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अशीर्वाद ??

अशीर्वाद ??

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कितने विलंबों के उपरान्त भी उसके आगमन की छुअन जीवन के एक निश्चित किनारे पर आकर थम गई है| वैसे उसने प्रतीक्षा छोड़ दी थी,क्या करना ---उसका जीवन आवारा बादल सा भटकता रहा है,आधी तो कट गई ,बाक़ी भी यूँ ही कट जाएगी | बेतरतीबी से उलझते से बादलों के साथ मन की रस्साकशी भयभीत करने लगती है |जीवन जीने और ढोने के बीच की स्थितियाँ झकझोरने लगती हैं मानो प्राण पखेरू उड़ने को बेताब लेकिन अटके हैं कहीं ! कहीं और कहाँ –जो पीछे छोड़कर आई है उसमें ---और क्या ? कितनी पीड़ामय यातनाएँ !मन के इस कोने से लेकर न जाने किस सीमा को बांधतीं ,खोलतीं ये यातनाएँ उसे क्षुब्ध करती रही हैं |यह सब नीता ने यहाँ की एक ऎसी औरत के बारे में बताया था जो लंबे अट्ठारह वर्षों से कभी जीती,कभी मरती तो कभी अधमरी सी यहाँ-वहाँ डोलती रही है|

पूरे अट्ठारह वर्ष कैसे झेली होगी उसने यह त्रासदी इस अजनबी देश में ?मनु सोचकर काँप उठी थी | उसे तो यहाँ आए हुए अभी जुम्मा-जुम्मा आठ दिन हुए होंगे उसका मन वापिस जाने को मचलने लगा था |क्या मरा शहर है और क्या हैं लाश से यहाँ के लोग! यूँ तो चमड़ी कितनी गुलाबी,गोरी और चेहरे कितने चिकने हैं ,और शरीर? -----उसमें जैसे कोई मशीन फिट कर रखी है ,पर मुख से बोल ही नहीं फूटते . किसीको किसी से जैसे कोई सरोकार ही नहीं|चुपचाप, गुमसुम से गाड़ियों के काफिले चले जाते हैं | हाँ! कभी कोई भलमानस मुस्कुरा दे तो वह इतनी लंबी मुस्कराहट अपने चेहरे पर फैला देती है जैसे किसीने भरा-पूरा खज़ाना उसे उपहार में दे दिया हो |

इत्ते से दिनों में मनु न जाने कितनी बार यह सब सोच चुकी थी फिर इस औरत ने कैसे काटे होंगे लंबे अट्ठारह साल?मनु के मन में धूँआ सा भरने लगा| वह चुप्पी साधे गाड़ी में बैठी हुई उस सड़क पर चलती औरत और नीता की बातें सुनती रही | नीता शिक्षित थी,स्कूल में गणित पढ़ाती और अपने परिवार के साथ रहती | पति दूसरे शहर में ,खुद दूसरे शहर में बच्चों के साथ |

“यहाँ ज़िंदगी ऎसी ही है दीदी –“मनु को असहज देखकर नीता कह उठती |

उस दिन कुछ खरीदारी करने निकल रही थी ,उसे भी साथ ले चली |

“चलिए न ,आपको चेंज मिल जाएगा “ मनु आई थी यहाँ किसी संगीत की कम्पनी के साथ काम करने लेकिन कुछ दिन पहले आकर उसने नीता के साथ कुछ समय गुज़ारने का निश्चय किया था | मध्यम वर्गीय लोगों को वैसे भी अपनी जेब से इतना किराया-भाड़ा खर्च करके विदेश आना कहाँ मय्यसर होता है ?इसलिए आने का अवसर मिला तो कुछ दिन नीता के पास भी रह लेने के लालच से स्वयं को रोक न सकी | नीता उसे बड़ी बहन का सा आदर देती साथ ही उसकी सहेली जैसी भी बन गई थी.मात्र पड़ौस में ही तो रहते थे दोनों बचपन में !संबंध दिलों के थे ,खून के नहीं ---लेकिन प्रगाढ़ थे|

वह बिना कुछ बोले उसके साथ गाड़ी में आ बैठी ,न जाने नीता कहाँ कहाँ की बातें उसे सुनाने लगी ,शायद उसका मन बहलाने के लिए | एक स्थान पर उसने अचानक गाड़ी को एक ओर खड़ा कर दिया |सड़क लगभग सूनी सी ही थी ,कोई औरत सिर पर पल्ला ढके साधारण से सलवार-कुरते में गुमसुम सी एक ओर चली जा रही थी |

“दीदी ! चलिए आपको किसी से मिलवाती हूँ ---“ कहकर वह गाड़ी से उतर गई और मनु चुपचाप बैठी रह गई |

