आपत्ति क्यों आख़िर ?? Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आपत्ति क्यों आख़िर ??

आपत्ति क्यों आख़िर ??
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भ्रमित होने की कोई बात तो नहीं थी ,मन ही तो है ---हो जाता है भ्रमित ! होता ही रहता है ---दुःख -सुख के ऊंचे-नीचे टोलों के बीच फँसा मन कभी सुख से इतना सराबोर हो जाता है कि समझ ही नहीं आता हँसा जाय या रोया जाए ? सबके साथ ऐसा होता ही रहता है ,बीती यादें ले जाती हैं खींचकर और भ्रमित होते रहते हैं हम अपनी ही वर्जनाओं से ! स्वयं ही तो बनाते हैं हम अपने लिए ऐसे बंधन, जो लगता है हमें ले जाते हैं एक ऐसे लोक में कि हम सामने सब-कुछ होते हुए भी उलझ ही तो जाते हैं |
"क्यों किया तुमने ऐसा?" विभा ने पूछ ही तो लिया |
अंशु चुप थी,गुमसुम सी , कोने में खड़े लैंप के शेड को घूरती | न कोई हाँ ! न कोई और रिएक्शन !
"क्या इतनी लंबी कोर्टशिप के बाद भी तुम भ्रम में रहीं ? ये कैसी इंटेलेक्चुअल हो तुम ?"
आँखें उठाईं अंशु ने लैंप-शेड से ,फिर न जाने क्यों चिपका दीं ,उसके पास सजे पीतल के वाज़ पर जिसमें मिट्टी का बड़ा सा गमला रखा गया था और जिसका मनीप्लांट इतना लंबा था जो सिटिंग-रूम से होकर खुले हुए रसोईघर को लांघता हुआ बाहर के बरामदे तक जा पहुंचा था | खासा बड़ा सन्नाटा पार करके बाहर तक पहुंचना ,कोई आसान नहीं होता | दुखती रगों पर पैर रखकर दो सीढ़ियाँ भी नहीं चढ़ पाता मन और ये एक डंडी से जन्म लिया मनीप्लांट किन-किन सपाट गलियारों से होकर कहीं भी जा पहुंचा है | बस ,मन ही है जो स्टैगनैंट है ,एक कूपमंडूक की भांति टर्र टर्र करता सा ,जिसकी फुसफुसाती आवाज़ भी कानोकान सुनाई नहीं देती | कितना बढ़िया होता ,पेड़ बनकर पैदा होना या फिर कोई बेल --या कोई भी झाड़ ! अपनी रफ़्तार से किधर भी मुँह उठाकर बढ़ते जाना | वैसे अच्छा तो होता जंगली पेड़,पौधा या फिर जंगली बेल बनकर पैदा होना --कहीं भी कैसे भी मुड़-तुड़ जाओ,क्या फ़र्क पड़ता है किसीको ? वैसे पैदा न भी होते तो क्या संसार न चलता !
यूँ तो अपनी ही शर्तों पर जी रही थी अंशु ,कुछ करना है कि चाह उसे कानपुर से मुंबई खींच लाई ,इंटरव्यू दिया था ,सिलेक्शन हो गया और परिवार में सबको एक तरह से नाराज़ ही करके उसने मुंबई आना निश्चित कर लिया| आख़िर उसकी अपनी ज़िंदगी है ,उस पर भी उसका अधिकार नहीं ? ये क्या बात हुई भला ? वो कोई निराली तो है नहीं ,और सिलेक्शन भी तो उसका मैरिट पर हुआ है ,ओवर कॉन्फिडेंट ---! सभी तो रहते हैं अकेले ! कौन ,कब तक किसीका साथ दे पाता है ? यहाँ रहती तो उसी चाहरदीवारी में घुटना पड़ता | बताओ ,आजकल के ज़माने में भी 'जौइंट फ़ैमिली !' जो बने सबको मिल बाँटकर ही ,अपनी कोई चॉयस ही नहीं जैसे ,अलग रहेगी तो अपने हिसाब से रहेगी | यहाँ बैठे-बिठाए सब कुछ मिल जाता है ,लेकिन आज़ादी ---? जैसे पर कतर लिए गए हों ,वैसे पर निकलने ही कहाँ दिए गए थे !!
