दह--शत - 13 Neelam Kulshreshtha द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

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दह--शत - 13

एपीसोड ----१3

“मैं लिलहारी शब्द का अर्थ बतातीं हूँ .हाथ पैर या शरीर के किसी भी अंग पर गोदना गोदने वाली को लिलहारी कहा जाता है । इस नृत्य नाटिका में कृष्ण लिलहारी का वेष धारण करके राधा के मन में अपने प्रेम की थाह लेने उसके गाँव जाते हैं । अंत में जब उन्हें राधा के प्रेम की गहराई का पता लगता है स्त्री वेष छोड़ असली वेष में आ जाते हैं फिर शुरू होता है उन्मत रास ।”

अनुभा बताती है, “और प्रतिभा पंडित की नृत्य नाटिका को नीता ने `शॉर्ट’ कर के लिखा है ।”

नीता खिलखिलाती है, “उनकी एक डेढ़ घंटे की नृत्य नाटिका को मैंने पंद्रह मिनट का कर दिया । यदि प्रतिभा दीदी स्वर्ग से अपनी नृत्य नाटिका की ये दुर्गति देख लें तो बेहोश होकर सीधे पृथ्वी पर आ गिरे ।”

“हा......हा.....हा.....हा.....।”

समिधा बोल पड़ी, “हम लोग ‘हाऊस वाइव्स’ हैं कोई कलाकार थोड़े ही हैं । तीन वर्ष पहले हमने इसे किया था. अपनी अध्यक्षा तो इतनी ख़ुश हो गईं अगले वर्ष भी वही करवाना चाह रही थीं ।”

“लेकिन आपने ये लिखी कैसे थी ?”

“मुझे उस समय की सचिव मिसिज़ प्रकाश ने प्रेरित किया था । शी वॉज़ ए वेरी टेलेन्टेड लेडी । उन्होंने मुझसे कहा था कि हमारे तो दो वर्ष में ट्रांसफ़र होते रहते हैं । हम तो बस इसी विभाग के होकर रह गये हैं । ज़िन्दगी में कुछ नहीं कर पाये । आप तो जॉब करती हैं । अनेक एन जी ओज़ से कॉन्टेक्ट रखती हैं तो क्यों नहीं कुछ नया करतीं ? बस उन्होंने मुझे झाड़ पर चढ़ा दिया । अपन वैसे तो आलसी प्राणी हैं लेकिन कोई चने के झाड़ पर चढ़ा दे तो कुछ भी कर सकते हैं । बस जोश-जोश में इसे लिख डाला । कुछ तो याद था । कुछ कल्पना से लिखा । तब मुझे पहली बार पता लगा जो लेडीज़ जीवन में कुछ कर गुज़ रना चाहती है, वे बंगलों से साड़ी ज़ेवर पहनकर भी खुश नहीं रहती । पति के दो तीन वर्ष के ट्रांसफ़ र के कारण कुछ कर ही नहीं पातीं । शी वॉज़ ए स्टेट चैम्पियन ऑफ़ टेनिस । इन लोगों के लिए छोटे-मोटे स्कूल में टीचिंग ही बचती है ।”

“ओ ऽ ऽ ऽ........।”

अनुभा कहती है, “नीता याद है तीज से एक दिन पहले तक हमारी गाई ये नृत्य नाटिका रिकॉर्ड तक नहीं हुई थी। उस दिन क्लब में इलेक्ट्रिशियन आया नहीं था। सोनी का नया म्यूज़िक सिस्टम ऑपरेट करना कोई जानता नहीं था। हम सब रोने को हो आये थे। ``

“ हाँ, याद है हम सब कितने ‘टेन्स’ हो गये थे। ”

बहु ऽ ऽ ऽ त । वह दिन तो याद रहेगा। तब तेरे बेटे ने आधा घंटा सिस्टम पर मेहनत करके इसे रिकॉर्ड किया था।”

***

अनुभा के घर पहली प्रेक्टिस रखी जाती है कोकिला बेन दरवाज़े पर खड़ी होकर कहती है, “ आप लोग ड्रांस बोत अच्छा करती हो। ”

“ तू भी सीख ले। ”

“ सरम आती है। ”

“ तेरी सरम हम निकाल देंगे। ”

“ ना रे ! मेरा मिस्टर कहता है तू भी आँटी से ड्रांस सीख ले। ”

“ हा..... हा...... हा......। ”