“ कैसे हो पैंजी की हालचाल हैं त्वाडे ?”नीता ने पंजाबी में बोलने की कोशिश की जो उसने यहाँ मन्दिर में मिलने वालों के साथ रहकर सीखी थी और कच्ची-पक्की बोलने लगी थी | नीता ने उसे बताया था कि छुट्टी के दिन यहाँ मन्दिरों में बहुत से लोग अपनी ओर के मिल जाते हैं,यह औरत भी उसे मन्दिर में ही मिली थी जो शायद हर रविवार को मन्दिर या गुरुद्वारे में प्रसाद लेती हुई मिल जाती ----पता नहीं उसे क्यों ऐसा लगा था कि यहाँ आकर लोग ज्यादा धार्मिक हो जाते हैं या फिर यह भी हो सकता है कि भारतीयों के मिलने का एक सुविधापूर्ण स्थान मन्दिर हों जहाँ पूजा-पाठ के साथ भोजन बनाने या एक से ही स्वाद का बना-बनाया भोजन खाने से भी छुट्टी मिल जाती थी | यों तो उसके भारत में मन्दिरों की होड़ नहीं लगी रहती क्या ?जिस धर्म को देखो वही जैसे मन्दिर बनाने की होड़ में दिखता है,बस ‘मानव-धर्म’ का ही कोई स्थान नहीं दिखाई देता !हर सड़क पर मन्दिर ही मन्दिर फिर चाहे उनकी देखभाल ठीक से हो पाए या नहीं ! पंडित के नाम पर किसी को भी बैठा दिया जाता है ,चाहे उसे धर्म का ‘ध’ भी न पता हो और मानवता के नाम पर वह कोरी स्लेट ही क्यों न हो | वह बेकार की बातें बहुत सोचती है | उसने अपने सिर को एक झटका देकर सड़क पर खड़ी दो हिलती-डुलती मूर्तियों की ओर दृष्टि घुमा दी|

यहाँ रहकर नीता ने अंग्रेज़ी तो ऎसी सीख ली थी कि जब कहीं किसी बात पर किसी अंग्रेज़ से कोई बात कहनी होती या कोई चर्चा करनी होती उसका पति उसे आगे खड़ा कर देता | पति अंग्रेज़ी बोलता,समझता खूब था लेकिन उसमें पत्नी के समान आत्मविश्वास नहीं आ पाया था,पर ये नीता तो तौबा ---ऐसा लगता जैसे यहीं किसी अंग्रेज़ के घर में पैदा हुई हो | वैसे पति भी विश्विद्यालय में शोध प्रबन्धक था लेकिन बोलने में सदा कमजोर ही पड़ता |खैर इस समय तो नीता उस महिला से अपनी तरफ से बहुत सही पंजाबी में बात कर रही थी,बात जो महत्वपूर्ण थी वह यह थी कि दोनों एक-दूसरे की बातें समझ रहे थे,यही आवश्यक भी था |

कहानी यह थी कि वह औरत जो सड़क पर गुमसुम होकर चल रही थी उसे अट्ठारह साल पहले दुधमुही बच्ची को उसकी गोद से छुड़वाकर इंग्लैंड धकेल दिया गया था ,इन लंबे जवान सालों में वह बहुत कुछ भूल गई थी या उसने भुला दिया था| हाँ,उसे यह याद है कि उसकी गोदी से उसकी बच्ची छीन ली गई थी,किसीको घर-काम के लिए एक नौकरानी की ज़रुरत थी और उसे जिसके साथ भेजा गया था उसका रिश्तेदार बनाकर भेजा गया था| कितने और कैसे कैसे उलटे-सीधे कागजों पर उससे हस्ताक्षर करवाए गए थे जो उसने न जाने कितने महीनों में और न जाने कितने कागज़ बर्बाद करके सीखे थे |यूँ तो पाँच क्लास में थी जब उसे ब्याह दिया गया था पर गाँव के उस स्कूल में मास्टर जी के नाम पर पटवारी का लड़का बैठता था जो खुद ही शिक्षा के नाम पर ‘ढें’ था|सो ब्याह के बाद हस्ताक्षर उसके पति ने ही उसे करने सिखाए थे|एक तरह से अनपढ़ ही सी थी लेकिन लन्दन जाने का मतलब खूब समझती थी ,उसकी कई सहेलियों को इसी तरह भेजा गया था जो रोती हुई गईं थीं|कहा जाता था कि साल-दो साल में वे वापिस बुला ली जाएंगी पर उसने उनके द्वारा पैसे तो आते देखे थे ,उन्हें वापिस आते नहीं देखा था |वह छोटी सी थी जब पड़ौस की सुखी को ऐसे ही किसीके साथ बेटी बनाकर भेजा गया था |सुखी बेचारी रोती -बिलखती रही पर उसकी किसी ने न सुनी थी | पाँचेक साल में तो सुखी की सौतेली माँ की सारी देह सोने से पीली हो गई थी,कच्चा घर पक्का बन गया था और सुखी का बाप अपनी जवान बीबी को नई मोटर-साइकिल पर घुमाता फिरता था|सो वह बाहर जाने का मतलब बखूबी समझने लगी थी |

