दह--शत - 46 Neelam Kulshreshtha द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

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दह--शत - 46

एपीसोड ----46

 अमित कुमार को उनके ऑफ़िस में उनके सामने धारा-प्रवाह बताती जा रही है, किस-किस तरह कविता व बबलू जी अपनी बालकनी में खड़े होते थे व सुरक्षा विभाग की जीपें उस पर नज़र रखती थीं। वह बताती है, “मेरा अनुमान है जून के प्रथम सप्ताह में विकेश ने इन्हें ड्रग्स दी है क्योंकि वह तो घर से निकलती नहीं है ।”

“विकेश इन्हें ड्रग क्यों देंगे? आपके हसबैंड को ‘ग्रुप एडिक्शन’ की आदत हो गई होगी। वह कहीं बाहर जाकर ड्रग ले आये होंगे।”

“यदि ये स्वयं ड्रग लेते तो महींनो का अंतराल क्यों हो जाता है? अब ड्रग दी जाये तो मैं क्या करूँ?”

“किसी डॉक्टर के पास ले जाइये।” वह नज़रें चुराते हुए कहते हैं।

वह चीखकर कहना चाहती है कि जाँच के आदेश आपको दिये हैं आप ठीक स्वयं जाँच क्यों नहीं कर रहे ? वह पूछ यह रही है, “क्या मुम्बई से आपको दोबारा जाँच के आदेश मिले हैं?”

“नहीं तो।”

वह आवाक है। वह इतनी देर से बोले जा रही थ तब नहीं बताया। वह उठती है। वे कहते हैं, “थैंक यू वेरी मच।”

वह खिसियाई सी पूछ नहीं पाती –ये धन्यवाद किसलिए? बाहर के लोग सम्भाल लिए हैं। अब अभय को सम्भालना जरूरी है कहीं फिर वह ड्रग न ले लें। वह सुबह उनके ऑफ़िस के लिये निकलने से पहले बात करती है, जिससे लड़ाई न हो जाये, “अभय ! तुम अब कोई खाने की चीज़ विकेश से मत लेना।”

“क्या बकवास कर रही हो?”

“तुम्हें वॉर्न कर रही हूँ। ये तो पता चल गया होगा कि मैंने प्रतिमा को फ़ोन किया था।”

“साइकिक लोग और क्या करेंगे?”

“कल मैं अमित कुमार से मिल कर आई थी।”

“तो क्या डरता हूँ?”

“वे कह रहे थे विकेश बिज़नेस मैन है। उसे ऐसी औरत कहाँ मिलेगी जो ड्रग देकर आदमी को पागल कर दे। वह इसीलिए हम लोगों को इस शहर से भगाना चाह रहा है जिससे कविता का अपने बिज़नेस के लिए उपयोग कर सके।”

“वे ऐसा कह रहे थे?”

“हाँ।” वह भी तो इस घिनौने षणयंत्र  में फँसकर झूठ बोल सकती है।

“ऑफ़िस जाते समय ऐसी बातें मत किया करो।” वह गुस्से बौखलाते बाहर निकल जाते हैं।

वह मन ही मन खुश है अब विकेश और अमित कुमार में भिड़ंत होगी। विकेश और ख़रीदो उनको । अब देखो ये अकेली औरत क्या-क्या कर सकती है।

अभय कुछ दिनों बाद दिल्ली जा रहे हैं। एक औद्योगिक मेले में उनके ऑफ़िस से चार-चार लोगों के दल भेजे जा रहे हैं। वह पछता रही है उसने पहले क्यों पता नहीं किया कि इनके साथियों के नाम क्या है। उसकी बेचैनी ठीक थी। उन चारों में एक विकेश भी है। ये दो दिन अकेले घर में बेचैनी से काटती है। अभय दिल्ली से लौटते ही बताते हैं, “फ़ेअर तो एक दिन में देख लिया था, दूसरे दिन मैं व देसाई दिल्ली घूमते रहे। विकेश अपने साले के पास मेरठ चला गया था।

