एपीसोड --११
अनुभा ने शुभ्रा के प्रश्न का उत्तर दिया, “हाँ, बाई अपने आऊटहाउस में दशामाँ की पूजा करती है । चलिए उस खिड़की से देखें ।”
शुभ्रा और वे उठकर खिड़की तक आ गये । कोकिला औरतों के समूह के बीच खुले बालों से काँप रही है । उसकी आँखें चढ़ी हुई हैं । सिर घुमा-घुमाकर बीच मे चीखती, “बोलो दशामाँ नी जयऽ ऽ ऽ......”
शुभ्रा की हँसी निकल जाती है, “इस धन व शक्ति के समाज में कौन शुभ्रा पर ध्यान दे और कौन आपकी कोकिला पर ध्यान देता है ।”
“मतलब?”
“मतलब ये कि हम औरतें किसी देवी की आड़ में दुनिया को बताना चाहती है कि हम भी कुछ हैः यू नो, हमने एक लेखिका संगठन बना लिया है । हर महीने हम दस पंद्रह लेडीज़ मिलती हैं । वार्षिक कार्यक्रम के दिन हम लोग सरस्वती की फ़ोटो स्थापित कर अपनी रचनायें पढ़ते हैं । मुझे तो उस दृश्य में इस दृश्य में कोई अंतर नहीं लग रहा ।”
“ओ नो, आप ये क्या तुलना कर रही हैँ ?”
“क्यों, ये तुलना अच्छी नहीं लग रही ?” शुभ्रा बेसाख़्ता हँसती चली गई । “इन दोनों प्रोग्रामों में कुछ देर तो लोग हमारे ‘सो कोल्ड’ देवीत्व से प्रभावित होते हैं। हमें महसूस करते हैं । उसके बाद वही होता है हम खाना बनाने वाली, बच्चे पालने वाली मशीन भर रह जाती है । ”
“लेकिन ये सब कितना ज़रूरी है । सारा जीवन ही इस पर टिका है ।”
“इस सच को मानता कौन है ? आपको कभी-कभी ऐसा नहीं लगता । ये सब हम पर इतना लाद दिया गया है कि हमारा सारा वजूद पंगु यानि बोनसाई बनकर रह जाता है ।”
“कभी-कभी ऐसा ही लगता है ।”
“अनुभा ! अक्सर मुझे किसी प्रतियोगिता में बतौर जज या एक वक्ता के रूप में बुलाया जाता है । वहाँ से लौटकर अपने विशिष्ट होने के बोध से भरी हाथ का बुके लिए घर की मेज़ पर रख भी नहीं पाती कि पति चिल्लाते हैं कि ‘भई ! चाय कब मिलेगी ? बच्चे शोर मचाने लगते हैं, मम्मी, भूख लग रही है ।’ पांच मिनट बाद अपने ओजस्वी भाषण की एक भी पंक्ति याद नहीं रहती । कुछ क्षण बस आसमान छूकर वही डाउन टू धरती यानि चारों खाने चित ।”
“ही...ही....ही...।” अनुभा मुश्किल से अपनी हँसी रोकती है, “और आपके पति ऐसे समारोह से लौटकर क्या करते हैं ?”
“ऐसे समारोहों से लौटकर अकड़ते हुए घर में घुसते हैं । अव्वल तो वहाँ दिया बुके लाते नहीं हैं । ऑफ़िस में इन्हें रोज़ ‘नमस्ते साब’ के बुके मिलते रहते । हू वॉन्ट्स टु केअर ? यदि बुके ले भी आये तो घर में उन्हें प्यार से सहजने वाली पत्नी तो है । सोफ़े पर वे अकड़ कर बैठेंगे तो तुरंत चाय का प्याला उनके हाथों में आ जायेगा। जब तक वे सो नहीं जाँयेंगे तब तक उनकी पत्नी चकरघिन्नी सी घूमकर उनकी हर फ़रमाइश पूरी करती रहेगी। ”
“ वाऊ ! आप तो पूरा खाका खींच देती हैं। ”
“ हम बाहर उन्हीं की तरह नौकरी कर रहे हैं लेकिन उन जैसी अकड़ हममें पैदा हो ही नहीं पाती। हमारी अकड़ घर की देहरी पार करते ही छेद हुए गुब्बारे में से हवा जैसी फुर्र हो जाती है। ”