कमली को ब्याह के बाद भेजा गया ,उसकी गोदी से नन्ही सी बच्ची को छीनकर! जब उसके निकलने का समय हुआ ,उसकी सास उस पर आशीषों के फूलों की बरसा कर रही थी जिसकी गोदी में उसकी फूल सी बच्ची बिलख रही थी |शायद वह भी अपनी माँ से जुदाई की बेला को समझ रही थी लेकिन उसकी कातर निगाहों से छिपने के लिए उसका मरद न जाने कहाँ छिप गया था |उसे नहीं मालूम किन कागद-पत्तर के सहारे वह यहाँ पहुंची थी? उसके मन में बार-बार ये प्रश्न कुलबुलाते रहते थे ,वह तो अपने पति की सगी बीबी थी फिर उसके पति ने अपने घरवालों का विरोध क्यों नहीं किया? उसकी नन्ही सी गुड़िया को उससे छीनकर उसे यहाँ गोरों-कालों के बीच भेज दिया गया |

’सच ही पैसे की कोई न तो संवेदना होती है और न ही कोई जात’ वह तड़प-तड़पकर लंबी , ठंडी आहें भरती हुई सोचती रहती |

कुछ महीनों तक तो जिनके साथ आई थी उनके यहाँ उदास पर खाती-पीती सी रही, जीने के लिए पेट तो मरा भरना ही पड़ता है | उसे अपने साथ लाने वाला काला ,तोंदिया मगन लाला यानि वहाँ का ‘मि.मैग’ ने जब एक दिन उसे ठीक से भरपूर नज़र से देखा उसकी ज़ुबान से लार टपकने लगी .

‘यार! ये तो चीज़ है ‘उसने उसे भरपूर घूरना शुरू कर दिया और मौका देखते ही वह उसे दबोचने लगा |

कमली की छातियों का दूध सूखने लगा था, उसे लगता उसकी नन्ही सी बेटी उससे अपना न्याय मांग रही है और वह बार-बार सुबकने लगती | इस भरे-पूरे देश में उसका कोई न था,किसीको नहीं जानती थी वह ,किसीसे बात करने की आज्ञा भी नही थी उसे |लंबे-चौड़े घर में बस सफ़ाईयाँ करती,चीजों को काँच की तरह चमकाकर रखती ,लज्ज़त भरा खाना बनाकर तैयार करती|

हाँ,मेज़ लगानी उसे सिखा दी गई थी ,वह दिन में कई बार मेज़ लगाती और स्वादिष्ट खाना सुन्दरता से परोसती|बचा हुआ स्वादिष्ट खाना खाने के लिए उसे आज्ञा दी जाती लेकिन कितनी आड़ी-तिरछी नलियाँ थीं उसके गले में ,न जाने कहाँ फँसता-फँसाता उतरता था उसके गले से वह खाना ! उसे लगता वह खाना नहीं एक सैलाब अपने मुह में ठूंसती है हर बार |वह रोती हुई कौर निगलती हुई अपनी बच्ची के बार में सोचती रहती |

‘क्या बकवास चीज है ये भूख भी !न जाने उसकी नन्ही सी कुड़ी ने दूध पीया भी होगा या नहीं?‘

उसे अपने साथ लाकर उस पर कृपा बरसाने वाले उसके मालिक के तीन मुस्टंडे से बेटे भी तो थे और वह उनकी खरीदी हुई लौंडी | वह ठहरी उनके खूबसूरत खेत का रससिक्त गन्ना ! जिसे जो चाहता वही चूसकर एक ओर फेंक देता |कभी कोई उसको चूसने आ जाता तो कभी कोई,बेरोकटोक उसके जिस्म को नोचा जा सकता था |कमाल था ! बाप,बेटे एक-दूसरे की हरकतों से वाकिफ़ थे पर किसीको को किसी से कोई गिला-शिकवा ही नहीं|खाने की मेज़ पर ऐसे ठठाकर हँसते कि उसकी आँखें शर्मसार हो जातीं|घर की मालकिन और उनकी मुटल्लो माँ को अपने शौकों से और खर्राटे लेने से ही से फुर्सत नहीं मिलती थी|वह कभी पति की बाहों में बाहें डाले किसी क्लब में डांस करने जाती तो कभी स्वीमिंग पूल में तैरने, आकर अपने आलीशान गुदगुदे बिस्तर पर पसर जाती |चटोरी बीबी चॉकलेट खाने की बेहद शौकीन थी इसीलिए इतने तैरने,नाचने के बावजूद उसका मुटापा बढ़ता ही जाता |उसके आने से पहले यह घर कैसे चलता होगा ?उसे नहीं पता लेकिन उसने अपने आने के बाद तो यही सब देखा था |तोंदिया मंगल उसे कनखियों से देखता हुआ अपनी गोल-मटोल बीबी को कुछ अधिक ही अपने पास चिपकाने लगता जैसे न जाने उससे कितनी मुहब्बत करता हो| इसका कारण था बीबी के पिता की दौलत जिसे वह किसी भी कीमत पर गँवा नहीं सकता था ,वह भारत से अपने श्वसुर के द्वारा ही तो लाया गया था |वैसे आज की मुहब्बत की परिभाषा में तो शायद वह खरा ही उतरता था ,बीबी के आदेश पर शत-प्रतिशत अमल करने वाला !

