एपीसोड --- १०
घर में अभय की माँ है। अभय देर तक छत पर घूमते हैं। वह कुछ समझ नहीं पाती। रात को काम इतने होते हैं कि रात को अभय के साथ घूमना नहीं हो पाता । एक दिन शाम को सात बजे पीछे के दरवाज़े पर खट-खट होती है। दरवाज़ा खोल कर उसके मुँह से निकलता है, “कविता ! तुम ? आओ ।”
वह तने हुए आत्मविश्वास से डग भरती कमरे की तरफ चलती है, समिधा उसके पीछे चल देती है, चौकन्नी । अभय माँ को दवाई दे रहे हैं । कविता सधी आँखों से दोनों को नमस्ते करती है।
थोड़ी देर बातचीत करने के बाद उसने व्यंग भरी आँखों से समिधा को पूछा, “क्या बात है आजकल आप व भाईसाहब रात में घूमने नहीं निकलते ?”
“घर में शाम को काम रहता है।”
कविता की आँखों में एक हिंसक विजयी भाव को समिधा पहचान लेती है । फिर कविता पुराना आग्रह दोहराती है, “आप लोग बहुत दिनों से परेशान हैं। संडे को हमारे यहाँ डिनर लीजिए। उसके बाद तो ये सिलसिला चलता रहे तो अच्छा है।”
समिधा एक कड़ी दृष्टि से उसे देखकर मन ही मन बड़बड़ाती है, “यू चीप लेडी ! तेरे साथ हम डिनर लेंगे?”
माँ जी तपाक से कहती है, “समिधा ! ये ठीक कह रही है। मेरे कारण तुम कहीं घूमने नहीं जा पाती तो कम से कम इनके यहाँ डिनर पर चली जाओ ।”
“नहीं माँजी! आप ठीक हो जाइए तब देखेंगे।”
कविता बात बदलती है, “ये अच्छी बात है कि अक्षत व सोनल ‘ फ़्रेंडली’ हो गये हैं।”
“किसने कह दिया ? अक्षत सोनल दो तीन बार ही तो मिले है।”
“सोनल कह रही थी भैया नई नौकरी ज्वाइन करने गये हैं और वो उन्हें काँग्रेट्स भी नहीं कर पाई।”
“कोई बात नहीं मैं उसकी तरफ़ से अक्षत को बधाई दे दूँगी।”
“नहीं, नहीं, वह खुद ही ‘ग्रीट’ करना चाहती है। अक्षत का मोबइल नंबर दे दीजिए।”
“बाद में ढूँढ़कर भिजवा दूँगी।”
अभय अपने स्थान से उठते हैं और फ़ोन के पास रखी डायरी उठाकर बोले हैं, “इस डायरी में नम्बर लिखा है, अभी आपको देता हूँ।”
“थैंक्यू !” कविता ने फ़ोन नंबर वाला कागज अभय के हाथ से लेकर तनी हुई नाक से व तिरछी आँख जिस तरह से समिधा को देखा , समिधा कसकसा कर रह गई ।
सोनल कुछ दिनों बाद ही टेलर की दुकान पर अपने सूट का नाप देती मिल गई, “नमस्ते आँटी! कैसी हैं?”
“फ़ाइन।”
“अक्षत भैया तो अक्सर मुझसे कम्प्यूटर पर चैट करते रहते है।”
“तुम्हें होटल की नौकरी में इतनी फ़ुर्सत मिल जाती है।”
“हाँ कभी ‘ लंच आवर्स ’ या कभी ‘आफ़्टरनून’ में हम लोग चैट करते हैं।”
हे भगवान ! इस चीप फ़ेमिली को अपने घर से जितना दूर रखना चाहती है वह ऑक्टोपस जैसी एक-एक पैर रखती उसके घर को जकड़ रही है। वह घर आकर फ़ोन पर अक्षत पर बरस उठती है, “ अक्षत ! तूने बताया क्यों नहीं सोनल तुझसे चैट करती है ?”
“हाँ । मम्मी ! पहले उसने ‘ग्रीट’ करने के लिए फ़ोन किया था । मेरा ई-मेल आईडी माँग लिया ।”
“और तू उससे चैट करता रहता है ?”
“कभी ‘ऑनलाइन’ होता हूँ, तो वह चैट आरम्भ कर देती है ।”
“तू उससे क्यों ‘चैट’ करता है ?”