“मैंने ये कब पूछा था?” वह मन ही मन खुश है। उसका प्रतिमा को फ़ोन करके विकेश को धमकाना सही रहा।

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कुछ दिनों के बाद ही अभय की सरगर्मियाँ शुरु हो गई हैं। समिधा दिमाग़ पर ज़ोर डाल रही है क्या कुछ करें कि गुँडे बौखलायें। कोई ट्रम्प कार्ड हाथ में नहीं आ रहा है। ऐसे ही ट्रम्प कार्ड ढूँढ़-ढूँढकर ये बरस निकाले हैं। अब क्या करें ? अब क्या करें? दिमाग़ में कुछ क्लिक होता है। वह वर्मा के विभाग के एक अधिकारी को फ़ोन करती है जिनसे पहले मिली थी, वह उन्हें अपना परिचय देकर पूछती है, “सर ! जब फरवरी में वर्मा का ट्रांसफ़र किया गया था तो उसने कहा था कॉलोनी का फ़्लैट ख़ाली कर देगा। लेकिन इसने अभी ख़ाली नहीं किया है।”

“अच्छा देखता हूँ । कल फ़ोन करिये।”

दूसरे दिन फ़ोन पर उत्तर मिलता है, “वर्मा कह रहा है मैं शहर की ‘म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन’ की सीमा के अंदर काम कर रहा हूँ इसलिए कानूनन मैं इस घर में रह सकता हूँ। आइ एम हेल्पलेस।”

ये उत्तर मिलना ही था समिधा जानती थी लेकिन उन्हें तिलमिलाने का एक झटका देना ज़रुरी था।

रिश्ते की एक शादी में इन्दौर में भेंट होती है विकेश की ममेरी बहिन ऊषा से। वह विवाह समारोह में हाथ में लिए सूप के गिलास से सूप पीते-पीते बताती है, “बस समझिए बात बिगड़ते-बिगड़ते बन गई।”

“कौन सी?”

“आप को नहीं पता विकेश भैया के बेटे शिरीष के बारे में?”

“क्यों क्या हुआ? वह बारहवीं कक्षा पास नहीं कर पाया तो जैसे-तैसे उसने डिप्लोमा तो कर लिया लेकिन यहाँ बुरी संगत में पड़ गया था। प्रतिमा भाभी एक महिना यहाँ आकर रहीं। उसे परीक्षा दिलवाई जब तीसरी बार भी पास नहीं हुआ तो वापिस अपने साथ ले गईं। आपको कैसे पता नहीं लगा?”

वह सूप सिप करती रहती है, “बस ऐसे ही।”

“उसे यहाँ से गये एक वर्ष हो गया है।”

“हुर्रे।” वह खुशी से चीखना चाहती है लेकिन संयम कैसे खो दे ? घर लौटकर अभय से कहती है, “अभय ! विकेश को कैसी मार पड़ी है। ऊपर वाले की लाठी में आवाज़ नहीं होती।

उसका बेटा बी.ई. नहीं कर पाया, खोटे सिक्के सा वापिस आ गया है।”

अभय का चेहरा देखने लायक हो गया है।

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समिधा पर पहले जैसी ही सुरक्षा विभाग की नज़र रहती है। समिधा को पहले लगता था उस पर नज़र रखी जाती है। लेकिन अब अच्छी तरह समझ में आ गया है उसके घर से निकलकर चौराहे पर पहुँचते ही चार सड़कों में से एक सड़क से कोई खाकी वर्दी वाला आ जाता है वह मोटर साइकिल रोककर उसमें किक मारता है या सिगरेट मुँह में लिए उसे घूरता है। समिधा सन ग्लासेस से उस पर जान बूझकर नज़रे गढ़ा देती । और डराओ मुझे ?