कुछेक महीनों में वह तन व मन दोनों से टूट चुकी थी ,अब उसे वहाँ से छुट्टी पानी थी|एक दिन मौका मिल ही गया और वह मैगी के किसी और पंजाबी पड़ौसी के साथ भाग खड़ी हुई जिसकी नज़र उस पर तो थी ही ,उसे इस बात की बेहद ईर्ष्या भी थी कि आखिर पड़ौसी घर में जवान,सुन्दर नौकरानी कैसे है?

उसका वीज़ा खतम हो चुका था,थोड़े-बहुत हाथ-पैर मारने के अलावा उसका पुराना खरीदार कुछ करने के हालात में था भी नहीं|ज़रूर वह अपना सिर धुनकर चुपचाप बैठ गया होगा |पता नहीं उसकी पूरी कवायद और पूरे पैसे भी वसूल हुए होंगे कि नहीं जो उसने उसे यहाँ तक लाने में की थी |

अब जो उसे लेकर भागा था उसने प्याज़ बीनने का ठेका ले रखा था |एक बड़े से फार्म में प्याज़ लाकर रखी जाती, वहाँ बहुत से मज़दूर प्याज़ थैलों में भरते और फिर उन थैलों को टैम्पो में भर देते|दिन भर में जितने घंटे की मज़दूरी करते,उतने पौंड उन्हें मिल जाते|वहाँ बहुत से गोरे,काले,साँवले मज़दूर होते| उसे भगाकर ले जाने वाले आदमी ने किसी तरह उस प्याज़ के फार्म में उसे सिर छिपाने की जगह दिलवा दी और बदले में निर्लज्जता से अपनी नंगी हबस मिटाता रहा |हाँ,पैसे उसे समय पर बिना किसी परेशानी के मिल जाते, वह उन पैसों को अपने गाँव भी लगातार भिजवाती रही,आखिर उसकी दुधमुही बच्ची थी जो उसकी अनुपस्थिति में बड़ी होती जा रही होगी |वह अपने शरीर को मसले जाने के समय भी सपने देखती जिसमें वह अपनी बच्ची को बढ़ते हुए देखती|एक दिन उसके सपने बंद हो गए, उसे भगाने वाले मालिक की बीबी से किसीने चुगली लगा दी और वह गाड़ी उठाकर लगभग सौइयों मील दूर उस फ़ार्म पर आ धमकी जहाँ उस समय वह अपने शरीर की अर्ज पूरी कर रहा था |बीबी ने उसकी जो कुटाई की कि शरीर पिसने की थर्राहट से सुबकती नग्न कमली की थरथराहट से पूरा फार्म काँप उठा |स्वाभाविक था अब उसे वहाँ से भी निकाला जाना ही था |

अनपढ़ औरत कमली बामुश्किल लोगों के छोटे-मोटे काम करते हुए यहाँ-वहाँ छिपकर रहती रही |कोई हिन्दुस्तानी मिल जाता तो अपना दुखड़ा सुनाकर उसकी थोड़ी सी सहानुभूति पा लेती पर यह सब कब तक चलता?ज़िंदगी के उन एकाकी पलों में उसके कितने ही खरीदार हुए जिनको उसने अपना शरीर बेचा |कभी ज़रुरत के हिसाब से तो कभी बिना ज़रुरत के ही|जो कोई उसे काम देता वह उससे कसकर काम लेता,अहसान के कोड़े लगाता वो अलग !वह इतना ऊब गई थी कि वहाँ से भी पैदल चलते हुए न जाने किस दूसरे शहर में निकल आई | कुछ दिनों से तो वह अपनी बच्ची के लिए पैसे भी नहीं भेज पा रही थी .कहाँ से भेजती?अब कोई उसके शरीर का मालिक या कोई रखवाला ही नहीं था |उसके पास दो जोड़ी कपड़ों के अलावा और कुछ न था | इसी शहर में उसे नीता टकरा गई जिसकी बदौलत रो-धोकर उसे कहीं न कहीं काम मिलता रहा|पहले तो नीता ने ही कुछ दिन उसे खाना-पानी दिया,उसके घर के बाहर पीछे की ओर झाड़-झंखाड़ भरे स्थान पर एक स्टोर बना हुआ था उसमें सुलाया लेकिन फिर सामने वाले अंग्रेज़ परिवार की वह बदमिजाज़ लड़की जेडी जो पहले से ही नीता के बच्चों के पीछे पड़ी हुई थी उसने इस अजनबी को देखकर उसे तंग करना शुरू कर दिया| कभी चुपचाप रात में गेट खोलकर अपनी पालतू सुनहरी खूबसूरत पर बदबूदार बिल्ली उस स्टोर की खिड़की में से उस पर छोड़ जाती|जून के महीने में खिड़की खोलकर रखनी पड़ती थी वही खिड़की जेडी की बिल्ली के आवागमन का द्वार बन गई थी|नीता ने उसे पास के ‘कार्नर-स्टोर’ पर काम पर रखवा दिया था |अपने पहने हुए काफ़ी कपड़े भी नीता ने उसको दे दिए |अपने कमाए हुए पैसों से कभी वह डबलरोटी ले आती तो कभी कुछ भी बना-बनाया खाना ! समयानुसार थोड़ा-बहुत नीता देती रहती|