अनुभा प्रेक्टिस के बाद उन्हें बाहर छोड़ने आती है। कविता सड़क पर जाकर ख़डी हो गई है। समिधा रुक कर अनुभा के बच्चों के बारे में पूछने लगती है। उसे लगता है उसकी पीठ पर कुछ गिजगिजा-सा, कुछ गलीज़ सा घूम रही हैं, रेंग रहा है। वह चौंक कर पीछे घूमती हैं, देखती है सड़क पर खड़ी कविता की दो काजल भरी काली आँखें उसकी पीठ पर फिसलती, एकटक घूरे जा रही हैं। समिधा के अचानक घूमने से वह सकपका गई । चेहरे पर ज़बरदस्ती मुलामियत लाकर कहती है, “चलिए देर हो रही है। ”

समिधा का इस अजीब अनुभव से गला चटकने लगता है। वह चुपचाप कविता के साथ चलने लगी, कुछ सतर्क सी।

दूसरे दिन प्रेक्टिस समिधा के घर ही होनी है। समिधा ने बरामदे की डाइनिंग टेबल एक कोने में करके, उस पर टू इन वन रखकर तैयारी कर ली है। सबसे पहले कविता पहुँची झींकती हुई कल रात की पार्टी का किस्सा सुना रही है कैसे कोई उनका परिचित स्कूटर ले गया जिसकी डिक्की में उनके घर की चाबी थी, उसे लौटने में बहुत देर हो गई। रात को वो बारह बजे घर लौटे.... वगैरहा। समिधा ये सुन कहाँ रही हैं, उसका मस्तिष्क एकाग्र होकर हल्की नारंगी साड़ी में लिपटी कविता को देखे जा रहा है, देखे जा रहा है, कविता सामने खड़ी है लेकिन उसे लग रहा है वहाँ कुछ नहीं है। जब दो शरीर आमने-सामने खड़े हों तो उनके होने का अहसास मन ग्रहण करता है लेकिन ये क्या? समिधा ‘ट्राँस’ में है, कविता सामने है, उसकी बाह्य शरीर की रेखायें दिखाई दे रही हैं लेकिन सामने लग रहा है अंदर खाली है, बिल्कुल खाली। समिधा सिहर जाती है, कविता चीज़ क्या है?

“ कहाँ खो गई? ” कविता पूछती है।

“ कहीं नहीं ।” तभी कॉल बेल बज उठती है

नीता धड़धड़ाती अंदर आई। उसके पीछे है अनुभा उसने मेज़ पर पर्स रखकर कहती है, “ तुम दुष्टों के कारण ऑफ़िस से बंक मारना पड़ गया। ”

“ अच्छा ! जैसे तुम्हें तो डांस में रुचि नहीं है? ”

“ तुम दुष्टात्माओं को बुढ़ापे में डाँस कर बिना चैन ही नहीं पड़ता। मेरा बेटा कहता है कि आप लोग तो ‘ढोही डाँस’ करती हो। ”

“ हा..... हा...... हा......। ”

“ ये ढोही क्या होता है ? ” कविता पूछती है।

“ मतलब बुढ्ढी। ”

“ ओ ऽ ऽ ऽ.....। ”

“ उसे तो गर्व करना चाहिए कि बुढ्ढी होकर भी हममें जान है। ”

समिधा ने अपने मन की शक्ति एकत्रित करके अनुभा व नीता को कुछ क्षण घूरा । उसे साफ़ लग रहा है सामने दो भरे-पूरे इंसान खड़े हैं। कविता के लिए कहीं उसके मन का वहम तो नहीं है, वह सोचना छोड़कर पैरों में घुंघरू बाँधने लगती है। घुँघरू बाँधकर वह आऊटहाऊस बाली बाई को आवाज़ देती है, “वर्षा बेन ! चाय का पानी चढ़ा दो।”

थोड़ी देर बाद अनुभा पूछती है, “संडे को कितने बजे प्रेक्टिस रखें?”

नीता तपाक से कहती है, “संडे को मैं तुम लोगों को अपनी जान नहीं खाने दूँगी।”

समिधा बोली, “मुझे चार से छः कोचिंग में पढ़ाने जाना है।”

कविता इठलाई, “संडे को मैं भी बहुत बिज़ी हूँ।”

“ क्यों?”

