे पत्थरों से पहाड़ी से गिरती, एक स्वच्छ धारा का थिरकता संगीत क्या हर घर की दीवारों के बीच सुना जाता है? वो घर, वो दीवारें ख़ुशनसीब होते हैं जो इस स्वरलहरी में झूम सकते हैं।”
इस सुरक्षित केम्पस में एक व्यक्ति सूरत टूर पर था। रात में दो बजे घर लौटकर उसने किसी दूसरी औरत के लिए अपनी पत्नी का ख़ून किया व चुपचाप सूरत लौट गया। उसका सात वर्षीय बेटा पुलिस से कहता रहा मैंने पापा को मम्मी का क़त्ल करते देखा है, तब भी कुछ नहीं हुआ। एक चतुर्थ श्रेणी के परिवार ने अपने घर में बहू जलाकर मार डाली। लोगों ने उस घर में धुँआ भी निकलता देखा, फिर भी कुछ नहीं हुआ। बंगलों में कुछ महिलायें रात में अकेली पड़ी रहती है पहाड़ी की धारा की तरह आँसु बहाती अपने सुहागन होने का टेक्स भरती। वही सब क्लब की किसी पार्टी में बढ़िया साड़ी में सजी, हँसती, खिलखिलाती, मिसिज` सो एण्ड सो` नज़र आती हैं। समिधा जिस केम्पस को बेहद सुरक्षित समझती थी, वह भी शहर के दूसरे हिस्सों जैसा ही है।
कार्यक्रम के आरंभ में हर वर्ष की परम्परा के कारण अध्यक्ष माइक के सामने बैठी अनेक महिलाओं के साथ तीज का गीत गा रही हैं। वह इतने सौन्दर्य बिखेरते कार्यक्रम से कहाँ भटक गई थी। उपसचिव व सचिव की काव्यमय उद्घोषणा सुनकर कौन उन्हें ‘ब्यूटी विदाउट ब्रेन’ कह सकता है। तभी फ़ैशन परेड आरम्भ होती है। हमेशा से इसमें सुंदर महिलायें ही भाग लेती थीं किन्तु इस बार सभी सदस्याओं के नाम पुकारे जा रहे हैं। चाहे वे सुंदर, असुंदर, छोटी, लम्बी, मोटी, काली या गोरी हो। सभी अपने प्रदेश की झलक दिखाती दो तीन वाक्य माइक पर बोल, आँचल लहराती कैट वॉक कर रही हैं। समिधा अपना नम्बर आने पर मंच की तरफ़ बढ़ जाती है।
वह लौटकर पास बैठी नीता के कान में सचिव व उपसचिव की तरफ़ इशारा करके फुसफसाती है, “‘ब्यूटी पार्लर’स ब्यूटी विद गलोबलाइज़्ड ब्रेन।”
“ओ येस।” नीता उसकी बात पर हल्के से हँस देती है। कल ही अपनी बीमार सास की सेवा करके लौटी है। अनुभा की भतीजी की गोद भरी जा रही है वह राँची गई हुई है। नीता उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछती हैं, “इस बार तू डांस.....।”
“अरे यार ! तू मुझे क्या समझती है। इतने ‘क्रिमनल्स’ के बीच घिरे हुए मैंने ये चार वर्ष निकाले हैं। उन्हें ऊपर वाले की मेहरबानी से छका दिया है। मैं क्यों नहीं नाचूँगी?”
तीज के फंक्शन में समिधा अपने नाम की घोषणा से पहले मेकअप ठीक करने कुछ, ज्वैलरी पहनने ग्रीन रूम में चली जाती है। अपना मेकअप ठीक करके बालों की पोनी पर से सुनहरा क्लिप निकालकर उन्हें लहरा देती है।
दुश्मनों के सताने के बीच भी छमाछम करती इस चुनौती का उत्तर मिलना है। रात को अभय घूमकर तेज़ी से आकर, फुल वॉल्यूम पर रेडियो ऑन कर देते हैं। गाना बज रहा है, “तड़प-तड़प के इस दिल से आह निकलती रही।” समिधा समझ जाती है अभय के ऑफ़िस से लौटने पर कविता अपना रेडियो तेज़ कर देती होगी।
दो दिन ये सिलसिला जारी रहता है। समिधा भी समस्या का हल ढूँढ़ लेती है, वह उनसे कहती है, “कविता की पड़ोसियों से मैंने कह दिया है कि जब तुम घूमकर आते हो तो कविता रेडियो ज़ोर से बजा देती है। वे ज़रा नोट करें।”
अभय अब रेडियो नहीं बज़ाते। वह शातिर औरत इनके दिमाग को किसी न किसी जाल में उलझाने रखना चाहती है। अभय लौटकर अब कम्प्यूटर पर गलीज साइट देखना आरंभ कर देते हैं। समिधा कोई न कोई काम हाथ में लेकर उसी कमरे में बैठने लगी है। अभय गलीज साइट हटाकर अपने को किसी गेम में उलझाने के लिए मजबूर हैं। अभय को वह अब इनमें डूबने नहीं देगी।
मैडम से वह हर हफ़्ते में एक बार मिलने जा रही है। स्वयं उसे ही पता है कि वह समय नहीं दे पा रही लेकिन उनके नाम का भय सा फैला ही हुआ है।
अभय एक सुबह कहते हैं, “मैं आज देर से आऊँगा। आज इंस्पेक्शन है।”
उसी दिन वह दो बजे ऑटो से शॉपिंग करके लौट रही है। सड़क से अभय को ऑफ़िस के केम्पस में स्कूटर स्टार्ट करते देखती है। उनका स्कूटर ऑटो के पीछे है। कविता की लेन पास आती जा रही है। कविता कमरे से बालकनी में निकलकर सड़क की तरफ अपना चश्मा ठीक करती लचकती शायद अभय से नज़रें चार करने निकलती है। आँखें टकरा जाती हैं ऑटो में बैठी समिधा से । वह हड़बड़ाकर पीछे हट जाती है। समिधा व्यंग से मुस्करा उठती है।समिधा क्रोध में नख शिख तक जल उठती है। वह अभय पर कैसे क्रोध करे। जब एक वहशियाना औरत अभय के दिमाग़ को अपने पंजे में लेने के रास्ते निकाल रही है, ऑफ़िस में गुँडा दोस्त जाल फैलाये हैं।
अभय के ऑफ़िस आने जाने के समय पड़ौसिनों का पहरा बिठा देने का वह वहम बिठा चुकी है, अलग समय पर अभय ऑफ़िस से निकले, ये उसी के दिमाग़ की उपज है। हर पंद्रह दिन में एक नई चाल का समिधा को जवाब देना है। वह अभय से क्रोध में कहती है, “कविता के सामने वाली बिल्डिंग की मिसिज बनर्जी को मैडम ने कविता पर नज़र रखने के लिए नियुक्त कर दिया है।”
दूसरे दिन अनुभा का उसके पास फ़ोन आ जाता है,“समिधा ! क्या तुमने कविता को फ़ोन किया था कि मिसिज बनर्जी उस पर नज़र रख रही है?”