“ हा...... हा...... हा...... ।” अनुभा अब खुलकर हँसी। “ ये देवी स्थापना है काम की चीज़ । बाहर वालों व घर वालों पर कुछ रौब तो पड़ता ही है। मेरी एक दूसरी बाई ने भी कोकिला को देखकर अपने घर में दस दिन की दशा माँ की स्थापना आरम्भ कर दी है। ”
“ क्यों ? ”
“ वह कहती है उसका पति देवी के डर से बीस पच्चीस दिन उसकी पिटाई बंद कर देता है। ”
“ ओह ! धर्म का ये नायाब नुस्खा है। ”
अनुभा भी कल की बात का खाका खींचना शुरु कर देती है, “ कल की बात बताती हूँ अंजु तेज़ कदमों से घर में आई थी और कहने लगी आजकल मेरी मार पिटाई बंद है। जब मुझ पर दशामाँ आती है तो मेरा मिस्टर एक कोने में बैठा मुझे देखता रहता है। मैंने उससे पूछा, कि देवी के डर से तेरी हर बात मानता होगा ? तो वह करने लगी कि मानता तो है लेकिन कभी-कभी गड़बड़ कर जाता है। मैं कहूँगी देवी के लिए ठंडा दूध ला, तो गर्म करके ले जायेगा। कल मैंने उससे बाज़ार में कहा कि नारियल ख़रीद कर दो तो उसने मना कर दिया । जैसे ही वह साइकिल पर बैठा देवी ने साइकिल घुमाकर उसे गिरा दिया। ”
“ अच्छा? ”
“ देवी ने उससे कहा कि मंदिर में इक्कीस रुपये चढ़ा तो उसने ग्यारह ही चढ़ाये। देवी को इतना गुस्सा आया, इतना आया.... । ”
“ कितना? ”
“ इतना कि देवी ने उसे ‘तड़ाक’ से चाँटा लगा दिया। उसका गाल लाल हो गया। ”
“ लेकिन देवी माँ उसे मारने कहाँ से आ गई थीँ ? ”
“ अंजु मासूमियत से बता रही थी कि देवी उसमें समाँ गईं थीं। ”
“ हा.... हा.... हा.... हा.... । ” हँसते – हँसते शुभ्रा का बुरा हाल हो गया।
हँसी रोकते हुए अनुभा ने पूछा, “ आप अमृताबेन को जानती होंगी? ”
“हाँ, एक समारोह में मैंने उन्हें देखा था। नीता उनसे मिलती रहती है। वे बहुत अच्छी कवयित्री है। बचपन के कोई गलत ऑपरेशन के कारण वे अन्न का एक भी दाना नहीं पचा पातीं बस ब्लैक कॉफ़ी पर ज़िन्दा हैं।”
“मैं भी नीता के साथ एक बार मिली हूँ। इन पाखंडी पूजा-पाठ वालियों को देखती हूँ तो बहुत गुस्सा आता है । आध्यात्मिक शक्ति क्या होती है ये तो उन्हें देखकर ही पता लगता है। योग, ध्यान ही उनकी शक्ति है।”
“वो पंडितजी का क्या किस्सा था?”
“वो इलाज के लिए पास के गाँव गई थीं। वे पंडित जी करोड़ो की जायदाद वाले मंदिर के महंत थे । उन्होंने अमृताबेन से वायदा किया था कि जब भी वे उन्हें अपने शहर बुलायेंगी वे तुरंत आ जाँयेंगे। एक बार अमृता बेन बहुत बीमार पड़ गई। घबराकर उन्होंने पंडितजी को ख़ब र की। वे तुरंत उनके घर आ गये। उनकी बीमार हालत देखकर प्रण किया कि जब तक वे ठीक नहीं होंगी वे वापिस नहीं जाँयेंगे। उनकी माँ की मृत्यु के बाद पंडित जी ने इनकी देखभाल की।”
“फिर कब वापिस गये?”
“कभी भी नहीं। तीस वर्ष उसी मकान में रहे। मंदिर से लोग उन्हें बुलाने आते रहे लेकिन करोड़ों की जायदाद वाले मंदिर का ऐशो आराम भी उन्हें डिगा नहीं सका। तीस वर्ष बाद उनकी मृत्यु हुई। उन्होंने ही अमृताबेन को हिन्दी सिखाई, बृजभाषा सिखाई।”
“अब?”
“नीता को हमेशा लगता था कि वे अकेली कैसे जीयेंगी लेकिन अमृताबेन ने अपने तिमंज़िले मकान में बीमारी की हालत में जीकर दिखा दिया है। जानती हो दुनिया कितनी हैवान है। ”
“क्या हुआ ?”
