दह--शत - 12 Neelam Kulshreshtha द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • तेरी मेरी यारी - 1

      (1)ग्रीनवुड पब्लिक स्कूल की छुट्टी का समय हो रहा था। स्कूल...

  • Pankajs Short Stories

    About The AuthorMy name is Pankaj Modak. I am a Short story...

  • असली नकली

     सोनू नाम का एक लड़का अपने गाँव के जंगल वाले रास्ते से गुजर र...

  • मझली दीदी

                                                   मझली दीदी   ...

  • खामोश चाहतें

    तीन साल हो गए हैं, पर दिल आज भी उसी पल में अटका हुआ है जब पह...

श्रेणी
शेयर करे

दह--शत - 12

एपीसोड ----१२

जब उम्र ढ़लान की तरफ बढ़ती हैतो बहुत कुछ पीछे छूटता चला जाता है । पहले जैसी ऊर्जा, संग साथ के परिवार, कुछ मृत सपने, कुछ चंचलता, कुछ उत्साह वगैरहा, वगैरहा । कॉलोनी में उनके पारिवारिक मित्रता वाले परिवार बचे ही नहीं है । यों तो जान पहचान बहुत से हैं । एक ही विभाग के केम्पस कॉलोनी में बहुत सी मित्रतायें विचित्र होती हैं । कुछ लोगों से सड़क पर, अस्पताल में ग्राउंड में खड़े-खड़े इतनी बातें होती है कि दोनों के परिवार के बारे में बहुत जान लेते हैं लेकिन घर आना-जाना नहीं होता । नीता व अनुभा समिधा की मित्र हैं लेकिन साल भर में सिर्फ़ तीज के नृत्य की रिहर्सल के समय ही एक-दूसरे के घर आना जाना हो पाता है । बबलू जी के परिवार से थोड़ी सी पारिवारिक मित्रता है । हो सकता है कविता ने समय काटने के लिए इशारेबाज़ी शुरू कर दी हो । घरेलु महिला है. उसे घर जाकर घुमा फिराकर जता आई है कि वह ये सब जानती है । अब वह हिम्मत नहीं करेगी । वह बबलू जी के साथ उनके घर आने की भी हिम्मत नहीं कर रही ।

उसको ये बात जताने के डेढ़ महिने बाद वे व अभय हल्की-हल्की बूंदों में भीगती ग़ीली सड़क पर निकल आये हैं। हल्की-हल्की बूंदों में भीगना व सरसराती भीगी हवाओं में चलना उसे बेहद भला लगता है। तभी एक दुकान से राजुल हाथ में कुछ सामान लेकर निकलता है। समिधा को चैन नहीं पड़ता, वह उसे पुकार लेती है, राजुल ऽ ऽ ऽ....।

“आंटी नमस्ते । कैसी हैं?”

“फ़ाइन !”

“राजुल ! क्या बात है बबलू जी व कविता बहुत दिनों से हमारे घर नहीं आये हैं ?”

“वे आ नहीं पाये । अजमेर में दादाजी एक शादी में गये थे। वहीं सोफ़े पर बैठ-बैठे बेहोश हो गये। पापा उन्हें देखने जाते रहते हैं। अभी कल ही वहाँ से लौटे है।”

“ओह !”

“उन लोगों से कहना हम लोगों ने याद किया है। घर आयें।”

कविता का इतवार को ही फ़ोन आ जाता है। “नमश्का ऽऽ र जी । आप लोग कहीं बाहर तो नहीं जा रहे? हम लोग आना चाह रहे हैं ।”

“ आप लोग आ रहे हो तो हम कहीं नहीं जायेंगे। ” समिधा को पहली बार ध्यान आता है कि उसने उसे बताया है तो जिठानी लेकिन उसे न ‘भाभी’ कहती है न ‘दीदी’।