नौकरी प्राइवेट थी,पर पर्क्स बढ़िया ,मन झूम गया था अंशु का ! 'वर्किंग-वुमेन-हॉस्टल' भी बढ़िया मिल गया ,सारी सुविधाएं --अधिकतर लड़कियाँ खाना बाहर ही खातीं | अपने कमरों में चाय,कॉफ़ी का इंतज़ाम रखतीं और सुंदर,साफ़-सुथरे मॉडर्न किचन में अपनी आवश्यकतानुसार चाय/कॉफ़ी बना लेतीं | सुबह से निकलतीं तो गई रात ही घर में घुसतीं | सबको अपने 'लोकल गार्जियन' का पता व फ़ोन नं तो देना ही होता ,अंशु ने भी पिता के किसी मित्र का पता व नंबर लिखवा दिया था | हॉस्टल की अधेड़ पारसी मालकिन खूब स्मार्ट थीं,वह आज के युवा वर्ग की स्वतंत्रता का अर्थ खूब समझती किंतु किसीको भी पूरी पूछताछ के बिना रखना उन्हें मंज़ूर न था सो अंशु के पिता से भी कानपुर बात की थी उन्होंने !हॉस्टल में ग्यारह बजे तक लौटने का समय निश्चित था | वो तो ठीक ! काफ़ी था | कभी -कभार देर होती तो सूचना देनी पड़ती | ठीक है, चाय,कॉफ़ी का इंतज़ाम खुद करना होता पर बाक़ी तो आज़ादी थी | पर निकलने लगे थे --और उन्हें कतरने वाला कोई नहीं था |इतने लोगों के बीच में घिरे रहने पर भी अंशु कभी उनके जैसी सोच नहीं बना पाई |
उसे घर में किसी की टोका टाकी पसंद नहीं थी फिर यहाँ तो वह अपने मन की मलिका थी | हाँ,उसे विभा को ज़रूर सहन करना पड़ता जो उसकी रूम-मेट थी | अकेले रहने में बहुत खर्चा होता अत : अधिकांश सब लड़कियाँ पार्टनरशिप में रहतीं ,कितना भी रिज़र्व रह लो,कभी न कभी एक-दूसरे के राज़ में दिलचस्पी लेने लगतीं और कभी बिन माँगी सलाह भी कानों में रूई ठूंसकर सुननी पड़ती |ताने भी दे ही देती विभा उसको ,वह उससे बहुत पहले मुंबई आ गई थी,उसका तबादला दिल्ली आकाशवाणी से मुंबई हुआ था और बहुत कोशिश करने पर भी दो साल से जूझने के उपरांत भी उसे आकाशवाणी के कैम्पस में कमरा नहीं मिल पाया था | मज़बूरी थी उसकी हॉस्टल में रहने की |
अंशु का अफ़ेयर शुरू हो गया था ,कोई ख़ास बात नहीं ,ये तो न हो तब अचरज की बात ! बँधना कौन चाहता है बिना जाने-परखे ! सो,चलती रहती डेटिंग | पर अचानक ही जो विभा ने कल सुना था ,वह असहज हो उठी और उसने अपनी बात अंशु के सामने रख ही दी ,वो भी ताना सा देते हुए | इतना अधिकार तो वह समझने लगी थी अपनी रूम-मेट पर | ये क्या हुआ जब मूड ठीक हो तब अपनी सारी बातें बताते रहो चाहे सामने वाला सुनने के बिलकुल भी मूड में न हो और जब वह कुछ पूछे और मूड ठीक न हो तब 'तू कौन ?मैं खामखां '--पर ये बेकार के ताने-मलाने सुनना ,अंशु को कभी भी असहज करने लगता | जिसे देखो,वो ही लैक्चर देने के मूड में ! अरे भैया ! बस में तो हो कुछ ! उसका मन किया चीखकर कहे ;