अब अपने खाने-पीने से फिर वह कुछ बचाने लगी थी और नीता को उसने अपने एक पुराने दुपट्टे की गाँठ खोलकर तुड़ा-मुड़ा सा एक कागज़ का टुकड़ा पकड़ा दिया था जिसे उसने जब से यहाँ आई थी तबसे बहुत संभालकर उस दुपट्टे के कोने में बांधकर अपने थैले के एक कोने में ठूंसकर रखा हुआ था जिसे वह कभी पहनती ही नहीं थी जिस पर उसके पति और गाँव का नाम व पता लिखा हुआ था |नीता के माध्यम से फिर वह थोड़े-बहुत पैसे घर भेजने लगी थी |

जेड उसे बहुत परेशान करती ,कभी काम पर जाते हुए सड़क पर साइकिल चलाकर उसके पैरों के ठीक बीच में ठोक देती और उसके गिर पड़ने पर अपने ब्वाय-फ्रैंड के साथ दांत फाड़कर हंसती |नीता ने एक-दो बार कोशिश की लेकिन वह और उसका परिवार स्वाभाविक था ‘इन्क्वारी’ से घबराते थे | उसने कमली से माफी मांग ली और उसके पति ने उसे किसी बड़े बिल्डर के घर भेज दिया जिसका कोई न कोई काम चलता ही रहता था |अब वह कभी किसी बनते हुए मकान में पड़ी रहती ,कभी टनल में पड़ जाती|कुछ दिन बाद वह बिल्डर उसे अपने घर ले गया,उसकी पत्नी अपने बेटे के लिए लडकी ढूँढने भारत गई हुई थी सो इन बिल्डर साहब को भी एक शरीर की ज़रुरत महसूस हुई |वह कई बार उसके आगे अपनी बात रख चुका था|कमली अब अपने शरीर से बेहद बेहद थक चुकी थी,उसने अपने शरीर को अब एक गोरी मिट्टी का लौंदा मान लिया था जो सबको आसानी से मिल सकता था|बिल्डर की बीबी खाली हाथ ही भारत से लौटकर आ गई उसे अपनी इच्छानुसार कोई ऎसी लड़की नहीं मिल सकी जो बेटे की बीबी तो बनती,साथ ही घर भर की सेवा भी करती |बिल्डर ने कमली को बीबी की सेवा में पेश कर दिया |घर के कामों से छुट्टी पाने की हसरत में बिल्डर की बीबी बड़ी खुश हो गई थी और कमली के सामने ही उसने अपने पति के होठों को इतना भींचकर चूम लिया था कि कमली पानी-पानी हो उठी थी|

बिल्डर का मकसद तो कुछ और ही था ,कमली गोरी-चिट्टी मजबूत कद-काठी की औरत थी ,ज़रा सा विदेशी साबुन से नहाने और रेशमी गाऊन लपेटने के बाद नशे में और डिम-लाईट में होश ही किसको रहता , क्या पता चलता था नौकरानी का बदन है या महारानी का ? यहाँ भी बहुत बड़ा घर था और न जाने कितने कमरे ! एक कोने में माँ-बाप का तो दूसरे कोने में बेटे का कमरा जो हर रात किसी न किसी गोरी चमड़ी को लेकर आता था और सबको पता होने के बावजूद किसी को कुछ पता नहीं होता था |अब इतने बड़े घर को झाड़ते-बुहारते बिल्डर की आरामपसंद बीबी खीजने लगी थी,कमली को देखकर उसे कुछ राहत ही मिली थी |बीबी के पीछे कॉन्ट्रेक्टर साहब का काम चल निकला था.बीबी वापिस आई तो कमली रानी का फिर से वही हाल!अब कॉन्ट्रेक्टर साहब पहले की तरह घर से बाहर ज्यादा रहते लेकिन अब उनका इस गंवार कमली से मन भर गया था | वैसे उसकी बीबी के दादा को मजदूरी करने यहाँ लाया गया था ,बाद में वह यहीं जम गए थे सो तीन पीढ़ियों की मिल्कियत उसके श्वसुर की इकलौती बिटिया के हाथ में थी जो अपरोक्ष रूप से बिल्डर और उसके बेटे की ही तो थी|एक दिन बिल्डर को रंगरेलियां मानते हुए यहाँ भी पकड़ा गया| सब जगह तो वही कुसूरवार थी बेशक उसके शरीर को भोगने वाले अलग-अलग थे लेकिन शरीर तो उसका ही था|

