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दह--शत - 9

एपीसोड --- 9

समिधा हंस पड़ती है कि रोली में भी अक्ल आ गई है। कैसे पूछ रही है कि विकेश का बेटा इतना दुबला है .

अक्षत बड़ों जैसा गंभीर चेहरा बनाकर कहता, “उसके पास उसकी मम्मी नहीं रहती न ! इसलिए उसे अकेलापन खा गया है ।”

“ही....ही.....ही......।” रोली व वह उसकी इस टिप्पणी पर हँस देते ।

तब समिधा को भी नहीं पता था । ये बात हँसने जैसी नहीं थी । शिरीष अब दसवीं कक्षा में आ गया था । वैसा ही दुबला पतला था ।

प्रतिमा शान से बताती, “भाभी ! इसकी ‘टेंथ’ की कोचिंग शुरू हो गई है । रात नौ, साढ़े नौ बजे लौटता है । घर में खाना भी नहीं खाता । दोस्तों के साथ कभी छोले भटूरे, कभी पिज़ा, कभी बर्गर्स उड़ाये जाते हैं । मुझे भी इसके रात के खाने की चिंता नहीं करनी पड़ती ।”

समिधा का माथा ठोंकने का मन होता है लेकिन ऊपर से मुस्करा कर रह जाती है । प्रतिमा शिरीष के स्वास्थ्य की तरफ़ से भी लापरवाह थी ।

एक दिन अक्षत ने स्कूल से लौटकर बताया, “मॉम ! चाचा की फ़ेमिली राजस्थान टूर पर जा रही थी न ।”

“हाँ, वे शिरीष की छुट्टियों में जाने वाले थे । तो?”

“मुझे शिरीष रास्ते में मिला था । कह रहा था अब टूर पर कोई नहीं जा रहा ।”

“क्यों ?”

“वह कह रहा था यार ! ‘पेरेन्ट्स’ के साथ भी कोई टूर पर जाया जाता है ?”

“इतना छोटा बच्चा ऐसा कह रहा था ?

“हाँ, वह कह रहा था मैंने तो पापा मम्मी से साफ़ मना कर दिया है मैं उनके साथ घूमने नहीं जाऊँगा। उसने उनसे कह दिया है कि उसे घुमाना है तो दोस्तों के साथ भेजें । गुस्से में चाचा चाची भी नहीं जा रहे।``

चार मंज़िल वाली इमारत में कविता के कोने वाले फ़्लैट की रोशनियों जैसे संकेतों में तब्दील हो चुकी हैं । उस घर के हर कमरे की रोशनी आठ बजे जगमगाती रहती है जबकि समिधा को पता है इस समय वह घर पर अकेली होती है। यदि बबलूजी की उस समय ड्यूटी नहीं होती तो सिर्फ़ एक कमरे में रोशनी दिखाई देती है।

अभय का छत पर देर तक घूमना या जल्दी नीचे उतरना इन रोशनियों से जुड़ा जा रहा है। वे दोनों जब घर से घूमने निकलते हैं तो लगता है वह नींद में चल रहे हैं। यंत्र चालित कविता के घर की तरफ खिंचे जा रहे हैं। उनका चेहरा सुन्न सा लगता है, आँखें अजीब तरह चढ़ी हुई । कभी-कभी वह खीझ जाती है, “ ये आप दुकानों के सामने के फुटपाथ पर क्यों चलने लगते हैं? सड़क पर क्यों नहीं चलते? ”

कभी कहती है, “ आप छत पर एक डेढ़ घंटा क्या करते हैं? ये सब क्या चल रहा है? ”

“ क्या चल रहा है? क्या अपनी मर्ज़ी से हवा में घूमने भी नहीं दोगी? ”

  “ कभी जल्दी चले आते हो, कभी देर तक घूमते हो। ऊपर किसी ने ट्रेप तो नहीं कर लिया? ”

  “ हाँ, हाँ . . . ऊपर किसी से इशारेबाज़ी कर रहे हैं, तुम्हें क्या ? ”