"तुम नहीं चाहती थीं अपने लिए कुछ भी ? तुम क्या केवल आदित्य के गिरहपाश में बंधने से संतुष्ट हो ?कितना जानती हो उसके बारे में ? " किन्तु कुछ बोल न पाई ,नहीं पूछ पाई कुछ भी | मन के विचारों का गुत्थमगुत्था होना कुछ नया नहीं होता ,वे तो कभी भी,किसी भी क्षण बस हो ही तो जाते हैं ,फिर तलाशते रहो उनमें से निकलने का रास्ता अभिमन्यु की भाँति ---तुम भीतर ही दम घुटकर ख़त्म हो जाते हो | सब बेकार की बातें हैं ,कोर्टशिप और ये ---वो --|
कुछ नहीं बोली अंशु ,वैसे तो बकबक करते थकती नहीं थी जब मूड होता ,उसका सपाट चेहरा देखकर विभा मुँह लटकाकर घुस गई अपने कमरे के भीतर ! जो मर्ज़ी हो करे ,मुझे क्या के अंदाज़ में गर्दन मटकाकर ,कंधे झटकते हुए मुँह से बड़बड़ाते हुए वह और भी अशांत होती जा रही थी | अरे ! कोई रिश्ता-विश्ता थोड़े ही है, रूम मेट्स ही तो हैं दोनों,और भी न जाने कितनी लड़कियाँ रहती हैं हॉस्टल में ,किसीने किसीका कोई ठेका नहीं ले रखा फिर उसे क्या पड़ी है | हॉस्टल के रसोईघर में चाय बनाने गई थी विभा ,रात को ही तो किसी दोस्त ने बताया था ,ब्रेकअप हो गया है अंशु का ! तबसे सोच रही थी पूछे तो सही ,आख़िर दो साल से उसके साथ घूम रही है ,दोस्ती भी अच्छी-ख़ासी ! हर बात शेयर करने की धुन सी लग गई थी उसे ,दोनों एक-दूसरे की कहानियाँ सुनतीं और रोमांचित होतीं ,यू नो थ्रिल्ड ---रोमांस करने से ज़्यादा रोमांस के क्षणों को बाद में चटकारे लेकर जीने में मज़ा आने लगा था | सो,ब्रेकअप की बात किसी दूसरे से पता चले ,स्वीकार नहीं कर पाई विभा |
बात करना चाहती थी पर रात में जब वह लौटी तब अंशु सो चुकी थी और सुबह तो भागने का समय ! कहीं दिखाई नहीं दी उसे अंशु तो वह चाय बनाने किचन में आ गई ,चांस की बात है ,वहीं अंशु मिल गई रसोईघर में सटे सिटिंग रूम के सोफ़े में धँसी कॉफ़ी मेज़ पर रखे वह न जाने किस ख़्याल में खोई थी | उसने पूछा ,कोई उत्तर नहीं ---भागी अपने कमरे में तैयार होने ,कोई कब तक पूछ पूछकर किसीको अपने सिर पर चढ़ाएगा भला ? भाड़ में जाए,उसे तो ऑफ़िस भागना है |
एफ़ बी फ्रैंड सुधीर ,यहीं मुंबई में नौकरी करता ,अंशु को टकरा गया था | एक ही शहर के लोगों को देखकर एक थ्रिल सी तो आ ही जाती है ,उन दोनों को भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा, शायद ! फिर युवा धड़कनों के बढ़ने में देर ही कितनी लगती है ? हो गई दोस्ती ! माहौल --रोमांटिक ! खूब मज़े के दिन आ गए ,अब अपने सुख की तीव्रता को शेयर भी तो करना पड़ता है सो उसने विभा से सब शेयर किया ! रोज़ाना की ख़ूबसूरत मुलाकातें ,उनसे उपजी धड़कनें ,कच्चे-पक्के कमसिन वादे ! हाँ, कमसिन उम्र तो निकल गई थी पर ---ख़ैर , बात शादी तक पहुँचने की स्थिति तक आ गई| वैसे भी उनके बीच में छिपा रह ही क्या गया था ?