“आपको तो पता है सभी दोस्त आजकल ‘चैट’ करते हैं ।”
“सोनल तेरी दोस्त कब से हो गई ?”
“दोस्त माइ फ़ुट । बहुत डल दिमाग़ की लड़की है लेकिन आप उसे इतना महत्व क्यों दे रही हैं ?”
“बस, मैं घबरा गई थी । बाद में मेल करती हूँ ।”
उसी रात वह अक्षत को मेल भेजती है, “अक्षत ! ये परिवार व ये सोनल तेरे लायक नहीं है । इन्होंने न स्वयं, न ही किसी दूसरे परिवार द्वारा सोनल की तुझसे शादी करने के लिए ‘प्रपोज़ल’ दिया है । अपनी लड़की को चारा बनाकर तुझे घेर रहे हैं । ये सभ्य परिवार की निशानी नहीं है । इस कम पढ़ी-लिखी लड़की से तू बचकर रहना ।”
दूसरे दिन ही अक्षत का कम्प्यूटर पर उत्तर आ गया, “आप को मुझ पर विश्वास नहीं है ? मैं ऐसी डल लड़की पसंद करूँगा ?सोनल की मम्मी जैसी सौ माँये भी जाल बिछायें मैं फ़ँसने वाला नहीं हूँ ।”
समिधा के दिल से जैसे बोझ उतर गया । उधर रोली का केम्पस इंटर्व्यू में एक अच्छी कंपनी में चुनाव हो गया । समिधा उसके गले लगकर रो पड़ी । रोली ने अपनी उँगलियाँ बालों में फँसाते हुए उन्हें सहलाते हुए असमंजस में पूछा, “मॉम ! आप खुश नहीं हैं ?”
समिधा ने दुपट्टे से ही आँसू पोंछ लिए । “पगली ! खुश क्यों नहीं हूँ । बस अफ़सोस ये है कि तू पराई होने से पहले ही सूरत चली जायेगी ।”
“ठीक है, शादी करके उसे ही आपका घर जँवाई बना दूँगी ।”
“हा.....हा.......हा.....हा ।”
माँ जी अभय के भाई के घर दिल्ली चली गईं और रोली सूरत । हर औरत के जीवन के ये कैसे क्षण होते हैं जब अपने ही जाये नौकरी के लिए दूसरे शहर बस जाते हैं। कैसा छटपटाता है ये मन, कलेजा, चाक चाक होता रहता है । कितने बरसों, कितना कुछ तो इस घर में संजोते रहे, कोमल कोपलों को परवान चढ़ाया । अब वे अपनी राह पर चल पड़ी हैं । एक तिजोरी जो भर गई थी, अंदर की, बाहर की, अब खाली हो चली है । उसका दिल उसका आँचल खाली हो चला है ।
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यह चिढ़कर अभय पर सीधे ही प्रहार कर बैठती है, “अभय ये लुका-छिपी ठीक नहीं है । कविता चीप औरत है ।”
“तुम्हें क्या परेशानी है?”
“तुम इतने बेशर्म कभी नहीं थे ।”
“तुम भी तो इतनी शक्की कभी नहीं थी ।”
अभय एक हफ़्ते के टूर पर बाहर चले जाते हैं, वह कमर कस लेती है तभी कविता का फ़ोन आया, “भाईसाहब तो टूर पर गये हैं । आप एक दिन तो हमारे यहाँ आइए । वैसे भी आपके लिये टाइम पास करना मुश्किल हो रहा होगा ।”
“नहीं, मेरे बहुत से काम पेंडिंग पड़े हैं लेकिन एक दिन आऊँगी ज़रूर ।”
उसके घर जाकर अपने जैसे पर्दे कारपेट, कुशन कवर्स देखकर उसका दिल फिर से कुढ़ जाता है ।
सोनल जल्दी जल्दी भजिए तल लाती है । फिर चाय देकर अंदर चली जाती है .वह भजिए के साथ चाय पीते हुए हिम्मत नहीं कर पा रही बात कहाँ से शुरू करें फिर सोचती है जब वह उसके पति से इशारेबाजी कर सकती है तो उसे क्यों शर्म आनी चाहिए ?
वह बात को घुमाते फिराते हुए कहती है, “तुम मिसेज राजपूत को जानती हो?”