“मुझे ब्यूटी पार्लर जाना है।” फिर वो समिधा को देखते हुए आह भरती है, “आप तो अपने काम से बाहर निकलती रहती हैं। भाई साहब के साथ घूमती हैं।”

“तुम भी तो बबलू जी के साथ दोपहर में घूमती हो ।”

“ कभी शॉपिगं के लिए जाना ही पड़ता है। नहीं तो ये रात में ड्यूटी करते हैं। दोपहर में सोते हैं। शाम को हसबैंड के साथ घूमने जाओ तो और ही मज़ा है।”

समिधा को उसकी ये आहें चुभती सी लगती हैं। वह सुझाव देती है, “महिला समिति द्वारा ‘स्ट्रीट चिल्ड्रेन’ के लिए पढ़ना-लिखना सिखाया जाता है। तुम बोर होती हो सप्ताह में दो तीन बार उन बच्चों को पढ़ाने चली जाया करो समिति आने जाने के लिए गाड़ी देती है। मैं पहले भी तुम्हें बता चुकी हूँ।”

“मुझे इसमें रुचि नहीं है।”

तो उसे किस काम में रुचि है- समिधा फिर सोचती रह जाती है।

अब तय होता है कल शाम छः बजे नीता के घर प्रेक्टिस होगी। कविता तुरन्त कहती है, “मैं आपके घर कल छः बजे आ जाऊँगी। वहीं से नीता के घर चलेंगे।”

“ओ.के.।”

दूसरे दिन शाम को समिधा बेचैन होने लगती है, पहले कभी किसी औरत के अपने घर आने पर नहीं हुई , कविता अभय के सामने आयेगी तो? समिधा अभय के साथ चाय पीकर छः बजने में तीन-चार मिनट पहले ही घर से चल देती है, “ अभय मैं डाँस प्रेक्टिस के लिए जा रही हूँ। ”

सड़क पर आते ही देखती है कविता साड़ी का पल्ला पकड़े हुए आत्मविश्वास से बढ़ती हुई डग भरती चली आ रही है। उसे देखकर समिधा के मन में कुछ तन जाता है। वह व्यंग करती है, “परफ़ेक्ट टाइमिंग। ”

कविता उसकी बात के मर्म को समझ बेशर्म सी हँस पड़ती है।

इतवार को समिधा चार बजे कोचिंग संस्थान में पढ़ाने के लिए निकलने वाली है, अभय ने बैडरूम से आवाज़ दी, “समिधा !” समिधा पर्स में पेन व रुमाल रखते हुए बैडरूम में आ गई, “कहिए।”

“अग्निहोत्री का घर तुम्हारे इंस्टीट्यूट के पास है। वह अपने घर कब से बुला रहा है। तुम वहाँ छः बजे ‘फ़्री’ हो जायोगी? ”

“हाँ।”

“ तो मैं वहीं आ जाऊँगा। आज उसके घर चले चलेंगे। ”

“ ओ.के. लेकिन छः बजे पहुँच जाइए। ”

समिधा छः बजे क्लास में से निकल आई। इंस्टीट्यूट के छात्र व छात्रायें अपने दुपहिये वाहन व इक्का-दुक्का अपनी कार में बैठ चल दें। वह लॉन पर बनी पत्थर की बेंच पर बैठकर अभय का इंतज़ार करने लगी। घड़ी की सुई खिसकती जा रही हैं। समिधा को पता नहीं क्यों वह प्राइवेट कॉलेज याद आ रहा है। उसकी वहाँ पहली नौकरी थी वह दुनिया की बदहाल हवाओं से अनजान थी। तब वह बिल्कुल मासूम सी थी। वहाँ के प्रिंसिपल श्री बी.पी. वर्मा ही उसके मालिक थे। उनकी फ़ैक्टरियों ने पैसा बरसाया तो उन्होंने ये कॉलेज खोल दिया था।

एक दिन उन्हीं के कार्यालय से उसके लिए बुलावा आ गया। वे किसी रजिस्टर पर लाल पेन से टिक लगाते जा रहे थे। उसे देखकर उन्होंने अपना चश्मा उतार कर मेज़ पर रखते हुए कहा, “बैठिए।”

“थैंक्स ।”

“ आप दो तीन कक्षाओं के फ़र्स्ट टर्म के ‘एक्ज़ामिनेशन पेपर्स’ सेट कर पायेंगी।”

“ जी हाँ। ”

“ पहले का कोई अनुभव? ”

“जी, मैं घर पर ट्यूशन्स लेती हूँ। बच्चों के टेस्ट के लिए प्रश्नपत्र सैट करती रहती हूँ।”

“गुड। आप ऐसा करिए आज शाम मेरे घर आ जाइए।”

वह जल्दी से बोल उठी थी, “जी, शाम को अपने बच्चों को होमवर्क करवाना होता है ।”

“ये तो रोज़ का काम है एक दिन में क्या फ़र्क पड़ जायेगा ? आपकी नॉलेज देखकर मैं कुछ और सोच रहा हूँ ।”