दोनों साथ में बिना शादी के रहने के लिए भी तैयार थे जबकि विभा अंशु को समझाने की कोशिश करती रहती कि भई ! हम नहीं चल सकते इस तरह के रिलेशंस में ,हमारी जड़ें हमें इतनी मज़बूती से पकड़े हैं कि हम एक ठप्पे के बिना खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर पाते ! पर अंशु कुछ भी समझने के लिए कहाँ तैयार थी,वैसे ही जैसे कानपुर से स्वतंत्रता के नाम पर भाग आई थी ,स्पष्ट बताया था उसने विभा को |
पर अब ये क्या हुआ ? कैसे हुआ ? क्यों हुआ ? ढेर सारे प्रश्न भरे थे विभा के मन में ! ऊपर से कोई उत्तर भी देने के मूड में नहीं दिखाई दे रही थी अंशु | पता नहीं ऑफ़िस भी जाएगी या नहीं? सोचती हुई विभा उलटी-सीधी तैयार होकर जब सिटिंग रूम से निकली ,अंशु को वहीं सोफ़े पर पसरे हुए पाया | दो-तीन लड़कियों की गहमागहमी से रसोईघर गुलज़ार लग रहा था | विभा लगभग भागते हुए सरपट दरवाज़े के पास पहुँची | फिर न जाने क्या हुआ ,लौटकर वापिस आई ,सोफ़े पर पसरी अंशु के सिर पर हाथ रखकर पूछा ;
"तबियत तो ठीक है ? रूक जाऊँ?फ़ोन कर देती हूँ विशु रुक जाएगा मेरी ड्यूटी पर , डॉक्टर के पास ले चलती हूँ --"
"ठीक हूँ ---" अंशु ने उसका हाथ सिर से हटाते हुए संक्षिप्त सा उत्तर दिया ,विभा और भी चिढ़ गई |
'जाने क्या ठूँसकर बैठी है मन में ---' बड़बड़ाती विभा तेज़ कदमों से हॉल के बाहर निकल गई | देर हो रही थी ,आकाशवाणी में समय पर पहुँचना बहुत ज़रूरी ,दूसरे बंदे को रिलीव भी तो करना होता है जिसे आकाशवाणी आधी रात को ही पहुँच जाना होता है और सुबह से ऊँघता बैठा लोगों की हल्की-भारी आवाज़ों को सुनकर उनकी पसंद के भजन परोसता रहता है | असली काम तो विभा के जाने पर होता है शुरू जब वह अपनी सुरीली आवाज़ में "हैलो फ्रैंड्स ,मैं आपकी दोस्त विभा लेकर आ पहुँची हूँ एक खुशबू से भरा हसीन गुलदस्ता ! आपकी पसंद ,आपकी नज़र ---"
कितनी बनावटी हँसी बिखेरती है वह इस आवाज़ के प्रांगण में ,फ़रमाइशी गीत लगाकर आज वह घंटी बजाती है और महुआ को कसकर डाँट लगाती है जो अभी तक उसके लिए गर्मागर्म कॉफ़ी लेकर हाज़िर नहीं हुआ है | सहमता हुआ चौदह-पंद्रह साल का छोकरा महुआ माफ़ी माँगने के अंदाज़ में कॉफ़ी और बिस्किट उसके सामने रख देता है और उसकी घूरती दृष्टि से बचने के लिए आँखें नीची करे ही बाहर भाग जाता है | आख़िर वही तो लाई थी उसे झौंपड़पट्टी के बाहर से ,जहाँ वह चाल के दूसरे लड़कों के साथ बाँकडे पर बैठकर आती-जाती लड़कियों को घूरता रहता था ,उसे भी तो सीटी मार दी थी उसने ,जब एक बार बाहर सड़क पर कैब से उतरते हुए देखा था | आग लग गई थी विभा के तन-बदन में ,मूँछे तो आने देता ! फिर एक बार जब वह फिर से उसे टकरा गया ,विभा ने उसका कॉलर पकड़ लिया था | अच्छे संस्कारों