  अभय इतने मुँहफ़ट तो कभी नहीं रहें ,समिधा परेशान होती रहती है। इस औरत को कोई लिहाज़ नहीं है ? वह मन ही मन शर्म सी महसूस करती है। बबलू जी को कितना छोटा देखा हैं उन्हें पता लगेगा तो उनके दिल को कितनी गहरी चोट पहुँचेगी । अक्षत बाहर है, रोली की पढ़ाई का आख़िरी वर्ष है। ये बात कहे तो किससे कहे । एक दिन अचानक सीढ़ियाँ चढ़कर वह भी छत पर जा पहुँची। अभय उसे देखकर चौंक गये, “ तुम यहाँ ? ”  

  “ क्यों ? क्या मैं नहीं घूम सकती? ”

  “ नहीं, क्यों नहीं घूम सकतीं ? ख़ूब घूमो। ”

  कभी कोई रात को मेहमान आता तो रोली को छत पर अभय को बुलाने भेज देती कोई सुराग हाथ लग जाये लेकिन कुछ हाथ नहीं आ रहा था। वह स्वयं ऊपर जाती तो कविता के लिविंग रुम की लाइट जलती दिखाई देती । उनकी छत की तरफ़ का पर्दा हटा दिखाई देता बस।

वह रात में घूमते समय कविता की हरकतों से टोह लेने की कोशिश करती है कि कहीं उसका ये वहम तो नहीं हैं उसकी बिल्डिंग के नीचे से दस दुकानों की लाइन शुरू होती है। घर के सामान की, भाजी , फल, धोबी, टेलीफ़ोन बूथ, ज़ेरोक्स, स्टेशनरी वगैरह ।

कविता ने महिला समिति की मीटिंग्स में बताया, “मैं हर, समय सड़क पर नज़र रखती हूँ ।”

  “ तुम्हें समय कहाँ से मिल जाता है? ”

  “ ऐसे कामों के लिए समय निकालना पड़ता है। ”

समिधा का ख़ून खौल जाता है- यू चीप लेडी । कहाँ से गले पड़ गई है, लेकिन वह कुछ बोल नहीं पाती।

कविता ने कायदे से समझाया, “ मैंने फ़ोन इस तरह रखा है कि जब भी फ़ोन करें ख़िडकी से सड़क दिखाई देती है। ड्रेसिंग टेबल को भी ऐसे एंगिल पर रखा है कि जरा तिरछे होकर तैयार हो तो सड़क दिखाई देती है। ”

  “ ओ ऽ ऽ ऽ । ”

तभी वह नज़र रख पाती है कि अभय कब-कब सड़क से गुज़रते हैं। वह नोट करती है अभय का संगीत प्रेम इतना बढ़ गया है कि लंच के लिए घर आते ही रेडियो ऑन कर देते हैं। रात को वॉकमैन सुनते हुए घूमते हैं। शाम को कम्प्यूटर पर कोई गेम खेल रहे हों तो ‘विन अप’ में ही गाने बजते रहते हैं, “तौबा तुम्हारे ये इशारे” या ‘साँवरिया !साँवरिया !मैं तो हुई बावरिया ।’ बावरा कौन हो रहा है या उन्हें किन्हीं नीच हरकतों से बावरा बनाया जा रहा है। बबलू जी की शिफ़्ट ड्यूटी के कारण मिली बोरियत को दूर करने के लिए कविता अभय से खेल रही है। उन्हें मानसिक रूप से गिरफ़्त में लेती जा रही है। आस-पास रहने वाली मिसिज दास मिसिज नायर के पतियों की भी शिफ़्ट ड्यूटी रहती है। तो कविता कैसी औरत है ?