एक दिन शाम को पीछे के कम्पाउन्ड में कपड़े लेने आती है। अपनी छत पर कविता, बबलू जी व सात आठ लोगों के साथ खड़ी है। समिधा की आँखें व्यंग उगलती कविता की आँखों से टकर जाती है। वह क्या दिखाना चाह रही है अमित कुमार की ताकत भी उसके साथ है। वह इत्मीनान से तार पर से कपड़े उतारने लगती हैं।

इस घमंड भरी बेहयाई का वह उत्तर तो देगी ही। उसे उत्तर देने की ज़रुरत नहीं पड़ती। कुछ दिन बाद वे रात में घूमने निकलते हैं। सामने वर्मा स्कूटर पर आ रहा है। उसे देखकर समिधा के होठों पर व्यंग भरी मुस्कराहट आ जाती है बीवी के दलाल ! देखती हूँ तू कब तक बचता है।

घर में आधे घंटे बाद बाई वर्षा बेन ख़बर लाती है, “आंटी ! पीछे वाले वर्मा अंकल का एक्सीडेंट हो गया है। उन्हें दवाखाने दाखल करवाया है।”

“ऐसा नहीं हो सकता। हम घूमने निकले थे तो अभी-अभी वह सामने से निकला था। उनका बेटा अस्पताल में होगा।”

“ना रे। अंकल का कूटर नीचे पड़ गया है। आंटी को चोट नहीं आई।”

“तुझे याद है लगभग यही बारिश के दिन थे। मैं इसके घर बात करने पहुँची थी इसने मुझे धक्का मार गिरा दिया था। मैं फिर भी बच गई थी।”

“हाँ। आंटी ! मुझे याद है। भगवान ने ही उसे अस्पताल पहुँचा दिया।”

वर्मा कविता को लेकर अभय के घूमकर लौटकर आते समय उससे इशारेबाज़ी करवाने निकला होगा और पहुँच गया अस्पताल।

कुछ दिनों बाद समिधा का जैसे पोर-पोर नाच उठा है, ये सुनते ही वर्मा के सीधे हाथ की किसी ऊँगली का ऑपरेशन हुआ है। अपनी बीवी का दलाल वर्मा ! अब तू अपनी बीवी सप्लाई करने के बाद कभी हॉर्न नहीं बज़ा पायेगा। ठीक दो महिने बाद उसी तारीख़ को तेरा एक्सीडेंट हुआ है।

उस नंगे हॉर्न की गवाह नीता है लेकिन यदि कॉर्ट में केस जाये तो इस संयोग की क्या कीमत होगी, कोई विश्वास करेगा ? कोई विश्वास करेगा आरंभ में अपने विकेश से सहायता माँगने के लिए चार बार फ़ोन किया था....ऊपरवाला साथ था इसलिए ये कोशिशें नाकाम गईं......कि उस विवाह की वर्ष गांठ से पहले समिधा की शादी की अंगूठी टूट गई थी।

महीने भर बाद वर्मा ड्यूटी पर जाता है, कुछ दिन और निकलते हैं। परेशानी में घिरी कविता की ताकत फिर लौट आई है।

अभय सिरफिरे से फिर बकबक करने लगे हैं, “अपने साहबज़ादे से कह देना मैं उसके घर में अपना रुपया ‘इन्वेस्ट’ नहीं करुँगा।”

उनके हल्के कालिमा युक्त चेहरे को देखकर लगता है कहीं हल्का नशा दिया गया है। वह उनसे पूछती है, “हमारे एक ही बेटा है तो कहाँ करोगे इन्वेस्ट?”

“उससे कह दो अपने बूते पर मकान ले ले। अपने रिटायरमेंट के बाद में देखूँगा।”

अभय की हल्की वहशियाना हरकतें देखकर वह समझ गई है इस समस्या का अंत नहीं है। उसे विभाग द्वारा एफ़ आई आर पुलिस में करनी ही होगी। केम्पस में इस बार कोई सुहासिनी कुमार महिला एम.डी. बनकर आईं हैं। समय करवट ले रहा है ,शीर्ष पद पर महिला आसीन होने लगीं हैं।  जिन्हें वह अपनी शिकायत की प्रति दे आई थी। वह सोचती है कुछ भी कदम उठाने से पहले उनसे राय ले ले।

  उनके ऑफ़िस की तरफ़ जाते हुये सोचती है कि उनकी प्रतिक्रया क्या होगी ?

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नीलम कुलश्रेष्ठ

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