वाला युवा उसे मिट्टी में रुलता हुआ दिखाई दिया था | काम के बारे में पूछने पर उसने ' न ' में सिर हिला दिया था | और 'काम करेगा ?" पूछने पर उसकी बांछें खिल गईं थी | अपने चाचा के साथ सीतापुर से आया था ,मुंबई में पैसा कमाने पर चाचा का बावर्ची और सफ़ाई वाला बनकर रह गया था | काम -धंधा लगा तो उपकृत हुआ वह और विभा के आगे नतमस्तक भी |विभा को उसके लिए काफ़ी जूझना पड़ा ,कोई नहीं चाहता था 'अंडर एज' वाला महुआ काम करे | डायरेक्टर से कई बार बात की विभा ने ,आखिर वैसे भी तो आवारागर्दी ही कर रहा था और कौनसा उसे सरकारी पद पर काम करना था ? बाहर से भी तो लड़के चाय/कॉफ़ी/कोल्ड-ड्रिंक /नाश्ता लेकर आते थे | फ़र्क यह था कि उन्हें दुकानों के मालिक भेजते | अब पूरे आकाशवाणी में सबको चाय-कॉफ़ी ,नाश्ता आदि कैंटीन से लाकर सर्व करना उसका काम बन गया था साल भर से जिसे वह खूब मन लगाकर करता पर विभा मैडम का मूड ठीक न होने पर डाँट भी खाता |
विभा को महसूस हो गया कि वह बेकार ही मासूम महुआ पर अंशु का ग़ुस्सा निकाल रही है | आदित्य के फ़ोन पर भी वह कुछ उखड़ी सी बातें करती रही | आदित्य ने पूछने का प्रयत्न भी किया ,पर उसके पास कुछ होता बताने को तो बताती न ? सबके जीवन में कुछ ऐसे-वैसे पल चलते ही रहते हैं ,अब अंशु ने नहीं बताया तो न सही ,उसे आख़िर इतनी बेचैन होने की क्या ज़रुरत थी ? खिलखिलाती हुई लोगों के प्रश्नों के जवाब बाँटती रही,उनकी पसंद के गीत भी सुनवाती रही पर मन का भँवरा अंशु के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा |
आदित्य का ऑफ़िस आकाशवाणी के पीछे वाली बिल्डिंग में था ,रोज़ साथ ही लंच करते दोनों | आदित्य ही पहुँच जाता था विभा के पास | उस दिन भी विभा के लंच-टाइम में पहुँच गया ,विभा कैंटीन से खाना मंगवा लेती ,दोनों साथ खाते | हॉस्टल का खाना उसे पसंद नहीं आता था | बनाने की सुविधा होने पर भी उसका मूड़ बनाने का न होता ,चाय-कॉफ़ी ही बनाले तो बहुत था सो बना-बनाया खाना क्या बुरा था ? शाम को भी वह अधिकतर आदित्य के साथ बाहर से खाकर ही जाती इसीलिए अपनी रूम-मेट अंशु से बात करने का समय ही न मिल पाता | फिर भी स्वाभाविक था कभी न कभी शेयर तो हो ही जाता पर आज----ऐसा क्या हुआ होगा ? विभा आदित्य से भी कुछ अनमनी सी बनी रही ,उसकी बात सुनकर आदित्य हँस पड़ा था ;
"अरे भई ! सबका मन होता है कभी चुप रहने का ---तुम भी न ! यार आजकल के ज़माने में इतना संवेदनशील होने का भी कोई अर्थ नहीं है --रहने दो न उसे अपने दड़बे में --"
उसने विभा को बिना पूछे ही सलाह दे डाली | ऐसा अक्सर होता ही था ,विभा ने चुप्पी सी ओढ़ ली | ठीक है ,जो भी हो | फिर भी मन नहीं माना तो दो बार बात करने का प्रयास भी किया,अंशु का फ़ोन ही नहीं उठा | शाम को उसे आदित्य के साथ किसी कॉमन फ्रैंड की पार्टी में जाना था ,हॉस्टल देर से पहुंचना ही था |