अब वह फिर से छत और काम की तलाश में थी और इस बार उसे एक बिन ब्याहा ‘भलमानुस’ मिल गया जिसने अपनी भलमनसाहत या अपने स्वार्थ के वश न जाने कैसे उसके ‘सिटिज़न’ होने के प्रयास करवाने शुरू कर दिए थे | इन लंबे वर्षों में यहाँ की शीत, धूप,वर्षा,गालियाँ.प्रताड़ना झेलते हुए वह दिन में भी तारे गिनने की आदी हो चुकी थी| शायद भूल भी गई हो कि उसकी एक बच्ची भी थी जिसका माँ का दूध तक नहीं छूटा था जब उसे यहाँ खदेड़ दिया गया था|वह अपने भीतर एक झंझावात लिए घूमती रही थी .किसी ‘कॉर्नर-शॉप’ पर काँच साफ़ कर लिए तो किसी के घर के बगीचे की घास काट दी |किसीके लिए कुछ खरीदारी कर लाई तो किसी के ‘टायलेट’ साफ़ कर दिए | रात में जहाँ कोई कोना मिला वहाँ छिपकर पड़ गई तो कभी किसी के गैराज के कोने में सिकुड़कर पड़ी रही |

“आओ त्वानू अपनी दीदी से मिलवाऊं---” नीता अपनी पंजाबी की टांग तोड़ने से बाज़ नहीं आती थी.

“हाँ जी ,दीदीजी कैसे ही तुस्सी ” कहते हुए वह औरत गाड़ी की ओर बढ़ी तो मनु दरवाज़ा खोलकर बाहर आ गई |

“त्वाडे आशीर्वाद से मैं यहाँ पक्की हो गईंयां ,मेरे ये अब इत्थे आ जाणगे,पेपर जमा कराण वास्ते कोशिश कर रईयाँ ” औरत ने झुककर मनु के पैरों को पकड़ लिया |

“अरे ! क्या कर रही हैं ?” मनु एक झटके से पीछे होने लगी पर औरत ने तो उसके पाँव छोड़े ही नहीं |

“मैनू पताए तुस्सी बरामन हो ,जी आपका अशीर्वाद चहिये जी बस ---“ मनु पशोपेश की स्थिति में आ गई थी |

मनु का मन भारी हो आया ,वह समझ गई नीता ने दो दिन पहले जिस औरत की कहानी उसे उदाहरण देते हुए सुनाई थी वह यही औरत थी |चर्चा इस बात पर चल रही थी कि यहाँ आने के लिए लोग कुछ भी करने को तैयार रहते हैं और नीता ने इसका उदाहरण देकर बताया था कि यद्धपि उस औरत का न तो कोई लालच था ,न ही कोई कसूर फिर भी किसीका तो कोई लालच था ही जो उसे निचोड़कर पूरा किया जा रहा था |कितने शरीरों से कुचले जाने के बावजूद भी कमली अपने संतोखसिंह को नहीं भूल पाई थी|अब जबसे उसे यहाँ पर रहने का ठप्पा लगने के आसार लगने लगे थे उसने फिर से रात-दिन काम करके पैसे इक्कठे करने शुरू कर दिए थे|उसे लगता उसके शरीर की आग तो जल-जलकर बुझती रही है पर उसका संतोख कैसे रहता होगा उसके बिना ?और उसकी आँखों में आँसू झिलमिलाने लगते,पता नहीं उसे पहचानेगा भी कि नहीं? अब फिर से उसे अपनी दुधमुही बच्ची की याद सताने लगी थी|

वह सोच-सोचकर स्वयं को पीड़ा देती रहती .एक कचोट सी उसके भीतर जहाँ-तहाँ उभरती रहती जिसे वह चुपचाप उस गैराजनुमा घर की किसी अलंगनी पर टांग देती जिसमें आजकल उसे शरण मिली हुई थी लेकिन इससे पीड़ा समाप्त हो जाती है क्या ? हर बार जैसे ही अलंगनी पर दृष्टि पड़ती ,पीड़ा में से टीस उभरने लगती ,शब्द गुड़गुड़ करते हुए पेट में से होते हुए मुख के द्वार तक पहुँचने को बेताब हो जाते लेकिन कुछ क्षणों बाद ही फिर से टीस का सैलाब बैठने लगता|