“बिल्डर्स उनके तिमंजिले मकान पर आँखें गढ़ाये बैठे हैं। वे मकान बेचना नहीं चाहतीं। उनकी बाजू वाली इमारत का मालिक अपनी इमारत बेचना चाहता है। बिल्डर्स कहता है कि दोनों इमारतें साथ ही खरीदी जा सकती हैं।”
“अमृताबेन को पुराना घर बेच देना चाहिए।”
“ वे उसी घर में बसी अपनी माँ की पंडित स्मृतियों के साथ जी रही हैं । इतनी बीमार, अन्न का एक भी दाना नहीं खाने वाली स्त्री को भी कोई चैन से नहीं जीने देता । पड़ौस की इमारत के मालिक ने उनके सोने वाले कमरे की दीवार पर हथौड़ी से चोट दी जिससे वह टूटकर दीवार से सटे पलंग पर सोती अमृताबेन पर गिर जाये लेकिन उस धक्के से अमृताबेन का एक सम्मान पत्र उन पर आ गिरा जिससे वह टूटी ईंटों से बच गईं । उन्होंने अपने पड़ौसियों को ये बात बताई। तब उनके उस दुष्ट पड़ौसी ने अपनी नीच हरकतें बंद कीं। ”
ये दुनियाँ कैसे दुष्टों से भरी हुई है ? एक दिन अनुभा मिसिज दत्ता के साथ क्लब से लौटते सोच रही है। पूर्णिमा दत्ता का चेहरा कुम्हलाया हुआ है, परेशान है। एक भय की परछाईं से उनकी आँखें आक्रांत हैं, “ भाभी जी ! मैं ये बात सिर्फ आपसे ही पूछ रही हूँ। इस कॉलोनी में कैसे लोग रहते हैं, हम तो अभी नये आये हैं। ”
“लोग तो अच्छे ही रहते है, लेकिन दुष्ट किस्म के लोग सब ज़गह पाये जाते हैं।”
“आप मेरी बात का विश्वास करेंगी?” वह हल्के से उसका हाथ पकड़ लेती है।
“हाँ, हाँ क्यों नहीं ?”
“मेरा एक पेटीकोट गायब हो गया था। तीन दिन बाद वह कम्पाउण्ड के पेड़ से लटक रहा था। अक्सर मेरे कपड़े ऐसे ही गायब होने लगे हैं।”
“अरे ?”
“हाँ, कभी बरामदें से उड़द की दाल व हल्दी पड़ी मिलती है, कभी खिड़की पर कटे हुए बाल ।”
“तो कोई आपको डराने की कोशिश कर रहा है।”
“ये तो मैं भी समझती हूँ । भूत वगैरहा कुछ भी नहीं होता।”
“जहाँ तक मैं समझती हूँ आपकी लेन में तो डॉक्टर्स है, एजुकेटेड लेडीज़ है।”
“हाँ, मैं भी नहीं सोच पा रही। कभी-कभी मैं इतनी ‘टेन्स’ हो जाती हूँ कि लगता है कि पागल नहीं हो जाऊँ। दत्ताजी से कहती हूँ तो वह मेरी बात हँसी में उड़ा देते हैं । वैसे भी आदमी बीवी को कुछ नहीं समझते।”
“ओ नो, ऐसा मत सोचिए किसी बदमाश के कारण आप क्यों पागल हों ? कहीं आपकी आऊट हाउस वाली तो ऐसा नहीं कर रही?”
“भाभी जी! मुझे उस पर भी शक होता है।”
“आऊट हाउस में रहने वाली बाई एक कमरे में अपने परिवार के साथ रहती है। उसके व हम लोगों के रहन-सहन में ज़मीन आसमान का अंतर होता है। वह धीरे-धीरे मन में ईर्ष्या करने लगती है।”
“भाभी !आप सच कह रही हैं मैं बहुत हिम्मत वाली हूँ लेकिन इन हरकतों से अजीब दहशत से घिरी जा रही हूँ।”
“ आप पहले ‘कन्फ़र्म’ करिए । यदि वह बाई ऐसा कर रही है तो उसे तुरंत निकाल दीजिए। आपने प्राचीन कथायें तो सुनी होंगी कि नौकरानी किसी तरह राजा को बस में करके रानी बनने के ख़्वाब देखा करती थी।कभी सारा परिवार ही मालिक को घेरने में लग जाता है। ये अपनी छोटी बेटियों को भी चारा बनाने में नहीं हिचकते । ”
“हाय ! ऐसा तो मैंने सोचा ही नहीं था। मैं ये सोचती थी कि वह क्यों मुझे तंग करेगी ? उसकी बेटी भी तो हिम्मत वाली है। बिन ब्याही माँ बनकर अपनी माँ के साथ रहकर अपना बच्चा पाल रही है। ”
“ ओ बाप रे ! इन ‘वीमेन लिब’ वाली औरतों से बचिए । इन्हें तुरंत निकल दीजिये ”
श्रीमती दत्ता अगले माह की मीटिंग के बाद क्लब के लॉन से साथ हो लीं हैं। सड़क पर चलते हुये एकांत होते ही लौटते हुए ख़बर देती हैं, “ मैंने वह बाई निकाल दी है। मेरे घर में अब अजीब घटनायें बंद हो गई हैं। मेरा बेटा जगन आठवीं में पढ़ रहा है । दूसरी बाई को अपने सामने ही काम करवाती हूँ । मैं घर में नहीं हूँ तो उसे घर में आने की इजाज़त नहीं है ।”
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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