आज बेचारा महुआ भी विभा की नज़रों से बचता घूमता रहा ,सोचता हुआ ;कैसी हैं मैडम ? कभी तो इतना लाड़ दिखाएंगी कि बिना किसी बात के उसे कितने-कितने रूपये पकड़ा देंगी और कभी बिना किसी बात पर उसे ऐसे घूरेंगी ,पता नहीं उसने कितना बड़ा गुनाह कर दिया हो !ख़ैर --वह तो ठहरा उनकी दया पर जीने वाला एक छोटा सा बंदा ---पर ये बड़े लोग ! महुआ को अपने अलावा सभी लोग 'बड़े' नज़र आते ,वो बेचारा इनकी समस्याओं को समझता भी कैसे ? उसे तो अपनी चाल में रहने वालों के अलावा सभी बड़े लोग लगते थे जिन्हें न तो पानी भरने के लिए बस्ती के नल पर लाइन में खड़ा होना पड़ता और न ही पैदल चलकर काम पर जाना होता | वैसे वह जब से यहाँ काम करने लगा था ,उसे अपना कद भी चाल के उन लड़कों से तो बड़ा ही लगने लगा था जो मिट्टी में कंचे खेलते ,या माँ-बाप के डर से ट्रैफ़िक सिगनल्स पर चीथड़े कपड़े को गाड़ियों पर मारते हुए अंदर बैठे लोगों की गलियाँ सुनते हुए कभी कभार दो-चार रुपयों की कमाई कर लेते या कभी कहीं से उधारी में छोटी-मोटी चीज़ें मिलने पर उन्हें 'ट्रैफ़िक -सिग्नल्स पर बेचने लगते |
निश्चित ही वह बेहतर था ,उसे अपने पर गर्व होता बहुत बार और वह अकड़कर चलने लगता | वैसे उसका जी परेशान तो हो रहा था आज अपनी विभा मैडम को देखकर ,पर उसकी हद में शामिल थोड़े ही था ,मैडम के सामने मुह खोलना ! आदित्य सर के आने पर वह कैंटीन से खाना ले आया ,मैडम रोज़ ही फ़ोन कर देती थी | अब तो उसे वहाँ सबकी आदतें भी पता लग गईं थीं |अपना काम वह बहुत अच्छी तरह कर रहा था ,इतना कि सबने सोचा कि महुआ को पढ़ना चाहिए ,पाँचवी पास था,आगे पढ़े तो भविष्य में प्रगति कर सकता था | आदित्य शायद बात करना चाहता था पर लाख कोशिश करने पर भी विभा की चुप्पी बनी रही --शायद सोचती रही अंशु के बारे में | शाम को बिना डिनर लिए उसने आदित्य से कहा कि वह हॉस्टल जल्दी जाना चाहती है | आदित्य ने चुपचाप गर्दन हिलाकर स्वीकार कर लिया और वह ब्रैड-बटर की थैली लटकाए हॉस्टल में आ गई ,उसे पूरा विश्वास था कि उसकी रूम-पार्टनर यूँ ही बिना खाए-पीए बैठी होगी | एकाध बार उसने अंशु का वह बेचारगी वाला रूप देखा था | इतनी स्वतंत्रता को जीने वाली अंशु का इस तरह उदासी में घिरकर बैठना उसे पच नहीं रहा था |
अंशु हॉस्टल में ही थी,जैसा विभा ने सोचा था वैसे ही चुपचाप ,मरियल सी | कभी आँखों में एक बूँद आँसू न लाने वाली अंशु शायद उसकी अनुपस्थिति में बहुत रो चुकी थी ,उसकी लाल हुई झुकी आँखें चुगली खा रही थीं |
" आय एम श्योर ,कुछ खाया तो होगा नहीं ?"