इस भलामानुस प्रौढ़ को उस पर बेशक कुछ मिलने की आस में दया आई पर आई तो, जिसने उसे न केवल अपने पास रखा बल्कि न जाने कैसे उसे पक्का भी कराने की कोशिश में लगा रहा | उसने ब्याह नहीं किया था और न जाने कितने बरसों तक वह भी इसकी स्थिति से गुज़र चुका था| कमली के मन व देह में फुलझड़ियाँ छूटने लगीं |अट्ठारह वर्षों में उसकी जवानी गलने लगी थी ,देह में कोई भूख न थी ,मन की भूख तीव्रता से उसे अपने संतोखे के पास ले जाती|फिर से उसे अपनी दुधमुही बिटिया याद आने लगी थी|कमली ने कंपकंपाते हाथों से उस भलेमानुस को वही दुपट्टे के कोने में बंधा तुड़ा-मुड़ा अपना पता लिखा कागज़ पकड़ा दिया था और उसके गाँव चिठ्ठी पहुँच गई थी |अब कमली का घरवाला उसके पास आ सकता था|वह उस भलेमानुस प्रौढ़ के चरणों में लोट गई जो हर रात न जाने कितनी बार उसका शरीर नोचता था और सिसकी बेशर्म शर्त थी कि वह अपने आदमी के आने के बाद भी उसकी ज़रुरत पूरी करेगी | जिसके लिए कमली ने हामी भर दी थी,उसे अपने लुटे-पिटे शरीर से कोई मोह तो रह नहीं गया था,बस आत्मा ही थी जो भीगती रहती थी हर पल|’अपना’ आ तो जाएगा इस मरे परदेस में ,कैसे काटे हैं इत्ते बरस उसने ! उसकी बुझी हुई आँखों में चमक भरने लगी थी |

अब हर माह उस भलेमानुस ने कमली के गाँव में पैसे भेजने वाले कागज़ पर अपना पता लिखना शुरू कर दिया था,शायद उसे कमली के छिन जाने का भय नहीं रहा था,उसे लगता कमली उसकी मुट्ठी में कैद थी |एक दिन उस भलेमानुस के पते पर एक चिट्ठी आई जिससे पता चला कि गाँव में उसके घर टेलीफोन लग गया है|छिट्ठी में नं लिखा था, कमली को हुकुम दिया गया था कि जैसे भी हो वह इस नं पर बात करे|

भलेमानुस ने उसे चिट्ठी पढ़कर सुनाई और उसके घर का नं भी लगाकर दिया| कमली का मन भीग उठा ,ह्रदय की धड़कनें अपने प्रिय की आवाज़ सुनने के लिए व्याकुल होने लगीं ,उसके हाथों में टेलीफोन का चौंगा थरथरा रहा था|

“इंटरनेश्नल कॉल है ,कर न बात -----पैसे लगते हैं ,मुफत में नहीं मिलती कोई चीज़ !” भलेमानुस ने उसे घुड़का तो उसकी आँखों से बड़े-बड़े आँसू टपकने लगे |उससे अधिक भला और कौन जानता होगा कि कोई चीज़ कैसे मिलती है ?

बड़ी मुश्किल से उसने अपने आँसुओं पर काबू पाया ;

“हानजी मैं बोल रईयाँ -----” कमली ने धड़कते हुए मन को संभालकर कहा |

“हाँ---होर कोण बोलेगा ,कदी पेज रइए कागद-पत्तर----?”

उसके हाथ से चोंगा छूटने को हो आया ,जिसके लिए वह तड़पती रही थी वह उसके बस कागज़-पत्तर की राह देख रहा था|सन्तोखा उधर से बोले जा रहा था लेकिन यह जवाब देने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी,उसकी आँखों में भरे हुए आँसू मानो मुख में भरकर रह गए थे |अंत में उधर से कुछ ऎसी बात कही गई कि कमली ने फोन का चौंगा पटक दिया और दहाड़ मारकर रोने लगी|भलेमानुस ने उससे कुछ पूछा नहीं केवल उसे सहलाता रहा,शायद वह बिन बताए ही बात समझ रहा था|वह बिलकुल एक छोटी बच्ची की भांति सुबकने लगी थी और अपने दयानिधान की गोदी में सिमटी पड़ी रही थी|

कई दिनों तक वह कहीं नहीं गई शायद स्वयं को तैयार करती रही|फिर एक दिन नीता के पास आई और उसके आगे अपने आपको हल्का करते हुए उसने बताया कि वह अपने पति को नहीं अपनी बेटी को बुलाएगी|