  X X X X

  लंडन से अचानक अक्षत का फ़ोन आया, नेट से उसे भारत में मुम्बई में ही एक अच्छी नौकरी मिल गई है। जैसे घर का रेशा-रेशा नाच उठा है । वह बिल गेट को मन ही मन धन्यवाद देती है, उनके ग्लोबलाइज़ेशन व इंटरनेट को धन्यवाद देती है । विदेश में बैठे-बैठे अक्षत ने भारत में नौकरी ढूँढ़ ली।

अक्षत को वह अहमदाबाद एयरपोर्ट से लेकर लौटे हैं। घर में जैसे उत्सव के अनार फूटने लगे । अभय के ऑफ़िस के मित्र अक्षत से मिलने चले आये । अक्षत को उनके बीच बैठा देख समिधा आँखों की कोरे गीली हो गईं। अक्षत ने अपनी जगह बना ली है। अक्षत को इस मुकाम तक पहुँचाने के लिए अभय वह उसने कितना श्रम किया है तभी विकेश का फ़ोन आ गया, “भाभी जी ! बधाई हो बेटा लंडन से आ गया है। प्रतिमा आज ऑफ़िस से हाफ़ डे लीव ले रही है। वह बुके लेकर अक्षत से मिलने आना चाहती है।``

  “क्या?” वह जानबूझकर बहाना बनाती है, “हम लोग व अक्षत बहुत थके हुए हैं प्लीज़ ! संडे को आइए। प्रतिमा को छुट्टी लेकर आने की क्या ज़रूरत है? ”

“ उसका भतीजा ‘फ़ॉरेन रिटर्न’ होकर लौटा है तो एक दिन की छुट्टी नहीं ले सकती क्या? ”

जब अभय को हार्ट अटैक हुआ था तब प्रतिमा को फ़ुर्सत नहीं थी ?

रोली तो अक्षत के सामान को खोल-खोल कर बौराई जा रही है। कभी टॉप व जीन्स पहन कर ‘कैट वॉक’ करने लगती है, कभी कॉस्मेटिक्स बॉक्स में से आई शैडो निकालकर पलकों पर ब्रुश चलाने लगती है। एक सेंट की शीशी निकालकर वह समिधा पर सेंट स्प्रे कर देती है। समिधा झुंझला जाती है, “मैं नहाने जा रही हूँ तो मुझ पर सेंट बर्बाद कर रही है ?”

“ये सेंट लगाकर नहायेंगी तो आपका नहाना भी ‘ इम्पोर्टेड ’ होगा ही ..... ही..... ही ।”

  अक्षत एक पैकेट थमाकर कहता है, “मॉम ! इसमें मेरी सभी कज़िन्स के लिए ‘आर्टिफ़िशियल ज्वैलरीज़ ’ है । ये नानी के घर के लिए कुछ सामान है। ये चॉकलेट किट्स हैं आप जिसे देना चाहें उन्हें दें ।”

इन चॉकलेट्स को आस-पास के पड़ौसियों से बाँटते हुए, उपहारों को अपने लोगों के शहर भिजवाते हुए समिधा निहाल हुई जा रही है । कविता की आँखें उतनी ही फैलती जा रहीं हैं ।

अक्षत की दादी उससे मिलने चली आई हैं लेकिन रास्ते में ठंड खाकर बीमार पड़ गई। उन्हें अस्पताल दाखिल करना पड़ा । बबलू जी व कविता उन्हें अस्पताल देखने जल्दी-जल्दी आने लगते हैं । अक्सर रात के आठ बजे आते हैं । उसी समय अभय या अक्षत खाना लेकर अस्पताल में जाते हैं ।

समिधा ने दोपहर में खाना खिलाने के लिए माँजी को बिठाकर उनके पीछे तकिया लगाया व उनके गले में फूलों वाला नेपकिन लगा दिया। फ़ोल्डिंग मेज़ उनके सामने रख दी व टिफ़िन खोल कर प्लेट में खाना डालने लगी।

  माँजी का चेहरा गंभीर था, “समिधा, तुम्हारी सहेली ये कविता कैसी औरत है?”