अंशु चुप बैठी रही फिर उसने अपनी सूजी हुई आँखें उठाकर विभा को देखा | जैसे ही विभा ने लाड़ से उसके बालों में हाथ फिराया, वह विभा से चिपटकर फूट-फूटकर रो पड़ी | विभा हतप्रभ थी ,आख़िर अंशु इतनी कमज़ोर कैसे ?
" कुछ हुआ सुधीर के साथ ? उसने रिश्ता तोड़ा या तुमने ?इतना समझने लगे थे तुम दोनों फिर यह सब ? " विभा सच में दुखी थी और कुछ भयभीत भी,उसका अपना रिश्ता भी तो बस ऐसे ही बिना किसी नाम के चल रहा था ,पर वे दोनों शादी के लिए तैयार थे ,परिवारों में भी 'हाँ ' हो चुकी थी |
सुधीर जिस फ़्लैट में रहता ,वह अंशु के ऑफ़िस के पास ही था ,अक्सर वह उसके फ़्लैट पर ही डिनर करती और रात को सुधीर अंशु को अपनी बाइक पर हॉस्टल छोड़ जाता | दोनों ने किसी दूसरे पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया था | कभी दोनों साथ में छुट्टियाँ मनाने मुंबई से बाहर लोनावाला या पूना भी चले जाते | हाँ,पता नहीं अंशु को घर की याद क्यों नहीं आती थी? जैसे कोई उसका गला घोटने को वहाँ तैयार बैठा रहता हो | विभा कितनी बार कहती भी कि भई ! कभी तो खुद भी परिवार में किसीसे बात किया करो ,परिवार --परिवार होता है | पर कहाँ जूँ रेंगती थी अंशु के कान पर ,स्वतंत्रता की होड़ में उश्रृंखलता के डैनों पर उड़ने लगी थी वह ! उसे स्वतंत्रता व उश्रृंखलता के बीच का फ़र्क ही समझ नहीं आता था जैसे |
काफ़ी रोने के बाद अंशु कुछ हल्की हुई ,विभा ने उसे पानी दिया और फिर से पूछा ;
" हुआ क्या आखिर?"
अंशु ने अपना मोबाइल उसके सामने खोल दिया जिसमें उसकी दो अनजाने मर्दों के साथ कुछ ऐसी तस्वीरें थीं जो वह खुद भी नहीं देख पा रही थी | उसकी आँखें नीची व भरी हुई थीं ;
"ये सब क्या है ? कौन हैं ये लोग?" विभा ने सहमी हुई आवाज़ में पूछा |
" पिछले महीने जब मैं सुधीर के साथ पूना गई थी तब खूब ड्रिंक करने के बाद सुधीर ने मुझे अपने किन्ही बड़े ऑफ़िसरों के हवाले कर दिया | मैं इतनी ड्रंक थी ,मुझे कुछ पता ही नहीं चला कि मेरे साथ क्या हो रहा है?हम दोनों बहुत खुशी-खुशी पूना से वापिस आए थे ,तुम्हें याद होगा?" अंशु ने सुबकते हुए बताया |
वैसे ही सुधीर से मिलती रही जैसे पहले मिलती थी ,एक दिन पहले सुधीर ने तस्वीरें भेजकर उसे धन्यवाद दिया था कि अंशु के कारण उसका प्रमोशन हुआ है और वह दो दिन बाद बेल्जियम जा रहा है |
अंशु के हाथ-पैर टूट गए थे ,उन पोर्न फिल्मों को देखकर उसका जी मिचला रहा था और वह स्वतंत्रता और उश्रृंखलता में फ़र्क ढूंढने की कोशिश कर रही थी | उसका दिलोदिमाग़ उसे झंझोड़कर पूछ रहा था कि जब उसने स्वयं यह राह चुनी थी तब उसे स्वीकार करने में आखिर आपत्ति क्यों ?

डॉ. प्रणव भारती

pranavabharti@gmail.com