“क्यों?” नीता आश्चर्यचकित थी |जिस पति से आत्मिक मिलन के लिए वह तड़प रही थी, अचानक ऐसा क्या हुआ कि उसका मखमली विचार टाट बन गया ?वह सोच नहीं पा रही थी|

कमली ने मनु की भी शरम नहीं की और आग उगलती आँखों से मनु के सामने कई प्रश्न परोस दिए |उसने जो कुछ बताया उसका सार कुछ इस तरह से था कि उसके पति ने उसे बताया कि वह अपने पड़ौस की रानो से हिलमिल कर अपनी सब ज़रूरतें पूरी करता रहा है ,उसने ही उसकी बेटी को पाल-पोसकर बड़ा कर दिया था|रानो गाँव में बदनाम थी और उसके मर्द ने उसे छोड़ दिया था इसीलिए वह मैके में पड़ी थी|सन्तोखे से लगभग बीस साल बड़ी थी रानो |जब कमली ने आश्चर्य व्यक्त किया कि अपनी बेटी को उसने कैसे रानो के हाथों में सौंप दिया? तब सन्तोखे ने कहकहा लगाया था और भद्दे शब्दों में कहा था कि आखिर वो वहाँ कौनसी दूध से धुली बैठी होगी और बेटी का क्या ? उसे भी तो आगे जाकर वही कुछ करना है !उसने उसे पुतर तो जनम के दिया नहीं जो ऐश करता ! कमली कीआँखों में काले बादल उमड़ आए ,उसने क्या अपने लिए अपनी बच्ची और घर को छोड़ा था? सन्तोखे ने जो घर पक्का करा लिया था,मस्ती में मौज मना रहा था क्या उसे पता था कि वह यहाँ अजनबी देश में कैसे भिखमंगों की तरह लुटती-पिटती हुई इधर से उधर डोलती रही है ?

बेटी के बारे में बताते हुए जैसे सन्तोखे की ज़बान चटकारे भर रही थी.उसकी बेटी डौली दसवीं में आ गई थी और इतनी खूबसूरत निकली थी कि किसीका भी मन उसे देखकर डावांडोल हो सकता था |अब जल्दी से वह उसके कागज़ भेजकर उसे बुला ले,उससे पहले वह उसकी कुडमाई मुखिया के बेटे से कर देगा ,ब्याह तो बाद में होता रहेगा |कमली की आँखों में दिन में तारे नाचने लगे -----

कमली की मुखमुद्रा कठोर थी और वह समझ गई थी उसका मर्द भी अपनी बच्ची के लिए कोई सहृदय पिता नहीं था |बेटी डौली भी उसके लिए पैसे छपने की मशीन ही थी तभी तो यह जानते हुए भी कि उसके ब्याह के बाद मुखिया ने उसकी बीबी के साथ कैसी बदतमीजी कि थी वह अपनी बेटी के ब्याह की बात उसी मुखिया के बेटे से कर रहा था|

कमली ने मनु से अपनी मुड़ी-तुड़ी भाषा में कहा था कि वह अब सन्तोखे के नहीं अपनी बिटिया के कागज़ तैयार करवाएगी,वह उसे अपने पास बुलाएगी न कि सन्तोखे को|उसने जैसे इतने बरस यहाँ निकाले हैं वैसे ही और भी निकल जाएंगे|वह अपने ब्याह की पूरी कीमत मर-मरकर पैसे भेजकर चुका चुकी है|उस भलेमानुस बूढ़े के साथ वह तो जैसे-तैसे रह लेगी पर अपनी बिटिया का भविष्य सुरक्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी|सन्तोखे ने उसे अपनी बिटिया से बात तक नहीं करने दी थी|

“ दीदी !तुस्सी ते बरामन हो ,तुस्सी अशीर्वाद दो न मेरे कुड़ी नु---” उसने पहले की भांति मनु के पैर पकड़ लिए थे और मनु भौंचक हो अपने ब्राह्मण होने के बारे में सोचने लगी थी| कमली का मन एक ‘बरामन’ के ‘अशीर्वाद’ के लिए व्यग्र था और मनु के मन में विचारों का सैलाब उत्पात बनकर खलबली मचा रहा था |

संबंधों की नाव में इतने छेद हो चुके थे कि अब नाव टूटने में ही भलाई थी वरना वह किसी और बेबस को ले डूबती|मनु के पास कमली की बात का कोई उत्तर न था और कमली मुह बाए उससे उत्तर पाने की प्रतीक्षा में बेचैन हो रही थी|पाप-पुण्य,सही-गलत, अच्छाई-बुराई सब उसके सामने एक पलड़े में लटके हुए डोल रहे थे लेकिन उसका मन पत्थर का हो चुका था---एक ऐसा पत्थर जिसका टूटना अब असंभव था |

लेखिका ; डॉ.प्रणव भारती

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