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दह--शत - 6

दह--शत

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

एपीसोड --6

इधर जबसे कविता के रिश्तेदार को ट्रांसफ़र के कारण शहर छोड़ना पड़ता है। कविता उसके पीछे पड़ी रहती है, “ आपका भी दिल नहीं लगता, हम लोगों का भी। कम से कम महीने में एक ‘ संडे ’ तो हम लोग साथ में डिनर लिया करें। ”

वह बहाना बनाती है, “ हम लोग इस शहर में बरसों से रह रहे हैं कितने ही ‘सोशल ऑर्गनाइजेशन’ से जुड़े हुए हैं। कोई न कोई पार्टी चलती रहती है। ”

“ फिर भी कभी-कभी क्या बुराई है? ”

“ बाद में देखा जायेगा। ” वह टालती है।

उसके जाने के बाद रोली उसे टोकती है। “मॉम ! पहले तो आप कहती थीं अब कॉलोनी में ऐसी कोई फ़ेमिली नहीं रही है जिसके साथ घर पर बैठकर साथ में डिनर लें । कविता आँटी ऑफ़र दे रही है और आपने मना कर दिया ।”

“देख। ये औरत ऊपर से लेकर नीचे तक नकली लगती है। हर सप्ताह हमारे यहाँ प्रसाद भेजती है। सब तो नहीं लेकिन बहुत अधिक व्रत उपवास रखने वाले पूजा का ढिंढोरा पीटने वाले लोग बहुत पाखंडी होते है।”

“बात तो बहुत तमीज़ से करती है फिर आपको क्यों ऐसा लगता है?”

“ये तय है ये ऊपर से नीचे तक बिल्कुल नकली औरत है। बहुत से लोग ऐसे होते हैं। ये जब त्यौहार के रुपये भेंट करके मेरे पैर छूने झकती है तो मेरे दिल से दुआ नहीं निकलती मन काठ हो जाता है।”

“आपके मन का वहम होगा।”

“ नहीं, ऐसी बात नहीं है। इस औरत में कहीं कुछ गड़बड़ है। बात-बात में ‘डिच’ मारती है। नाटक करके झूठ बोलती है। ”

“ आप तो कहती है आज की दुनियाँ का हर तीसरा आदमी ही ऐसा है। ”

“ नहीं, ये कुछ अलग सी चीज़ है इसमें क्या गड़बड़ है, क्या बदमाशी है? मैं ‘एक्सप्लेन’ नहीं कर पाती। ”

उस दिन वह अभय को अकेले में टोक ही देती है, “ आप आजकल छत पर बड़ी देर घूमते रहते है। ”

“ तुमसे मतलब। ” अभय उल्टा सा जवाब देते हैं।

“ मैं तो तुमसे सीधे ही पूछ रही हूँ, मुझसे मतलब नहीं होगा तो किससे होगा? बारिश भी बंद हो गई है, आपने ग्राउंड पर जाना आरंभ नहीं किया?”

“ तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है छत पर घूमूँ या ग्राउंड पर । तुम्हारे साथ तो घूमने चलता हूँ न । ”

वह मज़ाक करती है, “कहीं किसी से इशारेबाज़ी तो शुरू नहीं कर दी? ”

“ मन तो करता है लेकिन इस बुढ़ापे में रिस्पांस कौन देगा? ”

अभय की इतनी देर तक छत पर घूमने की बात समिधा गले नहीं उतार पा रही।

एक दिन ऑफ़िस से लौटकर वे बड़ी प्रसन्न मुद्रा में बताते है, “बबलूजी और कविता अपनी बालकनी में चाय पी रहे थे, कविता अपना कप दिखाकर इशारे से बुला रही थी।

“चले जाते मुझे भी फ़ोन करके बुला लेते वैसे तो उनके यहाँ जाना हो नहीं पाता।”

“तुम्हारे बिना मैं सोशल विज़िट पर कहीं नहीं जाता तुम्हें मालूम तो है। ”

सप्ताह भर बाद वे उनके यहाँ जाने का मौका निकाल पाते हैं। कविता प्लेट में रखे पेड़े उनकी तरफ बढ़ाकर कहती है, “ एक खुश ख़बरी है। ”

“ क्या? ” वह एक पेड़ा उठाते हुए पूछती है।

“ सोनल अपने होटल में जी.आर.ई. बना दी गई है ‘गेस्ट रिलेशन एक्ज़ीक्यूटिव’। ”

समिधा को आश्चर्य होता है, ‘अभी-अभी तो इसने रिसेप्शनिस्ट की नौकरी ज्वाइन की थी।’