“हाँ, कभी-कभी मिलना हो जाता है ।”
समिधा के अंदर से पसीने छूट जाते हैं कभी किसी के लिए झूठ बोलने की आदत नहीं रही किन्तु और रास्ता भी कोई नहीं है । उसने अपने हाथ का कप मेज पर रख कर बायीं तरफ अपने पास बैठी कविता की आँखों में आँखें डालकर कहा, “उन्होंने अपनी एक पड़ौसिन को जिठानी मान लिया था लेकिन उनके ही पति से छत से इशारेबाज़ी करती थी ।”
वह सोचती है कविता चौंकेगी लेकिन हैरान है कविता अपनी काजल लगी आँखें फैलाये उसकी आँखों में आँखें डालकर देखे ही जा रही है, “ऐसा ऽ ऽ ऽ .....छी.......छी.....।”
“ये तो तुम्हें पता है मर्द की फ़ितरत, सड़क पर कोई झाड़ू लगाने वाली भी इशारेबाज़ी शुरू कर दे तो उनमें से बहुत से मर्द दुम हिलाने लगेंगे ।”
कविता ने उसे देखते हुए सिर हिलाया, “ये बात तो है ।”
कविता को न घबराते देख उसे ताव आ गया अब उसे कुछ न कुछ ऐसा कहना पड़ेगा कि ये ताव खा जाये, “”अब तुम्हीं सोचो । वह कितनी कमीनी व बदमाश औरत होगी, जो जिसे जिठानी मानती है उसके पति से इशारेबाज़ी करती रहती है ।”
कविता की आँखें उसके सामने फैली हैं जिनमें दूर-दूर तक न शर्म है, न लिहाज़, न हिचक, न डर । समिधा समझ जाती है बेसाख़्ता गालियाँ उसके मुँह से निकल गईं है उन्हें सुनकर वह प्रतिक्रियाहीन बैठी है । कविता कोई अनुभवी औरत है ।
कविता बात बदल देती है, “आप लोगों को सोनल की होटल की नौकरी नहीं पसंद थी । अब उसने वह नौकरी छोड़ दी है । अब वह ‘प्लेसमेंट एज़ेंसी’ में काम करेगी ।”
“हमारी पसंद से तुम्हें क्या मतलब ? जहाँ सोनल की इच्छा हो वहीं काम करे ।”
उसने चतुरता से बात बदल दी, “आप ही नहीं, हम लोगों के बहिन भाई भी कहते थे कि कहाँ होटल में नौकरी करवा रहे हो ।”
“तो ऐसा कहो न !”
समिधा के दिमाग़ का बोझ़ उतर गया है कविता को वह तो जताना चाहती थी कि उसकी इशारेबाज़ी की उसे ख़बर है। कविता एक घरेलू औरत है अब सम्भल जायेगी, अब ख़तरा टल गया है । अभय टूर से लौटकर छत पर घूमने भी जाते हैं तो दस पंद्रह मिनट में नीचे उतर आते हैं । उनका चेहरा सुस्त सा लटका हुआ होता है। समिधा बेहद खुश है, सोनल धन्यवाद ! तुझे नौकरी बदलने के लिए ।
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“पुरुष से कभी पैसा नथी माँगना जुइए ।” कोकिला ने एक हाथ कमर पर रखकर व एक हाथ नचाते हुए कहा ।
“क्यों?” अनुभा अपनी बाई कोकिला की बात पर हैरान हो गई, “कल तेरा बेटा बीमार था । तुझे उस डॉक्टर को दिखाने जाना था । मैं अगर घर पर नहीं थी तो कुशल से रुपये माँग लेती । दूसरे के घरों से क्यों रुपये माँगती रही ?”
“नहीं आँटी । पुरुस लोग से रुपया माँगना ठीक नहीं रहता ।”
“तू तो हमारे घर चार वर्ष से रह रही है । तुझ पर हमारा पूरा विश्वास है ।”
“न रे न ! पुरुष लोग कभी ग़लत मतलब निकाल ले तो ?”