“क्या ? सर! मैंने भी सुना है आपका काफ़ी बड़ा बिज़नेस है ।”

“अजी, बड़ा- वड़ा क्या है । दाल-रोटी चल रही है । मुझे हमेशा इसके लिए मेहनती व ईमानदार लोगों की तलाश रहती है ।”

“लेकिन मेरा इंटरेस्ट ‘टीचिंग’ में है ।”

“यदि फ़ायदा हो रहा है इंटरेस्ट बदले जा सकते हैं ।” फिर उन्होंने अपना सिर रिवॉल्विंग चेअर पर टिका दिया था, “आप अपनी फ़ैमिली के अलावा भी कैरियर को गम्भीरता से लीजिये बहुत ‘अट्रेक्टिव चीजें आपका इंतज़ार कर रही हैं ।”

“नो सर, मेरे बच्चे छोटे हैं इसलिए अपने कैरिअर से उनकी परवरिश अधिक ज़रूरी है ।”

“समिधा ! आइ एम ‘ कॉन्फ़िडेंट ’ कि आप दोनों चीजों को अच्छा मैनेज कर सकती हैं । आज शाम को मैं आपका इंतज़ार करूँगा ।”

समिधा उनके इस आत्मविश्वास भरे लहज़े के सामने निरुत्तर रह गई थी ।

दो फ़ीट की दूरी पर रुके एक स्कूटर की आवाज़ से उसकी तन्द्रा टूटी लेकिन ये अभय नहीं थे । उसने घड़ी पर नज़र डाली फिर उलझ गई अपनी उस नौकरी के उस अनुभव से ।

उसी दिन शाम को वह प्रिंसीपल के बंगले पर पहुँची थी, यह सोच शायद उसकी आशंका ग़लत हो । वे कुछ फ़ाईलें सामने की मेज़ पर खोले सोफ़े पर बैठे थे । उसे देखते ही बोले, “ वैलकम टु माई छोटा मोटा हाऊस।”

समिधा को उनकी बात पर मुस्कराहट आ गई । ये बंगले वाले ‘डाऊन टु अर्थ’ दिखने के चक्कर में अक्सर हास्यास्पद बातें करते हैं । उसने ड्राइंग रूम की भव्य साज सज्ज़ा को सरसरी नज़र से देखते हुए पूछा, “सर ! एक प्रश्न-पत्र में कितने प्रश्न रखने हैं ?”

“आप क्या जल्दी में हैं ?”

“नो सर-नो-नो-यस सर ! बच्चे गार्डन में खेलने जाते हैं । मैं उनके वापिस लौटने तक पहुँचना चाहती हूँ।”

“ओ.के. पहले चाय मँगवा लेते हैं ।” उन्होंने इंटरकॉम पर नौकर को चाय लाने का आदेश दिया ।

चाय पीते हुए वह उन्हें प्रश्न-पत्र कैसे सैट करेगी ये समझाती रही । ये काम समाप्त होते ही वे बोले, “मैं चाहता हूँ आप हमारी एक फ़ैक्टरी में मैनेजमेंट सम्भाल लें ।”

“नो सर । मुझे इसका कोई अनुभव नहीं है ।”

“ये अनुभव तो हम करवा देंगे । हम जौहरी हैं, हम हीरे की परख रखते हैं । पहले आपको ट्रेनिंग दी जायेगी ।” उन्होंने फिर इंटरकॉम पर आदेश दिया, “हमारी गाड़ी निकलवाओ ।” फिर उसकी तरफ देखकर बोले, “चलिये । आज लेक पर चलकर बोटिंग करते हैं । बाद में कहीं डिनर लेंगे ।”

“वॉट ? सर । मुझे इसकी आदत नहीं है ।” उसका दिल तेज़ी से धक-धक कर रहा था ।

“तो आदत हो जायेगी । बिज़नेस वर्ल्ड में तो ये आदतें डालनी ही होती हैं ।”

“मुझे पढ़ाना ही अच्छा लगता है । आप मुझे समझ क्या रहे हैं?”

“ए वेरी चार्मिंग लेडी । आप घर पर ट्यूशन्स करती रही हैं इसलिए आपने अपना चार्म नहीं खोया है ।”

“वॉट ! डू यू मीन बाइ टॉकिंग लाइक दिस?” वह गुस्से से थरथराती खड़ी हो गई थी ।

“आप अंग्रेज़ी भी बहुत अच्छी तरह बोलती हैं ।”

“आइ वॉन्ट टू गो ।”

नीलम कुलश्रेष्ठ

ई –मेल---kneeli@rediffamil.com