कविता की गर्दन में गुरूर अकड़ गया है, “इसकी महेनत देखकर जी. एम. बहुत खुश हैं उनकी पी. ए. ‘मेटरर्निटी लीव’ पर गई है लेकिन उन्होंने सारी लड़कियों को छोड़ सोनल को ही चुना है । ये जी. एम. के केबिन में ही बैठती है । ”

“ वाह ! बहुत जल्दी प्रोग्रेस कर रही हो सोनल ! काँग्रेट्स । ”

“ थैंक यू आँटी! ”

“ बेटी ! अभी तुम्हारी उम्र कम है इसलिए समझा रही हूँ, नीता से सुनती रहती हूँ बाहर की दुनिया वाले जाल जाल डालने की कोशिश करते हैं, बहुत होशियार रहना। ”

“ आँटी ! मैं बहुत अलर्ट रहती हूँ। हमारे होटल का वातावरण बिल्कुल घरेलू है। मम्मी तो कहती है जो लड़की जितनी फ़ास्ट होगी उतनी ही प्रोग्रेस करती है। ”

“क्या ?” एक क्षण चुप रहने के बाद उससे रहा ही नहीं जाता, “देखो ! फ़ास्ट होने की जगह ‘डिग्नीफ़ाइड’ होना ज़रूरी है। मैंने भी एक कॉलेज में काम किया था लेकिन उसके मालिक सही नहीं थे मुझे नौकरी छोड़नी पड़ी। बच्चों को सही तरीके से पालकर बड़ा किया है। मेरे मन में कितनी शांति है। ”

“आप ठीक कह रही हैं आँटी। आजकल ज़माना बहुत ख़राब हो गया है। आजकल ‘ मेल प्रोस्टीट्यूट्स’ की संख्या बहुत बढ़ती जा रही है।”

अभय की इस बच्ची की बात सुनकर आँखें नीची हो जाती है। उनके हाथ से मठरी का टुकड़ा छूटते छूटते बचता है। समिधा के मुँह की बिस्कुट कड़वी हो उठी है।

***

“वाह क्या पर्स है ?” नीता ने क्लब में कविता के ग्रे रंग के पर्स को नज़र भरकर देखकर कहा।

“ज़रा दिखाना... इसकी पॉकेट कितनी ‘स्टाइलिश’ है।” अनुभा ने पर्स को हाथ में ले लिया।

“है भी तो पूरे एक हज़ार का।” कविता ने आदतन गर्दन झटकाते हुए कहा ।

“ वह तो लग रहा है। ” समिधा ने कहा लेकिन मन ही मन ताव खा गई कविता आख़िर तुम अपनी ‘चीपनेस’ दिखाये बिना मानोगी नहीं। ’

कविता की गर्दन और तन गई, “ मैं तो इतना महँगा पर्स कभी भी नहीं ख़रीदती लेकिन बच्चे पीछे पड़ गये उन्होंने ज़बरदस्ती ख़रीदवा दिया। ”

“ कविता की तो ‘गोल्ड ज्वेलरी’ भी देखने लायक होती है। हर मीटिंग में नई डिज़ाइन्स पहनकर आती है। ”

“ मुझे नकली ज़ेवर पसंद भी नहीं है। मैं तो हर रंग की चूड़ियाँ बिंदी, अपने पास रखती हूँ, हर चीज मेचिंग ही पहनती हूँ। ”

नीता ने शाबासी दी, “ बड़ी अच्छी आदत है। कोशिश तो मैं भी करती हूँ लेकिन ऑफ़िस के कामों में इतना दिमाग व्यस्त रहता है कि कभी मेचिंग चूड़ियाँ गायब हैं, तो कभी बिंदी। ”

“ हा... हा... हा...। ” चारों बेलौस हँस पड़ती है।

मीनल उन्हें ज़ोर से हँसता देख फुसफुसाती है, “ प्लीज़ ! अपनी जगह बैठ जायें। मैडम आ रही है। ”

“ क्लब के हॉल के दरवाज़े से अध्यक्ष को आता देख वे हँसी पर ब्रेक लगाकर, गंभीर मुँह बनाकर कुर्सियों पर बैठ जाती हैं। ”

कविता समिधा के पास वाली कुर्सी पर बैठती है । समिधा के शरीर में अजीब-सी सनसनाहट हो रही है। इस औरत के पास बैठना या इसे देखना कितना तकलीफ़ देता है। अचरज भी होता है कि कोई परिचित परिवार की औरत कैसे परिचित परिवार के पुरुष से छत से इशारेबाज़ी कर सकती है? अभय तो हर बारिश में छत पर टहलते हैं कैसे उन पर पूरा दोष मढ़ दे? उसका और उनका बरसों का साथ है। उन्होंने आज तक परिचित परिवार की किसी महिला या लड़की से कोई हल्की हरकत नहीं की।