“ ओ नो, मैं उसका नया मोबाइल नंबर जानती नही हूँ तो कैसे फ़ोन करूँगी?” समिधा को झूठ बोलना ही पड़ता है।
“कविता मिसिज बनर्जी से झगड़ा सा कर रही थी कि आप मुझ पर नज़र रख रही हैं। मिसिज बनर्जी घबराई हुई हैं। उन्होंने मुझे फ़ोन किया है कि मैं तुमसे पूछूँ।”
“उनसे कहो कविता को लेकर मेरे पास आ जाँये।”
उसे पता है वह कैसे आयेगी? वह सिर्फ़ उसे अभय से लड़ने का बहाना दे रही है कि अभय व समिधा के बीच की बात कविता तक कैसे पहुँची?
समिधा पहले से ही समझती है अभय ने ऑफ़िस में मोबाइल रखा ही हुआ है। उन्हें लड़वाने की कविता की इस कोशिश को वह बेकार कर देती है।”
बाद में उसे मैडम समय तो दे देती है लेकिन थोड़े क्रोध में हैं, “आप पुलिस में एफ़ आई आर करने का मतलब जानती हैं?”
“मैडम मैं तभी आपकी राय लेना चाहती थी इस शिकायती पत्र में वर्मा दम्पति व विकेश के ऊपर अभय को ड्रग देने का अपराध है।”
“आपने अपनी आँखों से किसी को ड्रग लेते या देते देखा है?”
“वर्मा का लाइ-डिटेक्टर टेस्ट होगा तो सब पता चल जायेगा।”
“ये टेस्ट करवाना क्या इतना आसान है? ये टेस्ट जब करवाया जाता है जब पुलिस को आप कुछ प्रूफ़ दें। मजिस्ट्रेट आपके उत्तर से संतुष्ट हों।”
“मैडम ! ये इज़ी मनी वाले लोग ही नहीं हैं, ये क्रिमिनल्स हैं अभय की जान से खेल रहे हैं। मेरी जान से खेल रहे हैं।”
“क्यों क्या आपके पति के पास बहुत पैसा है? या आपके घर में से चीज़े गायब हो रही हैं?”
“मैम! ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा। ये एक दो को फँसाकर अपना ख़र्च निकालने वाली औरत है। हाऊस वाइफ की आड़ में ये खेल खेलती रही है। अभय को अपने हथकंडों से पागल कर रही है।”
“आप तो विकेश का भी नाम ले रही हैं। वह तो केम्पस में नहीं रहता।”
“नाम नहीं ले रही । उसी की दी हुई हिम्मत पर ये खेल ख़त्म नहीं हो रहा।”
“हाऊ केन यू प्रूफ़ इट? आपके घर पुलिस जाँच के लिए आयेगी। क्या आप उसको ‘फ़ेस’ कर पायेंगी? आपके परिवार की इज़्जत ज़ीरो हो जायेगी।”
“ये तो में सोच नहीं पाई थी।”
“एक बात मैं स्पष्ट कर दूँ, प्रशासन के पास इनके ट्रांसफ़र का कोई अधिकार नहीं है।”
“मैम ! आश्चर्य है दिल्ली से भेजी शिकायत यहाँ फ़्लॉप कर दी गई है।”
वे चुप सुनती रहती हैं।
“हमारे बाद कोई और ‘फ़ेमिली’ इनका शिकार बनेगी। दे आर क्रिमिनल्स।”
“आपको पता है आप ऑफ़िसर्स के पास शिकायत लेकर जाती हैं, वे हँसते हैं।”
वह कह नहीं पाती उन्हें अपनी अक्ल पर हँसना चाहिए कि उस जैसी शिक्षित स्त्री लिखकर दे रही है तब भी वे विश्वास नहीं कर रहे कि ड्रग देने वाली एक बाज़ारु औरत केम्पस में है।
“आप मेरे सवालों का तो ठीक से जवाब नहीं दे पा रहीं तो प्रूफ़ क्या करेंगी?”
“तो मैं क्या करूँ?”
-------------------------------------------------------------------------------
नीलम कुलश्रेष्ठ
e-mail ---kneeli@rediffamail.com