      “कविता मेरी सहेली तो बिल्कुल नहीं है। आपकी बीमारी का बहाना करके वह सम्बन्ध बढ़ाये जा रही है।”

  “बड़ी नकली औरत है । एक दिन मुझे दोपहर में देखने आई थी । पलंग के पास स्टूल पर बैठ गई और चश्मे से इसने जैसे मुझे घूरकर मुझे देखा, बस ऐसा लगा मेरे अंदर जैसे कुछ ज़ोर से हिल गया। उस समय इसकी आँखें बड़ी भयानक लग रही थीं ।”

“आपको भी ऐसा लगा ? मैंने भी दो-तीन बार ऐसा महसूस किया है। इसकी आँखें हर समय भयानक नहीं लगतीं बस ये जब आँखें गढ़ाकर देखती है तो झटका लगता है। अक्षत भी यह कह रहा था।”

  वह उनसे झिझक में कह नहीं पाती कि वह जब अभय से बात कर रही होती है तो एक तरफ़ से इसके आधे चेहरे पर आँखों की सफेद कोरों को देखकर उसे अनेक बार लगता है कि ये आँखें किसी शरीफ़ औरत की नहीं हो सकतीं । वह किस तरह की बदमाश है ? वह सोच नहीं पाती।

   उसी रात वह अभय के साथ खाना लेकर अस्पताल चली आई, देखा पलंग के सिरहाने की तरफ कविता व सोनल स्टूल पर बैठीं हैं। वे दोनों दूसरी तरफ़ बैठ गये। समिधा ने नोट किया कि सोनल ने बहुत हल्के रंग का सूट पहन रखा था, चेहरे पर बहुत मासूमियत नज़र आ रही थी। समिधा से रहा नहीं जाता, वह कह उठती है, “कविता ! तुम क्यों बार-बार अस्पताल आने की तकलीफ़ करती हो?”

“आप कुछ ‘हेल्प’ नहीं लेतीं । माँ जी का थोड़ा समय हमारी बातों से कटे तो अच्छा है न। आज सोनल जल्दी आ गई तो ये भी माँजी से मिलना चाहती थी।”

  अभय चहककर कहते हैं, “सो नाइस ऑफ़ यू । आप इतना ख़याल रख रही है । थैंक यू ।”

  कविता आदतन आँखें नचाकर कहती है, “इसमें थैंक यू की क्या बात है? हम घर के लोग ही हैं।”

  अब समिधा का ध्यान जाता है कविता ने बिल्कुल उसी के कुर्ते के प्रिन्ट जैसा पूरी बांहों का कुर्ता पहन रखा है। ये औरत हर चीज़ में नकल करके क्या साबित करना चाहती है – वह सोच ही नहीं पाती।

तभी वॉर्ड के मुख्य दरवाज़े से अक्षत हाथ में दवाई का पैकेट अंदर आया। समिधा का मन भर सा गया, अक्षत एक सजीला नौजवान लगता है । उसने समिधा के हाथ में दवाईयाँ थमाईं, “ दोपहर में दादी के लिए डॉक्टर ने ये दवाईयाँ लिखी थी। ”

  समिधा ने वे दवाईयाँ लेकर अलमारी का दरवाज़ा खोला वैसे ही कविता नज़ाकत से अपनी कुर्सी से उठ गई व उसने अक्षत से कहा, “आप यहाँ बैठिए ।”

अक्षत सकुचाता सा सोनल के पास वाली कुर्सी पर बैठ गया । सोनल ने उसे उसकी लंडन की नौकरी, यहाँ की नई नौकरी की बातें पूछने में उलझा लिया।

  दादी को डिस्चार्ज करवा कर अक्षत अहमदाबाद अपनी नई नौकरी को ‘ज्वॉइन’ करने चला गया।

  पीछे समिधा उधेड़ बुन में लगी रही कि अस्पताल में कविता क्यों चाह रही थी कि अक्षत सोनल के पास बैठे और सोनल उसे बातों में उलझा ले ?

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नीलम कुलश्रेष्ठ

ई –मेल-----kneeli@rediffamil.com

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