कविता उसके पास बैठी उसकी आँखों में आँखें डालकर बेहिचक मीटिंग के बीच-बीच में बात करती जा रही है। वह ‘हाँ, ’ ‘हूँ’ करती जा रही है। मन कहीं उलझा हुआ है। बबलू जी साधारण परिवार के बेटे हैं। बम्बई में नौकरी करके दो घरों का ख़र्च झेलते रहे हैं... ये लैदर पर्स... ये नित नये बदलते सोने के गहने... कविता कहाँ से जुटा पाती होगी ? पति के दूसरे शहर में रहने पर भी बच्चों को अच्छी तरह संभाल लिया।

वह कविता को देखती है तो पता नहीं क्यों उसे विकेश का चहेरा याद आ जाता हे। उसका तकिया कलाम है, “ मुझसे चाहे कितना ही झूठ बुलवा लीजिए। सुबह से शाम तक झूठ बोल सकता हूँ। ”

उसकी पत्नी प्रतिमा उतनी ही शालीन व नम्र है। विकेश के घर व उसके माँ-बाप को अच्छी तरह संभाल लिया है। ऑफ़िस से शाम को छः या सात बजे आते ही वह घर के काम में व्यस्त हो जाती है। शादी के बाद जैसे विकेश बदल गया है। उसके ख़ानदान में पहली नौकरी करती लड़की आई है। अपने नये घर के पास दो नये दोस्त परिवारों ने उसकी व्यस्ततायें बढ़ गई थी, जिसमें डॉक्टर दम्पति मिश्रा प्रमुख थे । घर में जब भी अभय विकेश की बात करते है समिधा खीज जाती है, “इसी को कहते हैं गिरगिट की तरह रंग बदलना। जब अकेला था तो समय-असमय ‘भाईसाहब’, ‘भाभीजी’ कहता चला आता था। मैं तो उसे देवर से बढ़कर मानने लगी थी। अब देखो महीनों उसकी सूरत भी नहीं दिखाई देती। ”

महीनों में वह कभी ऑफ़िस से अभय के साथ आता था तो समिधा एक कप में दूध लाकर नाश्ते के साथ अभय व विकेश के सामने रख देती। अभय की हिदायत थी कि विकेश चाय या कॉफी नहीं पीता उसे दूध दे दिया करो। वह औपचारिकता में थोड़े समय उनके पास बैठकर बाद में अपने काम में लग जाती थी।

एक दिन अभय ने ऑफ़िस से लौटकर कुछ संकोच से बताया, “ आज विकेश ने तो यूनियन मीटिंग में ग़जब कर दिया। ”

“ क्या ग़जब कर दिया? ”

“ आजकल वह यूनियन लीडर कर्वे का चमचा बना फिरता रहता है। आज मीटिंग में कर्वे ने मिसेज गुप्ता व मैनेजर पर ‘इलिसिट रिलेशन्स’ की बात कही तो विकेश भी खड़ा हो गया कि कर्वे साहब जो कह रहे हैं ठीक कह रहै हैं। ये बात सौ प्रतिशत सच है। ”

“छी.... इतना गिर गया है? वह तो कॉलोनी से बाहर रहता है उसे क्या पता। मैं तो मिसिज गुप्ता को अच्छी तरह जानती हूँ। किसी लेडी को खुलेआम ‘इन्सल्ट’ करने में उसे शर्म नहीं आई ? ”

“ हाँ, मुझे भी बहुत बुरा लगा। ”

“ उसने मीटिंग में ऐसा कैसे कह दिया? ”

“ कर्वे मैनेजर से चिढ़ा हुआ है। उसकी किसी तरह बेइज्ज़ती करनी थी। ”

“ और विकेश? ”

“ मैं उससे सीनियर हूँ, मेरा प्रमोशन ड्यू है लेकिन विकेश को मुझे ‘सुपरसीड’ करके प्रमोशन चाहिए इसलिए कर्वे के पीछे दुम हिलाता फिरता है। ये काम यूनियन की मदद से ही हो सकता है। ”

“ जब वह बैचलर था तो समय काटने के लिए हम लोगों के पीछे दुम हिलाता फिरता था। ऐसे व्यक्ति से तुम दूर क्यों नहीं रहते? ”

“ कोशिश तो बहोत करता हूँ उससे दूर रहूँ। लेकिन ऑफ़िस में मुझसे या तो बहुत सीनियर्स हैं या फिर जूनियर्स। यही एक हम उम्र है। ”

अपने जूनियर विकेश के प्रमोशन के बाद अभय कुछ दिन बहुत बेचैन रहे थे फिर उन्होंने व उन्हीं के पद वाले देसाई ने कोर्ट में जाने का फैसला कर लिया था। न्याय व प्रमोशन दोनों मिले थे दो वर्ष बाद।

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नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail ---kneeli@rediffamail.com

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