बबलू जी के साथ बैठी कविता अपने को सहज दिखा रही है लेकिन उसकी आँखों में एक चौकन्ना सहमापन है। ये दोनों उसके हाथ की रुमाली सिंवई खाकर बेहद खुश हो जाते है, “वाह ! आपने क्या सिंवई बनाई है।”

“इन्हें लखनऊ के मुस्लिम बनाते हैं ।”

“मुझे तो आपकी बनाई होली की काँजी बहुत पसंद आई थी।”

“यही तो चीज़े हैं जो यू.पी. से हमें जोड़े रहती हैं। आजकल तो हर प्रदेश की चीज़े खाने के लिए हर स्थान पर मिल जाती हैं। पच्चीस वर्ष पहले इनके गोआनी मित्र का बेटा हमारे घर आया था। वह हमारे घर में आलू की कचौरी खाकर आश्चर्य करने लगा था।”

“ क्यों ?” कविताने आँखें नचाई ।

“उसने कचौरी को गोल -गोल घुमाया और पूछने लगा कि आंटी आपने पूरी में बटाटा (आलू) कैसे भरा है?”

“ हा... हा... हा... हा ।”

समिधा बार-बार जान बूझकर अपनी आँखें कविता की सहमी आँखों में गढ़ा कर देखती रहती है । कविता बार-बार आँखें झुका लेती है। घर से चलते समय वे दरवाज़े पर खड़े होकर बात करते रहे। कविता सड़क पर खड़ी हो गई, एक चौकन्नेपन के साथ । समिधा उसके इस हल्के भय का मज़ा ले रही थी, “ इतनी क्या जल्दी है? ”

“ थोड़ी कुकिंग बाकी है। ”

“ ओह!” समिधा निश्चित थी सोनल जल्दी घर आ जाती है अब उसे चिन्ता नहीं करनी चाहिए। आजकल की ‘गेट टुगेदर’ के कल्चर में पारिवारिक सम्बंध नाममात्र के ही मिलते हैं। हर कोई ऐसी जगह कहेगा, “कभी घर आइए न!”

दूसरा भी कहेगा, “आप भी आइए न!”

“ज़रूर।”

लेकिन पहले और दूसरे का मिलना अगले ‘गेट टुगेदर’ में ही होगा। हर कोई इत्मीनान से बैठकर मन की गरिमा को महसूस करना चाहता है। लेकिन सबको जिन्दगी की ज़रुरतें अपने में उलझाये रहती हैं, दौड़ाती रहती हैं। वह महिला समिति में इसलिए भी जाती है कि पता तो लगे कॉलोनी में कौन-कौन सी महिलायें रहती है।

जुलाई में इस मीटिंग में सचिव घोषणा करती हैं, “तीज के फंक्शन के लिए कृपया आप लोग अपने नाम दें।”

उत्साही सदस्यायें नाम देना शुरु कर देती हैं। वह चीफ़ विजिलेंस ऑफ़िसर की पत्नी मीनल से पूछती है, “आप चुप कैसे हैं?”

“ अभी सोचा नहीं है। ”

“ बहुत फ़्रेश लग रही हैं। ”

“ हम लोग साउथ टूर पर गये थे। ”

“ओ ऽ ऽ .....।” वह कह नहीं पाती तभी दक्षिणी भारत के समुद्री तट पर झूलते नारियल के वृक्षों की आपके चेहरे से सुगंध आ रही है ।

उपाध्यक्ष चतुर्वेदी मीनल के पास ही अक्सर बैठती है । दोनों उच्च अधिकारियों की पत्नियाँ हैं । बाकी तेज़ तर्रार स्मार्ट अधिकारियाँ की पत्नियों का ग्रुप अपने में मस्त रहता है। वे हर समय पार्लर से निकल कर आई प्रतीत होती हैं । महँगे लिबास, बेलौस अदायें जिनसे हॉल जगमगाता रहता है । मीनल के निदेशन में जिन्होंने फ़ैशन परेड की है, वे उनसे पूछ भी नहीं रहीं कि वे इस बरस क्या करना चाहती हैं । ये तय हैं यदि मीनल ने कोई प्रोग्राम दिया तो वह ‘सुपरहिट’ होना है, फिर उन सबके बाकी प्रोग्राम फ़ीके रहने ही हैं । अजीब राजनीति है ।

चतुर्वेदी समिधा से पूछती हैं, “आप क्या कर रही हैं ?”