“ओह !” अनुभा की हँसी निकल गई, “तू तो बहुत समझदार है ।”
“जिनगी में औरत को सब सोचना पड़ता है ।” कहती वह रसोई का दरवाज़ा खोलकर बर्तन बाहर निकालने लगी । अभी-अभी वह इस वर्ष की स्थापित दशा माँ की पूजा करते निकली है या कहना चाहिए पूजा के बहाने दशा माँ बनकर निकली है । आज स्थापना का पहला दिन है । उसने नई गुलाबी फूलों वाली नीली साड़ी उतारी नहीं है । माथे पर सिंदूर की बड़ी बिन्दी लगी हुई है । काजल लगी आँखों में एक आभा चमक रही है । पूजा में बैठने वाली सभी औरतें दान-दक्षिणा चढ़ाकर, प्रसाद लेकर चली गई है । कोकिला देवी के आसन से उतरकर घर-घर के झूठे बर्तन धोयेगी, कपड़े धोयेगी, झाड़ू कटका करेगी ।
कोकिला सच ही बहुत चतुर है । वह अक्सर उससे कहती है, “यदि तू पढ़ी-लिखी होती तो अच्छों-अच्छों के कान काटकर रख देती ।”
“ना रे!” वह झेंप जाती है ।
उसने एक दिन गर्म-गर्म पकौड़े की प्लेट अनुभा को दी , “आँटी ! मेरे हाथ के भजिए चखकर तो देखो।``
“हम लोगों ने तली चीजें खानी कम कर दी है । कल पार्टी थी, आज नहीं खायेंगे ।” उसने इस तरह मना किया कि उसे बुरा नहीं लगे ।
अगले हफ़्ते अनुभा हैरान रह गई देखा अजित व अजिता चटखारे ले लेकर गुजराती भजिए (गोटे) खा रहे हैं, उसने हैरान होकर पूछा, “ये कहाँ से आये?”
“कोकिला बेन दे गई हैं ।”
वह दबी आवाज़ में बोली, “बाई के घर की बनी चीज़ क्यों खा रहे हो ?”
“ये लोग इतने तो साफ़ सुथरे रहते हैं । उसका अपमान हम कैसे कर देते ? एक गोटा आप भी खाकर देखिए ।” अजित ने उसके मुँह में भजिया ठूँस दिया । उसका स्वाद चखकर वह बोली, “एक और लाना ।”
दोनों बच्चे हँस पड़े । कोकिला धीरे-धीरे अपनी बनाई स्वाद वाली गुजराती चीज़ों का स्वाद बच्चों को चखाती जा रही थी । कभी थेपले, कभी पूड़े, कभी ढ़ोकला । अब वह हर चौथे पाँचवे दिन कुछ न कुछ पका कर ले आती है । अनुभा डाँट लगा देती, “कोकिला ! कभी-कभी तो ठीक है लेकिन तू हर समय खाने की चीज़ें मत दिया कर ।”
“केम (क्यों)?”
“तुम लोग कितनी कड़ी मेहनत से अपने बच्चों को पढ़ा रहे हो । उन्हें खिलाया कर ।” वह सीधे नहीं कह पाती थी कि इस तरह उसका उसके घर में घुसते जाना उसे पसंद नहीं आता । वह कितना भी डाँट दे लेकिन आठ दस दिन में वह कुछ न कुछ खाने की चीज़ लेकर आ जाती । उसके समाजवादी बच्चे व कुशल उसकी डाँट पर ध्यान नहीं देते थे ।
अक्सर वह अनुभा पर मक्खन लगाती रहती है, “मैं तो सब जग्या (जगह) कहती हूँ । हमारी आँटी जैसी आँटी कोई कॉलोनी में नहीं है । स्कूल पढ़ाने जायेगी फिर घर का काम करेगी । न किसी से अधिक बातचीत, न झगड़ा । दूसरी आउटहोस वाली तो मुझसे जलती हैं ।”
“क्यों ?”
“वो बोलती हैं तेरी आँटी तो तुझे कैसी सारी रीत (अच्छी तरह) रखती है ।”
देवी स्थापना के चौथे दिन अचानक नीता की मित्र शुभ्रा अनुभा के यहाँ आई । शुभ्रा पत्रिकाओं के लिए कभी लेख व कवितायें लिखती रहती हैं । अनुभा नीता के माध्यम से ये रचनायें पढ़कर सुन्दर टिप्पणियाँ देती रहती हैं । शुभ्रा ने सोफ़े पर बैठकर कहा, “मैंने सोचा आपसे आज मिल ही लूँ । अपनी रचनाओं के लिए आपके ‘कमेन्ट्स’ पाकर मुझे बहुत अच्छा लगता है ।”
“बड़ा अच्छा किया । मैं भी आपसे मिलना चाह रही थी । बस स्कूल, घर के बीच समय निकल जाता है।”
अनुभा के घर में अगरबत्ती व धूपबत्ती की खुशबू को सूंघ कर शुभ्रा ने उससे पूछा, “कहीं पूजा हो रही है क्या?”
नीलम कुलश्रेष्ठ
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