“अभी सोचा नहीं है । वैसे उम्र तो कुछ करने की गुज़र चुकी हैं । हर बरस सोचते है अब प्रोग्राम देना बंद कर दें लेकिन फिर दिल करता है इस आखिरी बरस और सही ।

“आपसे तो हम ‘एनकरेज’ होते हैं।”

“इट्स माइ प्लेज़र।”

मीटिंग के अंत में समिधा, नीता, अनुभा व कविता अपनी नाश्ते की प्लेट लिए कुर्सियाँ पास-पास खिसका लेती हैं। कविता को उसने बहुत दिनों बाद देखा है। वही आत्म विश्वास से भरी तनी नाक से बात करती हुई। उसे देखकर झुरझुरी होती है कि अपने पति से इशारेबाजी करने वाली उस स्त्री को अपने आस पास कैसे सहन कर रही हैं, ख़ैर..... अब क्या हिम्मत करेगी?

नीता पूछती है, “इस बार हम लोग कौन सा डांस करें?”

कविता गर्दन झटक कर कहती है, “मैंने सुना है आप लोगों ने एक नृत्य नाटिका तीज के प्रोग्राम में की थी। मेरा बहुत मन है हम लोग नृत्य नाटिका करें. बचपन में तो स्कूल में मैंने भी शकुंतला दुष्यंत की नृत्य नाटिका की थी।”

समिधा कविता का चेहरा पढ़कर पहचान लेती है कि वह झूठ बोल रही है। नीता सुझाव देती है, “अपन पुरानी नृत्य नाटिका ही कर लेते हैं। उसका कैसेट संभाल कर रखा हुआ है। ”

अनुभा चिढ़ जाती है, “हमें वह नहीं करनी, समिधा राधा बनी नृत्य करती रहती है । मैं गोपी बनी बुद्धू की तरह खड़ी रहती हूँ ।”

नीता उसे चढ़ाती है, “इस बार तुम ही राधा बन जाना।”

समिधा बीच बचाव करती है, “अनुभा ! तुम ‘क्लासीकल डांस’ जानती नहीं हो। राधा का रोल सम्भाल नहीं पाओगी। चलो छोड़ो कोई ग्रुप डांस कर लेंगे ।”

“ नहीं, नहीं मेरा तो नृत्य नाटिका करने का मन है। ” कविता अपनी उम्मीद ज़ाहिर कर ही देती है, “आप लोग चिंता मत करिए। मैं राधा बन जाऊँगी। वैसे भी मैं उम्र में छोटी हूँ। ”

नीता बुरा मुँह बनाती है, “समय ही कहाँ बचा है ? तुम इतना जल्दी सीख नहीं पाओगी । समिधा ही राधा बनेगी । मैं कृष्ण व तुम दोनों सखियाँ ।”

“ठीक है ।” कविता का चेहरा लटक जाता है । वह बात बदलती है, “आप बता रही थी कि इसे गुजरात की कोई फ़ेमस आर्टिस्ट प्रेजेन्ट करती थीं ।”

“हाँ, वैसे ये बृज साहित्य में से ली गई है जिस में कृष्ण लिलहारी का वेष धारण कर राधा के मन में अपने प्रेम की थाह पाने जाते हैं ।”

“लिलहारी क्या होता है?”

---------------------------

नीलम कुलश्रेष्ठ

ई –मेल---kneeli@rediffamil.com